पंखा (देखें चित्र १.)। इसे तेज रफ्तार से चलाने के लिए परिस्थिति के अनुसार काउंटर शाफ्ट या किर्रों की शृंखला का प्रयोग करना होता है। आधुनिक पंखों में कई सुधार करके उन्हें छोटे बड़े कई नापों में बनाया जाता है। जहाँ अधिक दाब पर हवा देना अभीष्ट होता है वहाँ विशेष प्रकार का पंखा, जिसे 'रूट ब्लोअर' कहते हैं, लगाया जाता है। यह कम खर्च में तथा अधिक क्षमतापूर्वक काम करता है। इसमें एक विशेष प्रकार की आकृतिवाली, बेलननुमा दो प्रेरक पंखुड़ियों (आंतरनोदक, impellers) को दो अलग अलग धुरों पर लगाकर किरों द्वारा एक दूसरे की विरोधी दिशा में घुमाया जाता है। इस प्रकार ये ऊपर की तरफ, जालीयुक्त प्रवेशमार्ग से हवा को पकड़कर नीचे की तरफ लगे प्रदाय नल से बलात् प्रेषित करती हैं। इनके घूमने की गति ३०० चक्कर प्रति मिनट से अधिक नहीं होने दी जाती (देखें चित्र २.)। जहाँ इस प्रकार के एक ही पंखे से अनेक भट्ठियों को हवा देने की योजना होती है वहाँ प्रेषित हवा को प्रथम एक बड़ी टंकी में संचित करके फिर समस्त भट्ठियों तथा अँगीठियों में वितरित किया जाता है, जिससे प्रदाय प्रणाली में वायु की दाब सदैव एक समान रहे। ढलाई में तथा खानों का क्यूपोला भट्ठियों में हवा पहुँचाने के लिए ये पंखे बड़े उपयुक्त सिद्ध हुए हैं।

चित्र १. अपकेंद्री पंखा

उपर्युक्त दोनों प्रकार के पंखों के सिद्धांत में भिन्नता है। अपकेंद्री पंखा अपने भ्रमणकेंद्र पर बने वायु-प्रवेश-मार्ग और उसकी परिधि पर बने प्रदायमार्ग के बीच के भाग में ही हवा को आवश्यक वेग प्रदान कर देता है। उस मार्ग में ज्यों ज्यों हवा का वेग बढ़ता हैं, जड़त्व के कारण हवा का धनत्व भी बढ़ता है जो अंत में दाब के रूप में परिणत हो जाता है। यह दाब पंखे के परिभ्रमण वेग पर निर्भर करती है। पंखे के एक सी चाल से घूमते समय, ज्यों ज्यों हवा का प्रतिरोध बढ़ता है त्यों त्यों प्रदायित हवा का आयतन तथा उसके द्वारा अवशोषित शाक्ति की मात्रा घटती जाती है। उदाहरणत:, यदि हम प्रदाय द्वार को बिलकुल बंद कर दें तो प्रतिरोध की मात्रा तो महत्तम हो जाए, लेकिन इस दशा में यदि पंखा एक सी ही रफ्तार से घूमता रहे तो उसकी पंखुड़ियाँ, पंखें के खोल के भीतर ही भीतर केवल उस हवा का मंथन करती रहेंगी। अत: जब प्रदाय की मात्रा शून्य होती हैं, पंखे में शक्ति का खर्च भी न्यूनतम होता है।

लेकिन रूट ब्लोअर नामक पंखा दूसरे ही सिद्धांत का काम करता है। इसके अंतरनोदकों की पंखुड़ियों की, जो दो स्वतंत्र बेलनों के रूप में बनी होती है, परिधि की रूपरेखा ऐसी बनी होती है कि वे किसी न किसी तल पर एक दूसरे से सदैव सटी रहती हैं और उनके बीच में हवा का जो भाग एक बेर पकड़ में आ गया वह बाहर नहीं निकल सकता। इसीलिए इस प्रकार के पंखे को निश्चयात्मक पंखा (Positive fan) भी कहते हैं। अत: एक पूरे चक्कर में वे पंखुड़ियाँ चार बार हवा की कुछ मात्रा को कैद करके प्रदाय मार्ग की तरफ बलात् ढकेलनी हैं जिसमें उन्हें प्रतिरोध का सामना करना होता है और वह हवा भी उसी प्रतिरोध के अनुपात से संपीड़ित होकर दाब उत्पन्न करती है। इस प्रकार का पंखा यदि निरंतर एक सी ही रफ्तार से घूमता रहे, प्रदाय मार्ग की तरफ कोई घटा बढ़ी न की जाए और भट्ठियों की तरफ हवा का प्रेषण चालू रहे तो इस प्रकार के पंखे द्वारा अवशोषित शक्ति की मात्रा प्रतिरोध की मात्रा के अनुसार ही घटे बढ़ेगी। यदि प्रदाय मार्ग बिलकुल बंद कर दिया जाए, तो पंखे द्वारा अवशोषित शक्ति की मात्रा महत्तम हो जाएगी। इस प्रकार के पंखे की रफ्तार को यदि दुगुना कर दें, तो उसके द्वारा प्रेषित वायु का आयतन भी दुगुना, दाब चौगुनी और शक्ति का खर्च अठगुना हो जाता है। अत: इस प्रकार के पंखे एक निश्चित रफ्तार से चलने के लिए ही बनाए जाते हैं और इनकी थोड़ी अधिक रफ्तार बढ़ाने से शक्ति का खर्चा बहुत बढ़ जाने के कारण इनकी कार्यक्षमता बहुत ज्यादा घट जाती है।

इस प्रकार के पंखे की बनावट चित्र १. में दिखाई गई है। यह स्टटेंवैंट (च्द्यद्वद्धद्यड्ढध्aदद्य) इंजीनियरिंग कंपनी, क्वीन विक्टोरिया स्ट्रीट, लंदन द्वारा बनाया हुआ है। इसका प्रयोग लोहारखानों तथा ढलाईखानों में सभी जगह हो सकता है। इसमें वायु के प्रवेश के लिए खोल के केंद्र में दोनों तरफ छेद बने हैं, जिनका व्यास पंखे के व्यास का लगभग आधा है। इसमें छह बड़ी पंखुड़ियाँ तो धुरी के निकट से परिधि तक और उनके बीच बीच में दो दो छोटी पंखुड़ियाँ परिधि के निकट लगा दी गई हैं, जिनकी लँबाई बड़ी पंखुड़ियों की आधी है। सभी पंखुड़ियों को परिधि के निकट जाकर, पंखे के घूमने की दिशा के पीछे की तरफ मोड़ दिया गया है। पंखे के खोल का व्यास, पंखे के व्यास का लगभग गुना बनाया गया है। यह दो अर्धकों में विभक्त है। पंखे की धुरी चूलयुक्त बेयरिंगों में घूमती है, जिनमें निरंतर तेल पहुँचाने का प्रबंध भी है।

पंखों द्वारा निर्गत वायु की मात्रा - इसका निश्चय सैद्धांतिक रीति की अपेक्षा प्रयोगों द्वारा करना अधिक सरल है। प्रयोग करने के लिए, पंखे के प्रदाय द्वार पर उसी व्यास का, ८-१० फुट (३ मीटर) लंबा एक नल लगा दिया जाता है, जिसके मुँह पर एक पवन-वेग-मापी (anemometer) लगाकर, परीक्षण के समय प्रति दो मिनट बाद पाठ्यांक लेकर, हवा का औसत वेग प्रति मिनट मालूम कर लिया जाता है। हमें प्रदाय जल का क्षेत्रफल मालूम रहता है, जिससे वायु की निर्गत मात्रा नल का क्षेत्रफल मालूम रहता है, जिससे वायु की निर्गत मात्रा का आयतन मालूम हो सकता है। लेकिन वास्तविक निर्गत सैद्धांतिक निर्गत से फिसलन (slip) आदि के कारण सदैव कुछ कम रहा करता है। रूट ब्लोअर में यह गणित और भी सरल हो जाता है। चित्र २. में दिखाए अनुसार रूट ब्लोअर की पंखड़ियाँ उतने ही आयतन में हवा पकड़ सकती हैं जितना छायाच्छादित क्षेत्र में बाईं तरफ दिखाया है। रूट ब्लोअर के एक चक्कर में उक्त पंखुड़ियाँ चार बार हवा पकड़ती हैं, अत: उनके चक्करों की प्रति मिनट संख्या मालूम होने पर निर्गत वायु का आयतन प्रति मिनट सहज ही जाना जा सकता है।

अनुभव द्वारा मालूम हुआ है कि यदि हवा की दाब ३० सेंमी. पानी के गेज से अधिक आवश्यक न हो, तब तो अपकेंद्री प्रकार का पंखा ही लगाना चाहिए, पर यदि ३० से लेकर ४५ सेंमी. के बीच हवा की दाब आवश्यकता हो तो रूट ब्लोअर, और यदि तीन से लेकर चार पाउंड प्रति वर्ग इंच या इससे भी ऊँची दाब की आवश्यकता हो तो धोंकनी इंजन लगाना चाहिए। ढलाईखानों की क्यूपोला भट्ठियों में २१ से लेकर २८ इंच (५३.३ से लेकर ७१.१ सेंमी.) दाब युक्त हवा की आवश्यकता पड़ा करती है, जिसके लिए प्रति टन लोहा गलाने पर प्रति घंटा २.५ से लेकर ३ अश्वशक्ति (१.८६ से लेकर २.२४ किलोवाट) तक खर्च हो जाती है। ऐसी स्थिति में रूट ब्लोअर पंखा ही उपयुक्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में रूट ब्लोअर पंखा ही उपयुक्त होता है। इसके साथ छ आकार की काच की नली का एक वायुदाबमापी लगाना आवश्यक होता है, जो चित्र ३. के अनुसार हवा के नल से रबर की एक ली द्वारा जोड़ दिया जाता है।

(ओंकारनाथ शर्मा)