पंत, गोविंदवल्लभ जन्म अलमोड़ा में १० सितंबर, १८८७ ई. (अनंत चतुर्दशी) को हुआ। आप की शिक्षा अलमोड़ा तथा बाद में म्योर सेंट्रल कालेज, इलाहाबाद में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. और एल-एल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के अनंतर आपने सन् १९०९ ई. में नैनीताल में इलाहाबद हाईकोर्ट के ऐडवोकेट के रूप में वकालत आरंभ की। लगभग इसी समय से आपने सार्वजनिक जीवन और राजनीत में सक्रिय रूप से कार्य करना आरंभ किया। १९१६ ई. में आपने 'कुमायूँ परिषद्' की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य पर्वतीय क्षेत्रों की विभिन्न समस्याओं का व्यापक अध्ययन और वहाँ के निवासियों के योगक्षम को उन्नत करना था। साउथबरो कमेटी के समक्ष आपने उक्त परिषद् की ओर से साक्षी दी जिसके फलस्वरूप पर्वतीय क्षेत्र भी इस कमेटी तथा मांट्येगू-चेम्सफ़ोर्ड-सुधारों की सुविधा पाने लगे। इसी वर्ष आप अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गए। प्रांतीय कौंसिल में आप लगातार सात वर्षों तक स्वराज्य पार्टी की ओर से उसके नेता के रूप में कार्य करते रहे। साइमनकमीशन-विरोधी प्रदर्शन में सन् १९२६ ई. में आपने लखनऊ में भाग लिया और पुलिस के दमन के शिकार हुए। हमारे प्रथम प्रधान मंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू को पुलिस की लाठियों के निर्मम प्रहार से बचाने के लिए आपने उन्हें अपनी प्रशस्त काया के नीचे छिपा लिया, फलस्वरूप सारे प्रहार आपपर ही पड़े जिस कारण जीवन पर्यंत आप विधि शारीरिक कष्ट झेलते रहे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में सन् १९३० और १९३२ के बीच आपको दो बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी। सन् १९३१ में आप अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यसमिति के सदस्य निर्वाचित हुए और जीवन भर विभिन्न रूपों में इस समिति की सेवा करते रहे। सन् १९३४ में आप केंद्रीय विधान सभा के लिए सदस्य निर्वाचित हुए जहाँ कांग्रेस दल के उपनेता के रूप में आपने सेवा की। सन् १९३७ ई. में नए संविधान के अनुसार हुए चुनाव में आप संयुक्त प्रदेश (अब उत्तर प्रदेश) विधान सभा के सदस्य चुने गए। इस चुनाव में कांग्रेस दल को विशाल बहुमत प्राप्त हुआ था और आप ही उसके नेता तथा प्रदेश के मुख्य मंत्री बनाए गए। सन् १९३९ ई. में द्वितीय महायुद्ध का श्रीगणेश हुअ। देश में ब्रिटिश की दमन नीति उग्र में उग्रतर होती गई और स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करना असंभव हो जाने पर कांग्रेस के निर्णयानुसार आपने १९४० ई. में पूरे दल के साथ विधान सभा से त्यागपत्र दे दिया। नवंबर, १९४० में सत्याग्रह आंदोलन के कारण पुन: गिरफ्तार हुए और लगभग एक वर्ष तक जेल में सजा भुगतने रहे। अगस्त, १९४२ के सुप्रसिद्ध 'भारत छोड़ो' आंदोलन में प्रमुख रूप से भाग लेने के कारण अन्यान्य नेताओं के साथ आपको भी गिरफ्तार किया गया। लगभग २।। वर्ष जेल में रहने के पश्चात् मार्च, १९४५ ई. में रिहा किए गए। जून, सन् १९४५ ई. में आपने शिमला सम्मेलन में भाग लिया और मुस्लिम लीग के नेता स्व. मुहम्मद अली जिन्ना से होनेवाली वार्ताओं में कांग्रेस दल के एक प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए। तदनंतर आप कांग्रेस वकिंग कमेटी के सदस्य और संयुक्त प्रदेशीय संसदीय दल के अध्यक्ष निर्वाचित किए गए। सन् १९४६ ई. में आप संविधान परिषद् (कांस्टिट्युएंट असेंबली) के सदस्य चुने गए। इसी वर्ष आप पुन: संयुक्त प्रदेश के मुख्य मंत्री निर्वाचित किए गए और जनवरी, १९५५ तक इसी पद पर बने रहकर इस राज्य की सेवा करते रहे। तदनंतर स्व. नेहरू जी के आवाहन पर आप केंद्रीय सरकार में सम्मिलित हुए और यहाँ गृहमंत्री के रूप में मृत्युपर्यंत सेवा की। ७ मार्च , सन् १९६१ को, कुछ ही दिनों की बीमारी के बाद आपका शरीरांत हो गया।
आपका स्वभाव एक ओर जहाँ अत्यंत मृदुल था, वहीं दूसरी ओर आप अत्यंत दृढ़ निश्चयवाले और सिद्धांतों का पालन करने में अत्यंत कठोर भी थे। दूसरों के दु:ख और कष्ट को अपना ही दु:ख और कष्ट समझकर उसके निवारण की चेष्टा में आप सदैव आगे रहा करते थे। सार्वजनिक सेवाकार्य उनके जीवन का व्रत था और अंत तक उन्होंने इसका अत्यंत कड़ाई से पालन किया। हिंदी का हितसावन उनके लिए स्वभावत: अत्यंत कठोर व्रत था, जिसका पालन करने में वे कभी पीछे नहीं हटे। जब और जहाँ अवसर मिलता था, वे हिंदी-हितसाधन के कार्यों को एकनिष्ठ भाव से पूरा किया करते थे। परिश्रमी तो इतने थे कि लगातार १८-१८ घंटे निरतर एक सी गति से कार्य करने पर भी थकावट का अनुभव नहीं करते थे। प्रयाग, लखनऊ और काशी के विश्वविद्यालयों ने आपको एल-एल. डी. की सम्मानित उपाधियाँ प्रदान की थीं।
नागरीप्रचारिणी सभा से आपका संबंध अत्यंत घनिष्ठ रूप में रहा। २९ नवंबर, सन् १९५५ को सभा ने आपको अपना 'मान्य' सभासद चुना। तब से लेकर अंतिम क्षण पर्यंत आप सभा के हितसाधन में दत्तचित्त रहे। सन् १९३७ में प्रदेश का मुख्य मंत्रित्व ग्रहण करने पर जब आपका प्रथम बार काशी पधारना हुआ, आपने सभा में भी पधारने की कृपा की परंतु सभा की वास्तविक सेवा आपने द्वितीय बार मुख्य मंत्री पद सँभालने पर ही की। ६० वर्ष पूरे करने पर सभा ने संवत् २०१० में अपनी हीरक जयंती मनाई थी। माननीय पंत जी ने उस अवसर पर अपनी शुभाशंसा प्रकट की।
संवत् २००२ (सन् १९४५) में नागरीप्रचारिणी सभा ने काशी के श्री श्रीनिवास जी द्वारा प्रस्तुत 'प्रतिसंस्कृत देवनागरी लिपि' को स्वीकार करने और उसके व्यवहार की व्यवस्था करने पर प्रस्ताव प्रादेशिक राज्य सरकार के समक्ष रखा था। आपकी सहमति से सरकार ने इस प्रश्न के विचारार्थ स्व. आचार्य नरेंद्रदेव जी की अध्यक्षता में एक कमेटी संघटित की जिसने समस्त देश के संबद्ध विद्वानों को विचारार्थ आमंत्रित किया और ऐसे समतल प्रयत्नों पर विचार करके लिपि का एक सुधरा हुआ रूप स्वीकार किया। पर उसमें 'प्रतिसंस्कृत देवनागरी लिपि' में प्रस्तावित सुधार पूर्णत: ग्रहण नहीं किए गए थे, अत: सभा ने भी उसका व्यवहार स्थगित कर दिया। संवत् २००९ (सन् १९५२ ई.) में सभा ने हिंदी साहित्य का वृहत् इतिहास प्रकाशित करने की एक योजना प्रादेशिक सरकर के समक्ष उपस्थित की थी; आपकी ही प्रेरणा से सरकार ने उसपर भी विचार किया, यद्यपि उस समय इस कार्य को आगे बढ़ाने का निर्णय कई कारणों से सरकार नहीं कर सकी। अपनी हीरक जयंती पर सभा ने उसे और विस्तृत तथा व्यापक रूप देकर स्वत: अग्रसर करने का निश्चय किया। यह इतिहास १६ भागों में पूरा होगा जिनमें से पाँच भाग अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी शब्दसागर का संशोधन, परिवर्धन, आकर ग्रंथों की एक माला, प्रस्तुत हिंदी विश्वकोश का संपादन आदि शाश्वत महत्व के जितने ठोस कार्य संप्रति सभा ने उठा रखे हैं, इन सबके मूल में माननीय पंत जी की प्रेरणा और आर्शीवाद ही कार्य कर रहे हैं।(शंभुनाथ वाजपेयी)