परीक्षित कुरुवंशीय सम्राट् जो अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में थे तब उत्तरा के पुकारने पर विष्णु ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी। इसलिए इनका नाम 'विष्णुरात' पड़ा। भागवत (१, १२, ३०) के अनुसार गर्भकाल में अपने रक्षक विष्णु को ढूँढ़ने के कारण उन्हें 'परीक्षित, (परिअ ईक्ष) कहा गया किंतु महाभारत (आश्व., ७०, १०) के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परिक्षित' कहलाए।
युधिष्ठिर के पश्चात् वे हस्तिनापुर के राज्यपद पर बैठे। उनके राज्य से कलियुग का आरंभ माना जाता है। परीक्षित जब राजसिंहासन पर बैठे तो महाभारत युद्ध की समाप्ति हुए कुछ ही समय हुआ था, भगवान कृष्ण उस समय परमधाम सिधार चुके थे और युधिष्ठिर को राज्य किए ३६ वर्ष हुए थे। एक बार राजा परीक्षित शिकार के लिए निकले। मार्ग में उन्हें बहुत प्यास लगी। पानी की खोज में वे शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। उन्होंने ध्यानमग्न ऋषि से जल माँगा, लेकिन ध्यान में होने के कारण उन्होंने परीक्षित की याचना नहीं सुनी। इस पर क्रुद्ध होकर परीक्षित ने एक मरा हुआ साँप ऋषि के गले में डाल दिया (महा., आदि. ३६, १७-२१)। कुछ समय बाद श्मीक ऋषि का पुत्र शृंगी अथवा गविजात वहाँ आया। उसन अपने पिता के गले में जब मरा हुआ सांप देखा तो क्रोध में आकर परीक्षित को शाप दिया कि सात दिन के अंदर तक्षक के दंश से उसकी मृत्यु होगी। ऋषिपुत्र का वचन सुनते ही परीक्षित औषधि और मंत्र तंत्र के ज्ञाताओं को साथ ले किसी सुरक्षित स्थान में जाकर बैठे, लेकिन उनकी रक्षा नहीं हो सकी। सातवें दिन तक्षक ने वहाँ प्रवेश किया और राजा परीक्षित को डँस लिया। इस समय परीक्षित की अवस्था ९६ वर्ष की थी। (ज.चं.जे.)
इनके अतिरिक्त इस नाम के चार अनय राजा और हुए हैं जिनमें तीन कुरुवंशीय थे और एक इक्ष्वाकुवंशीय। पहले तीनों में प्रथम वैदिककालीन राजा थे। इनके राज्य की समृद्धि और शांति का उल्लेख अथर्ववेद (२०. १२७, ७-१०) में हुआ है। इनकी प्रशस्ति में आए मंत्र पारिक्षित्य मंत्र, के रूप में प्रसिद्ध हैं (ऐ.ब्रा. ६, ३२, १०)। दूसरे राजा अरुग्वत् तथा मागधी अमृता के पुत्र और शंतनु के प्रपितामह थे (महा., आदि., ९०, ४३-४८)। तीसरे कुरु अविक्षित और वहिन के जेष्ठ पुत्र थे (वही, ८९/४५-४६)। चौथे परिक्षित् अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशीय नरेश थे जिनका विवाह मंडूकराज आयु की कन्या सुशोभना से इस शर्त पर हुआ कि वह जल नहीं देखेगी और दिखाई पड़ जाने पर उसे छोड़कर चली जाएगी। किंतु वह शर्त निभ न सकी और वह एक दिन सरोवर का जल देखते ही लुप्त हो गई। राजा बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने मंडूकवध का सत्र आरंभ कर दिया। अंत में मंडूकराज आयु से उसे पुन: प्राप्त करने पर वे सत्र से विरत हुए (महा.वन., १९०)।(श्याम तिवारी)