पतंजलि संस्कृत साहित्य के इतिहास में ईसा पूर्व की शताब्दियों में 'पतंजलि' एक ऐसे ग्रंथकार हैं जिनका समय पूर्णत: प्रामाणिक और मान्य है। पातंजल योगसूत्र, व्याकरण महाभाष्य और वैद्यक की चरक संहिता - इन तीनों के वे रचनाकार कहे गए हैं, किंतु इनमें से प्रथम दो ग्रंथ ही पतंजलि के नाम से उपलब्ध हैं पर तृतीय ग्रंथ का लेखक - स्वयं ग्रंथ के अनुसार - भिन्न पुरुष था। १७वीं शताब्दी के वैयाकरण नागोजी (नागेश) भट्ट ने अपने 'मंजूषा' नामक व्याकरणग्रंथ में 'इति चरके पतंजलि:' कहा है। इससे जान पड़ता है कि चरकसहिंताकार भी पतंजलि ही थे। पर आधुनिक इतिहास लेखक चरकसंहिताकार और महाभाष्यकार को भिन्न मानते हैं। चरकसंहिता कुछ विद्वानों ने पंतजलिलिखित नहीं मानी है। 'योग सूत्र' और 'महाभाष्य' के निर्माता ही पतंजलि ना से निर्दिष्ट है। परंतु 'भारती विद्या' (इंडोलोजी) के अधिकांश अनुशीलकों और पंडितों के अनुसार इन दोनों ग्रंथों के लेखक भी दो पंतजलि माने जाते हैं। इस संबंध में अनेक आभ्यंतर और बाह्य प्रमाण एवं तर्क उपस्थित किए गए निष्कर्ष रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि 'योगसूत्र' और 'महाभाष्य' - दोनों कृतियों के ग्रंथकारों का नाम पतंजलि था। पर दोनों अभिन्न थे या भिन्न भिन्न आचार्य, यह अनिश्चित है। यह 'पतंजलि' नाम पदाचित् इसलिये पड़ा कि आचार्य का देखकर प्रणाम की करांजलियाँ चारों ओर उठने लगती थीं।
महाभाष्यकार 'पतंजलि' का समय असंदिग्ध रूप में ज्ञात है। पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में पतंजलि वर्तमान थे। महाभाष्य के निश्चित साक्ष्य के आधार पर विजयोपरांत पुष्यमित्र के श्रौत (अश्वमेघ) यज्ञ में संभवत: पतंजलि पुरोहित थे। यह (इह पुष्यमित्रं याजयाम:) महाभाष्य से सिद्ध है। साकेत ओर माध्यमिका पर यवनों के आक्रमणकाल में पतंजलि विद्यमान थे। अत: महाभाष्य और महाभाष्यकार पतंजलि - दोनों का समय ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी निश्चिम है। द्वितीय शताब्दी ई.पू. में मौर्यों के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग - मौर्य वंशी बृहद्रथ को मारकार गद्दी पर बैठे थे। नाना पंडितों के विचार से २०० ई.पू. से लेकार १४० ई.पू. तक महाभाष्य की रचना का मान्य काल है।
पाणिनीय व्याकरण में 'मुनित्रय' को बहुत ही उच्च और प्रामाणिक पद दिया गया है। अष्टाध्यायी कार पाणिनी, वार्त्तिककार कात्यायन और महाभाष्यकार पतंजलि - इन्हीं तीनों को 'मुनित्रय' कहा गया है। व्याकरणशास्त्र के इतिहास में पाणिनीय व्याकरण की शाखा के अतिरिक्त पूर्व और परवर्ती अनेक व्याकरण शाखाएँ रही हैं। परंतु 'मुनित्रय' से पोषित और समर्थित व्याकरण की पाणिनीय शाखा को जो प्रसिद्धि, मान्यता और लोकप्रियता प्राप्त हुई वह अन्य शाखाओं को नहीं मिल सकी - जिसका कारण महाभाष्य ही माना गया है। अष्टाध्यायी पर 'कात्यायन' ने वार्त्तिकों की रचना द्वारा व्याकरणसिद्धांतों को अधिक पूर्ण और स्पष्ट बनाया। 'पतंजलि' ने मुख्यत: वार्त्तिकों की व्याख्या को महाभाष्य द्वारा आगे बढ़ाया। अनेक स्थलों पर उन्होंने कात्यायनमत का प्रत्याख्यान और पाणिनिमत की मान्यता भी सिद्ध की है। कभी कभी उन सूत्रों की भी विवेचना की है जो कात्यायन ने छोड़ दिए थे।
इस महाभाष्य की रचनापीठिका का निर्देश करते हुए वाक्यपदीयकार 'भर्तृहरि' ने बताया है कि जब व्याकरण के पाठक संक्षेपरुचि और अल्पविद्यापरिग्रह बन गए, 'संग्रह' ग्रंथ (जिसके कर्ता परंपरा के अनुसार व्याडि हैं) अस्त हो गया। तीर्थदर्शी गुरु पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की, जिसमें सभी न्यायबीजों का भी निबंधन है। इससे पता चलता है कि 'पतंजलि' के पूर्व 'संग्रह' नामक ग्रंथ में व्याकरण संबद्ध विवेचन अत्यंत विस्तृत था।
महाभाष्य की महत्ता के अनेक कारण हैं। प्रथम हेतु है उसकी पांडित्यपूर्ण विशिष्ट व्याख्याशैली। विवादास्पद स्थलों पूर्वपक्ष उपस्थित करने के बाद उत्तरपक्ष उपस्थित किया है। शास्त्रार्थ प्रक्रिया में पूर्व और उत्तर पक्षों का व्यवहार चला आ रहा है। इसके अतिरिक्त आवश्यक होने पर उस पक्ष का भी उपन्यास किया है। विषयप्रतिपादन दूसरी विशेषता संबंध रखती है। तीसरा एक और भी जाता है। महाभाष्य की व्याख्या का क्रम तो अष्टाध्यायी और तदंतर्गत चार पादों और उनके सूत्रों का क्रम है। पर भाष्य के अपने क्रम में व्याख्या का नियोजन विभक्त है, जिसका अर्थ यह भी होता है कि एक 'महाभाष्य' लिखा जाता रहा। किंवदंती के अनुसार 'फणी' अथवा शेषनाग का अवतार कहा जाता है। दूसर भी प्रचलित है कि वे शेष भगवान् के सर्परूप में ही अवतार मनुष्यवाणी बोलते थे। अपने विद्यार्थियों को अपना स नहीं थे। पर्दे के भीतर से मानवभाषा में महाभाष्य पढ़ाया प्रत्येक दिन का वही पाठ 'आह्निकों' में विभक्त हैं। उन स्थान जैतपुरा (वाराणसी) मुहल्ले के समीपस्थ नागकुआँ है। महाभाष्य के सर्वप्रथम आह्निक का नाम पस्पाश इसमें व्याख्या नहीं है पर व्याकरण अध्ययन के प्र सप्रमाण और विस्तृत विवेचन है। कुछ लोग महाभाष्य मानकर इसका मूलरूप अनुपलब्ध लघुभाष्य मानते हैं कर्ता गोनर्दीय भिन्न व्यक्ति माने गए हैं। पर अधिक गोणिकमपुत्र पतंजलि और गोनर्दीय को एक ही व्यक्ति करते हैं और लघुभाष्य की सत्ता ही नहीं मानते। इस के कारण भी महाभाष्य को महत्ता मान गई है। म प्रसिद्ध ना है, संभवत: इसका मूल नाम 'शब्दानुशासन' है।
'पतंजलि' ने अपने महाभाष्य में व्याकरण की दार्शनिक शब्दनित्यत्ववाद या स्फोटबाद अथवा शब्दब्रह्मवाद का किया है। इस सिद्धांत को भर्तृहरि ने विस्तार के सा पदीय में पल्लवित किया है। महाभाष्य की महत्ता का यह कारण है। साहित्यिक दृष्टि से महाभाष्य का गद्य अतय अकृत्रिम, मुहाबरेदार, धाराप्रावाहिक और स्पष्टार्थबोध भर्तृहरि ने इसपर टीका लिखी थी पर उसका अधिकांश अनुपलब्ध है। केय्यट की 'प्रदीप' नामक टीका और नागोज उद्योत नाम से 'प्रदीपटीका' प्रकाशित है। भटृटोजी दीक्षित अपने 'शब्दकोस्तुभ' की रचना महाभाष्य के आधार पर बता।
'पतंजलि' का 'योगसूत्र' योग दर्शन का मूल ग्रंथ है 'चित्तवृत्ति निरोध' को योग मानकर यति, नियम, आसन आदि योग का मूल सिद्धांत उपस्थित किया गया है। प्रतयक्ष और रूप में हठयोग, राजयोग और बलयोग - तीनों का मौलिक यहाँ मिल जाता है। दार्शनिक दृष्टि से योग और सांख्य दो आधारभूत पदार्थमीमांसा प्राय: समान है। उसी को लेकर पद योगसूत्र की योजना प्रस्तुत की है। इस पर भी अनेक टोव भाष्य लिखे गये हैं। आसन, प्रणायाम, समाधि आदि विवेचना और व्याख्या की प्रेरणा लेकर बहुत से स्वतंत्र ग्रंथों भी हुई। पर योगदर्शन की शाखाओं का मूल प्रेरणा है। इस ग्रंथ से स्पष्टत: प्रतीत होता है कि इस योगसूत्र का स्वयं भी योगी था। षडास्तिक दर्शनों में योगदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। कालांतर में योग की नाना शाखाएँ विकसित हुई जिन्होंने बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर प्रभाव डाला।