पद्माकर हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। मुगल काल में व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण इनके पूर्वज अपना मूल स्थान छोड़कर क्रमश: उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों में बस गए। यह परिवार अपनी साहित्यिक अभिरुचि और तंत्र-मंत्र-सिद्धि के लिये आरंभ से ही सुविख्यात रहा और ये सभी गुण पद्माकर जी को भी विरासत में मिले थे। इनके पिता मोहनलाल जी बाँदा में रहते थे और वहीं शाहआलम के राजत्वकाल में, सन् १७५३ ई. में, पद्माकर जी का जन्म हुआ। कुछ लोग सागर (मध्य प्रदेश) को भी इनका जन्मस्थान मानते हैं।
पद्माकर के कविजीवन का श्रीगणेश सागर दरबार से हुआ। बाल्यावस्था में ही इन्होंने 'संपति सुमेर की......' वाली सुप्रसिद्ध रचना महाराज रघुनाथराव को सुनाई थी जो आज भी हिंदीभाषियों में अत्यंत लोकप्रिय है। इस रचना पर पद्माकर जी को एक लाख मुद्राएँ भी महाराज ने अर्पित की थीं जिसके कारण यह रचना और रचनाकर का वंश अद्यावधि ''लाखिया'' उपाधि से सम्मानित होता है। इसके बाद पद्माकर जी बुंदेलखंड की जागीर जैतपुर के अंतर्गत सुमरा के सुप्रसिद्ध योद्धा अर्जुनसिंह नोने के आश्रय में गए। यहाँ से कुछ ही काम बाद ये दतिया के नरेश महाराज परीक्षित के यहाँ और तदनंतर हिम्मतबहादुर के यहाँ चले गए जिनकी प्रशस्ति में इन्होंने अपना पहला प्रबंधकाव्य 'हिम्मतबहादुर बिरदावली' रचा। फिर कुछ दिनों ये सितारा, सागर और जन्मस्थान बाँदा में रहकर जयपुर पहुँचे जहाँ सवई प्रतापसिंह जी उन दिनों सिंहासनारूढ़ थे। महाराज प्रतापसिंह जो स्वयं कवि और अत्यंत गुणग्राही थे। उन्होंने पद्माकर जी को अपना दरबारी कवि बना लिया। महाराज के साथ पद्माकर जी ने अनेक यात्राएँ की। दोनों सज्जन काशी भी आए थे। महाराज प्रतापसिंह के देहावसान के बाद पद्माकर जी उनके चिरंजीवी सुपुत्र महाराज जगतसिंह के आश्रय में पुन: जयपुर पहुँचे और उन्हीं के नाम पर अपना सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ 'जगद्विनोद' बनाया। दैवयोग से इन्हीं दिनों इन्हें कुष्ट हो गया। शारीरिक अवस्था भी ढल चली थी, अत: मल की प्रवृत्तियाँ दूसरी ओर उन्मुख हुई। जयपुर में ही इन्होंने 'प्रबोध पचासा' की रचना की परंतु कुष्ट से इनकी मुक्ति नहीं हुई। सन् १८२७ में ७४ वर्ष की अवस्था में, ये चरखारी दरबार में गए, पर वहाँ इनका बड़ा अपमान हुआ। महाराज ने इन्हें दर्शन तक नहीं दिए। इन सबका इनके मन पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और अंत में पतितपावनी जाह्नवी की स्तुति करने एवं उनकी कलिमलहारिणी धरा में अवगाहन करने में ही इन्होंने अपना कल्याण समझा। कहा जाता है, इस जीवन चर्या ने उन्हें रोगमुक्त कर दिया और उन्होंने सन् १८३३ ई. में कानपुर में, ८० वर्ष की अवस्था में शरीरत्याग किया।
इनके रचित ग्रंथ हैं - (१) हिम्मतबहादुर विरदावली, (२) पद्माभरण (अलंकारग्रंथ), (३) जगद्विनोद, (नायिकाभेद), (४) आलीजाहप्रकाश, (५) प्रबोधपचासा, (६) हितोपदेश, (७) प्रतापसिंह बिरदावली, (८) कलिपचीसी वा ईश्वरपचीसी, (९) रामरसायन, (१०) गंगालहरी।
सं.ग्रं.- गंगालहरी, संपा. श्री सुधाकर पांडेय, ना.प्र.सभा, काशी; पद्माकर (ग्रंथावली) संपा. श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र, ना.प्र.सभा, काशी।
(शंभुनाथ वाजपेयी)