परजीविता प्रकृति में पाए जानेवाले स्वाभाविक सहवास (habitual association) में से एक है, जिसके द्वारा एक जीव दूसरे के साथ अतिथि और परपोषी (ण्दृद्मद्य) का संबंध स्थापित करके उसके शरीर से भोजन प्राप्त करता है। अन्य सहवासों में सहभोजिता (commensalism) और सहजीवन (symbiosis) उल्लेखनीय है। सहभोजिता में अतिथि अपने परपोषी के शरीर की केवल सुरक्षार्थ, या एक भोज्य स्थान से दूसरे तक पहुँचने के लिये, शरण मात्र लेता है। उसके शरीर को क्षति नहीं पहुँचाता। उदाहरणार्थ, मोलस्का (Mollusca) समूह के जंतुओं के कवचों (shells) पर बहुधा अन्य जंतु रहने लगते हैं। सहजीवन में अतिथि और परपोषी दोनों एक दूसरे से कुछ न कुछ लाभ प्राप्त करते हैं, उदाहरणार्थ आंतरगुही (coelenterata) समूह के हाइड्रा (hydra) नामक जंतु की कोशिकाओं में सूक्ष्म जूओक्लोरेला (Zoochlorella) नामक हरे शैवाल (algae) रहते हैं। परपोषी हाइड्रा शैवालों को सुरक्षा और भोजन प्रदान करता है, जिसके प्रतिदान में शैवाल उसके लिये ऑक्सीजन गैस उत्पन्न करते हैं। दोनों का संबंध इतना घनिष्ठ हैं कि वे एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते।
जब अतिथि परपोषी की बाह्य सतह पर रहता है तो उसे बाह्यपरजीवी (ectoparasite) और जब भीतर रहता है तो उसे अंत: परजीवी (endoparasite) कहते हैं।
मोटे तौर पर यदि देखा जाय तो जंतु समुदाय के सभी सदस्य किसी न किसी जंतु या पौधे पर निर्वाह करने के कारण परजीवी कहे जाने चाहिए। केवल पौधे ही ऐसे जीव हैं जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं और किसी दूसरे जीव पर निर्भर नहीं करते। परंतु मांसाहारिता (या पौधाहारिता) और परजीविता में भेद है, जो प्रकृतिवादी एल्टन (Elton, सन् १९३५) के प्राक्कथन से स्पष्ट हो जाता है। इनके अनुसार जंतु को मारकर खानेवाले और परजीवी में वही भेद है जो मूलधन और ब्याज पर निर्वाह करनेवालों में, अथवा चोर और धमकाकर रुपया ऐंठनेवाले (blackmailer) में हैं।
परजीविका की उत्पत्ति - स्पष्ट है, परजीविता अत्यंत पुरातन घटना (phenomenon) है, जो संभवत: स्वयं जीव की उत्पत्ति के पश्चात् शीघ्र ही उत्पन्न हुई होगी। चूँकि यह वृत्ति ग्रहण की हुई है, इसलिये अवश्य ही आज के परजीवी पहले के स्वतंत्र जीव रहे होंगे। यद्यपि परजीविता की उत्पत्ति का प्रत्येक पद (step) जानना संभव नहीं है, फिर भी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि परजीविता जीवों में परस्पर शारीरिक संपर्क स्थापित करने से उत्पन्न हुई होगी। जिन कारणों ने ऐसे संपर्क को उत्साहित किया होगा, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :
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परजीविता के प्रभाव - परजीविता का प्रभाव परपोषी और परजीवी दोनों पर पड़ता है :
(अ) परपोषी पर - पोषक शरीर पर परजीविता का कुछ न कुछ हानिकारक प्रभाव अवश्य पड़ता है। इस हानि की मात्रा परजीवी की सफलता या असफलता पर निर्भर करती है। सफल परजीवी अपनी अनुकूलनशीलताओं द्वारा परपोषी को कम से कम हानि पहुचाने की चेष्टा करता है, जिसके कारण परपोषी उसकी उपस्थिति की अधिक चिंता नहीं करता। इसके विपरीत असफल परजीवी के अधिक हानि के कारण वह या तो उपचार द्वारा, या अपने शरीर की प्राकृतिक प्रतिरक्षा (natural immunity) द्वारा, परजीवी से शीघ्र से शीघ्र छुटकारा पाने की चेष्टा करता है, अन्यथा स्वयं उसका शिकार बन जाता है। सफलता या असफलता परजीवी में परजीविता की प्राचीनता अथवा नवीनता की ओर भी संकेत करती है।
(ब) परजीवी पर - स्वयं परजीवी पर परजीविता के भारी प्रभाव पड़ते हैं, जो दो प्रकार के होते हैं : आकृतिक (morphological) और शरीरक्रियात्मक (physiological)।
आकृतिक प्रभाव निम्नलिखित हैं :
शरीरक्रियात्मक प्रभाव उपापचयी क्रियाओं (metabolic processes) से संबंधित रहते हैं। जो उपापचयी क्रियाएँ एक स्वतंत्र जीव के लिय नितांत आवश्यक होती हैं, उनमें से बहुत सी क्रियाएँ उनके सबंधी परजीवी में अनुपस्थित हो जाती है। उदाहरणार्थ, स्वतंत्र जीवाणु अपने सभी पदार्थ अकार्बनिक तत्वों से अपने एंजाइमों द्वारा संश्लिष्ट कर लेते हैं, परंतु उनके परजीवी संबंधियों में बहुत से एंजाइम अनुपस्थित होने के कारण ऐसा नहीं हो पाता। एंजाइमों को खोने का चरम उदाहरण विषाणु (ध्त्द्धद्वद्म) में पाया जाता है, जो अपना संपूर्ण एंजाइम तंत्र (enzymatic system) ही खोकर स्वयं न्यूक्लियोप्रोटीन (nucleo-protein) के केवल अत्यंत सूक्ष्म कण मात्र ही रह गए हैं। अंत: परजीवी को ऑक्सीजन रहित वातावरण में रहने की अनुकूलनशीलता भी उत्पन्न करनी पड़ती है तथा रुधिर परजीवी को रक्त जमने से बचानेवाला पदार्थ, अर्थात् ऐंटिकोआगुलीन (anticoagulin) उत्पन्न करना पड़ता है। यही नहीं साधारणतया परजीवी में पीएच (pH) (hydrogen ion) के परिवर्तन की सहनशीलता अधिक हो जाती है। स्वतंत्र जीवों में यह सहनशीलता सीमित होती है।
उपर्युक्त परिवर्तनों के अतिरिक्त परजीवी जीवनचक्र में भी अधिक संकुलता आ जाती है। अपने वंश के चलते रहने के हेतु परजीवी अपने जीवनचक्र में एक से अधिक परपोषी को ले आता है। जिस परपोषी में वह जनन के लिये परिपक्व होता है उसे प्रथम परपोषी (Primary host) तथा अन्य परपोषी को द्वितीय परपोषी (Secondary host) कहते हैं। ऐसा करने से परजीवी को लाभ यह होता है कि दोनों पकार के परपोषियों में से किसी एक के मर जाने पर भी उसका वंश चलता रहता है।
परजीविता का वितरण - परजीविता अधिकांश जीवसमूहों में विस्तृत है। कोई भी जंतु या पौधा ऐसा न बचा होगा जो किसी न किसी परजीवी को अपने में शरण न देता हो। फिर भी स्वयं परजीवी केवल निम्नश्रेणी के जीवसमूहों तक ही सीमित हैं। पापद परजीवी विषाणु (इनका जंतु अथवा वानस्पतिक समूहों में सम्मिलित किया जाना विवादास्पद है), जीवाणु (bacteria) और जंतुपरजीवी, मुख्यत: प्रोटोज़ोआ, हेलमिंथ (Helminth) तथा संधिपादगण (Arthropoda), जंतुसमूहों तक ही सीमित हैं।
विषाणु जीवाणु से भी सूक्ष्म, परंतु अनिवार्य परजीवी हैं, अर्थात् उनका कोई सदस्य स्वतंत्रजीवी नहीं है। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, इनमें संपूर्ण एंजाइम तंत्र का लोप हो जाने से इनका शरीर न्यूक्लिओप्रोटीन का केवल एक अत्यंत सूक्ष्म कण भाग ही रह गया है। इनकी विशेषता यह भी है कि निर्जीव पदार्थों की भाँति इनको भी क्रिस्टलीकृत (crystallise) करके अनिश्चित काल तक रखा जा सकता है। ये कई विषम रोग उत्पन्न करते हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं : चेचक, शिशुपक्षाघात, इन्फ्लुएंज़ा, संभवत: कैंसर आदि। पौधों में ये कई प्रकार के चकत्ते (mosaic) वाले रोग उत्पन्न करते हैं।
विषाणुओं के प्रतिकूल जीवाणुओं के कुछ सदस्य स्वतंत्र भी होते हैं। परजीवी सदस्य क्षय, कुष्ठ, डिप्थीरिया, टिटेनेस, प्लेग, उपदंश आदि रोग उत्पन्न करते हैं।
कवक समूह के सभी सदस्य स्वतंत्र भी होते हैं। परजीवी सदस्य क्षय, कुष्ठ, डिप्थीरिया, टिटेनस, प्लेग, उपदंश आदि रोग उत्पन्न करते हैं।
कवक समूह के सभी सदस्य जीवित अथवा मृत जीवशरीर पर रहते हैं। मनुष्य में ये चर्मरोग दाद (ringworm) तथा अनाजों का लाला रोग, 'कंडवा' (smut) और रितुआ (rust), फफूँदी (mildew) तथा आलू का सूखा रोग, अथवा चित्ती (blight) उत्पन्न करते हैं।
प्रोटोज़ोआ (Protozoa) के परजीवी, मलेरिया, अमीबी पेचिश, अफ्रीका का सुप्त रोग (sleeping sickness of Africa) आदि उत्पन्न करते हैं।
कृमि गण (Helminth) में यकृत-पर्णाभ-कृमि (देखें चित्र १.) अथवा 'फ्लूक' (liver fluke), पट्टकृमि (tape worms, देखें चित्र २.) तथा सूत्रकृमि (Nematode) वंश का ऐस्केरिस (ascaris) और फाइलेरिया उत्पन्न करनेवाला सूत्रकृमि जैसे परजीवी पाए जाते हैं।
खेती, अनाज, फल और शाक सब्जियों को भारी हानि पहुँचाते हैं। पिस्सू (flea), जूँ (louse), किलनी (tick), मक्खियाँ (flies), मच्छर आदि, जंतुओं में विभिन्न रोग उत्पन्न करते हैं।
उपर्युक्त श्रेणियों के अतिरिक्त असंख्य परजीवी क्रस्टेशिया, (Crustacea), आंतरगुहिका (Coelenterata), मोलस्का (Mollusca), रोटिफेरा (Rotifera), ऐनेलिडा (Annelida) जैसी श्रेणियों में भी उपस्थित हैं। फूलदार पौधों में 'मिसल्टो' (Mistletoe) नामक पौधा अर्धपरजीवी कहलाता है, क्योंकि वह केवल जल व लवण ही अपने परपोषी से प्राप्त करता है और भोजन का सृजन स्वयं करता है।
परजीविता के प्रकार - साधारण अर्थों में परजीविता को भोजन से ही संबंधित करते हैं, परंतु कुछ अन्य परजीविताएँ भी होती है, जिनका संबध केवल भोजन प्राप्त करने से ही नहीं है। वे निम्नलिखित हैं :
सामाजिक परजीविता - यह परजीविता उन जंतुओं में पाई जाती है जो सामाजिक स्तर पर जीवन व्यतीत करते हैं, उदाहरणार्थ मधुमक्खियों, बरों (wasps) और चींटियों (ants) की कई जातियों की गर्भित मादाएँ दूसरों के घोंसलों में घुसकर वहाँ की रानी मादा का मार, परिवार के अन्य सदस्यों को (जिनमें मजदूर और सिपाही वर्ग के सदस्य होते हैं) अपनी एवं अपनी उत्पन्न होनेवाली संतान की सेवा में लगा लेती हैं।
(कृष्णप्रसाद श्रीवास्तव)