परशुराम महर्षि जमदग्नि और कामली रेणुका के महान् पराक्रमी पुत्र थे जिन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने के लिए उनका २१ बार सामूहिक रूप से संहार किया था। भृगुवंशी होने से यह भार्गव, जमदग्निपुत्र होने से जामदग्न्य और नाम से केवल राम होते हुए महादेव द्वारा प्रसिद्ध परशु प्राप्त करने से परशुराम कहलाए।
हैहयों और भार्गंवों के बीच पीढ़ियों से वैरभाव होने से इनमें शत्रुता चली आ रही थी। एक बार परशुराम कामधेनु नामक गौ को जमदग्नि के पास छोड़कर स्वयं तपस्या करने चले गए। अवसर पाकर हैहयराज कार्तवीर्य चढ़ आया। उसने महर्षि का आश्रम जला डाला और उन्हें मारकर कामधेनु को छीन ले गया। जब परशुराम लौटे तो उनकी माता ने इक्कीस बार छाती पीटकर इनसे कार्तवीर्य द्वारा महर्षि के वध का वृत्तांत कहा। इसपर क्रोधाभिभूत परशुराम ने केवल हैहयों का ही नहीं बल्कि पृथ्वी के संपूर्ण क्षत्रियों का वध करने की विकट प्रतिज्ञा की और २१ बार में ६४ कोटि क्षत्रियों का वध किया। इस क्रम में उन्होंने कार्तवीर्य और उसके १०० पुत्रों सहित १०० अक्षोहिणी क्षत्रियों की सेना नष्ट कर दी, १२ हजार मूर्धाभिषिक्त राजाओं के मस्तक काट डाले और लगातार दो वर्षों तक महेंद्र पर्वत से उतरकर नए उत्पन्न हुए क्षत्रियों का वध करते रहे। क्षत्रियों के रुधिर से इन्होंने कुरुक्षेत्र में पाँच बड़े बड़े कुंड भर दिए और इनमें स्नानकर पितृतर्पण किया। ये कुंड समंतपंचक तीर्थ तथा परशुराम ्ह्रद नाम से प्रसिद्ध हुए। किंतु पितरों को उनका यह कृत्य अच्छा न लगा। अत: उनके पितामह महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर इनसे क्षत्रिय वध बंद करने के लिए कहा। इन्होंने कश्यप को पृथ्वी का दान देकर स्वयं महेंद्र पर्वत पर जाकर रहने का निश्चय किया। इनकी सारी तपस्या गंधमादन पर्वत पर ही हुई थी जहाँ इन्हें शिव जी ने दिव्य परशु प्रदान किया था। इसके पहले ही इन्होंने पिता की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का सिर काटकर जमदग्नि जी को प्रसन्न कर लिया और उन्ही के वरदान से अपनी माता को पुनर्जीवित करा लिया था।
परशुराम विष्णु के २४ अवतारों में गिने जाते हैं (पद्म., उ. २४८; मत्स्य. ४७/२४४; वायु., ३६/९०)। देवीभागवत (४/१६) के अनुसार यह १९वें त्रेतायुग में और महाभारत (आदि. २/३) के अनुसार त्रेता और द्वापर के मध्य अवतरित हुए थे। अवतारवाद के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परशुराम का मर्यादापुरुषोत्तम राम के ठीक पूर्व होना मानवता के विकासवाले सिद्धांत के साथ भली भाँति मेल खाता है। नृसिंहावतार की अर्धपशुता एवं अर्धमानवता विकसित होकर परशुराम में पूर्ण् मानवता तक पहुँच गई है पर उनके व्यवहार तथा प्रकृति में अभी संहारवृत्ति एवं उग्रता पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगोचर होती है। तुलसीकृत और वाल्मीकि रामायणों में परशुराम के प्रादुर्भाव के संबंध में बहुत कुछ मतभेद है। कालिदास ने भी अपने रघुवंश में परशुराम संबंधी विवरण के लिए वाल्मीकि का ही अनुसरण किया है। तुलसीदास के अनुसार परशुराम अपने उपास्य देव शिव के धनुष टूटने पर तुरंत ही जनकपुर में प्रकट हो जाते हैं और राम लक्ष्मण से धनुर्यज्ञ के स्थान पर देर तक विवाद करते हैं। वाल्मीकि तथा कालिदास की कृतियों में वे उस समय आते हैं जब बारात जनकपुर से लौटकर अयोध्या के मार्ग में रहती है और युद्ध में राम द्वारा पराजित तथा शापित होते हैं (बा.रा., बा., ७४-७६)। परशुराम की गणना सप्तचिरजीवियों में है -
'अश्वत्थामा बलिर्व्यास: हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तेते चिरजीविन:।'
(रामाज्ञा द्विवेदी)