पराशर इस नाम के मुनि द्वारा रचित ग्रंथों में 'कृषिसंग्रह', 'कृषि पराशर' एवं 'पराशर तंत्र' के नाम गिनाए जाते हैं। यह बताया जाता है कि में सुरक्षित हैं, किंतु इनमें से मूल ग्रंथ 'कृषि पराशर' ही है। इस ग्रंथ के रचयिता पराशर मुनि कौन से हैं, इस विषय पर यथेष्ट मतभेद है। ग्रंथ की शैली के आधार पर यह ८वीं शती के पूर्व का लिखा नहीं समझा जाता।

'कृषि पराशर' में कृषि पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव, मेघ और उसकी जातियाँ, वर्षामाप, वर्षा का अनुमान, विभिन्न समयों की वर्षा का प्रभाव, कृषि की देखभाल, बैलों की सुरक्षा, गोपर्व, गोबर की खाद, हल, जोताई, बैलों के चुनाव, कटाई के समय, रोपण, धान्य संग्रह आदि विषयों पर विचार प्रस्तुत किए गए हैं।

ग्रंथ के अध्ययन से पता चलता है कि पराशर के मन में कृषि के लिए अपूर्व सम्मान था। किसान कैसा होना चाहिए, पशुओं को कैसे रखना चाहिए, गोबर की खाद कैसे तैयार करनी चाहिए और खेतों में खाद देने से क्या लाभ होता है, बीजों को कब और कैसे सुरक्षित रखना चाहिए, इत्यादि विषयों का सविस्तार वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है।

हलों के संबंध में दिया हुआ है कि ईषा, जुवा, हलस्थाणु, निर्योल (फार), पाशिका, अड्डचल्ल, शहल तथा पंचनी ये हल के आठ अंग हैं। पाँच हाथ की हरीस, ढाई हाथ का हलस्थाणु (कुढ़), डेढ़ हाथ का फार और कान के सदृश जुवा होना चाहिए। जुवा चार हाथ का होना चाहिए।

इस ग्रंथ से पता लगता है कि पराशर के काल में कृषि अत्यंत पुष्ट कर्म थी। (शि.गो.मि.)

महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार। राक्षस द्वारा मारे गए वसिष्ठ के पुत्र-शक्ति से इनका जन्म हुआ। बड़े होने पर माता अदृश्यंती से पिता की मृत्यु की बात ज्ञात होने पर राक्षसों के नाश के निमित्त इन्होंने राक्षस सत्र नामक यज्ञ शुरू किया जिसमें अनेक निरपराध राक्षस मारे जाने लगे। यह देखकर पुलस्त्य आदि ऋषियों ने उपदेश देकर इनकी राक्षसों के विनाश से निवृत्त किया और पुराण प्रवक्ता होने का वर दिया (म. भा.आ. १७८-१७९, १८१; विष्णु. १, १)

तीर्थयात्रा में यमुना के तट पर मल्लाह की सुंदर कन्या परंतु मत्स्यगंध से युक्त सत्यवती को देखकर उससे प्रेम करने लगे। संपर्क से तुम्हारा कन्याभाव नष्ट न होगा और तुम्हारे शरीर की दुर्गंध दूर होकर एक योजन तक सुंगध फैलेगी, यह वर पराशर ने सत्यवती को दिए। समीपस्थ ऋषि ने देखें, अत: कोहरे का आवरण उत्पन्न किया। बाद में सत्यवती से इनको प्रसिद्ध व्यास पुत्र हुआ। (म.भा., आ. ६३, १०५; भाग. १, ३)

ऋग्वेद के अनेक सूक्त इनके नाम पर हैं (१, ६५-७३-९, ९७)। इनसे प्रवृत्त पराशर गोत्र में गौर, नील, कृष्ण, श्वेत, श्याम और धूम्र छह भेद हैं। गौर पराशर आदि के भी अनेक उपभेद मिलते हैं। उनके पराशर, वसिष्ठ और शक्ति तीन प्रवर हैं (मत्स्य., २०१)।

भीष्माचार्य ने धर्मराज को पराशरोक्त गीता का उपदेश किया है (म.भा., शां., २९१-२९७)। इनके नाम से संबद्ध अनेक ग्रंथ ज्ञात होते हैं:

  1. १. बृहत्पराशर होरा शास्त्र, २. लघुपाराशरी (ज्यौतिष), ३. बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता, ४. पराशरीय धर्मसंहिता (स्मृति), ५. पराशर संहिता (वैद्यक), ६. पराशरीय पुराणम् (माधवाचार्य ने उल्लेख किया है), ७. पराशरौदितं नीतिशास्त्रम् (चाणक्य ने उल्लेख किया है), ८. पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने उल्लेख किया है)।
  2. वेदव्यास की ऋग्वेद-शिष्य-परंपरा में बाष्कल का शिष्य। इसकी चलाई हुई शाखा पराशरी नाम से प्रसिद्ध है। यह श्रुतर्षि, ऋषिक और ब्रह्मचारी था (वायु. १, ६०; ब्रह्मांड २, ३४)
  3. वेदव्यास की सामवेद-शिष्य-परंपरा में हिरण्य नाम का शिष्य (वायु., १, ६१; ब्रह्मांड २, ३५) ब्रह्मांडपुराण में पाराशर्य पाठभेद है।
  4. वेदव्यास की सामवेद-शिष्य-परंपरा में कुथुमि का शिष्य (ब्रह्मांड २, ३५। वायु. १, ६१)।
  5. वेदव्यास की यजु: शिष्य-परंपरा में स्थित याज्ञवल्क्य के वाजसनेय शाखा का शिष्य (ब्रह्मांड ३, ६५)।
  6. ऋषभ नामक शिव के अवतार का शिष्य (शिव. शत. ४-५; वायु. १, २३)।
  7. जनमेजय के सर्पसत्र में मारे गए सर्पों में धृतराष्ट्र नामक कुल का एक सर्प (म.भा., आदि., ५७, १९ कुंभकोणप्रति)।

मत्स्यपुराण में सौदास कल्माषपाद के पुत्र का रक्षण करनेवाले पराशर का वर्णन मिलता है। (मराठी प्रा.च. कोश)।

(अनंत शास्त्री फड़के)