न्यास परिषद् (Trusteeship Council) संयुक्त राष्ट्र के आधिपत्य में स्थापित न्यासपद्धति (Trusteeship system) परतंत्र देशों एवम् उपनिवेशों के सर्वांगीण विकास, आत्मनिर्भरता तथा स्वशासनप्राप्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सामूहिक प्रयास है। न्यास परिषद् संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक प्रमुख अंग है और घोषणापत्र में उल्लिखित न्यासपद्धति संबंधी समस्त कृत्य संपन्न करती है।
साम्राज्यवाद के युग के आरंभ से ही विचारकों एवं राजनीतिज्ञों का ध्यान उपनिवेशों की समस्या की ओर आकृष्ट की ओर आकृष्ट हुआ था। यद्यपि कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में इसके समाधान के लिए प्रगतिशील सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया तथापि लीग ऑफ नेशन्स के अंतर्गत स्थापित प्रादेश पद्धति (शासनादेश पद्धति Mandates System) में प्रथम बार व्यावहारिक रूप दिया गया। आदेश तथा न्यास दोनों पद्धतियों में यही सिद्धांत निहित है कि उपनिवेश एवं अविकसित प्रदेशों के प्रति सभ्य संसार का एक सामूहिक उत्तरदायित्व है, उसको उत्कृष्ट रूप से निभाने के लिए इन प्रदेशों का प्रशासन अंतरर्राष्ट्रीय संरक्षण में ऐसे उन्नत देशों को सौंपा जाए जो उस प्रदेश को विकसित करके आत्मनिर्भर बना सकें। प्रादेश पद्धति प्रथम विश्वयुद्ध में शत्रुराष्ट्रों से जीते हुए प्रदेशों तक ही सीमित थी। यह प्रदेश विश्व की समकालीन परिस्थिति में अपने पैरों पर खड़े होने योग्य न थे अतएव संरक्षण में इनका प्रशासन विभिन्न राष्ट्रों को सौंप दिया गया था। शासनादिष्ट प्रदेश अपनी भौगोलक एवं आर्थिक परिस्थित तथा विकास के स्तर के अनुसार तीन श्रेणियों में वर्गीकृत थे तदनुसार उनकी शासनव्यवस्था में अंतर था। प्रादेश पद्धति का संचालन एवं प्रबंध लीग की परिषद् के अधीनस्थ 'स्थायी आदेश आयोग' करता था। लीग की महासभा को भी आदेश संबंधी प्रश्नों पर विचार एवं विवाद करने का अधिकार था। शासनादेश या प्रादेश पद्धति बहुत अंशों तक अपने इच्छित उद्देश्य की पूर्ति में सफल रही और इसके अंतर्गत रखे गए प्रदेशों में इराक, पैलेस्टाइन, जार्डन, सीरिया और लेबनान ने पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त की।
आदेश व्यवस्था में निहित सिद्धांतों के सफल प्रयोग के आधार पर द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति पर उन सिद्धांतों के राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र द्वारा स्थापित न्यासपद्धति में अधिक व्यापक रूप दिया गया। न्यासपद्धति के मुख्य आधारभूत लक्ष्य हैं विश्वशांति एवं सुरक्षा को बढ़ाना, न्यस्त प्रदेश के निवासियों की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं शिक्षा संबंधी प्रगति करना, उनका पूर्ण स्वतंत्रता की ओर क्रमिक विकास करना, मानवीय अधिकारों की प्रतिष्ठा बढ़ाना। न्यास पद्धति के अंतर्गत निम्नलिखित तीन श्रेणियों के प्रदेश प्रन्यासीय अनुबंधपत्रों द्वारा रखे जा सकते हैं-
(१) आदेशाधीन प्रदेश, (२) द्वितीय महायुद्ध में शत्रु से विजित प्रदेश, (३) किसी राष्ट्र द्वारा स्वेच्छा से रखे उसके अधीनस्थ प्रदेश।
न्यासपद्धति के अंतर्गत रखे जानेवाले प्रदेशों के प्रशासन के अधिनियम राष्ट्रसंघ महासभा की स्वीकृत पर संबंधित राष्ट्रों द्वारा निश्चित किए जाते हैं, सामरिक महत्व के न्यस्त प्रदेशों के अधिनियम सुरक्षा परिषद् की स्वीकृति पर निश्चित किए जाते हैं। न्यस्त प्रदेश का प्रशासन एक राष्ट्र को, कई राष्ट्रों को अथवा संयुक्त राष्ट्र को सामूहिक रूप से सौंपा जा सकता है। प्रशासक सत्ता अपने अधीनस्थ न्यस्त प्रदेश में शांति, सुरक्षा एवं अनुशासन के लिए उतरदायी होती है और उस प्रदेश की स्वशासन एवं स्वतंत्रता की ओर प्रगति करना इसका कर्त्तव्य है।
सामरिक महत्व के न्यस्त प्रदेशों का शासन संबंधी दायित्व सुरक्षा परिषद् पर है और साधारण न्यस्त प्रदेशों के विषय में यह कार्य राष्ट्रसंघ महासभा और विशेषत: उसके अधिकार के अधीन न्यास परिषद् करती है। न्यस्त प्रदेशों के प्रशासक राष्ट्र एवं सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य राष्ट्र न्यास परिषद् के सदस्य होते हैं। इसके अतिरिक्त महासभा तीन वर्ष की अवधि के लिए इतनी संख्या में सदस्य निर्वाचित करती है कि न्यास परिषद् में न्यस्त प्रदेशों का प्रशासन करनेवाले एवं प्रशासन करनेवाले सदस्य राष्ट्रों की संख्या बराबर हो। न्यस्त परिषद् में प्रत्येक सदस्य राष्ट्र का एक मत है। इसके निर्णय उपस्थित सदस्यों के बहुमत से लिए जाते हैं। आवश्यकता होने पर परिषद् आर्थिक सामाजिक परिषद् एवं राष्ट्रसंघ के विविष्ट अभिकरणों से उपयुक्त सहायता ले सकती है। घोषणापत्र के अनुसार न्यास परिषद् के मुख्य कार्य हैं- प्रशासकीय सत्ता द्वारा भेजे प्रतिवेदन पर विचार, न्यस्त प्रदेशों के निवासियों द्वारा प्रेषित याचिका का परीक्षण, प्रत्येक न्यस्त प्रदेश के निवासियों की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं शिक्षा संबंधी प्रगति के विषय पर प्रश्नावली तैयार करना और उसके आधार पर महासभा को प्रतिवेदन भेजना। न्यास परिषद् न्यस्त प्रदेशों का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ष कुछ प्रदेशों में अपने निरीक्षण मंडल इस प्रकार भेजती है कि प्रति तीन वर्ष में एक बार प्रत्येक न्यस्त प्रदेश का निरीक्षण हो जाए। इसके समस्त कार्य विचारात्मक मात्र हैं। परिषद् के पास अपने निर्णय को क्रियान्वित कराने के लिए आवश्यक प्रशासकीय सत्ता नहीं है।
यद्यपि अभी तक किसी भी राष्ट्र ने अपने अधीनस्थ उपनिवेशों एवं प्रदेशों को स्वेच्छा से न्यास व्यवस्था में स्थान नहीं प्रदान किया है और परिणामत: न्यास व्यवस्था द्वितीय युद्ध में विजित प्रदेशों एवं भूतपूर्व आदेशित प्रदेशों (दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका के अतिरिक्त) पर ही लागू की जा सकी परंतु न्यास व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों की राष्ट्रसंघ द्वारा स्वीकृति ही उपनिवेशों की समस्या के समाधान के लिए एक आशाजनक च्ह्रि है। न्यास व्यवस्था के अंतर्गत रखे गए प्रदेशों में कई पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके हैं और अधिकांश ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है।
सं. ग्रं. - डंकन हाल : मैन्डेट्स, डिपेंडेनसीज ऐंड ट्रस्टीशिप, टशेन : दी ट्रस्टीशिप ऑव युनाइटेड नेशन्स; गुडरिच ऐंड हैंबू : दी चारटर ऑव युनाइटेड नेशन्स; केल्सन : दी ला ऑव युनाइटेड नेशन्स; ओपेन हैम : इंटरनेशनल ला।(रमेश्कुमार मिश्र)