पहाड़ी भाषाएँ (हिमालय की बोलियाँ) हिमालय पर्वतशृंखलाओं के दक्षिणवर्ती भूभाग में कश्मीर के पूर्व से लेकर नेपाल तक पहाड़ी भाषाएँ बोली जाती हैं। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण करते समय पहाड़ी भाषाओं का एक स्वतंत्र समुदाय माना है। चैटर्जी ने इन्हें पैशाची, दरद अथवा खस प्राकृत पर आधारित मानकर मध्यका मे इनपर राजस्थान की प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का प्रभाव घोषित किया है। एक नवीन मत के अनुसार कम से कम मध्य पहाड़ी भाषाओं का उद्गम शौरसेनी प्राकृत है, जो राजस्थानी का मूल भी है।

पहाड़ी भाषाओं के शब्दसमूह, ध्वनिसमूह, व्याकरण आदि पर अनेक जातीय स्तरों की छाप पड़ी है। यक्ष, किन्नर, किरात, नाग, खस, शक, आर्य आदि विभिन्न जातियों की भाषागत विशेषताएँ प्रयत्न करने पर खोजी जा सकती हैं जिनमें अब यहाँ आर्य-आर्येतर तत्व परस्पर घुल मिल गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा विदित होता है। कि प्राचीन काल में इनका कुछ पृथक् स्वरूप अधिकांश मौखिक था। मध्यकाल में यह भूभाग राजस्थानी भाषा भाषियों के अधिक संपर्क में आया और आधुनिक काल में आवागमन की सुविधा के कारण हिंदी भाषाई तत्व यहाँ प्रवेश करते जा रहे हैं। पहाड़ी भाषाओं का व्यवहार एक प्रकार से घरेलू बोलचाल, पत्रव्यवहार आदि तक ही सीमित हो चला है।

पहाड़ी भाषाओं में दरद भाषाओं की कुछ ध्वन्यात्मक विशेषताएँ मिलती हैं जैसे घोष महाप्राण के स्थान पर अघोष अल्पप्राण ध्वनि हो जाना। पश्चिमी तथा मध्य पहाड़ी प्रदेश का नाम प्राचीन काल में संपादलक्ष था। यहाँ मध्यकाल में गुर्जरों एवं अन्य राजपूत लोगों का आवागमन होता रहा जिसका मुख्य कारण मुसलमानी आक्रमण था। अत: स्थानीय भाषाप्रयोगों में जो अधिकांश 'न' के स्थान पर 'ण' तथा अकारांत शब्दों की ओकारांत प्रवृत्ति लक्षित होती है, वह राजस्थानी प्रभाव का द्योतक है। पूर्वी हिंदी को भी एकाधिक प्रवृत्तियाँ मध्य पहाड़ी भाषाओं में विद्यमान हैं क्योंकि यहाँ का कत्यूर राजवंश सूर्यवंशी अयोध्या नरेशों से संबंध रखता था। इस आधार पर पहाड़ी भाषाओं का संबंध अर्ध-मागधी-क्षेत्र के साथ भी स्पष्ट हो जाता है।

इनके वर्तमान स्वरूप पर विचार करते हुए दो तत्व मुख्यत: सामने आते हैं। एक तो यह कि पहाड़ी भाषाओं की एकाधिक विशेषता इन्हें हिंदी भाषा से भिन्न करती हैं। दूसरे कुछ तत्व दोनों के समान हैं। कहीं तो हिंदी शब्द स्थानीय शब्दों के साथ वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त होते हैं और कहीं हिंदी शब्द ही स्थानीय शब्दों का स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। खड़ी बोली के माध्यम से कुछ विदेशी शब्द, जैसे 'हजामत', 'अस्पताल', 'फीता', 'सीप', 'डागदर' आदि भी चल पड़े हैं।

पहाड़ी भाषाओं के तीन भेद निर्धारित किए जा सकते हैं :

  1. पूर्वी पहाड़ी - इसे नेपाली अथवा 'खसकुरा' भी कहते हैं। 'गोरखाली' इसी के अंतर्गत है। इसमें लिखित साहित्य पर्याप्त है। (विशेष देखिए- नेपाली भाषा और साहित्य)
  2. मध्य पहाड़ी - ये कुमाऊँएवं गढ़वाल में बोली जाती हैं अत: इसी आधार पर 'कुमाउँनी' तथा 'गढ़वाली' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उत्तर प्रदेश के सात पार्वत्य जिले इनके क्षेत्र हैं और इन्हें बोलनेवालों की संख्या लगभग १६ लाख है।
  3. कुमाउँनी भाषा जिला नैनीताल, अल्मोड़ा तथा पिथौरागढ़ में प्रयुक्त होती है। इसका क्षेत्र इस समय लगभग ८००० वर्गमील में विस्तृत है तथा सन् १९५१ की जनगणना के अनुसार इसे बोलनेवालों की संख्या लगभग ५७०,००८ है। हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। इस कारण कुमाउँनी हिंदी खड़ी बोली के अत्यधिक निकट आ गई है। व्याकरण की दृष्टि से सर्वनामों में - मै, तू, हम, तुम, ऊ, ऊँ, (वह, वे) का प्रयोग चलता है। संबंध कारक बहुवचन का रूप 'उनको' न होकर 'उनर' होता है। हिंदी की भाँति कुमाउँनी में दो ही लिंग प्रयुक्त होते हैं और यह लिंगत्व केवल पुरुषत्व, स्त्रीत्व के भेद पर आधारित नहीं प्रत्युत वस्तु के आकार तथा स्वभाव पर भी निर्भर है। वचन दो हैं, तथा हिंदी की प्राय: सभी धातुएँ मिलती हैं। पदक्रम, एवं वाक्यविन्यास भी मिलता जुलता है। आरंभ में कर्ता अंत में क्रियापद रहता है। क्रियाविशेषण भी हिंदी की भाँति क्रिया के पूर्व आता है।

    फिर भी कुमाउँनी में कुछ ध्वनियाँ खड़ी बोली हिंदी की अपेक्षा विशिष्ट हैं। स्वरों की दृष्टि से ्ह्रस्व 'आ', ्ह्रस्व 'ए', ्ह्रस्व 'ऐ', ्ह्रस्व 'ओ' तथा ह्वस्व 'औ' ध्वनियाँ देखी जा सकती हैं। इस भेद से शब्दार्थों का अंतर हो गया है। जैसे, 'काँव' (्ह्रस्व आ) शब्द का कुमाउँनी में अर्थ हैं - 'काला' और 'काव' (दीर्घ आ) शब्द का अर्थ होता है 'काल' - अर्थात् मृत्यु। व्यंजनों में विशेष 'न' तथा विशेष 'ल' की उपलब्धि होती है। 'कांन' (काँटा), 'भांन' (बर्तन) जैसे शब्दों में विशिष्ट 'न' ध्वनि है जिसका उच्चारण कुछ तालव्य की ओर झुका हुआ है। विशेष 'ल' वर्ण गंगोली तथा काली कुमाऊँकी बोलियों में प्राप्त होती है। कुमाउँनी की आठ बोलियाँ हैं - (१) खसरजिया, (२) कुमय्याँ, (३) पछाईं, (४) दनपुरिया, (५) सोरमाली, (६) शीराली, (७) गंगोला, (८) भोटिया। कुमाउँनी भाषा की लिपि देवनागरी है। इसका मौखिक साहित्य बड़ा समृद्ध है, यद्यपि लिखित साहित्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं।

    गढ़वाली भाषा में अभी प्राचीन तत्व कुमाउँनी की अपेक्षा सुरक्षित हैं। इसका व्यवहार जिला गढ़वाल, टेहरी, चमोली, तथा उत्तर काशी में होता है। यह क्षेत्र लगभग १०,००० वर्गमील है तथा गढ़वाली भाषा भाषियों की संख्या लगभग १० लाख। यहाँ भौगोलिक कारणों से आवागमन की कठिनाइयाँ हैं। इसलिए पहाड़ियो के दोनों ओर रहनेवालों अथवा एक ही नदी के आरपार रहनेवालों के भाषागत प्रयोगों में विशेषताएँ उभर आई हैं। उत्तर की बोलियों में तिब्बती, तथा पूर्व की ओर कुमाउँनी प्रभाव स्पष्ट होता गया है क्योंकि इन क्षेत्रों की सीमाएँ मिली हुई हैं। राजपूत जातियों का निवास होने के कारण गढ़वाली पर नाजस्थानी प्रभाव तो है ही, इसके दक्षिण-पश्चिम की ओर खड़ी बोली भी अपना प्रभाव डालती जा रही है।

    गढ़वाली भाषा की कुछ विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं। इसका झुकाव दीर्घत्व की ओर है अत: स्वरों में ए, ऐ, ओ, औ, की ध्वनियाँ, जिनका दीर्घ रूप प्रधान है, अधिक प्रयुक्त होती हैं। अनुनासिकता की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत कम हैं। कुछ ऐसे शब्द मिलते हैं जो प्राचीन भाषाओं से चले आए हैं जैसे 'मुख' के अर्थ में 'गिच्चो' शब्द। संभव है इनमें अनेक प्राप्त शब्द प्राचीनतम जातियों के अवशेष हों। व्याकरण की दृष्टि से गढ़वाली में एक दंताग्र 'ल' ध्वनि पाई जाती है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। क्रिया रूपों में धातु के अंतिम 'अ' का लोप करके 'ओ' या 'अवा' जोड़ा जाता है, जैसे दौड़ना। लिंगभेद भी प्रय: नियमित नहीं। वस्तुओं की लघुता, गुरुता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। अनेक शब्दों के एकवचन, बहुवचन रूप समान चलते हैं। उच्चारण में मूर्धन्य 'ल' और 'ण' की विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं। स्थानभेद से गढ़वाली की नौ प्रमुख बोलियाँ हैं - (१) श्रीनगरिय, (२) सलाणी, (३) मंझकुमइयाँ, (४) गंगवारिय, (५) बधाणी, (६) राठी, (७) दसौलिया, (८) लोभिया, और (९) रर्वाल्टी। इनमें उच्चारण का ही मुख्य अंतर प्रतीत होता है। गढ़वाली भाषा का भी मौखिक साहित्य महत्व रखता है।

  4. पश्चिमी पहाड़ी - यह पहाड़ी भाषाओं का तीसरा भेद है। वस्तुत: यह अनेक बोलियों का सामूहिक नाम है। ये बोलियाँ जोनसार बावर, शिमला, उत्तर-पूर्वी-सीमांत पंजाब, कुल्लू घाटी, चंबा आदि स्थानों में बोली जाती हैं। इन सभी बोलियों का साहित्य लिखित रूप में प्राप्त नहीं, इस कारण भाषा वैज्ञानिक खोज बहुत कम हो पाई है। अभी तक जो बोलियाँ इसके अंतर्गत निश्चित की जा सकी हैं, उनका क्षेत्रविस्तार लगभग १४ हजार वर्गमील का है तथा बालनेवाले प्राय: १६ लाख हैं। इनमें मुख्य हैं - (१) सिरमौरी, (२) जौनसारी, (३) कुलुई, (४) चंपाली, (५) आंडियाली, और (६) भद्रवाही, आदि। इन बोलियों में अधिकांश लोकगीत और कथाएँ विशेष प्रचलित हैं। कुलुई तथा चंबाली पर इधर कुछ कार्य हुआ है।

कुलुई का क्षेत्र, बहुत संभव है, प्राचीन कुणिंद जल का क्षेत्र रहा हो जिसने यहाँ राज्य किया था। इस समय यह बोली कुल्लू घाटी से लेकर हिमाचल प्रदेश के महासू जिले तक बोली जाती है। चंपाली अपने स्वरमाधुर्य के लिए उल्लेखनीय है तथा स्थानभेद से इसके भी 'भट्याली', 'चुराही', आदि रूपांतर मिलते हैं। मांडियाली सुकेत में बोली जाती है जबकि बधाटी सोलन की ओर। शिमला के चतुर्दिक् क्यूथली का व्यवहार होता है। पहले पश्चिमी पहाड़ी की ये सभी बोलियाँ टक्करी लिपि में लिखी जाती थीं किंतु अब देवनागरी का प्रयोग होता है।

सं.ग्रं.- ग्रियर्मन : लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया - वा. १; दि कुलू डाइलेक्ट ऑव हिंदी; ए.एच. डायक : ए वाकबुलरी ऑव कनावर लैंग्वेज; ऐ.जेरार्ड; रा. सांकृत्यायन : किन्नर देश; हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, - षोडश भाग, ना.प्र.सभा;

(त्रिलोचन पांडेय)