न्यूमोनिया (Pneumonia) या फुफ्फुसार्ति श्वाससंस्थान के अंतर्गत होनेवाला ऐसा रोग है जिसमें फुफ्फस के भीतर ही प्रदाह एवं शोथ हो जाता है।
यह मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकारों का होता है :
इन तीनों प्रकार की फुफ्फुसार्तियों का संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है :
पालिदाह या लोबर न्यूमोनिया - यह मुख्यत: न्यूमोकॉक्कस (Pneumococcus) नामक सूक्ष्म जीवाणुओं से उत्पन्न होता है, जो सर्दी के कारण नासागलमार्ग (nasopharynx) से फुफ्फुस में पहुँचकर फुफ्फुसदाह की उत्पत्ति करते हैं। प्रकोप शिशिर ऋतु में तथा सभी अवस्था के व्यक्तियों को यद्यपि समान रूप से होता है, तथापि बच्चों, श्रम करनेवाले कमजोर तथा वृद्ध व्यक्तियों को अपेक्षाकृत अधिक होता है।
न्यूमोनिया का विकृति विज्ञान - न्यूमोनिया की निम्नांकित चार अवस्थाएँ होती हैं :
प्रथमावस्था अथवा संकुलन अवस्था (First stage or stage of congestion) - इसके अंतर्गत फुफ्फुस केशिकाओं में सूजन आ जाती है। विकृत भाग में रक्ताधिक्य संकुलन (blood congestion) होकर रोगी भाग सूजनदार तथा खून जैसा लाल एवं भारी हो जाता है। इस शोथ के फलस्वरूप फुफ्फुस में वायुप्रवेश में बाधा होती है। यह अवस्था प्राय: दो तीन दिनों तक रहती है।
द्वितीयावस्था अथवा रेड हेपैटाइजेशन की अवस्था (Stage of red hepatization) - इस अवस्था में फुफ्फुस का रुग्ण हिस्सा यकृत के समान ठोस हो जाता है। इसमें वायुकेशिकाओं में वायु का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है तथा विकृत भाग लाल हो जाता है।
तृतीयावस्था अर्थात् ग्रे हेपैटाइजेशन की अवस्था - (Stage of Grey Hepatization) इसमें वायुकोष्ठों में श्वेत रुधिरकणों की अधिकता हो जाती है, जिससे विकृत भाग का रंग भूरे रंग का हो जाता है और वह भाग ठोस रहता है। फुफ्फुस में वायु के आवागमन में बाधा होने के कारण रोगी का श्वास अत्यधिक रूप से फूलता है। उपर्युक्त अवस्थाएँ तीन से लेकर सात दिनों तक रहती हैं।
चतुर्थावस्था अथवा वियोजन की अवस्था (Stage of Resolution) - इन अवस्था में वायुकोष्ठों में संचित पदार्थ लीन होने लगते हैं। स्राव का बहुत कुछ हिस्सा रुधिरलीन होकर अनेक मार्गों से निकलता है और फुफ्फुस अपनी स्वस्थावस्था को शनै: शनै: प्राप्त होने लगता है।
इसके मुख्य लक्षणों में रोगी को एकाएक सर्दी के साथ ज्वर का प्रकोप होता है, सीने में आक्रांत भाग में दर्द एवं टीस मालूम होती है, जो खाँसने पर उग्रतम हो जाती है। कफ कठिनाई से निकलता है। इससे रोगी को श्वासकष्ट होता है। रोग की उग्रता के साथ साथ ज्वर भी बढ़ता जाता है और दो से लेकर चार दिनों तक के भीतर रोगी में विषाक्तता के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जिनके फलस्वरूप निद्रानाश, प्रलाप, रक्तसंचार में शिथिलिता एवं हद्दौर्बल्य होते हैं। उपर्युक्त सभी लक्षण रोग की उग्रता के अनुसार आगे चलकर विषाक्तता (toxaemia) का रूप ग्रहण कर लेते हैं तथा सात से लेकर दस दिनों तक के अंदर ज्वर एकाएक उतर जाता है। वक्ष की परीक्षा करने पर विकृत पाश्र्व कुछ आगे की ओर उभरा दिखाई देता है तथा श्वास की गति अति तीव्र दिखाई देती है। कभी कभी यह गति नाड़ी की गति के समकक्ष, अर्थात् प्रति मिनट ७२ तक, हो जाती है। छूने से रुग्ण भाग कठोर प्रतीत होता है। थपथपाने पर पहले तो गूँज की आवाज मिलती है, लेकिन बहुत ही जल्दी विकृत पार्श्व में ठोसपन आने के कारण मंद ध्वनि (dull sound) मिलती है। परिश्रवण (auscultation) में आरंभ में श्वासध्वनि उलझी हुई तथा अस्पष्ट सुनाई देती है, परंतु बाद में कठोरता आ जाने के कारण बिल्कुल नहीं सुनाई देती। इस समय घर्षण ध्वनि का मिलना फुफ्फुसावरण शोथ (pleurisy) का द्योतक है। इस रोग में मोरचे के रंग का (rusty) कफ निकलता है तथा परीक्षा करने पर उसमें न्यूमोकॉक्कस (pneumococcus) जीवाणु की उपस्थिति मिलती है।
ब्रॉङ्कोन्यूमोनिया (Broncho Pneumonia) - इसका मुख्य औपसर्गिक कारण न्यूमोकॉक्कस (pneumococcus) के सिवाय स्ट्रेप्टो एवं स्टैथिलोकॉक्कस (strepto and stathylococcus), माइक्रोकॉक्कस कैटारैंलिस (Micrococcus catarrhalis) है। यह प्राय: पाँच वर्ष से कम अवस्थावाले बच्चों, बूढ़ों तथा कमजोर एवं दुर्बल युवकों को अधिक होता है। यह व्याधि रोमांतिका, वातश्लैश्मिक ज्वर इत्यादि रोगों के उपद्रव स्वरूप भी होती देखी गई है।
इसमें फुफ्फुस की अति सूक्ष्म वायुप्रणालियों में शोथ हो जाता है और इससे वायु के आवगमन में अवरोध पैदा हो जाता है। इसके फलस्वरूप वायु के उसके अंदर से गुजरते समय सीटी के समान ध्वनि सुनाई देती है। उन प्रणालियों से सटे वायुकोष्ठों में भी सूजन आ जाती है।
इसमें भी लोबर न्यूमोनिया के समान जाड़ा लगकर ज्वर आता है तथा छाती में तेज दर्द, खाँसी और श्वास फूलने के लक्षण पैदा होते हैं। इसमें ज्वर धीरे धीरे बढ़ता है तथा दो तीन दिनों में ही १०२ या १०३ डिग्री तक बढ़ जाता है। ज्वर एकाएक न उतरकर धीरे-धीरे उतरता है। वक्ष की परीक्षा करने पर थपथपाने में कहीं मंद तथा कहीं गूँजती अनुनाद ध्वनि (resonant sound) सुनाई देती है। परिश्रवण से कहीं सीटी के समान ध्वनि, कहीं करकराहट की ध्वनि सुनाई देती है तथा कहीं कोई ध्वनि नहीं सुनाई देती। चूँकि यह गौण रूप से रोमांतिका इत्यादि रोगों के उपद्रव के रूप में अधिक होता है, अत: इसमें उग्र स्वरूप की खाँसी एवं दम फूलने के लक्षण मुख्यत: दृष्टिगोचार होते हैं। विकृत पार्श्व में उग्र शोथ के कारण उग्र स्वरूप का शूल होता है।
एटिपिकल न्यूमोनिया - इसका औपसर्गिक कारण विषाणु (virus) होता है। इसमें विकृत वायुकूपिका (alveoli) में स्कंदित सीरम (coagulated serum) भर जाता है, जिससे स्थानिक रूप में फुफ्फुसपात (pulmonary collapse) हो जाता है। यह रोग छोटे संक्रामक रूप में आरंभ होकर अति तीव्र गति से प्रसारित होता है। प्रारंभिक लक्षणों में सर्वांग में वेदना, सूखी खाँसी तथा मंद स्वरूप का ज्वर मुख्य होता है। रोगी को मोरचे के रंग का कफ निकलता है, जिसमें विषाणु विद्यमान रहते हैं। फुफ्फुम में वायुसंचार मंद रहता है तथा थपथपाने में स्थान स्थान पर मंद ध्वनि सुनाई देती है। परिश्रवण में विकृत भाग के सभी स्थानों पर सीटी के समान ध्वनि सुनाई देती है। ज्वर की तीव्रता की तुलना में नाड़ी की गति मंद रहती है। उग्रावस्था में रोगी में नीलिमा (cynosis) के लक्षण दिखाई देते हैं।
उपचार - तीनों प्रकार के न्यूमोनिया में रोगी को विश्राम करने देते हैं, विकृत पार्श्व को स्थिर रखते एवं सेंक इत्यादि से अथवा विभिन्न औषधियों के लेप से शूलहरण की व्यवस्था करते हैं एवं रोग के लक्षणों के अनुसार विभिन्न ओषधियों द्वारा उपचार करते हैं।(प्रियकुमार चौबे)