परिणामित्र (Transformer) प्रयुक्त विद्युत् के क्षेत्र में संभवत: सर्वाधिक व्यापक रूप से उपयोग में आनेवाला वैद्युत साषित्र (appliance) है। उद्योगों में दिष्ट धारा की अपेक्षा प्रत्यावर्ती धारा को जो प्रमुखता है उसका सारा श्रेय केवल परिणामित्र को है। यह ऐसा साधित्र है जो निम्नवोल्टता की उच्च धारा को उच्च वोल्टता की निम्न धारा में और उच्च वोल्टता की निम्नधारा को निम्नवोल्टता की उच्च धारा में परिणामित करता है। यह परिणामन ऊर्जा की न्यूनतम हानि से और साधित्र में बिना किसी गतिमान भाग की सहायता के संपन्न हो जाता है। १०० वोल्ट की १०,००० वाट विद्युच्छक्ति के परिणमन के लिए १०० ऐंपियर धारा आवश्यक होती है। पर १०,००० की वोल्टता पर केवल एक ऐंपियर धारा पर्याप्त होती है। अत: दूसरी स्थिति में पहली की अपेक्षा बहुत ही कम व्यासवाला और इस कारण सस्ता चालक आवश्यक होता है।
परिणामित्र का कार्यसंचालन माइकेल फैरेडे की एक अद्वितीय खोज (१८३१ ई.) पर आधारित है, जिसके अनुसार परिपथ में प्रेरित विद्युद्वाहक बल (e.m.f.), परिपथ द्वारा परिबद्ध क्षेत्र के आरपार चुंबकीय फ्लक्स (flux) के परिवर्तन की समय दर के ऋण के बराबर होता है। सरलतम रूप में परिणामित्र में दो अलग अलग कुंडलियाँ (windings) होती हैं, जिनका चुंबकीय परिपथ एक ही होता है। नीचे चित्र में परिणामित्र की मूल रचना का व्यवस्थाचित्र प्रस्तुत है।
शक्ति के प्रवाह की दिशा के अनुसार परिणामित्र के कुंडलनों का अभिनिर्धारण किया जाता है। प्राथमिक कुंडली को प्रत्यावर्ती विद्युदूर्जा के स्त्रोत से जोड़ते हैं और द्वितीयक को लोड (load) से। विद्युच्चुंबकीय प्रेरण द्वारा ऊर्जा प्राथमिक कुंडली से द्वितीयक कुंडलन में स्थानांतरित होती है। आदर्श परिणामित्र के क्रियासंचालन् की विशेषताएँ हैं : (१) कुडली में प्रतिरोध का न होना, (२) क्षरण फ्लक्स का न होना, (३) शैथिल्य (hysterisis) हानि का न होना और (४) भँवर धारा में हानि का न होना। व्यवहारत: यह आदर्श स्थिति दुष्प्राप्य है।
परिणामित्र की प्राथमिक कुंडली से जुड़ी संभरण वोल्टता चुंबकीय फ्लक्स उत्पन्न करती है, जो परिणामित्र के पटलित (laminated) क्रोड से संबद्ध होती है। परिणामित्र के प्राथमिक कुंडली से जुड़ी हुई प्रत्यावर्ती वोल्टता ईप्र (कघ्) को उच्चतम चुंबकीय फ्लक्स के घनत्व बम (ए्थ्र), पटलित क्रोड की अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल क्ष (ॠ), प्रत्यावर्ती धारा की आवृर्ती धारा की आवृत्ति आ (ढ) तथा प्राथमिक कुंडली में लपेटों को संख्या सं१ (द१) के पदों में व्यक्त किया जाता है:
ईप्रउ ४.४४ आ सं१ क्ष बगव् १०- ८ वोल्ट
(EP=4.44 f n1 A Bm� 10- 8 volts)
प्राथमिक कुंडली में प्रवाहित धारा द्वारा उत्पन्न प्रत्यावर्ती चुंबकीय फ्लक्स द्वितीयक कुंडली की लपेटों को भी संबद्ध करता है। प्राथमिक और द्वितीयक कुंडलियों में अंतर केवल लपेटों की संख्या का होता है, अत: द्वितीयक कुंडली में प्रेरित वोल्टता का प्रभावी मान
ईदउ ४.४४ आ सं२ क्ष वमव् १०- ८
(ES=4.44 f n2 A Bm� 10- 8)
इस रूप में व्यक्त किया जाता है जहाँ ईद द्वितीयक कुंडली में वोल्टता तथा सं२ (द२) द्वितीयक कुंडली में लपेटों की संख्या निरूपित करता है। इस प्रकार प्राथमिक और द्वितीयक वोल्टता का निम्नलिखित अनुपात प्राप्त होता है:
प्राथमिक कुंडली की वोल्टता को बढ़ाने के आवश्यकता पड़ने पर प्राथमिक कुंडली में लपेटों की सख्या सं१ को द्वितीयक कुंडली की लपेटों की संख्या सं२ से कम रखा जाता है। इस प्रकार के परिणामित्र को उच्चायी (step up) परिणामित्र कहते हैं और प्राथमिक कुंडली की वोल्टता यदि द्वितीयक की वोल्टता से अधिक है तो प्राथमिक कुंडली में लपेटों की संख्या सं१ द्वितीयक कुंडली की लपेटों की संख्या सं२ से बड़ी होगी। इस प्रकार के परिणामित्र को अपचायी (step down) परिणामित्र कहते हैं।
सामान्यत: परिणामित्र का स्वरूप निम्नलिखित बातों से निर्धारित होता है:
(अ) वोल्टता मूल्यांकन (Voltage ratings) - परिणामित्र की वोल्टता का मूल्यांकन उच्च और निम्न वोल्टताओं के अनुपात के रूप में व्यक्त किया जाता है, जैसे २३००/२३० वोल्ट। उच्च और निम्न वोल्टता लपेटों में से किसी को भी प्राथमिक कुंडली के रूप में उपयोग में ला सकते हैं।
(ब) किलोवोल्ट ऐंपीयर मूल्यांकन - परिणामित्र के लिए धाराओं का मूल्यांकन प्राय: नहीं किया जाता, पर इसकी गणना किलोवोल्ट ऐंपीयर मूल्यांकन से की जा सकती है।
(स) आवृत्ति मूल्यांकन।
(द) तापवृद्धि - औद्योगिक निर्माताओं द्वारा निर्मित परिणामित्रों में कुछ वर्णसंकेतों (colour codes) की व्यवस्था होती है, जिनसे निम्न वोल्टता, उच्च वोल्टता और केंद्र-टैप-लोड के निर्धारण में मदद मिलती है। परिणामित्र को किसी विशिष्ट परिपथ से जोड़ने के पूर्व इनका निर्धारण करना पड़ता है।
परिणामित्र के प्रकार - परिणामित्र सामान्यत: तीन अभिकल्पन के होते हैं : (क) क्रोडवाले, (ख) कवचवाले तथा (ग) खुले क्रोडवाले।
(क) क्रोडवाले परिणामित्र - इसका क्रोड निरंतर चुंबकीय पथ का (अनुप्रस्थ परिच्छेद में आयत या वृत्ताकार) होता है। क्रोड के विभिन्न खंडों में प्राथमिक और द्वितीयक कुंडलियाँ स्थित होती हैं। कभी-कभी प्राथमिक और द्वितीयक घटक एक आयताकार क्रोड के भिन्न भिन्न पार्श्वों पर होते हैं।
(ख) कवचवाले परिणामित्र - ये क्रोडवाले परिणामित्रों से भिन्न होते हैं। इनमें कुंडलियाँ किसी पदार्थ के केंद्रीय भाग में स्थित होती हैं और चुंबकीय परिपथ दो या अधिक पथों में पूरा होता है। शक्ति परिणामित्र क्रोड और कवच दोनों प्रकार के बनते हैं।
(ग) खुले क्रोडवाले - प्राथमिक और द्वितीयक कुंडलियाँ किसी सीधे क्रोड पर कुंडलित और संकेंद्री रूप से स्थित होती हैं। ये छोटे आकार के तैयार किए जाते हैं। इनका उपयोग कुछ टेलीफोनी उपस्करों (equipment) में होता है।
परिणामित्र की दक्षता और उसका नियंत्रण - सामान्य लोड पर साधारण शक्ति परिणामित्र की दक्षता अत्युच्च होती है, जो छोटे यूनिटों में ९० प्रति शत से लेकर बड़े परिणामित्रों में ९८ प्रति शत तक विचरित होती है। सामान्य: प्रतिशत में व्यक्त परिणामित्र की दक्षता को इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं :
(यहाँ निर्गतउ out put)* परिणामित्रों की तात्कालिक दक्षता और दिन भर की दक्षता में अंतर होता है।
परिणामित्र के नियंत्रण का अर्थ होता है निवेश (त्दद्रद्वद्य) वोल्टता के स्थिर रहने पर पूरे लोड की स्थिति में द्वितीयक वोल्टता और बिना लोड की स्थिति में द्वितीयक वोल्टता का संबंध। प्रतिशत के रूप में व्यक्त करने पर नियंत्रण को अधोलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं:
छोटे परिणामित्रों के लिए नियंत्रण २-५ प्रतिशत और बड़ों के लिए लगभग १ प्रतिशत के क्रम का होता है।
स्वपरिणामित्र (Autotransformer) - इसमें प्रत्यावर्ती धारा का परिणमन एक ही कुंडली से संपन्न होता है। अत: इसका नाम स्वपरिणामित्र है। इसका कार्य संचरण विभवमापी के समान है। प्रयुक्त प्राथमिक वोल्टता को पूरी कुंडली में विकसित होने का अवसर दिया जाता है। निवेश और निर्गत में एक टर्मिनल (terminal) उभयनिष्ठ होता है। एक संस्पर्श बिंदु को कुंडली के साथ सरकाकर निर्गत वोल्टता का परिवर्तन किया जाता है। इससे निवेश वोल्टता की शून्य से लेकर अनेक गुनी समायोज्य (adjustable), प्रत्यावर्ती वोल्टता प्राप्त की जा सकती है। इसका उपयोग प्रयोगशालाओं तथा उद्योगों में व्यापक रूप से होता है।
स्थिर वोल्टता परिणामित्र - ये परिणामित्र स्थिर वोल्टता प्रदान करते हैं, भले ही निवेश वोल्टता का विचरण विस्तृत सीमाओं के बीच होता रहे। यह स्वनियंत्रण प्राथमिक और द्वितीयक दोनों परिपथों में एक बहुगुण कुंडलन से होता है। द्वितीयक कुंडलियों में से एक को उसके आरपार संघनक जोड़कर अनुनादी (द्धड्ढद्मदृदaदद्य) बनाया जाता है। द्वितीयक के इस भाग और द्वितीयक कुंडली के अवशिष्ट भाग में वोल्टता में १८०रू का कलांतर होता है। अत: समस्त द्वितीयक कुंडलन के आर पार परिणामी वोल्टता स्थिर रहती है। इसके अतिरिक्त उच्च चुंबकीय फ्लक्स घनता स्वत: क्षतिपूरण (autocompensation) में सहायक होता है। जब प्राथमिक वोल्टता ९५ से १३५ वोल्ट में बदलती है तब द्वितीयक वोल्टता केवल प्रतिशत ही बदलती है। लोड के मानों में परिवर्तन इस सीमा में कोई परिवर्तन नहीं करता। व्यापारिक स्थिर-वोल्टता-परिणामित्र (क्.ज्.्च्र.) उपलब्ध हैं और प्रोगशालाओं तथा उद्योगों में व्यापक रूप से उपयोग में आते हैं।
स्थिर धारा परिणामित्र - इनमें प्राथमिक और द्वितीयक के बीच की दूरी को किसी उपयोगी युक्ति (servo device) से बनाए रखते हैं। इससे स्थिर धारा उत्पन्न होती है, जो निवेश वोल्टता के परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होती।
श्रव्य आवृत्ति परिणामित्र - शक्ति परिणामित्र स्थिर आवृत्ति पर क्रियाकारी होते हैं और इनका उपयोग आवृत्ति के परिवर्तन की स्थिति में नहीं हो सकता। संचार इंजीनियरी (communication engineering) में ऐसे परिणामित्रों का उपयोग होता है, जो जटिल और परिवर्ती स्वरूपवाली धारा से संभरण होने पर, आवृत्तियों की विस्तृत सीमाओं में दक्षतापूर्वक कार्य कर सकें। इसके अनेक उपयोग रेडियो-टेलीफोनी, रेडियो टेलीग्राफी, रेडियो-अभिग्राहित्र और अनेक इलेक्ट्रॉनी परिपथों में होते हैं।
आधुनिक युग में परिणामित्र वैद्युत् तथा इलेक्ट्रॉनी उद्योगों का अभिन्न अंग बन गया है।
(राममनोहर सिंह)