पराश्रव्यध्वनिकी (Ultrasonics) में पराश्रव्य शब्द उस ध्वनि के लिए उपयोग में लाया जाता है जिसकी आवृत्ति इतनी अधिक होती है कि वह मनुष्य के कानों को सुनाई नहीं देती। साधारणतया मानव श्रवणशक्ति का परास २० से लेकर २०,००० कंपन प्रति सेकंड तक होता है। इसलिए २०,००० से अधिक आवृत्तिवाली ध्वनि को पराश्रव्य कहते हैं। अर्वाचीन विधियों द्वारा अब लगभग १०९ कंपन प्रति सेकंड वाली पराश्रव्य ध्वनि का उत्पादन संभव हो गया है। क्योंकि मोटे तौर पर ध्वनि का वेग गैस में ३३० मीटर प्रति सें., द्रव में १,२००मी. प्रति सें. तथा ठोस में ४,००० मी. प्रति से. होता है, अतएव पराश्रव्य ध्वनि का तरंगदैर्ध्य साधारणतया १०- ४ सेंमी. होता है। इसकी सूक्ष्मता प्रकाश के तरंगदैर्ध्य के तुल्य है। अपनी सूक्ष्मता के ही कारण ये तरंगें उद्योग धंधों तथा अन्वेषण कार्यों में अति उपयुक्त सिद्ध हुई हैं और आजकल इनका महत्व अत्यधिक बढ़ गया है।
पराश्रव्य ध्वनि का उत्पादन - इसकी निम्नलिखित विधियाँ हैं :
(क) यांत्रिक जनित्र - १८९९ ई. में कोनिंग ने छोटे छोटे स्वरित्रों द्वारा ९०,००० कंपन प्रति सें., तक की पराश्रव्य तरंगें उत्पन्न कीं। इडेमान ने गाल्टन सीटी को बनाया, जिसके द्वारा वह एक निश्चित आयामवाले १,००,००० कंपन प्रति से. उत्पन्न करने में सफल हुआ। एक तुंड में से हवा फूँकी जाती है। हवा की यह धारा एकदीर्घ छिद्र में से बहकर एक क्षुरधार से टकराकर पराश्रव्य कंपन पैदा करती है। गैस-धारा जनित्र द्वारा हार्टमान ने अधिक ऊर्जावाली पराश्रव्यध्वनि पैदा की। हॉफमान ने काच की छड़ को उसकी लंबाई की समांतर दिशा में कंपित कर ३३,००० कंपनवाली अधिक ऊर्जा की पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न की।
(ख) विद्युज्जनित्र - अब इनका केवल ऐतिहासिक महत्व है। अटबर्ग ने स्फुलिंग-अंतराल (spark gap) द्वारा ३,००,००० आवृत्तिवाली पराश्रव्य ध्वनि पैदा की, किंतु यह ध्वनि कई भिन्न भिन्न आवृत्तियों का मिश्रण होती है और इनका आयाम भी अनिश्चित होता है।
(ग) चुंबकीय आकारांतर जनित्र (Magneto-striction Generator) - यदि लोहचुंबकीय (ferromagnetic) पदार्थ की छड़ अथवा नली को उसकी लंबाई के समांतर किसी चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाए तो आण्विक पुनर्व्यवस्था के कारण उसकी लंबाई में परिवर्तन हो जाता है। इस घटना को चुंबकीय आकारांतर कहते हैं। यह अनुसंधान जूल ने किया था। लंबाई का यह परिवर्तन चुंबकीय बलक्षेत्र की दिशा पर निर्भर नहीं है। यदि कोई लोहचुंबकीय पदार्थ प्रत्यावर्ती चुंबकीय क्षेत्र पर रखा जाए तो वह अपनी स्वाभाविक अथवा अधिस्वर आवृत्ति से कंपित होकर पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न करेगा।
चुंबकीय शैथिल्य (hysterisis) के कारण विद्युच्चुंबकीय ऊर्जा का पराश्रव्य ऊर्जा में परिवर्तन अधिक अच्छा नहीं होता है। साथ ही, इस विधि में पदार्थ को वलय के रूप न ले सकने के कारण अधिकतम आवृत्तिवाली पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न नहीं की जा सकती।
विंसेंट और पीअर्स, दोनों में चुंबकीय अकारांतर द्वारा पराश्रव्य कंपन पैदा करने के लिए विद्युतीय परिपथ बनाए। यह परिपथ चुंबकीय आकारांतर के व्युत्क्रम प्रभाव के कारण, स्वत: उत्तेजित विद्युतीय दोलन उत्पन्न करता है, क्योंकि छड़ की लंबाई की प्रत्यास्थ घट बढ़ चुंबकन में परिवर्तन कर देती है और इससे प्रेरित विद्युद्वाहक बल ग्रिड के द्वारा धनाग्र की धारा को नियंत्रित करता है।
इस विधि का मुख्य लाभ इसकी सादगी एवं सस्तेपन में है तथा इसमें त्रुटि है ताप पर निर्भर रहना और आवृत्ति का अधिक न रहना।
इस विधि से अधिकतम आवृत्ति २व् १०५ तक उत्पन्न की जा सकती है।
(घ) दाब-विद्युत् (piezo-electric) जनित्र - सन् १८८० में पी. और पी.जे. क्यूरी ने बताया कि यदि सममिति रहित स्फटिकों या क्रिस्टलों के किन्हीं विशेष अक्षों पर दबाव लगाया जाए तो उनके दो तलों पर विजातीय विद्युदावेश उत्पन्न होते हैं। कुछ दिनों बाद इन्हीं दो भाइयों ने इससे विपरीत प्रभाव का भी आविष्कार किया, अर्थात् यह प्रमाणित किया कि बल लगाने से इन क्रिस्टलों की लंबाई में परिवर्तन होता है। इस घटना को दाब-विद्युत्-प्रभाव कहते हैं। सन् १९१७ ई. लैंजेविन ने क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल को उसकी स्वाभाविक आवृत्ति से कंपित करने के लिए एक समस्वरित विद्युत् परिपथ के द्वारा उसे उत्तेजित किया। यदि विद्युत् परिपथ की आवृत्ति क्रिस्टल की आवृत्ति के बराबर हो, जो क्रिस्टल अनुनादित कंपन करने लगता है। क्रिस्टल अपनी स्वाभाविक आवृत्ति की अधिस्वरित आवृत्ति तथा निश्चित आयामवाली पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न करता है। पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न करने की यही अर्वाचीन विधि है।
क्वार्ट्ज़ के अतिरिक्त टूर्मैलिन, टार्टरिक अम्ल, रोशेल लवण, बेरियम टाइटैनेट इत्यादि का भी दोलक बनाने में उपयोग होता है। उपयुक्त आकार के क्रिस्टलों से या तो उनकी स्वाभाविक आवृत्ति, अथवा विषय संनादी (harmonics), उत्पन्न करके २व् १०४ से लेकर २व् १०८ तक की आवृत्तिवाली पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
हार्टले का विद्युत् परिपथ क्रिस्टल कंपित किया जाता है। परिपथ के संधारित्र के मान को समंजित कर समस्वरित किया जाता है। इस परिपथ के अतिरिक्त और भी अन्य परिपथों का विभिन्न कार्यों के लिए पराश्रव्य ध्वनि उत्पन्न करने में उपयोग किया जाता है।
क्रिस्टलों को काम में लाने से पूर्व विशेष रीति से काटा जाता है और उनको प्रयोग के लिए विशेष रीति से रखा जाता है।
पराश्रव्य ध्वनि के परिचायक - पराश्रव्य ध्वनि के मुख्यत: चार प्रकार के परिचायक होते हैं :
(क) यांत्रिक परिचायक - जब गैस माध्यम में बिलकुल हलके ठोस, अथवा द्रव, के कण छोड़े जाते हैं तब वे पराश्रव्य ध्वनि के द्वारा अपने अवस्थितित्व के अनुसार चालित होते हैं। उनकी गति के अध्ययन से पराश्रव्य ध्वनि का परिचय प्राप्त होता है।
ऐंठन लोलक अथवा विकिरणमापी (radiometer) से भी पराश्रव्य तरंगों का ज्ञान होता है। एक विशेष यंत्र के मंडलक पर ये तरंगें गिरकर, उसपर दाब डालकर उसे घुमाती हैं। मंडलक का घूमना उसके आलंबनसूत्र में लगे दर्पण के द्वारा नापा जाता है।
यदि पराश्रव्य तरंगें अति सूक्ष्म न हों तो कुंट की नली में अग्रगामी तरंगें बनाकर लाइकोपोडियम चूर्ण द्वारा उनका प्रेक्षण किया जाता है।
(ख) उष्मीय परिचायक - ध्वनिग्राही दीपशिखा (sensitive flame) द्वारा ध्वनि की तरंगों के ही समान इन तरंगों का भी परिचय प्राप्त किया जाता है।
ये तरंगें तारों पर गिरकर क्रमश: उष्मा अथवा शीत पैदा करती हैं। ताप के इस परिवर्तन से तार का विद्युत् प्रतिरोध बदलता है। इस गुण का भी उपयोग इन तरंगों के बारे में ज्ञान प्राप्त करने में होता है।
(ग) प्रकाशित परिचायक - पराश्रव्य तरंगों से जो अप्रगामी तरंगें बनती हैं, उनसे माध्यम का वर्तनांक कहीं बढ़ जाता है और कहीं घट जाता है। इस प्रकार के माध्यम में से प्रकाश के जाने पर रेखांकन (striation) हो जाता है। इन रेखाओं के ज्ञान से इन तरंगों का परिचय होता है। प्रगामी तरंगें भी स्ट्रोबोस्कोपी प्रदीपन (stroboscopic illumination) के द्वारा इसी विधि से व्यक्त हो जाती है।
(घ) वैद्युत परिचायक - बेरियम टाइटेनेट के क्रिस्टल के दाबविद्युत् गुण का उपयोग कर उससे माइक्रोफोन बनाया जाता है और उसके द्वारा इन तरंगों का अस्तित्व मालूम किया जाता है।
इस प्रकार इन विविध उपयोगों के कारण इस आणविक युग में भी पराश्रव्य ध्वनिकी का भौतिक विज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान है।
(मधुकर गंगाधर भाठवडेकर)