पर (Feather) पक्षी की त्वचा का एक विशिष्ट प्रकार का श्रृगांकार (keratinous) उद्वर्ध (outgrowth) है, जो पक्षी के हवाई जीवन (aerial life) की आवश्यकता की पूर्ति करता है। इसके कारण शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकलती और भार में भी कमी रहती है।

वयस्क पर (Adult Feather) - सामान्य (typical) वयस्क पर में एक शुंडाकार (tapering) अक्षीय (axial) पिच्छाक्ष (rachis) होता है, जिसके दोनों ओर बहुत से छोटे छोटे समांतर पिच्छक (barb) होते हैं। हर एक पिच्छक में बहुत सी शाखाएँ होती हैं, जिन्हें पिच्छिकाएँ (barbules) कहते हैं। निकटवर्ती पिच्छिका के पिच्छक सूक्ष्म अंकुशीय पिच्छिकाप्रवर्ध (barbicels) के द्वारा अंतर्ग्रथित होते हैं, जिसके फलस्वरूप झिल्लीमय (membranous) परफलक (vane) बनता है। पिच्छक ढँके हुए निचले भाग में संबद्ध नहीं होते हैं और उनकी बनावट अंसगठित होती है। पर के आधार को, जो त्वचा के कूप (follicle) में जुड़ा रहता है, परनाड़ी (Calamus) कहते हैं। परनाड़ी में पिच्छिका नहीं होती। परनाड़ी का वह छिद्र जो त्वचा के कूप में जुड़ा रहता है निम्न पिच्छछिद्र (Inferior umbilicus) कहलाता है। परनाड़ी के ऊर्ध्व पिच्छछिद्र (Superior umbilicus) से, जो परनाड़ी और पिच्छक के जोड़ पर होता है, पिच्छक का छोटा गुच्छा, या एक संपूर्ण पश्चात्पर (After-feather) निकलता है। पश्चात्पर की उत्पत्ति केवल विभिन्न पक्षियों में ही भिन्न नहीं होती, प्रत्युत एक ही पक्षी के विभिन्न अंगों में, जैसे एमू (emu) और कैसोवरी (cassowary) में, पश्चात्पर भी वास्तविक पर के बराबर होता है।

पर के प्रकार - वयस्क पक्षी के पर (plumage) तीन प्रकार के होते हैं : देहपिच्छ (contour), रोमपिच्छ (filoplume) और कोमलपिच्छ (down-feather)* देहपिच्छ से अल्पवयस्क और वयस्क पक्षी का अधिकांश ढका होता है। देहपिच्छ बाहर से दिखाई पड़ते हैं और शरीर के आकार को भी बनाते हैं। इनमें पक्ष (wing) और पूँछ भी शामिल होती है। पक्ष के बड़े पर, पक्षपिच्छ (remiges), और पूँछ के बड़े पर, पुच्छपिच्छ (retrices), शरीर के सामान्य आच्छादन से विशेष रूप से अलग हैं। देहपिच्छ शरीर के एक भाग से निकलते हैं, जिसे पिच्छक्षेत्र (Pteryla) कहते हैं। पिच्छक्षेत्र एक दूसरे से अपिच्छक्षेत्र (apteria) के द्वारा विभाजित रहते हैं। केवल पेंग्विन (penguin) में ही पिच्छक्षेत्र सब जगह पाया जाता है। रोमपिच्छ केश की भाँति होता है, जिसके सिरे पर कुछ पिच्छिकाएँ होती हैं। रोमपिच्छ देहपिच्छ की जड़ में होता है। कोमलपिच्छ बहुत कम होता है और पिच्छक्षेत्र तथा अपिच्छक्षेत्र में भी पाया जाता है। इसकी पिच्छिकाएँ संगठित फलक नहीं बनातीं, किंतु लंबी और मुलायम होती हैं। इनमें पिच्छाक्ष नहीं होता।

अंडा फूटने के बाद जो पक्षी निकलता है, उसके शरीर के विभिन्न भागों में साधारणत: नीड़-शावक-पिच्छ (nestling down) होते हैं। नीड़-शावक-पिच्छ बहुत छोटे और प्रारंभिक पर होते हैं, जिनमें एक छोटी सी परनाड़ी में जुड़े कुछ पिच्छक होते हैं। इनकी पिच्छिकाएँ अत्यंत छोटी और सूत्राकर होती हैं।

पर का परिवर्धन (Development of Feather) - पर की उत्पत्ति भ्रूणावस्था (embryonic life) में त्वचा के अंकुरक (papillae) से होती है। त्वचा के अंकुरक में एक चर्भीय आंतरक (dermal core) होता है, जो अधिचर्म (epidermis) की सतह से ढका रहता है। चर्म की तेज वृद्धि से अधिचर्म गोल गुबंद की तरह हो जाता है, जिसे परमूल (feather germ) कहते हैं। जब परमूल कुछ लंबा हो जाता है ता अधिचर्म की दीवार कई समांतर कटकों (ridges) में बँट जाती है, जो पिच्छिका और पिच्छक के आद्यांग (rudiments) हाते हैं। पर अपने निर्माण के समय एक आवरण (sheath) से ढँक जाता है, जो अंडा फूटने के बाद जब त्वचा सूखती है तब फट जाता है। कोमलपिच्छ बन जान के बाद बहुत सी चमीर्य कोशिकाएँ अधिचर्मीय कोशिकाओं की एक सतह से ढकी हुई, परमूल की पेंदी में स्थायी रूप से पड़ी रहती हैं, जिन्हें परपैपिला (feather papillae) कहते हैं। सभी परवर्ती पर इसी परपैपिला से बनते हैं। अंडा फूट जाने के बाद नए पैपिला नहीं बनते। देहपिच्छ का पहला दल नीड़-शावक-पिच्छ का परित्याग होने के पहले बन जाता है, लेकिन उसके बाद कोई नया पर तब तक नहीं बनता जब तक किसी पर का निर्मोचन (moulting) न हो, या वह तोड़ न दिया जाय।

पर का निर्मोचन - सभी पक्षियों में प्राकृतिक रूप से हर साल परों का परित्याग (shedding) और पुन:स्थापन (replacing) होता है, जिसे निर्मोचन कहते हैं। पर, बाल की तरह ही मरी हुई संरचना (structure) है। हर साल जनन (breeding) ऋतु के बाद जो निर्मोचन होता है उसे पश्चकायद (post-nuptial) निर्मोचन कहते हैं। इसके अलावा बहुत से नर पक्षियों में प्रजनन ऋतु में विशिष्ट सजावटी पर उत्पन्न होते हैं। यह आंशिक (partial) निर्मोचन कहलाता है। निर्मोचन धीरे धीरे और क्रमबद्ध होता है। पेंग्विहन (penguin) पक्षी एक ही बार में सभी पंखों का परित्याग कर देता है। पक्षियों की जीवनी शक्ति को निर्मोचन के लिये बहुत आयास करना पड़ता है, क्योंकि हजारों नए परों के परिवर्धन में काफी रक्त की आवश्यकता होती है।

पर के रंग (Feather Colours) - वर्णकों (pigments) और पर के निम्न भागों पर पड़नेवाले प्रकाशीय प्रभाव (optical effect) के मेल से पर के विभिन्न और चमकदार रंग बनते हैं। वर्णकों के कारण पर के काले, भूरे, धूसर और अन्य रंग बनते हैं। वर्णक दानेदार (granular) होता है। पक्षी अपने भोजन से लाल, नारंगी और पीले रंग पाते हैं, जो चर्बी में घुलकर पंखों में पहुँच जाते हैं। संरचनात्मक रंग (structural colour) देहपिच्छ के पिच्छक और पिच्छिका की कोशिकाओं में विशेष परिवर्तन के कारण बनता है। नीला रंग पिच्छिका के बक्सनुमा रंगहीन कोशिकाओं की सतह से निकलता है, जो एक पतली, पारदर्शक, रंगहीन उपत्वचा के नीचे होती है। यह उपत्वचा केवल नीला रंग परावर्तित (reflect) करती है, शेष रंग नीचे की कोशिकाओं के काले रंग से अवशोषित (absorb) हो जाते हैं। पिच्छिका की रंगहीन सतह से जो प्रकाशतरंग परावर्तित होती है उसी के व्यतिकरण (interference) से कबूतर, मोर और दूसरे पक्षियों का बहुवर्णभासी (iridescent) रंग बनता है।

परों के मुख्य उपयोग - पर (१) शरीर की गरमी को बाहर नहीं जाने देता; (२) त्वचा को भींगने से बचाता है; (३) उड़ान में मदद करता है; (४) पक्षी को अपने आसपास के रंगों में अदृश्य कर देता है, जिसमें वह दुश्मन से बच सके; (५) नर के अनुरंजन (courtship) में मदद करता हैं; (६) घोंसला बनाने में और नीड़शावक को गरमी पहुँचाने में मदद करता है तथा (७) अपने निकट संबंधी को पहचानने में मदद करता है।

पर के व्यापारिक अनुप्रयोग निम्नलिखित हैं :

  1. हँस और समवर्गी, जलीय पक्षियों की मुलायम, हलके और लचीले पर गद्दी बनाने में काम आते हैं। राजहंस, बतख और घरेलू मुर्गी के परों की भी गद्दी बनती है।
  2. छठी से उन्नीसवीं शताब्दी तक हंस, राजहंस, चील, कौए और उल्लू के पर अधिकतर लेखन के लिये कलम के काम में आते थे।
  3. शुतुरमुर्ग (Ostrich) के पर महिलाओं के शिरोवस्त्र के सजाने में काम आते हैं।
  4. उल्लू के परों से बुरुश और झाड़न बनते हैं। तथा

मछली पकड़ने में भी परों का उपयोग होता है।(सत्येंद्र पांडेय)