परजीविजन्य रोग (ParasiticDiseases) प्राणिजगत् के अनेक जीवाणु मानव शरीर में प्रविष्ट हो उसमें वास करते हुए उसे हानि पहुँचाते, या रोग उत्पन्न करते हैं। व्यापक अर्थ में विषाणु, जीवाणु, रिकेट्सिया (Rickettsia), स्पाइरोकीट (Spirochaeta), फफूँद और जंतुपरजीवी द्वारा उत्पन्न सभी रोग परजीवीजन्य रोग माने जा सकते हैं, परंतु प्रचलित मान्यता के अनुसार केवल जंतुपरजीवियों द्वारा उत्पन्न विकारों को ही 'परजीवीजन्य रोग' के अंतर्गत रखते हैं।
प्राणिजगत् में दो प्रकार के जीव, एककोशिक और बहुकोशिक, होते हें। एककोशिक जीव प्रोटोज़ोआ (Protozoa) हैं, जो एक कोशिका में ही सभी प्रकार के जीवनव्यापार संपन्न कर लेते हैं। बहुकोशिक जीव मेटाज़ोआ (Metazoa) हैं, जिनमें प्रत्येक कार्य के लिये अलग अलग कोशिकासमूह होता है। संसार में जीवजंतुओं की संख्या बहुत अधिक है, परंतु इनमें से कुछ ही परजीवी होते हैं, जो दूसरे प्राणी की कमाई पर जीते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सभी परजीवी रोगकारक हों। परजीवी निम्नलिखित चार प्रकार के हो सकते हैं :
(१) अन्योन्याश्रयी - इनमें परजीवी और परपोषी (host) एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं, (२) सहजीवी - इनमें परजीवी और परपोषी एक दूसरे के बिना जीवित नहीं रह सकते, (३) सहभोजी - यह परजीवी परपोषी को हानि पहुँचाए बिना उससे लाभ उठाता है एवं (४) परजीवी - यह परपोषी को खाता है और खोदता है।
परपोषी वह प्राणी है जो परजीवी को आश्रय देता है। परपोषी निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं :
(१) निश्चित परपोषी वह प्राणी है जिसमें परजीवी अपना वयस्क जीवन बिताता है, या लैंगिक जनन करता है, (२) मध्यस्थ परपोषी वह प्राणी है जिसमें परजीवी की इल्ली या लार्वा रहते हैं, या जीवन का अलिंगी चक्र चलता है।
परजीवीजन्य विकारों के निम्नलिखित रूप हैं :
(१) क्षतिज (Traumatic) - यह कोशिकाओं और ऊतकों पर सूक्ष्म या स्थूल यांत्रिक आघात हैं, जैसा कि अंकुशकृमि या फीताकृमि के लार्वा, ऊतकों के बीच से यात्रा करते हुए, पहुँचाते हैं; (२) सन्लायी (्ख्रन्र्द्यत्ड़) - यह परजीवी द्वारा कोशिकाओं तथा ऊतकों का किण्व की सहायता से सन्लय है, जैसा एंडमीबा हि
स्टोलिटिका (Endamoeba histolytica) करता है; (३) अवरोधी (Obstructive) - इसमें शरीर के अंत: मार्गों में अवरोध होते है तथा अनेक परजीवी उत्पात होते हैं, यथा केंचुए या फीता कृमि द्वारा आँतों या पित्तनलिका का अवरोध; (४) पोषणहारी - परपोषी के आहार में हिस्सा बँटाकर परजीवी उसे पोषणहीनता से पीड़ित करते हैं, जैसा केंचुए, अंकुशकृमि, या फीताकृमि करते हैं; (५) मादक (Intoxicative) - परजीवियों के चयापचय के पदार्थ परपोषी पर विषाक्त प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं; (६) एलर्जीजन्य (Allergenic) - बाह्य प्रोटीन पदार्थ उत्पन्न होने के कारण परजीवी परपोषी में ऐलर्जी के लक्षण उत्पन्न करते हैं, यथा मलेरिया में जाड़ा देकर बुखार आना, केंचुए के कारण जुड़पित्ती निकलना; (७) प्रचुरोद्भवक (Proliferative) - कुछ परजीवी ऊतकों को उद्भव के लिये प्रेरित करते हैं, जैसे कालाजार में मैक्रोफेज (macrophage) की संख्यावृद्धि, या फाइलेरिया में ऊतकों का प्रचुरोद्भव है।
रोगकारक परजीवी के शरीर में प्रविष्ट होने पर रोग उत्पन्न हो, यह अनिवार्य नहीं है, रोगकारिता और रोग का रूप तथा मात्रा परजीवी की जाति, परपोषी की जाति और व्यक्तित्व पर निर्भर है। किसी व्यक्ति में एक परजीवी कोई लक्षण उत्पन्न नहीं करता, किंतु वही दूसरे व्यक्ति में एक परजीवी कोई लक्षण उत्पन्न नहीं करता, किंतु वही दूसरे व्यक्ति मे तीव्र अतिसार या यकृत का फोड़ा पैदा कर सकता है। सामान्य: परजीवी मानव जाति में वर्ण या आयुभेद नहीं करते, फिर भी जिस भूभाग में कोई परजीवी विशेष रूप से पाया जाता है वहाँ के निवासी उसके अभ्यस्त हो जाते हैं, परंतु उस क्षेत्र के नवागंतुक जन परजीवी हलके से आक्रमण से भी गंभीर रूप से त्रस्त हो जाते हैं। कुछ परजीवी बच्चों को विशेष रूप से कष्ट देते हैं, जैसे सूत्रकृमि।
कुछ परजीवी अपने परपोषी के रूप में केवल मानव शरीर ही पसंद करते हैं, जैसे मलेरिया के रोगाणु, अंकुशकृमि, शिस्टोसोमा हिमेटोबियम आदि। कुछ परजीवी आदमी और पालतू पशु दोनों ही में रहना पसंद करते हैं, जैसे एंडमीबा मनुष्य, बंदर, बिल्ली, चूहे और कुत्ते में, केंचुआ मनुष्य और शूकर में तथा बौना फीताकृमि मनुष्य चूहों और मूषकों में रहता है।
परजीवीजन्य रोगों के अध्ययन में मनुष्य को पीड़ित करनेवाले सभी परजीवियों का विस्तार से अध्ययन किया गया है। फलस्वरूप परजीवीविज्ञान ने चिकित्साविज्ञान की एक उपशाखा के रूप में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। इस विज्ञान की भी दो शाखाएँ हैं : १. प्रोटोज़ोऑलोजी (Protozoology) - इसके अंतर्गत एक कोशिकावाले परजीवियों को अध्ययन होता है, (२) कृमिविज्ञान (Helminthology) - इसके अंतर्गत मेटाज़ोआ (Metazoa) का अध्ययन होता है। विस्तार से सभी परजीवियों के रूप, आकार और जीवनचक्र का वर्णन यहाँ संभव नहीं है, अतएव संक्षेप में चर्चा की जा रही है।
प्रोटोज़ोलोजी - प्रोटोज़ोआ एककोशिक प्राणी हैं, जो रचना और क्रिया की दृष्टि से अपने आपमें पूर्ण हैं। इनकी कोशिका के दो भाग होते हैं : कोशिकाद्रव्य और केंद्र। कोशिकाद्रव्य के दो भाग होते हैं : बहिर्द्रव्य और अंतर्द्रव्य। बहिर्द्रव्य रक्षा, स्पर्शज्ञान और संचलन का कार्य करता है तथा अंतर्द्रव्य पोषण एवक प्रजनन का। बहिर्द्रव्य से विभिन्न वंशों में भिन्न प्रकार के संचलन अंग बनते हैं, यथा कूटपाड, कशाभ, रोमाभ आदि। बहिर्द्रव्य से ही आकुंची धानी, पाचनसंयंत्र के आद्यरूप (यथा मुख, कंठ आदि) और सिस्ट की दीवार आदि बनती है। कुछ प्रोटोज़ोआ द्विकेंद्री होते हैं। प्रजनन अलिंगी तथा लैगिक दोनों ही प्रकार से होता है। अलिंगी तथा लैगिक दोनों ही प्रकार से होता है। अलिंगी प्रजनन द्विविभाजन द्वारा तथा लैगिक दोनों ही प्रकार से होता है। अलिंगी प्रजनन द्विविभाजन द्वारा तथा लैंगिक प्रजनन के लिये नरमादा युग्मक बनते हैं। युग्मक के संयोग से युग्मज बनता है, जो बड़ी संख्या में उसी प्रकार के जीवों को जन्म देता है जिस प्रकार के युग्मक थे। प्रोटोज़ोआ परजीवी जीवनचक्र की दृष्टि से दो प्रकार के होते हैं : एक वे जो केवल एक ही परपोषी में जीवनचक्र पूर्ण करते हैं, जैसे एंडमीबा, दूसरे वे हैं जो अपना जीवनचक्र दो परपोषियों में पूर्ण करते हैं, जैसे मलेरिया या कालाजार के रोगाणु आदि। प्रोटाज़ोआ के निम्नलिखित वर्ग रोगकारक हैं :
राइज़ोपोडा (Rhizopoda) - कूटपाद द्वारा संचरित इस वर्ग के जीव द्विविभाजन द्वारा वंशवृद्धि करते हैं। इनके जीवनचक्र में पाँच अवस्थाएँ होती हैं : (१) पोषबीजाणु - स्वच्छद अवस्था, जिसमें अमीबा खाता, पीता, बढ़ता और विभाजित होकर अनेक बनता है, (२) पूर्व सिस्ट - समस्त अपचित आहार बाहर फेंककर अमीबा का गोलमटोल हो जाना, (३) सिस्ट - प्रतिकूल वातावरण में सुदृढ़ आवरण से आच्छादित हो अमीबा का निष्क्रिय बैठना, (४) मेटासिस्ट - पुन: वातावरण अनुकूल होने पर सिस्ट का अनावरित, और बहुकेंद्रयुक्त अमीबा का पुन: सक्रिय, होना तथा (५) मेटासिस्टिक पोषजीवाणु - अमीबा का आक्रामक रूप।
इस वर्ग के जीव अधिकतर परपोषी की आँतों में रहते हैं, किंतु एंडमीबा जिंजिवैलिस (क. gingivalis) मसूड़ों में रहना पसंद करता है। इस वर्ग के जीवों में केवल एंडमीबा हिस्टोलिटिका की रोगकारक परजीवी है। यह अमीबिक पेचिश, यकृतशोथ और यकृत में फोड़ा आदि रोग उत्पन्न करता है (देखें चित्र १.)।
एंडमीबा हिस्टोलिटिका (क. histolytica) - यह परजीवी संसार के सभी प्रदेशों में पाया जाता है। ऐसा अनुमान है कि संसार के दस प्रतिशत मनुष्यों में ये परजीवी निवास करते हैं, यद्यपि इन लोगों में से कुछ ही पीड़ित होते हैं। यह ऊतक परजीवी है। इसका आकार २० से ४० म्यु (्थ्र ) होता है और इसके अंतर्द्रव्य में बहुधा लोहिताणु, पूयकोशिकाएँ तथा ऊतक-मलबा दिखाई देता हैं। प्रकृति में मनुष्य और बंदर इसके परपोषी हैं। इसका प्रकार गंदे हाथों, दूषित भोजन और जल, कचरे, मक्खी तथा रागी के संपर्क से होता है। अमीबा परपोषी की बड़ी आँत में यह फ्लास्क के आकार के व्रण बनाता है, जिनका मुँह पिन की नोक सा छोटा होता है और आँत में खुलता है। अंत: कला का संलयन करके ये परजीवी अध:श्लेष्मल परतों में और वहाँ से अरीयक्षत करते हुए पेशीय परत तक पहुँच जाते हैं (देखें चित्र २.)। कभी कभी रक्तप्रवाह अवरुद्ध कर ये पेशीय परत को भी नष्ट कर देते हैं। फलस्वरूप पेट-झिल्ली-शोथ, आंत्रबेधन, फोड़ा आदि गंभीर उपद्रव हो सकते हैं अमीबा द्वारा रक्तकोशिकाओं के कटाव के कारण रक्तस्त्राव होता है और खूनी आँवयुक्त पेचिश की शिकायत पैदा होती है। इसके प्रथम आक्रमण अंधांत्र और मलाशयसधिस्थल पर होते हैं। आगे चलकर संपूर्ण बृहद आंत्र आक्रांत्र हो जा सकती है। कभी कभी अमीबा आँत्रयोजनी (mesentric) शिरिका (venules) में घुसकर यकृत, फुफ्फुस, मस्तिष्क आदि अंगों में जा पहुँचता है। यकृत में उपनिवेश बनाकर यह यकृतशोथ और यकृत फोड़ा सी गंभीर दशाएँ उत्पन्न करता है।
इसका निदान यंत्र द्वारा मलाशय, वक्रांत्र के दर्शन और मलपरीक्षा द्वारा किया जा सकता है। इलाज के लिये अनेक प्रकार की ओषधियों का उपयोग किया जाता है, यथा एमेटीन, कुरची, ऐसिटासलि, कार्बरसन, यात्रेन, मिलिबिस, वायोफार्म, डाइडोक्विन, क्लोरोक्विन, कामाक्विन, टेरामायसिन, ईथ्राोिमायसिन आदि।
मैस्टाइगोफोरा (Mastigophora) - इस वर्ग के जीवों के शरीर पर डोरेनुमा लंबे एकाधिक कशाभ होते हैं, जो इन्हें सचल बनाते हैं। निवास की आदतों के आधार पर इनके दो उपवर्ग किए गए हैं : (क) आँत, मुख तथा योनिवासी और (ख) रक्त तथा ऊतकवासी।
(क) प्रथम उपवर्ग में दो गण हैं : (१) प्रोटोमोनाडिडा - इसमें (क) काइलोमैस्टिक्स मेस्निलाई (Chilomastix mesnili) अंधांत्रवासी, ट्राइकॉमोनैस हॉमिनिस (Trichomonas hominis) शिष्टांत्र में, ट्राइकॉमोनैस टेनैक्स (Trichomonas tenax) दाँत और मसूड़ों में तथा ट्राइकोमोनैस वेजाईनैलिस (Trichomonas vaginalis) योनि में रहते हैं। अंतिम परजीवी योनिशोथ तथा श्वेत प्रदर कारक है। (२) डिप्लोमोनाडिडा - इस गण में एक परजीवी वंश है, जिआर्डिया (Giardia) इंटेस्टाइनैलिस। यह ग्रहणी (duodenum) में निवास करता है। इसकी उपस्थिति आंत्रक्षोभकारी है और इसके कारण बहुधा अतिसार हो जाता है। निदान के लिये मल में इसके सिस्ट देखे जा सकते हैं। मेपाक्रिन (mepacrine) कामाक्विन, प्रभृति औषधियाँ इससे मुक्ति दिलाती हैं।
(ख) रक्त तथा ऊतकवासी - इसके अंतर्गत दो वंश हैं : ट्राइपैनोसोमा (Trypanosoma) और लीश्मेनिआ (Leishmania)। इनके जीवन के दो चक्र चलते हैं, कीड़ों की आँत में और मनुष्य या पशु में। एक चक्र में ये कशाभयुक्त और दूसरे में कशाभहीन होते हैं। कशाभयुक्त ट्राइपैनोसोमा में उर्मिलकला विशेष रूप से ध्यान अकर्षित करती है। ट्राइपैनोसोमा अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका में पाए जाते हैं।
ट्राइपैनोसोमा - शरीर में रक्तपायी कीटों के दंश से प्रविष्ट हो ये रक्तप्रवाह में बहते हैं। यहाँ से ये लसिकाग्रंथियों में प्रविष्ट होते हैं। बाद में केंद्रीय तंत्रिका संस्थान पर भी आक्रमण करते हैं। ये परजीवी कोशिकाओं में प्रवेश नहीं कर पाते और अंत: कोशिका अवकाश में ही रहते हैं। इनके शरीर से उत्सर्जित चयापचयन के पदार्थों के कारण विषमयता तथा कोशिकाशोथ होता है। ये निद्रा रोग (sleeping sickness) और चागाज़ (chagas) रोग उत्पन्न करते हैं। रक्त में परजीवी के प्रदर्शन से निदान होता है। इलाज में ट्रिपार्समाइड, मेलासेंन, मेलबी, बायर २०५, पेंटामिडीन, ऐंटिमनी मेलामिनिल आदि का उपयोग होता है। इनके उन्मूलन के लिये कीटनाशकों का उपयोग हो रहा है। मनुष्य में निम्नलिखित चार प्रकार के ट्राइपैनोसोमा पाए जाते हैं :
लीशमेनिआ - इस वंश के अंतर्गत तीन परजीवी हैं : (१) लीशमेनिया डॉनॉवेनी (L. donovani) - (२) लीशमेनिया-ट्रॉपिका (L. tropica) - यह दिल्ली का फोड़ा कहलानेवाले व्रण का कारक है। (३) लीशमेनिया ब्राजीलिऐन्सिस (L. Braziliensis) - यह इसपंडिया (espundia) नामक रोग का कारक है (देखें चित्र ३.)।
कालाजार भारत, चीन, अफ्रीका और उत्तरी यूरोप में होता है। भारत में कालाजार का प्रसार बंगाल, बिहार, उड़ीसा और मद्रास तथा उत्तर प्रदेश में लखनऊ से पूरब के क्षेत्र में है। ''दिल्ली का फोड़ा'' लखनऊ से पश्चिम में होता है। भारत के अलावा यह मध्य एशिया और अफ्रीका में भी होता है। उल्लेखनीय बात यह है कि कालाजार और दिल्ली का फोड़ा दोनों एक ही क्षेत्र में एक साथ नहीं मिलते। इसपंडिया नाक और मुँह की त्वचा और श्लेष्मिक कला का रोग है। यह मध्य तथा दक्षिणी अमरीका में होता है।
कालाजार परजीवी का कशाभहीन रूप मनुष्य में और कशाभी रूप संवाहक कीट सैंडफ्लाई (sandflv) में मिलता है। मानव शरीर मे ये परजीवी जातक-अंत:कला-तंत्र की कोशिकाओं में निवास करते हैं। ये द्विविभाजन द्वारा वंशवृद्धि करते हैं। संख्या अधिक होने पर कोशिका फट जाती है और परजीवी नई कोशिकाओं में प्रवेश करते हैं मुक्त परजीवियों का भक्षण करने के लिये रक्त में बृहद्भक्षकों की संख्यावृद्धि होती है। परजीवी विशेष रूप से अस्थिमज्जा, यकृत और प्लीहा में पाए जाते हैं। परजीवियों से अवरुद्ध मज्जा में रक्तकोशिकाओं का निर्माण कम हो जाता है, जिससे रक्तहीनता तथा श्वेताण्ह्रुास होता है। कालाजार में अंड्यूलेट ज्वर (undulant fever, दो बार चढ़नेवाला बुखार), पीलिया, दुर्बलता, कृशता, अतिसार, निमोनिया, मुँह की सड़न (cancrum oris) तथा अन्य उपसर्यों के आक्रमण होते हैं। रोग की प्रगति के साथ प्लीहा बढ़ती है तथा यकृत के आकार में भी वृद्धि होती है। भारत में कालाजार की संवाहिका है फ्लिबॉटोमस अर्जेटिपीज़ (Phlebotomus argentepes) नामक सैंडफ्लाई (बालूपक्षिका)। कालाजार का निदान रक्तपरीक्षा द्वारा होता है। इसकी चिकित्सा में ऐटिमनी के यौगिकों का उपयोग होता है। इनमें से एक यूरिया स्टिवामीन का आविष्कार भारतीय वैज्ञानिक तथा चिकित्सक, डा. उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी, ने किया। सैंडफ्लाई के उन्मूलन से कालाजार का वितरण संभव है और एतदर्थ डी.डी.टी. गेमाक्सेन आदि कीटनाशकों का उपयोग होता है।
स्पोरोज़ोआ (Sporozoa) - ये संचलनांगविहीन परजीवी हैं। इनके जीवनचक्र के दो भाग होते हैं, लैगिक तथा अलिंगी। अलिंगी या खंडविभाजन चक्र मध्यस्थ परपोषी मनुष्य में तथा लैगिक या बीजाणुजनन चक्र मादा ऐनॉफ़िलीज़ (Anopheles), निश्चित परपोषी में अन्य वंश भी हैं, जो आँतों में वास करते हैं। (१) आइसोपोरा होमिनिस (Isopora hominis) दक्षिण-पश्चिम प्रशांत भूखंड में अतिसार कारक हैं, (२) आइमेरिया गुबलेराई यकृत पर आक्रमण करता है। यह अत्यंत विरल है।
मलेरिया परजीवी प्लाज़मोडियम (Plasmodium) वंश के है। मनुष्य में मलेरियाकारक इसकी चार जातियाँ हैं : (१) प्ला. वाइवैक्स (P. vivax) सुदम्य तृतीयक, पारी का बुखार या अंतरिया ज्वरकारक, (२) प्ला. मलेरी (P. Malariae), चौथिया ज्वरकारक, तथा (३) प्ला. फाल्सिपैरम (P. falciparum, दुर्दम्य तृतियक) और (४) प्ला. ओवेल (P. oval) भूमध्यसगरीय मलेरिया कारक हैं। मलेरिया ज्वर का निदान रक्त में उपस्थित परजीवियों को पहचान कर किया जाता है। उपचार के लिये मलेरिया विनाशक ओषधियों की लंबी कतार उपलब्ध है। विश्वव्यापी मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के फलस्वरूप संसार के सभी भागों से मलेरिया अब लुप्तप्राय है (देखें मलेरिया)।
सिलिऐटा (Ciliata) - इस वर्ग के परजीवी का शरीर रोमाभ (सिलिया) से ढँका रहता है। इन्हीं के त्वरित कंपन से ये गतिशील होते हैं। इस वर्ग में एक ही परजीवी जाति है, वैलेटिडियम कोलाई (Balantidium coli)। ऊष्ण कटिबंध के देशों में यह पेचिश और अतिसार उत्पन्न करता है। एक ही परपोषी में जीवनचक्र की दोनों अवस्थाएँ, पोषबीजाणु और सिस्ट, मिलती हैं। वै. कोलाई अंडाकार, ७०व् ४० म्यु (्थ्र ) आकार का प्राणी है। कोशिका के एक सिरे पर श्राद्यरूप मुख और कीपाकार कंठ होता है और दूसरे छोर पर मलद्वार का छिद्र होता है। कोशिका में बृहत् और लघु दो केंद्र होते हैं। वंशवृद्धि द्विविभाजन और संयुग्मन द्वारा होती है। वै. कोलाई सामान्य: शूकरों और बंदरों में निवस करता है। मनुष्य यदा कदा इसका परपोषी बनता है।
कृमिविज्ञान - बहुकोशिक, द्विपार्श्व सममित, कृमि परजीवी तीन भ्रूणीय परतों से निर्मित जीव होते हैं। कृमियों के पाँच संघ हैं :
(१) पट्टकृमि (Platyhelminthes), (२) गोलकृमि (Nematoda), (३) निमैटोमॉर्फा (Nematomorpha), (४) एकैथोसेफाला (Acanthocephala) तथा (५) ऐनेलिडा (Annelida)। इनमें प्रथम दो विशेष महत्वपूर्ण है। आगे इनका थोड़ा विस्तार से विवरण दिया गया है। निमैटोमॉर्फ़ा के एक वर्ग गॉर्डीयासी (Gardiacea) में 'केश सर्प' होते हैं, जो मूलत: टिड्डों के परजीवी है और यदा कदा मानव वमन में देखे गए हैं। ऐकैथोसेफाला कँटीले शिरवाले कृमि होते हैं, जो मनुष्य में बिरले ही पाए जाते हैं। ऐनेलिडा संघ में एक वर्ग है, हाइरूडीनिया (Hirudinea), जिसके अंतर्गत विविध प्रकार की जोंकें (लीच) आती हैं।
पट्ट य फीताकृमि - ये चपटे, पत्ती या फीते से सखंड जीव है, जो अधिकतर उभयलिंगी होते हैं। इनकी आहारनाल अपूर्ण् या लुप्त होती है तथा देहगुहा नहीं होती। इस संघ के परजीवियों का विरण निम्नलिखित है :
सेस्टॉइडी (Cestoidea) उपवर्ग के जीव फीते सदृश होते हैं, ये चंद मिलिमीटर से कई मीटर तक लंबे हाते हैं। वयस्क कृमि परपोषी में पाए जाते हैं। इनके शरीर के तीन भाग होते हैं : (१) शीर्ष (scolex), जिसपर बहुधा हुकदार चूषक होते है जिनसे ये परपोषी में अपनी पकड़ बनाए रखते हैं, (२) कंठ, (३) धड़ (strobila) में अनेक देहखंड (proglottids) होते हैं। इनका जननतंत्र अत्यंत विकसित होता है और प्रत्येक खंड में एक संपूर्ण जननतंत्र होता है। परिपक्व खंडों से भारी संख्या में संसेचित अंडे निकलते हैं। इस उपवर्ग के कृमियों का जीवनचक्र जटिल होता है। कुछ मुख्य कृमियों का परिचय निम्नलिखित है :
ट्रीमाटोड (Trematoda) - इस वर्ग के पर्णवत कृमियों को 'फ्लूक' (ढथ्द्वत्त्ड्ढ) या पर्णाभ कहते हैं। इनके शरीर में खंड नहीं होते। शिस्टोसोमा (Schistosoma) के अलावा अन्य सदस्य उभयलिंगी होते है। इनमें अग्रचूषक और पश्चचूषक होते हैं। देहगुहा नहीं होती। आहारनाल अपूर्ण होती है। इनमें मलद्वार नहीं होता। ये अंडज होते हैं (देखें ट्रीमाटोड)। इस वर्ग के कुछ प्रमुख सदस्य ये हैं :
(क) शिस्टोसोमा (Schistosoma) - मनुष्य में यह बिलहार्ज़ियासिस (Bilharziasis) नामक रोग उत्पन्न करता है। शि. हिमाटोबियम (S. haematobium) अफ्रीका और मध्य एशिया में पाया जाता है (भारत में भी इक्का दुक्का केस हुए हैं)। यह मूत्र में रक्तस्त्राव करता है। शि. मैनसोनी (च्. ्थ्रaदद्मदृदत्) अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका में पेचिश, और शि. जापानिकम (S. Japanicum) चीन, जापान और बर्मा में पेचिश तथा यकृत सूत्रणरोग (सिरोसिस), पैदा करता है। इस वंश में नर और मादा अलग होते हैं। इनका जीवनचक्र मनुष्य और घोंघे (स्नेल) में चलता है।
(ख) फैसिऑला हिपैटिका (Fasciola hipatica) या यकृत पर्णाभ - ये मूलत: चौपायों की पित्तनलिकाओं का वासी है। मनुष्य को यदा कदा तंग करता है।
(ग) फेसिऑला बुस्की (Fasciola buski) - यह मानव आँत में रहता है और रक्तहीनता, अतिसार तथा दुर्बलताकारक है। यह चीन, बंगाल, असम आदि में पाया जाता है।
(घ) क्लोनॉर्किस साइनेन्सिस (Clonorchis sinnensis), चीनी यकृत पर्णाभ - यह अतिसार, यकृतवृद्धि और पीलियाकारक पर्णाभ है।
(च) पैरागोनिमस वेस्टरमेनाइ (Paragonimus westermani) - यह पूर्वी एशिया में पाया जाता है। वयस्क कृमि फेफडे में रहता है और खाँसी, कफ में रक्त आदि, क्षयरोग के से लक्षण उत्पन्न करता है।
गोलकृमि (Nemathelminthes) - यह लंबे, बेलनाकर, खंडहीन शरीरवाले प्राणी हैं, जिनमें नर और मादा अलग होते हैं, आहारनाल पूर्ण होती है और देहगुहा वर्तमान होती है। इनके अंडों को वयस्क बनने में लार्वा की चार अवस्थाएँ पार करनी पड़ती हैं। इस संघ के जीवन ५ मिमी. से १ मीटर तक लंबे होते हैं। ये अंडज, जरायुज या अंडजरायुज होते हैं। संघ के अधिकतर परजीवी मनुष्य में ही अपना जीवनचक्र पूर्ण करते हैं। फाइलेरिया और गिनीवर्म, जिन्हें मध्यस्थ परपोषी की आवश्यकता होती है, इसके अपवाद हैं। मानव शरीर में ये चार प्रकार से प्रविष्ट होते हैं : (१) खानपान से, अर्थात् संसेचित अंडों से युक्त भोजन से, जैसा केंचुआ, नेमाटोडा आदि के संक्रमण में होता है, या लार्वा संवाही साइक्लोप्स (cyclops) से युक्त जल को पीने से, या ट्रिकिनेल्ला (Trichinella) के मिस्टयुक्त मांस के भक्षण से, (२) त्वचाभेदन द्वारा, जैसे अंकुश कृमि प्रविष्ट होते हैं, (३) कीटवंश से, जैसे फाइलेरिया के कृमि प्रवेश करते हैं एवं (४) श्वास द्वारा धूल के साथ उड़ते अंडों के शरीर में प्रवेश करने से, जैसा केंचुआ या सूत्रकृमि के संक्रमण में होता है। इस संघ के कुछ प्रमुख गोलकृमियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
इन सभी परजीवी कृमियों द्वारा उत्पन्न रोगों के उपचार के लिये अनेक कृमिनाशक ओषधियाँ उपलब्ध हैं। इनमें से परजीवी विशेष के लिये उचित ओषधि का चयन गुणी चिकित्सक का काम है। कुछ प्रमुख ओषधियाँ निम्नलिखित हैं :
कृमिनाशक औषधियाँ - ऐंटिमनी यौगिक (एम.एस.बी., टार्टर एमेटिक, सोडियम ऐंटिमनी टार्टरेट, फोआडीन), एमेटीन, एक्रानिन, एटेब्रिन, कार्डोल (काजू के छिलके का सत), कार्बन ट्रेटाक्लोराइड, क्रिस्टॉयड्स, क्लोरोक्विन, चीनोपोडियम का तेल, जर्मानिन, जेंशियन बायलेट, टैरामायसिन, टेट्राक्लोरइथायलिन, डाईथायाज़ीन, पलाशवंडा, पिपराजीन, फेलिक्समास, बीफेनियम हाइड्रॉक्सिनैप्शेलेट, भिरासिल डी, सैटोनिन, सुरामीन, बेयर २०५, हेक्सिलरिसोर्सिनाल, डेट्राजान।
(भानुशंकर मेहता)