न्यायशास्त्र (भारतीय) भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- 'न्यायविद्या' या 'न्यायशास्त्र'; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है :

प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षामन्वीक्षा, तया प्रवर्त्तत इत्यान्वीक्षिकीन्यायविद्यान्यायशास्त्रम् (न्यायभाष्य १ सूत्र)

आनवीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है।

'न्याय' विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन प्रथम सूत्र के भाष्य में 'प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय' कह कर यही भाव व्यक्त किया है।

'न्याय' शब्द से वे वाक्यसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। वात्स्यायन ने उन्हें 'परम न्याय' कहा है और बाद, जल्प तथा वितंडा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. १ सूत्र)

आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के प्रदीप: सर्वशास्त्राणामुपाय: सर्वकर्मणाम्। आश्रय: सर्वधर्माणां सेयमान्वीक्षिकी मता। (न्या.भा. १ सूत्र)

इस वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है।

भारतीय वाङ्मय में न्यायशास्त्र के दो भेद माने जाते हैं- वैदिक न्याय और अवैदिक न्याय। अवैदिक न्याय में बौद्ध तथा जैन न्याय का समावेश है, इनका परिचय बाद में दिया जाएगा। वैदिक न्याय में न्याय-वैशेषिकन्याय, सांख्ययोग न्याय तथा पूर्वोत्तर मीमांसान्याय का समावेश है, किंतु न्यायशास्त्र के नाम से अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र तथा उनके आधार पर निर्मित समस्त प्राचीन अर्वाचीन साहित्य को ही अभिहित किया जाता है; इसलिए इस लेख में वैदिक न्याय के रूप में गौतमीय शास्त्र के विस्तार का ही परिचय प्रस्तुत किया जाएगा।

न्यायविद् विद्वानों ने निश्रेयस को न्यायशास्त्र के अध्ययन का प्रयोजन माना है। नि:श्रेयस का अर्थ है- अपवर्ग, मोक्ष अर्थात् सब प्रकार के दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति, ऐसी निवृत्ति जिसके बाद कभी किसी प्रकार के दु:ख होने की संभावना ही नहीं रह जाती। यही मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है।

न्यायशास्त्र वे अध्ययन से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है और उससे आत्मतत्व का साक्षात्कार होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्व साक्षात्कार से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति, मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से राग, द्वेष और मोहरूम दोषों की निवृत्ति, दोषों की निवृत्ति से र्ध एवं अर्ध रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति से पुनर्जन्म का अभाव और पुनर्जन्म के अभाव से समस्त दु:खों से आत्यंतिक मुक्ति होती है। जैसा कि गौतम ने कहा है :

दु:ख जन्मप्रवृत्तिदोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनंतरा पायादप वर्ग:। (न्या.सू., अ. १ आ. १ सूत्र २)

जिन पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है उनकी संख्या इस शास्त्र में सोलह मानी गई है; उनके नाम ये हैं :

प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंड, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान।

न्यायसूत्र - न्याय दर्शन के कुल पांच अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में दो आ्ह्रक हैं। इनमें विद्यमान प्रकरण एवं सूत्रों का विवरण यों हैं:

अध्याय

प्रकरण

सूत्र

११

६१

१३

१३७

१६

१४५

२०

११८

२४

६७

५२८

इस प्रकार न्याय दर्शन के ५२८ सूत्रों में उक्त सोलह पदार्थों का विशद वर्णन किया गया है।

न्यायशास्त्र के समग्र विचार दो धाराओं में विभक्त किए जा सकते हैं- प्रमेयप्रधान और प्रमाणप्रधान। गौतम से गंगेशोपाध्याय के पूर्व तक के विद्वानों की रचनाओं के विचार प्रमेयप्रधान हैं और गंगेशोपाध्याय की तत्त्वचिंतामणि तथा उसपर आधारित परवर्त्ती विद्वानों की रचनाओं के विचार प्रमाणप्रधान हैं। प्रमेयप्रधान विचार वाले ग्रंथसमूह को प्राचीन न्याय तथा प्रमाणप्रधान विचारवाले ग्रंथसमूह को नव्य न्याय कहा जाता है। प्राचीन न्याय की भाषा सरल और पदार्थविवेचन स्थूल है तथा नव्य न्याय की भाषा जटिल और पदार्थविवेचन सूक्ष्म है।

न्यायशास्त्र के कुछ मुख्य सिद्धांत

प्रमाण - न्यायदर्शन में ऐतिह्म अर्थपत्ति, संभव और अभाव के प्रमाणत्व का खंडन कर प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने गए हैं।

प्रत्यक्ष - प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यंतर। घ्राण, रसना, चक्षु त्वक् और श्रोत्र, इन इंद्रियों को, शरीर के बाहर ऊपरी भाग में रहने के कारण तथा बाहरी विषयों का ग्राहक होने के कारण 'बाह्य प्रत्यक्ष प्रमाण' और मन को शरीर के भीतर आत्मा के साथ रहने तथा भीतरी पदार्थ आत्मा एवं आत्मीय गुणों का ग्रहाक होने के कारण 'आंतर प्रत्यक्ष प्रमाण' कहा जाता है। प्रत्यक्ष शब्द से इंद्रिय तज्जन्य ज्ञान और उनके विषय इन तीनों का बोध होता है। ये तीन प्रकार के बोध निम्नलिखित व्युत्पत्तियों से क्रमश: उत्पन्न होते हैं :

  1. '(अर्थ)' प्रति गतम् अक्षम् = इंद्रियम्' - (अर्थसन्निकृष्ट इंद्रिय)
  2. '(अर्थ) प्रति गतम् अक्षम् यस्मै' (इंद्रियजन्य ज्ञान)
  3. 'यं प्रति गतम् अक्षम्' (इंद्रियसन्निकृष्ट विषय)

इंद्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण की संख्या छ: होने से तज्जन्य ज्ञानों की संख्या छ: होती है और उन्हें इद्रियद्वारक नामों से व्यवहृत किया जाता है, जैसे- घ्राणज, रासन, चाक्षुष, त्वाच, श्रावण और मानस इन प्रत्यक्ष ज्ञानों में प्रत्येक के दो भेद होते हैं- निर्विकल्पक और सविकल्पक।

निर्विकल्पक- इस प्रत्यक्ष में वस्तु के स्वरूप मात्र का भान होता है, उसकी विषयभूत, में परस्पर संबंध का मान नहीं होता; अतएव इस प्रत्यक्ष की विषयता विशेषणता विशेष्यता, और संसर्गता से विलक्षण होती है और वह विलक्षण विषयता ही इस प्रत्यक्ष का लक्षण है। यह अतीद्रिंय होता है अर्थात् इसका प्रत्यक्ष नहीं होता। 'सविकल्पक प्रत्यक्ष' के कारण रूप में इसका अनुमान होता है।

सविकल्पक - यह प्रत्यक्ष विशिष्टग्राही होता है। इसकी विषयता विशेषणता-प्रकारता, विशेष्यता और संसर्गता के भेद से तीन प्रकार की होती है। यह निर्विकल्पक' से उत्पन्न होता है और मन से इसका प्रत्यक्ष वेदन होता है। इसके प्रत्यक्ष को 'अनुव्यवसाय' शब्द से व्यवहृत किया जाता है। प्रत्येक जन्य सविकल्पक प्रत्यक्ष के दो भेद होते हैं- लौकिक और अलौकिक।

लौकिक - प्रत्यक्ष वर्तमान और समीपस्थ वस्तु का ही ग्राहक होता है। उसका जन्म वस्तु के साथ इंद्रिय के लौकिक सन्निकर्ष से होता है; वे सन्निकर्ष छ: हैं - संयोग, संयुक्त समवाय, संयुक्तसमवेत समवाय, समवाय, समवेत समवाय और विशेषणता। इनमें संयोग से द्रव्य का, संयुक्तसमवाय से द्रव्य के गुण, कर्म और सामान्य का, संयुक्तसमवेत समवाय से गुण और कर्म के सामान्य का, समवाय से शब्द का, समवेत समवाय से शब्द के सामान्य का और विशेषणता से समवाय तथा अभाव का प्रत्यक्ष होता है।

अलौकिक - अलौकिक प्रत्यक्ष दूरस्थ और अविद्यमान पदार्थ को भी ग्रहण करता है। उसका जन्म विषय के साथ इंद्रिय के अलौकिक सन्निकर्ष से संपन्न होता है। अलौकिक सन्निकर्ष तीन हैं- सामान्यलक्षण, ज्ञानलक्षण और योगज।

सामान्यलक्षण - ज्ञातसामान्य या सामान्यज्ञान को सामान्यलक्षणसन्निकर्ष कहा जाता है। इससे समीपस्थ, दूरस्थ, विद्यमान और अविद्यमान सभी प्रकार के समस्त सामान्याश्रयों का प्रत्यक्ष होता है। यह प्रत्यक्ष उसी दशा में होता है, जब सामान्य के किसी आश्रय के लौकिक प्रत्यक्ष की सामग्री सन्निहित रहती है। इसी सन्निकर्ष की महिमा से किसी एक मात्र धूम में किसी एक मात्र व्ह्र के साहचर्य ज्ञान से ही सब धूमों में सब व्ह्र की व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है तथा सन्निकृष्ट धूम में व्ह्र की व्याप्ति का निश्चय रहते हुए भी असन्निकृष्ट धूम में व्ह्रव्यभिचार का संदेह होता है।

ज्ञानलंक्षण - तत्तद् विषय का ज्ञान ही तत्तद् विषय के साथ इंद्रिय का 'ज्ञानलक्षण' सन्निकर्ष कहा जाता है। इस सन्निकर्ष से ज्ञान के विषय का ही प्रत्यक्ष होता है, उसके आश्रय का नहीं। इसी के प्रभाव से एक पदार्थ में अन्य पदार्थ के धर्म का भ्रमात्मक प्रत्यक्ष होता है।

योगज - योगाभ्यास से मनुष्य की आत्मा में एक विशिष्ट धर्म का उदय होता है। इस धर्म को ही विषय के साथ इंद्रिय का योगज सन्निकर्ष कहा जाता है। इससे इंद्रियों का सामर्थ्य बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप इंद्रियां दूरस्थ और अविद्यमान पदार्थ का भी प्रत्यक्ष करने लगती हैं। उसके प्रभाव से ही योगी को सर्वेज्ञता की प्राप्ति होती है।

नित्य प्रत्यक्ष - इस संदर्भ में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त जन्य प्रत्यक्षों से अतिरिक्त एक नित्य प्रत्यक्ष भी है, जो अजन्मा एवं अविनाशी है। वह प्रत्यक्ष समग्र संसार को विषय करता है और उपादानप्रत्यक्ष के रूप में सभी कार्यों का कारण होता है। वह एकमात्र ईश्वर में ही समवेत रहता है।

अनुमान - अनुमान प्रमाण से उन सभी पदार्थों का ज्ञान किया जाता है जो इंद्रिय द्वारा ज्ञात होने की योग्यता रखते हुए भी दूरस्थ या अविद्यमान होने के कारण इंद्रिय से ज्ञात नहीं हेते अथवा जिसमें इंद्रिय से ज्ञात होने की योग्यता ही नहीं होती। इसके दो भेद होते हैं-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। जिस अनुमान से अपने संशय का निराकरण या अपने आप को साध्य का निश्चय होता है, उसे 'स्वार्थानुमान' तथा जिस अनुमान से अन्य व्यक्ति - जिज्ञासु, प्रतिवादी या मध्यस्थ - के संशय का निराकरण या साध्य का निश्चय होता है, उसे 'परार्थानुमान' कहा जाता है। 'स्वार्थानुमान' की निष्पत्ति अन्य पुरुष के वचन की अपेक्षा न कर अपने प्रयास से हेतु में साध्य की व्याप्ति का ज्ञान अर्जित कर की जाती है और 'परार्थानुमान' की निष्पत्ति अन्य पुरुष के वचन से अर्थात् पंचावयवात्मक न्याय के प्रयोग से व्याप्तिज्ञान प्राप्त कर की जाती है। इसीलिए गंगेशोपाध्याय ने तत्वचिंतामणि (अनुमान खंड) के अवयवप्रकरण में स्पष्ट कहा है-

'तच्चानुमानं परार्थं न्यायसाध्यमिति न्यायस्तदवयवाश्च प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनय निगमनानि निरूप्यन्ते।'

न्याय - इसकी परिभाषा आरंभ में बताई गई है। न्यायशास्त्र में इसके पाँच अवयव माने गए हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और गिमन। जिस वाक्य से पक्ष के साथ साध्य के संबंध का ज्ञान हो उसे 'प्रतिज्ञा', जिस वाक्य से हेतु में साध्य की ज्ञापकता अवगत हो उसे 'हेतु', जिस वाक्य से हेतु में साध्य की व्याप्ति बताई जाए उसे 'उदाहरण', जिस वाक्य से पक्ष में साध्यवाक्य हेतु का संबंध बोधित हो उसे 'उपनय' और जिस वाक्य के हेतु का अबाधितत्व एवं असत्प्रतिपक्षितत्व बताते हुए हेतु के सामर्थ्य से पक्ष में साध्य के संबंध का उपसंहार किया जाए उसे 'निगमन' कहा जाता है। उनके उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं :

  1. १. 'पर्वतो व्ह्रमान्' - प्रतिज्ञा
  2. 'धूमात्' - हेतु
  3. 'यो यो धूमवान् स स व्ह्रमान्ं' - उदाहरण
  4. तथा चायम् - उपनय
  5. तस्माद् व्ह्रमान् - निगमन

इसी पंचावयवात्मक वाक्य को वात्स्यायन ने 'परम न्याय' कहा है।

अनुमान का स्वरूप - हेतु, व्याप्तिज्ञान या व्याप्ति ज्ञानसहकृत मन को अनुमान कह जाता है। इनमें तीसरा पक्ष बहुत ही कम प्रसिद्ध है पर प्रथम दो पक्ष अधिक प्रसिद्ध हैं। उदयनाचार्य तथा उनके अनुयायी 'हेतु' को और गंगेशोपाध्याय तथा उनके अनुयायी व्याप्तिज्ञान को अनुमान कहते हैं।

अनुमान के भेद - न्याय दर्शन में अनुमान के तीन भेद बताए गए हैं- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट। वास्यायन ने इन अनुमानों की निम्नलिखित रूप से दो प्रकार की व्याख्याएँ की हैं :

१. पूर्ववत् = कारण से कार्य अनुमान जैसे- मेध से भावी वृष्टि का।

२. शेषवत् = कार्य से कारण का अनुमान जैसे- प्रवाह की पूर्णता, द्रुतगामिता, तृणादियुक्तता से

भूत वृष्टि का।

(१) ३. सामन्य तोदृष्ट = कार्य-कारणभाव का नियमन होने पर भी जैसे- 'एक स्थान में देखे गए पदार्थ की अन्य स्थान में

सामान्यता एक सहचरित पदार्थ से अन्य उपलब्धि उस पदार्थ के अन्य स्थान में जाने से

सहचरित पदार्थ का अनुमान। ही संभव है'- इस सहचार नियम के आधार पर

प्रात: पूर्व में देखे गए सूर्य को सायंकाल पश्चिम

में देखकर सूर्य के पूर्व से पश्चिम जाने का अनुमान

१. पूर्ववत् = एक आश्रय में एक साथ प्रत्यक्ष दो पदार्थों में जैसे- पाकशाला में एक प्रत्यक्ष देखे गए धूम और

एक से दूसरे का पूर्व की भाँति साथ होने का अनुमान व्ह्र में धूम से पर्वत व्ह्र का अनुमान

२. शेषवत् = प्रसक्त का प्रतिषेध और अन्यत्र प्रसक्ति के अभाव से जैसे- भावात्मक होने के कारण द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य

शेष बचनेवाले पदार्थ का अनुमान। विशेष और समवाय में शब्द के अंतर्भाव की प्रसक्ति

होनेपर सत्ता जाति का आश्रय होने से सामान्य,

(२) विशेष और समवाय में एक द्रव्यमात्र में समवेत

होने से द्रव्य में और शब्दांतर का कारण होने से

कर्म में अंतर्भाव का निषेध तथा अभाव में भावात्मक

शब्द के अंतर्भाव की अप्रसक्ति से शेष बचने वाले

गुण में शब्द के अंतर्भाव का अनुमान।

३. सामान्यतोदृष्ट = जिन दो पदार्थों में व्याप्यव्यापक भाव संबंध जैसे- इच्छा आदि गुण और आत्मा का परस्पर संबंध

प्रत्यक्ष विदित न हो, किंतु प्रत्यक्ष विदित संबंध जब प्रत्यक्षविदित नहीं है, किंतु सामान्य रूप से

वाले पदार्थों का सामान्य सादृश्य हो, उनमें गुण और द्रव्य का संबंध प्रत्यक्षविदित है, इच्छा

एक दूसरे का अनुमान आदि में गुण का एवं आत्मा में द्रव्यत्व रूप से

अन्य द्रव्य का सादृश्य होने के कारण इच्छा आदि

गुणों से उनके आश्रय रूप में आत्मस्वरूप

द्रव्य का अनुमान।

उक्त तीनों अनुमानों में प्रत्येक के तीन भेद माने जाते हैं- 'केवलान्वयी', 'केवलव्यतिरेकी' और अन्वयव्यतिरेकी। इन भेदों का आधार रघुनाथ शिरोमणि ने साध्य को, उदयानाचार्य ने व्याप्तिग्राहक सहचार को और गंगेशोपाध्याय ने व्याप्ति को माना है।

रघुनाथ का तात्पर्य यह है कि जिस साध्य का विपक्ष नहीं होता उस साध्य का अनुमान 'केवलान्वयी' अनुमान कहा जाता है, जैसे वाच्यत्व, ज्ञेयत्व आदि सार्वत्रिक धर्मों का अनुमान; एवं जिस साध्य का सपक्ष नहीं होता उस साध्य का अनुमान 'केवल व्यतिरेकी' अनुमान कहा जाता है, जैसे गंध से पृथिवी में पृथिवीतरभेद का अनुमान; तथा जिस साध्य में सपक्ष, विपक्ष दोनों होते हैं उस साध्य का अनुमान 'अन्वयव्यतिरेकी' अनुमान कहा जाता है, जैस घूम से व्ह्र का अनुमान।

उदयनाचार्य का आशय यह है कि 'अन्वयसहचार' = हेतु में साध्य का सहचार और 'व्यतिरेकसहचार' = साध्याभाव में हेत्वभाव का सहचार, इन दोनों सहचारों से अन्वयव्याप्ति का ही ज्ञान होता है और उसी से अनुमिति होती है, अत: जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का उदय केवल अन्वयसहचार के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण 'केवलान्वयी' अनुमान, एवं जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का जन्म केवल व्यतिरेकसहचार से होता है उस अनुमिति का कारण 'केवल व्यतिरेकी' तथा जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का उदय अन्वयसहचार और व्यतिरेक सहचार दोनों के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण 'अन्वयव्यतिरेकी' अनुमान कहा जाता है।

गंगेशोपाध्याय का अभिप्राय यह है कि अनुमिति की उत्पत्ति केवल अन्वयव्याप्तिज्ञान से ही नहीं होती, किंतु व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से भी होती है, अत: जिस अनुमिति का जन्म केवल अन्वयव्याप्तिज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण 'केवलान्वयी', एवं जिस अनुमिति का जन्म केवल व्यतिरेकव्याप्ति के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण 'केवलव्यतिरेकी' तथा जिस अनुमिति का जन्म अन्वय और व्यतिरेक दोनों व्याप्तियों के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण 'अन्वयव्यतिरेकी' अनुमान कहा जाता है।

हेतु - जिस पदार्थ में साध्य की व्याप्ति और पक्षधर्मता के ज्ञान से अनुमिति की उत्पत्ति होती है उसे 'हेतु' या लिंग कहा जाता है। उसके दो भेद होते हैं - 'सद्धेतु' और हेत्वाभास (दुष्ट हेतु)। सद्धेतु में निम्नलिखित पाँच रूप अवश्य होने चाहिए :

  1. पक्षसत्व = पक्ष में रहना
  2. सपक्षसत्तव = साध्य के निश्चित आश्रय में रहना
  3. विपक्षासत्व = साध्याभाव के निश्चित आश्रय में न रहना
  4. अबाधिकत्व = पक्ष में साध्य का बाधित न होना।
  5. असत्प्रतिपक्षितत्व = पक्ष में साध्याभाव के साधनार्थ अन्य हेतु के ज्ञान या प्रयोग का न होना

यहाँ उक्त पाँचों के रूपों से संपन्न होना केवल अन्वयव्यतिरेकी सद्धेतु के लिए ही आवश्यक है। केवलान्वयी सद्धेतु के लिए 'विपक्षसात्व' से अतिरिक्त चार रूपों से ही संपन्न होना अपेक्षित होता है।

हेत्वाभास - जिसके ज्ञान से अनुमिति उसके कारणभूत व्याप्तिज्ञान या पक्षधर्मताज्ञान का प्रतिबंध होता है उसे - हेतुगत दोष अर्थ में - 'हेत्वाभास' कहा जाता है और ये दोष जिन हेतुओं में होते हैं उन्हें- 'दुष्ट हेतु अर्थ में'- 'हेत्वाभास' कहा जाता है। हेतुगत दोष के पाँच भेद माने जाते हैं। निम्नलिखित तालिका से यह समझा जा सकता है कि वे भेद कौन हैं, उनके द्वारा क्या प्रतिबध्य होता है, तथा उनसे युक्त दुष्ट हेतुओं के क्या नाम हैं?

हेतुदोष प्रतिबध्य दुष्ट हेतु

- व्यभिचार व्याप्तिज्ञान विरुद्ध (अनैकांतिक)

- विरोध व्याप्तिज्ञान विरुद्ध

- असिद्धि प्राय: अनुमिति, व्याप्ति असिद्ध

ज्ञान, पक्षधर्मताज्ञान

- सत्प्रतिपक्ष अनुमिति सत्यप्रतिपक्षित(प्रकरणसम)

- बाध अनुमिति बाधित (कालातीत)

अनुमिति के कारण - लिंग = हेतु का त्रिविध परामर्श अनुमिति का कारण होता है। 'पक्ष हेतु के संबंध का ज्ञान' प्रथम लिंग परामर्श कहा जाता है- जैसे पर्वत में धूम के संबंध का 'पर्वतो धूमवान्' इस प्रकार का ज्ञान। 'हेतु में साध्य की व्याप्ति का ज्ञान' द्वितीय लिंग परामर्श कहा जाता है - जैसे धूम में, व्ह्रव्याप्ति का 'धूमो व्ह्र व्याप्य:' इस प्रकार का ज्ञान। पक्ष में साध्यव्याप्य हेतु के संबंध का ज्ञान' तृतीय या चरम लिंग परामर्श कहा जाता है - जैसे पर्वत में व्ह्रव्याप्य धूम के संबंध का 'पर्वतो व्ह्रव्याप्य धूमवान्' इस प्रकार का ज्ञान।

पक्षता - 'पक्षता' भी अनुमिति का एक कारण है। पक्ष में साध्य का निश्चय रहने की दशा में अनुमिति की उत्पत्ति को रोकने के लिए इसे अनुमिति का कारण माना जाता है। चिर प्राचीन नैयायिकों ने 'साध्यसंशय' को, उदयनाचार्य ने 'अनुमिति विषयक इच्छा' को, पक्षधर मिश्र ने अनुमितिजनक इच्छा के रूप में 'अनुमाता की अनुमिति - इच्छा' को तथा उसके अभाव में 'ईश्वर की इच्छा' को और गंगेशोपाध्याय ने 'सिषाधयिषाविरहविशिष्टसिद्ध्यभाव' को 'पक्षता' माना है। गंगेशोपाध्याय का मंतव्य यह है कि जब पक्ष में साध्य सिद्धि होती है और उस साध्य को अनुमान से जानने की इच्छा नहीं होती, उसी समय अनुमिति की उत्पत्ति नहीं होती है; किंतु साध्य को अनुमान से जानने की इच्छा होने पर पक्ष में साध्यनिश्चय की दशा में भी अनुमिति की उत्पत्ति होती है। उसके लिए साध्यसंशय या अनुमितता की नियत अपेक्षा नहीं होती।

प्रतिबंध का भाव - यह भी अनुमिति का कारण है। इसे निम्नलिखित तालिका के अनुसार चार रूप में विभक्त किया जा सकता है।

  1. आश्रयासिद्धि = पक्ष में पक्षतावच्छेदक का अभाव; जैसे-आकाशपुष्प को पक्ष बनाने पर पुरुपरूप पक्ष में आकाशीयत्व रूप पक्षतावच्छेदक का अभाव।
  2. साध्याप्रसिद्धि = साध्य में साध्यतावच्छेदक का अभाव; जैसे-आकाशपुष्प को साध्य बनाने पर पुष्प रूपसाध्य में आकाशीयत्व रूप साध्यताकच्छेदक का अभाव।
  3. सत्प्रतिपक्ष = पक्ष में साध्याभावव्याप्य हेतु का संबंध; जैसे-शब्द में नित्यत्व रूप साध्य के अभाव अनित्य के व्याप्य 'जन्यत्व' का संबंध।
  4. बाघ = पक्ष में साध्य का अभाव जैसे-शब्द रूप पक्ष में नित्यत्व रूप साध्य का अभाव।

इन चारों निश्चयों से अनुमिति का प्रतिबंध होता है; अत: इन चारों निश्चयों का अभाव 'प्रतिबंधकाभाव' के रूप में अनुमिति का कारण होता है।

व्याप्ति - व्याप्ति ज्ञान को द्वितीय लिंगपरामर्श के रूप में अनुमिति का कारण कहा गया है। इस व्याप्ति के निर्वचन में नैयायिकों ने बड़ा पुरुषार्थ प्रदर्शित किया है; क्योंक यही अनुमान के प्रमाणत्व की आधारशिला है। व्याप्ति मुख्य रूप से दो प्रकार की मानी गई है - 'अन्वयव्याप्ति' और 'व्यतिरेकव्याप्ति'। जिस व्याप्ति के शरीर में - साध्य में हेतु व्यापकत्व - प्रवेश हो उसे सिद्धांतभत अन्वयव्याप्ति कहा जाता है - जैसे 'हेतुव्यापकसाध्यसामानाधिकरण्य'। और जिस व्याप्ति के शरीर में - हेत्वभाव में साध्याभावव्यापकत्व- का प्रवेश हो उसे 'व्यतिरेकव्याप्ति' कहा जाता हैं - साध्याभावव्यापकाभाव प्रतियोगित्व'। अन्वयव्याप्ति का तात्पर्य यह है कि हेतु का ऐसे साध्य के आश्रय में रहना, जिसका हेतु के किसी आश्रय में अभाव न हो। और व्यतिरेकव्याप्ति का तात्पर्य यह है कि साध्याभाव के आश्रयों में हेत्वभाव का होना। जैसे - धूमकेतु किसी आश्रय में व्ह्र का अभाव न होने से व्ह्र धूम का व्यापक है और उस व्ह्र के आश्रय महानस आदि में धूम रहता है; इसी प्रकार वह्न्यभाव के आश्रयों में धूम का अभाव रहता है; इसलिए धूम में वह्नि की 'अन्वय' और 'व्यतिरेक' दोनों व्याप्तियाँ रहती हैं।

व्याप्तिज्ञान के उपाय - व्यातिज्ञान के तीन साधक माने जाते हैं- 'व्यभिचार का अज्ञान,' 'हेतु में साध्यसहचार या साध्याभाव में हेत्वभावसहचार' का ज्ञान और 'तर्क'। इनमें प्रथम दो व्याप्तिज्ञान के सार्वत्रिक साधन हैं; पर तर्क सर्वत्र नहीं क्वचित् ही अपेक्षित होता है। जैसा कि विश्वनाथ ने अपने भाषा परिच्छेद (कारिकावली) नामक ग्रंथ के गुण प्रकरण में कहा है :

व्यभिचारस्याग्रहोडथ सहचाराग्रहस्तथा।

हेतुर्व्याप्तिग्रहे तर्क: क्वचिच्छंकानिवर्त्तक:।।१३७।।

तर्क - गौतम ने तर्क का लक्षण कहा है :

'अविज्ञाततत्तवेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्तवज्ञानार्थमूहस्तर्क:'

(न्या. द. १.१.४२)

(जिस अर्थ का तत्व निर्णीत न हो उसके तत्त्वज्ञान के लिए युक्ति पूर्वक किए जानेवाले 'ऊह' ज्ञान का नाम है 'तर्क')।

परवर्ती नव्य नैयायिकों ने तर्क का लक्षण इस प्रकार किया है : 'व्याप्य के आहार्य आरोप से व्यापक का जो आहार्य आरोप होता है' वह 'तर्क' है। इस तर्क का विपरीत अनुमान में अर्थात् व्यापक = आपाद्य के अभाव से व्याप्य = आपादक के अभाव के अनुमान में पर्यवसन्न होना इसकी शुद्धता का निकष माना जाता है। जब कभी हेतु में साध्य व्यभिचार की शंका होने से व्याप्तिज्ञान का प्रतिबंध होने लगता है, उस शंका को तर्क द्वारा निरस्त कर व्याप्तिज्ञान का पथ प्रशस्त कर दिया जाता है। जैसे-पाकगृहगत धूम में पागृहगत व्ह्र के सहचार का ज्ञान होने पर भी जब पर्वतीय धूम में व्ह्रव्यभिचार की शंका होती है, उसे दूर करने के लिए 'तर्क' का सहारा लिया जाता है। जैसे - 'किसी भी धूम में यदि व्ह्र का व्यभिचार होगा तो व्ह्र धूम का कारण न हो सकेगा और यह संभव नहीं है कि व्ह्र को धूम का कारण न माना जाए; क्योंकि उस दशा में धूम के संपादनार्थ व्ह्र के ग्रहण में मनुष्य की नियत प्रवृत्ति का लोप हो जाएगा'। इस तर्क के फलस्वरूप यह निष्कर्ष निकलता है कि 'धूम व्ह्र से उत्पन्न होता है अत: उसमें व्ह्रव्यभिचार का अभाव है' और इस निष्कर्ष के निष्पन्न होते ही पर्वतीय धूम में व्ह्रव्यभिचार की शंका निवृत्त हो जाने से धूम में व्ह्रव्याप्ति का ज्ञान निर्बाध रूप से संपन्न हो जाता है।

उपर्युक्त तर्कलक्षक सूत्र की विश्वनाथवृत्ति में तर्क के आत्माश्रय, अन्योन्याश्रय, चक्रक, अनवस्था और इन चारों से पृथक् बाधितार्थप्रसंग, ये पाँच भेद बतला कर प्रत्येक का उदाहरण प्रदर्शित किया गया है।

उपाधि - जो पदार्थ के सब आश्रयों में रहता हो पर हेतु के सब आश्रयों में न रहता हो, 'उपाधि' कहा जाता है। उपाधि के तीन भेद होते हैं - शुद्ध साध्य का व्यापक, पक्षधर्मसहित साध्य का व्यापक तथा साधनयुक्त साध्य का व्यापक।

शुद्धसाध्य व्यापक उपाधि - जब व्ह्र से धूम का अनुमान किया जाता है, तब 'आर्द्र ईधंन' = गीली लकड़ी शुद्ध साध्य का व्यापक उपाधि होता है, क्योंकि आर्द्रं ईधंन धूम रूप साध्य के सभी आश्रयों में रहता है पर अग्नितप्त लोहगोलक में न रहने के कारण व्ह्र रूप साधन के सब आश्रयों में नहीं रहता।

पक्षधर्मसहित साध्य की व्यापक उपाधि - जब वायु में प्रत्यक्ष स्पर्श रूप हेतु से प्रत्यक्षत्व का अनुमान किया जाता है तब 'उद्भूत रूप' पक्षधर्मसहित साध्य का व्यापक उपाधि होता है, क्योंकि वायुस्वरूप पक्ष के वहिर्द्रव्यत्व रूप धर्म के साथ प्रत्यक्षत्व जिन प्रत्यक्षबाह्मद्रव्य रूप आश्रयों में रहता है उन सभी में उद्भूत रूप रहता है, पर वायु में न रहने के कारण प्रत्यक्ष स्पर्श के सब आश्रयों में नहीं रहता।

साधनयुक्त साध्य की व्यापक उपाधि - जब ध्वंस में 'जन्यत्व' हेतु से 'विनाशित्व' का अनुमान किया जाता है तब 'भावत्व' साधन युक्त साध्य का उपाधि होता है, क्योंकि जन्यत्व के साथ विनाशित्व जिन जन्य विनाशी पदार्थों में रहता है उन सभी में भावत्व रहता है, पर ध्वंस में न रहने के कारण जन्यत्व के सब आश्रयों में नहीं रहता।

उपाधि का ज्ञान व्याप्तिज्ञान का सीधा विरोधी नहीं होता है। अर्थात् हेतु में साध्य व्यापक उपाधि के व्यभिचार से उसमें साध्य व्यभिचार का अनुभव होता है और साध्य के उस आनुमानिक व्यभिचारज्ञान से व्याप्तिज्ञान का साक्षात् प्रतिबंध होता है।

उपमान- एक पदार्थ में अन्य पदार्थ के सादृश्यज्ञान 'उपमान' प्रमाण कहा जाता है। इससे अर्थविशेष में शब्द विशेष के शक्ति संबंध का ज्ञान होता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है।

जब कोई अरण्यवासी मनुष्य किसी ग्रामवासी मनुष्य को बताता है कि अरण्य में तुम्हारी गौ के सदृश गवय नाम का एक पशु होता है, जब तुम अरण्य में कभी जाना तो जिस पशु को अपनी गौ के सदृश देखना उसे गवय समझ लेना, तदनुसार जब ग्रामवासी कभी अरण्य जाता है और वहाँ अपनी गौ के सदृश किसी पशु को देखता है उसे अरण्यवासी की बात का स्मरण होता है और उसे फलस्वरूप उस पशु में उसे गवय शब्द के शक्तिसंबंध का निश्चय हो जाता है। इस प्रकार गवय में गोसादृश्य का दर्शन उपमानक्रमण, अरण्यवासी के द्वारा उपदिष्ट अर्थ का स्मरण उसका व्यापार तथा गवय में गवय शब्द की शक्ति का निश्चय उपमिति नामक फल कहा जाता है। उदयनाचार्य ने यही बात अग्रिम कारिका में कही है।

संबंधस्य परिच्छेद: संज्ञाया: संज्ञिना सह।

प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदु:।। (न्या. कु. ३ स्त. १० का)

विश्वनाथ न्यायपंचानन की अग्रिम कारिकाओं में यह विषय और भी विशद है :

ग्रामीणस्य प्रथमत: पश्यतो गवयादिकम्।

सादृश्यधीर्गवादीनां या स्यात् सा करणं स्मृतम्।।७९।।

वाक्यार्थस्यातिदेशस्य स्मृतिर्व्यापार उच्यते।

गवयादिपदाना तु शक्तिधीरुपमा फलमा।।८०।। (भाषा परिच्छेद)

शब्द- जिसमें पदार्थ के शक्ति या लक्षण संबंध के ज्ञान से पदार्थ का स्मरण होकर पदार्थ का अनुभव होता है, उसे 'शब्द प्रमाण' कहा जाता है। घट शब्द में घटपदार्थ के शक्ति संबंध के ज्ञान से घट का स्मरण होकर घट का अनुभव और गंगा शब्द में गंगातीर के लक्षण संबंध के ज्ञान से गंगातीर का स्मरण होकर गंगातीर का अनुभव होने से घट और गंगातीर रूप अर्थों में घट और गंगा शब्द प्रमाण होते हैं।

अमुक शब्द अमुक अर्थ का बोधक हो, अथवा अमुक अर्थ अमुक शब्द से बोधित हो, इस प्रकार के अनादि ईश्वर-संकेत को शक्ति कहा जाता है। जैसे राजा भगीरथ ने कपिल मुनि के शाप से दुग्ध और अपने पूर्वज सार सुतों के उद्धारार्थ जिस जलप्रवाह को पृथ्वी पर प्रवर्तित किया, उस जलप्रवाह में गंगा का अनादि संकेत उस अर्थ में गंगा शब्द की शक्ति है।

जिस अर्थ में जिस शब्द का अनादि संकेत न होकर आधुनिक संकेत होता है, उस अर्थ में उस शब्द के आधुनिक संकेत को 'परिभाषा' कहा जाता है। जैसे किसी नूतन वस्तु के लिए उसके निर्माता द्वारा निश्चित किया गया कोई नाम।

शब्द के शक्यार्थसंबंध को 'लक्षणा' कहा जाता है। जैसे- शब्द के शक्यार्थ जलप्रवाह का तीर के साथ संयोग संबंध।

जब किसी शब्द से शक्ति द्वारा वक्ता के अभिमत अर्थ की प्रतीति नहीं हो पाती उस शब्द से लक्षण द्वारा उस अर्थ की प्रतीति संपन्न हो जाती है।

न्यायशास्त्र के अनुसार अर्थ के शक्ति और लक्षण संबंध संस्कृत भाषा के शुद्ध शब्दों में ही आश्रित होते हैं, अन्य भाषाओं के शब्द न्यायशास्त्र की दृष्टि में अपशब्द या अपभ्रंश माने जाते हैं। अपभ्रंश शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है जब उसमें अर्थ की परिभाषा की गई होती है या उसमें अर्थ का शक्तिभ्रम होता है।

शक्ति और लक्षण से अतिरिक्त व्यंजना नाम का कोई शब्दार्थ संबंध न्यायशास्त्र में मान्य नहीं है। जिस अर्थ के अवबोध के लिए ऐसे तीसरे संबंध की आवश्यकता समझी जाती है, उसका बोध कहीं लक्षणा से, कहीं ज्ञान लक्षण सन्निकर्ष के द्वारा मन से और कहीं अनुमान से ही संपन्न हो जाता है।

शब्द प्रमाण के दो भेद होते हैं- लौकिक और वैदिक। इनमें लौकिक शब्दावली को अन्य लौकिक प्रमाणों के संवाद से ही प्रमाण माना जाता है, पर वैदिक शब्दावली (वेद) को किसी लौकिक प्रमाण के संवाद के बिना भी प्रमाण माना जाता है। वेदमूलक स्मृतियों को लौकिक कहा जाए या वैदिक, किंतु उनका प्रमाणत्व वेद के संवाद पर निर्भर होता है।

शब्द प्रमाण होनेवाले अनुभव को शब्दबोध कहा जाता है। वह पदज्ञान, पद-पदार्थ संबंध ज्ञान, पदार्थ स्मरण आकांक्षाज्ञान, आसक्ति या आसक्तिज्ञान, योग्यताज्ञान या अयोग्यता निश्चय का अभाव, तात्पर्यज्ञान या तात्पर्यज्ञापक प्रकरण इन सात कारणों से उत्पन्न होता है।

अनुभव और स्मरण - उक्त चार प्रमाणों से होनेवाले ज्ञान अनुभव कहा जाता है। अनुभव के दो भेद होते हैं- उपेक्षात्मक और अनुपेक्षात्मक। जो अनुभव अपने विषय का कोई संस्कार डाले बिना ही विलीन हो जाता है उसे 'उपेक्षात्मक अनुभव' तथा जो अनुभव अपने विषय का संस्कार उत्पन्न कर नष्ट होता है उसे 'अनुपेक्षात्मक' अनुभव कहा जाता है। कालांतर में इसी संस्कार के जागरण से जो पूर्व अनुभव के समान ज्ञानांतर पैदा होता है उसे ही 'स्मरण' कहा जाता है। स्मरण की यथार्थता और अयथार्थता अनुभव की यथार्थता और अयथार्थता पर निर्भर होती है। स्मरण को प्रमाण और भ्रम दोनों से भिन्न माना जाता है, क्योंकि उसे प्रमाण मानने पर उसके लिए अतिरिक्त प्रमाण तथा भ्रम मानने पर उसके कारण रूप में अतिरिक्त दोष की कल्पना करनी होगी, जो उचित नहीं है।

प्रत्यभिज्ञा - धाराप्रवाही प्रत्यक्षज्ञान को 'प्रत्यभिज्ञा' कहा जाता है। संस्कार और इंद्रिय के सम्मिलित व्यापार से उसकी उत्पत्ति होती है। पूर्वदृष्ट एवं दृश्यमान पदार्थ की एकता का ग्राहक होने से वही स्थायी पदार्थ की सत्ता में प्रमाण होता है। जब मन संयुक्त इंद्रिय के सन्निकर्ष से किसी विषय का प्रत्यक्ष होता है, जब तक उस विषय के साथ इंद्रिय का तथा इंद्रिय के साथ मन का संयोग बना रहता है, प्रतिरक्षण उस विषय का नया नया प्रत्यक्षज्ञान होता रहता है। इस प्रत्यक्ष समूह को ही धारावाही ज्ञान कहा जाता है। विषय के अबाधित होने से यह ज्ञान भी प्रमात्मक माना जाता है।

अन्यथाख्याति - जन्य सविकल्पक ज्ञान के दो भेद होते हैं- प्रमा और भ्रम। भ्रम का ही दूसरा नाम है 'अन्यथाख्याति'। इसके तीन भेद होते हैं- संशय विपर्यय और आरोप। एक ही आशय में परस्पर विरोधी दो पदार्थों के एक ज्ञान को 'संशय' कहा जाता है, जैसे- 'शब्द: नित्यो न वा' (शब्द नित्य है या अनित्य)। किसी वस्तु में अन्य वस्तु के धर्म का निश्चय 'विपर्यय' कहा जाता है, जैसे सूर्य के प्रकाश में चमकती सीपी में चांदीपन का ज्ञान। विरोधी ज्ञान के रहते हुए ज्ञाता की इच्छा से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान 'आरोप' या 'आहार्य' कहा जाता है, जैसे रांगा को चाँदी बताकर किसी गँवार के हाथ उसे बेचनेवाले ठग को रांगे में चाँदीपन के अभाव का ज्ञान होते हुए भी उसमें इच्छापूर्वक चांदीपन का ज्ञान। इन अन्य व्याख्यातियों की उपपत्ति करने के लिए ही न्यायशास्त्र में 'ज्ञानलक्षण' अलौकिक सन्निकर्ष की कल्पना की गई है।

स्वतस्त्व, परतस्त्त्व- ज्ञान के प्रमा और भ्रम दो भेद बताए गए हैं। उनकी उत्पत्ति तथा प्रमात्व या भ्रमत्व रूप से उनकी ज्ञप्ति के बारे में भिन्न भिन्न दर्शनों के भिन्न भिन्न मत हैं, किंतु न्यायशास्त्र में यह बात मानी गई है कि प्रमा की उत्पत्ति स्वत: अर्थात् ज्ञान सामान्य के कारण मात्र से न होकर गुणात्मक कारण की सहायता से होती है और भ्रम की उत्पत्ति स्वत: न होकर दोषात्मक कारण की सहायता से होती है। इसी प्रकार ज्ञान के प्रमात्व एवं भ्रमत्व का ज्ञान भी स्वत: अर्थात् ज्ञान के स्वरूपग्राहक कारण मात्र से न होकर अन्य कारण के सन्निधान से होता है, जैसे प्रमात्व का ज्ञान 'सफल प्रवृत्तिहेतुक अनुमान' और भ्रमत्व का ज्ञान 'विफलप्रवृत्तिहेतुक अनुमान' से होता है। जिस ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्ति सफल अर्थात् ज्ञात विषय की प्रापिका होती है, उसे प्रमा समझा जाता है और जिस ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्ति विफल अर्थात् ज्ञात विषय की प्रापिका नहीं होती, उसे भ्रम कहा जाता है।

वाद, जल्प और वितंडा - न्यायशास्त्र के ज्ञातव्य विषयों मे वाद, जल्प और वितंडा का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों को वात्स्यायन ने अपने न्यायभाष्य में 'कथा' शब्द से व्यवहृत किया है।

'तिस्र: कथा भवंति वादो जल्पो वितंडा चेति'

(न्या.भा. १.२.१ सूत्र)

कथा का अर्थ है किसी विषय पर विद्वानों का वह पारस्परिक विचार जो वाद, जल्प और वितंडा के रूप में उपलब्ध होता है। तत्व निर्णय के उद्देश्य से किए जानेवाले विचार को 'वाद' एवं प्रतिद्वंद्वी पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले विचार को 'जल्प' तथा 'वितंडा' कहा जाता है। वादात्मक विचार में 'छल' और 'जाति' का प्रयोग तथा 'अपसिद्धांत' 'न्यून', अधिक' और 'हेत्वाभास' से अतिरिक्त निग्रह स्थानों का उद्भावन वर्ज्य माना गया है। इस विचार में सभा, मध्यस्थ एवं राजा या राजप्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं होती। इसमें भाग लेनेवाले विद्वान् अविनीतवंचक, असूयावान् या दुराग्रही नहीं होते। शुद्ध न्याय से तत्वनिर्णय पर पहुँचना ही उसका लक्ष्य होता है। इसमें विचारकों के बीच जयपराजय की कोई भावना नहीं होती।

जल्प और वितंडा का स्वभाव वाद से पर्याप्त भिन्न है। इन विचारों में भाग लेने वाले विद्वानों का उद्देश्य तत्वनिर्णय नहीं, अपितु जिस किसी प्रकार अपने प्रतिद्वंद्वी को मूक बनाकर अपने आपको विजयी सिद्ध करना होता है। इसीलिए इन विचारों में छल और जाति के प्रयोग तथा सभी प्रकार के निग्रह स्थानों के उद्भावना की काट रहती है, साथ ही विचार के निर्विघ्न संचालन के लिए सभा, मध्यस्थ और राजकीय नियंत्रण की आवश्यकता होती है।

जल्प और वितंडा के उद्देश्य में ऐक्य होने पर भी उनकी प्रकृति में बहुत अंतर है। जैसे जल्प में वादी और प्रतिवादी दोनों अपने अपने पक्ष का साधन और परपक्ष का खंडन करते हैं, पर वितंडा में केवल वादी ही अपने पक्ष के साधन का प्रयास करता है, प्रतिवादी वादी के पक्ष का खंडन करने में ही अपनी कृतार्थता मानकर अपने पक्ष की स्थापना तथा उसके साधन के प्रयास से विरत रहता है।

तत्व निर्णय के लिए 'वाद' तथा निर्णीत तत्व की रक्षा के लिए 'जल्प' और वितंडा की उपयोगिता मानी जाती है।

छल, जाति और निग्रह स्थान - ये विषय भी न्यायशास्त्र के प्रमुख विषयों में हैं। प्रतिवादी के छलपूर्वक आक्रमण से अपने पक्ष की रक्षा के लिए छल का ज्ञान आवश्यक है। वादी के पक्ष का खंडन करने के लिए उसके वचन में उसके अनभिमत अर्थ की कल्पना को 'छल' कहा जाता है। (न्या. द. १. २. १०)

छल के तीन भेद होते हैं- वाक्छल, सामान्यच्छल और उपचारच्छल।

स्वयं 'जाति' के प्रयोग से बचने के लिए तथा प्रतिवादी द्वारा 'जाति' का प्रयोग होने पर उसका असदुत्तरत्व घोषित करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए 'जाति' का ज्ञान आवश्यक है। व्याप्ति के अभाव में केवल साधर्म्य या वैधर्म्य से वादी के पक्ष में दोष-प्रदर्शन करने का नाम 'जाति' है :

साधर्म्य वैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जाति;

(न्या.द. १। २। १८)

जाति के चौबीस भेद हैं - साधर्म्यसम, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसम, प्रसंगसमा, प्रतिदृष्टांतसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, नित्यसमा, अनित्यसमा और कार्यसमा।

अपने आपको निग्रहस्थान में पड़ने से बचाने के लिए तथा प्रतिवादी के निग्रहस्थान में पहुँचने पर विग्रहस्थान का निर्देश कर प्रतिवादी को निगृहीत करने की अर्हता प्राप्त करने के लिए निग्रहस्थान का ज्ञान आवश्यक है। इसके बाईस भेद हैं- प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञांतर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वंतर, अर्थांतर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धांत और हेत्वाभास।

छल, जाति और निग्रहस्थान के उक्त भेदों के लक्षण और उदाहरण की जानकारी के लिए न्यायदर्शन के प्रथम अध्याय के द्वितीय आ्ह्रक तथा पंचम अध्याय और उनपर वात्स्यायन के न्यायभाष्य का अवलोकन करना चाहिए।

आत्मा - जो दव्य चैतन्य (ज्ञान) आश्रय होता है, उसे आत्मा कहा जाता है। उसके दो भेद हैं- जीवात्मा और परमात्मा।

परमात्मा- परमात्मा का ही नाम ईश्वर है। वह एक और व्यापक है। ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न उसके विशेष गुण हैं और वे सभी नित्य तिथा सर्वविषयक हैं। ईश्वर ही जीवों के पूर्वार्जित शुभ, अशुभ कर्मों के अनुसार जगत् की रचना करता है। सृष्टि के आरंभ में जीवों के हितार्थ वेदों का निर्माण करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों की व्यवस्था कर मनुष्यों को वर्णाश्रम धर्म की तथा अन्य प्रकार के विविध लोकव्यवहार की शिक्षा प्रदान करता है। वही जगत् का स्रष्टा होने से ब्रह्मा, पालक होने से विष्णु तथा संहर्ता होने से रुद्र नाम से व्यवहृत होता है। वह अनुमान और शास्त्र से गम्य है। कदाचित् उसका प्रत्यक्ष भी होता है, पर वह केवल सिद्ध योगी को ही।

जीवात्मा- जीवात्मा की संख्या अनंत है। प्रत्येक जीव व्यापक तथा ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न आदि विशेष गुणों का आश्रय और उन गुणों के साथ मन द्वारा प्रत्यक्ष वेद्य है। प्रत्येक जीव शुभाशुभ कर्मों की पुण्य पापरूप वासना तथा विविध प्रकार के अनुभवों की वासना द्वारा अनादि काल से बद्ध होता है। देव, दानव, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, पशु, पक्षी, साँप, बिच्छू, कीड़े, मकोड़े, लता, वनस्पति आदि विविध चर-अचर योनियों में उसका जन्म होता रहता है। उक्त बंधन तथा तन्मूलक दु:खयंत्रणा से उसे छुटकारा नहीं मिलता जब तब उसे परमात्मा औैर स्वात्मा का तत्वसाक्षात्कार नहीं हो जाता।

मोक्ष - न्यायशास्त्र में इक्कीस प्रकार के दु:ख माने गए हैं। घ्नाण रसन, चक्षु, त्वक्, श्रोत्र, और मन ये छ: इंद्रिय; गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द और रागद्वेषमोहात्मक दोष ये छ: विषय; विषयेन्द्रिय संपर्क से होने वाले छ: विषयानुभव, शरीर सुख और दु:ख- इनमें अंतिम 'दु:ख' स्वभावत: द्वेष्य होने के कारण मुख्य दु:ख है, किंतु सुख मुख्य दु:ख से अनुबिद्ध होने के कारण तथा अन्य उन्नीस मुख्य दु:ख के जनक होने के कारण गौण दु:ख हैं- इन इक्कीस प्रकार के दु:खों से सर्वदा के लिए पूर्ण रूप से छुटकारा पाने का ही नाम है 'मोक्ष'

मोक्षसाधन - सद्धर्म के अनुष्ठान से 'चित्त का शोधन' 'पदार्थों का तत्व ज्ञान' तथा 'आत्मा के वास्तविक स्वरूप का प्रत्यक्ष बोध' ये तीन मोक्ष के साधन हैं। नित्य, नैमित्तिक और निष्काम कर्म के श्रद्धा एवं नियमपूर्वक चिर अनुष्ठान से जब मनुष्य अपने चित्त का शोधन कर लेता है, संसार के विषयों से उसे विरक्ति हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उसे जगत् के पदार्थों विशेषत: परमात्मा और स्वात्मा की तत्वजिज्ञासा होती है। उस जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह सद्गुरु के चरणों में पहुँच, उससे शास्र का अध्ययन कर प्रमाण,. प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का - जिनका न्याय - वैशेषिक के मर्मज्ञ विद्वानों ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थों में अंतर्भाव कर लिया है - तत्वज्ञान अर्जित करता है। अनंतर मनन, निदिध्यासन एवं आदरपूर्वक दीर्घकालव्यापी अविच्छिन्न अभ्यास से परमात्मा का अलौकिक मानस तथा विशेषगुणमुक्त आत्मा का लौकिक मानस तत्व साक्षात्कार प्राप्त कर न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र में कहे गए क्रम से पहले जीवनमुक्ति प्राप्त करता है, अर्थात् जीवन काल में ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसके बाद प्रारब्ध कर्मों का भोग द्वारा अवसान हो जाने पर वर्तमान शरीर से संबंध तोड़कर विदेहमुक्ति को प्राप्त करता है। पुन: कभी किसी भी रूप में उसका जन्म नहीं होता और वह ईश्वर के समान नितांत निर्दु:ख हो अपने निसर्गसिद्ध शुद्ध शाश्वत रूप में सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाता है।

अवैदिक न्याय

ऊपर जिस न्याय का परिचय दिया गया है वह वैदिक गौतमीय न्याय है। वैदिक न्याय में वेद को अकाट्य प्रमाण माना जाता है, किंतु भारतवर्ष में ऐसे भी न्यायशास्त्र प्रचलित हैं, जिन्हें 'बौद्धन्याय' और 'जैनन्याय' शब्द से व्यवहृत किया जाता है। इन न्यायशास्त्रों में वेद के प्रमाणत्व का बड़े अभिनिवेश से खंडन किया है और इनकी अधिकतर मान्यताएँ वैदिक न्याय से अत्यंत विरुद्ध हैं; किंतु यह होने पर भी ये अपने विकास के लिए वैदिक न्याय के निश्चित रूप से अधमर्ण हैं। यद्यपि इन दोनों के साथ चिर संघर्ष के फलस्वरूप वैदिक न्याय का भी पर्याप्त विकास और परिष्कार हुआ है तथापि उसका एक अपना मौलिक रूप भी है जो इनसे नितांत अप्रभावित है, जब कि इन अवैदिक न्यायों के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी मौलिकता भी वैदिक न्याय से पूर्ण प्रभावित है। ४०० ई. से १२०० ई. तक का काल अवैदिक न्याय के उत्कर्ष का काल माना जाता है।

यदि न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जाए तो उक्त काल न्यायशास्त्र का मध्यकाल और उसके पूर्व का काल आद्यकाल तथा बाद का १२०० ई. से १८०० ई. तक का काल अंत्यकाल कहा जाएगा। आद्यकाल का न्याय 'प्राचीन न्याय', मध्यकाल का न्याय 'सांप्रदायिक न्याय' (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यतकाल का न्याय 'नव्यन्याय' कहा जाएगा।

बौद्धन्याय

बौद्धन्याय चार संप्रदायों में विभक्त है- वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक। इनमें प्रथम दो हीनयान के तथा अंतिम दो महायान के अंतर्गत हैं। हीनयान का संबंध स्थविरवादी संघ से और महायान का संबंध महासांघिक संघ से है। पहला संघ बुद्धविषयों को परिवर्तनार्ह तथा दूसरा संघ उसे अपरिर्वनार्ह मानता है।

वैभाषिक - वैभाषिक न्याय में पदार्थ के 'विषयी' और विषय के रूप में दो भेद मानकर दोनों का पृथक् अस्तित्व माना गया है। 'विषयी' में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कंधों का; चक्षु आदि छ: इंद्रियों तथा रूप आदि इनके छ: विषयों, इन बारह आयतनों का तथा इंद्रिय, विषय और विज्ञान इन तीन धातुओं का समावेश होता है। 'विषय' में रूपधर्म, चित्तधर्म, चैत्तधर्म और रूपचित्तविप्रयुक्तधर्म इन चार 'संस्कृत' हेतुप्रत्ययजन्य धर्मों का समावेश होता है। इस न्याय में जगत् को त्रैधातुक, संस्कृत तथा असंस्कृत धर्मों का समष्टि रूप, सत्य, प्रत्यक्षवेद्य तथा क्षणभंगुर मानकर 'अर्हत्' पद की प्राप्ति और दु:खाभाव रूप निर्वाण को मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है।

वैभाषिक न्याय की विशेष जानकारी के लिए कात्यायनीपुत्र, वसुबंधु, स्थिरमति, दिङ्नाग, यशोमित्र तथा संघभद्र आदि बौद्ध विद्वानों के ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए।

सौत्रांतिक - 'सौत्रांतिक न्याय' में बुद्ध के सूत्रात्मक वचनों के यथाश्रुत अर्थ को विशेष महत्व दिया जाता है। इसकी पदार्थ कल्पना वैभाषिक के समान ही है, अंतर केवल इतना है कि वैभाषिक न्याय में 'ज्ञेय' और 'ज्ञान' दोनों को प्रत्यक्ष माना जाता है और सौत्रांतिक न्याय में ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा ज्ञेय को अतींद्रिय एवं ज्ञानानुमेय माना जाता है।

सौतांत्रिक न्याय का समुचित परिचय प्राप्त करने के लिए कुमारलात, श्रीलाभ, धर्मत्रात, बुद्धदेव और यशोमित्र आदि बौद्ध पंडितों के ग्रंथों का अनुशीलन करना चाहिए।

योगाचार - 'योगाचार न्याय' में 'विज्ञानवाद' को दार्शनिक सिद्धांत के रूप में स्वीकृत किया गया है। विज्ञानवाद के अनुसार 'विज्ञान' ही एकमात्र सत्य वस्तु है। चित्त, मन और विज्ञप्ति उसी के नाम है। विज्ञान के दो भेद हैं- प्रवृत्तिविज्ञान और आलयविज्ञान। संसार के समस्त व्यवहार प्रवृत्तिविज्ञान से संपन्न होते हैं। 'अहम्' आकार का ज्ञान आलयविज्ञान है। आलयविज्ञान ही इस न्याय के अनुसार आत्मा है। दोनों ही विज्ञान स्वप्रकाश एवं क्षणिक है। जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह विज्ञान का विवर्त मात्र है। उसकी सत्ता केवल व्यावहारिक है। परमार्थ सत्ता केवल विज्ञान की ही है। इस न्याय के अनुसार आत्मभूत ज्ञानप्रवाह को नितांत निर्मल बनाना ही मनुष्य का अंतिम ध्येय है।

योगाचार न्याय को पूर्णतया अवगत करने के लिए मैत्रेयनाथ, असंग, वसुबंधु, स्थिरमति, दिङ्नाग, शंकर स्वामी, धर्मपाल तथा धर्मकीर्ति आदि बौद्ध मनीषियों के ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए।

माध्यमिक - 'माध्यमिक न्याय' ने 'शून्यवाद' को दार्शनिक सिद्धांत के रूप में अंगीकृत किया है। इसके अनुसार ज्ञेय और ज्ञान दोनों ही कल्पित हैं। पारमार्थिक तत्व एकमात्र 'शून्य' ही है। 'शून्य' सार, असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण, इन चार कोटियों से अलग है। जगत् इस 'शून्य' का ही विवर्त है। विवर्त का मूल है संवृति, जो अविद्या और वासना के नाम से भी अभिहित होती है। इस मत के अनुसार कर्मक्लेशों की निवृत्ति होने पर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर उसी प्रकार शांत हो जाता है जैसे तेल और बत्ती समाप्त होने पर प्रदीप।

माध्यमिक न्याय के विस्तृत और विशद ज्ञान के लिए नागार्जुन, आर्यदेव, बुद्धपालित, भावविवेक, चंद्रकीर्ति, शांतिदेव और शांतिरंक्षित आदि बौद्ध विपश्चितों के ग्रंथों का परिशीलन अपेक्षित है।

इन चारों संप्रदायों की कुछ समान मान्यताएँ-

प्रमाण - बौद्ध न्याय में दो प्रमाण माने गए हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं -निर्विकल्पक और सविकल्पक। उनमें स्वलक्षण वस्तुमात्र का ग्राहक होने के कारण 'निर्विकल्पक' प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। 'सविकल्पक जाति' आदि कल्पित पदार्थों का ग्राहक होने के कारण अप्रमाण ही है।

व्याप्ति - बौद्ध न्याय में व्याप्ति का क्षेत्र वैदिक न्याय की अपेक्षा सीमित माना गया है। उसके अनुसार तदुत्पत्ति और ततदात्म्य ही व्याप्ति के उपजीव्य हैं। अर्थात् जिन पदार्थों में परस्पर कार्यकारण भाव या तादात्म्य होता है, उन्हीं में व्याप्य-व्यापक-भाव होता है।

न्याय - बौद्ध न्याय में न्याय (अनुमानवाक्य) के दो ही अवयव माने गए हैं- उदाहरण और उपनय। इस अवयवद्वयात्मक न्याय से ही विश्व की क्षणिकता, विज्ञानमात्रता, पुद्गलनैरात्म्य तथा धर्मनैरात्म्य आदि का साधन कर सर्वशून्यता सिद्धात की प्रतिष्ठा की गई है।

सत्ता - बौद्ध न्याय में अर्थक्रियाकारित्व को ''सत्ता'' का लक्षण मानकर तथा स्थिर पदार्थ में उसे असंभव कहकर भावात्मक पदार्थों को क्षणिक माना गया है।

सद्धेतु - बौद्ध न्याय में किसी हेतु को सद्धेतु होने के लिए तीन अनुमापक रूपों से संपन्न होना आवश्यक माना गया है। वे तीन रूप पक्षसत्व, सपक्षसत्व एवं विपक्षसत्व हैं। गौतमीय न्याय में स्वीकृत 'असत्प्रतिपक्षत्व' तथा 'अबाधितत्व' को अनावश्यक कहा गया है।

हेत्वाभास - बौद्ध न्याय में वैशेषिक की भाँति तीन ही हेत्वाभांसविरुद्ध असिद्ध और व्यभिचारी- माने गए हैं।

कथा- बौद्ध न्याय में भी कथा के बाद, जल्प एवं वितंडा- भेदों का वर्णन किया जाता है, किंतु अंत में सिद्धांतत: वादकथा को ही ग्राह्य मानकर जल्प और वितंडा को हेप बताया गया है। कथानिरूपण के संदर्भ में छल, जाति तथा निग्रहस्थान का प्रतिपादन और विवेचन किया गया है। इन विषयों के संबंध में बौद्ध न्याय के दृष्टिकोण को उचित रूप में समझने के लिए उपायहृदय, प्रमाणसमुच्चय, न्यायविंदु और वादन्याय आदि ग्रंथ द्रष्टव्य हैं।

आर्यसत्य - बौद्ध न्याय के सभी संप्रदायों में चार आर्यसत्य माने गए हैं - दु:ख, दु:खसमुदय, दु:खनिरोध और दु:खनिरोध का मार्ग। इनमें दु:खसमुदय का अर्थ है - दु:खकारण। भवचक्र ही दु:ख का कारण है। उसका दूसरा सांप्रदायिक नाम है - 'प्रतीत्यसमुत्पाद'। इसका अर्थ है- 'किसी चेतन कर्ता की अपेक्षा न कर कारण के स्वाभाविक संनिधान से कार्य का उत्पन्न होना।' 'भवचक्र' के १२ अंग होते हैं।

१. अविद्या, २. संस्कार, ३. विज्ञान, ४. नामरूप, ५. आयतन ६. स्पर्श, ७. वेदना, ८ तृष्णा, ९. उपादान, १०. भव, ११. जातिजन्म, १२. जरामरण। इनमें प्रथम दो पूर्वजन्म से, मध्य के आठ वर्तमान जन्म से और अंत के दो भाव जन्म से संबद्ध होते हैं। चौथे आर्यसत्य को अष्टांगयोग के यप में वर्णित किया गया है। उनके नाम हैं- सम्यग्जन्म, सम्यक्संकल्प, सम्यग्वचन, सम्यक्कर्मांत, सम्यग्आजीव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक्स्मृति, तथा सम्यक्समाधि। इन योगांगों के सेवन से यथार्थ प्रज्ञा का आविर्भाव होता है और उससे भवचक्र का विनाश होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

चार भावनाएँ - मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होने के लिए चार भावनाओं को आवश्यक माना गया है। वे हैं- सब कुछ दु:खमय है, सब क्षणिक है, सब स्वलक्षण है तथा सब शून्य है। इन भावनाओं के अभ्यास से सांसारिक आसाक्ति का क्षय होता है और उसके फलस्वरूप मनुष्य मोक्ष मार्ग का पथिक बन अपने चरम लक्ष्य निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।

त्रिरत्न - बुद्ध, संघ और धर्म ये तीन रत्न माने जाते हैं। इन तीनों का आश्रयण मनुष्य की सर्वाविध उन्नति विशेषत: आध्यात्मिक उत्थान का मूल है। बुद्ध के स्वरूप पर चित्त को केंद्रित करने से मनुष्य के मन में वितृष्णता और स्थिरता आती है, 'संघ के प्रभाव से साधक में विश्वास और उत्साह का उदय होता है, धर्म के सेवन से उसके आत्मिक बल की वृद्धि होती है।'

बौद्ध न्याय मागधी, पालि और संस्कृत इन तीन भाषाओं में पल्लवित और विकसित हुआ है। अत: विकासक्रम से उनके विशद और विस्तृत ज्ञान के लिए इन तीनों भाषाओं का अध्ययन आवश्यक है।

जैनन्याय

जैन न्याय की दो धाराएँ प्रसिद्ध हैं - श्वेताँबर और दिगंबर। दोनों का प्रमुख सिद्धांत है 'अनेकांतवाद'।

अनेकांतवाद - 'अनेकांतवाद' का आशय यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनंत कर्मों के भिन्न भिन्न आशय हैं। वस्तु के संबंध में विभिन्न दर्शनों की जो विभिन्न मान्यताएँ हैं, अपेक्षाभेद एवं दृष्टिभेद से वे सब सत्य हैं। उनमें से किसी एक को यथार्थ मानना और अन्यों को अयथार्थ मानना उचित नहीं है। वस्तु को कुछ परिमित रूपों में ही देखना नयदृष्टि है, प्रमाणदृष्टि नहीं। नयदृष्टि का अर्थ है एकांकी दृष्टि और प्रमाणदृष्टि का सर्वांगीण दृष्टि।

नय - वस्तु को एकांत भाव से किसी एक ही रूप में या कुछ ही रूपों में ग्रहण करनेवाले ज्ञान का नाम है 'नय'। नय के मुख्य दो भेद हैं- द्रव्यार्थिंक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक नय तीन प्रकार का है- नैगम, संग्रह और व्यवहार। पर्यायार्थिक नय चार प्रकार का है- ऋजुसूत्र, शब्द, समनिरूढ़ और एवंभूत। सभी द्रव्यार्थिक नय वस्तु के केवल सामान्य अंश को ही ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार सभी पर्यायार्थिक नय वस्तु के केवल विशेष अंश को ही ग्रहण करते हैं। फलत: किसी भी नय से सामान्य, विशेष एवं उभयात्मक वस्तु का साकल्येन ग्रहण नहीं होता।

प्रमाण - वस्तु को विविध रूपों में ग्रहण करनेवाले ज्ञान को 'प्रमा' के अर्थ में तथा उस ज्ञान के साधन को 'प्रमाकरण' के अर्थ में प्रमाण कहा जाता है। प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। वस्तु को विशद रूप में ग्रहण करने वाले प्रमाण का नाम है- 'प्रत्यक्ष' और अस्पष्ट रूप में ग्रहण करनेवाले प्रमाण का नाम है 'परोक्ष'। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- सांव्यावहारिक और पारमार्थिक। 'पारमार्थिक' प्रत्यक्ष का प्रादुर्भाव मन और इंद्रिय की सहायता के बिना केवल आत्मशक्ति से ही संपन्न होता है जब कि सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के प्रादुर्भाव में मन, इंद्रिय आदि बाह्य उपकरणों की भी अपेक्षा होती है। परोक्ष के दो भेद हैं- अनुमान और शब्द। अनुमान से होनेवाले बोध को 'अनुमिति' तथा शब्द से होनेवाले बोध को शब्दबोध कहा जाता है।

सप्तभंगीनय - किसी वस्तु के परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो भावात्मक अंशों का समन्वय बताने के लिए जिन वाक्यों का प्रयोग होता है, उनकी संख्या सात है। उन सातो वाक्यों के समूह का ही नाम 'सप्तभंगीनय' है। उसी का दूसरा नाम 'स्याद्वाद' है। इस प्रकार 'स्याद्वाद' जैनदर्शन महासागर का एक उत्तुंग तंरग मात्र है, किंतु वह इतना महत्वपूर्ण है कि उसी के नाम से आजकल जैनदर्शन का व्यपदेश होने लगा है।

सप्तभंगीनय (स्याद्वाद्) को समझने के लिए उदाहरण के रूप में नीचे के वाक्यों को लिया जा सकता है।

वाक्य अर्थ

१. आत्मा स्याद् अस्ति आत्मा का अस्तित्व है

२. स्यान्नास्ति नास्तित्व भी है

३. स्याद् अस्ति न नास्ति च अस्ति, नास्ति उभयात्मक भी है

४. स्याद् अवक्तव्य: उसकी समग्र वास्तविकता को

व्यक्त करनेवाले शब्द के न होने

से वह अवक्तव्य भी है

५. स्याद् अस्ति च अवक्तव्यश्च वह 'अस्ति' होकर भी अवक्तव्य है

६. स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च 'नास्ति' होकर भी अवक्तव्य है

७. स्याद् अस्ति च नास्ति च अस्ति, नास्ति उभयात्मक होकर

अवक्तव्यश्च भी अवक्तव्य है

इस सप्तभंगीनय से यह निष्कर्ष निष्पन्न होता है कि आत्मा के संबंध में उक्त सभी मान्यताएँ दृष्टिभेद से संभव आर सुसंगत हैं।

कथा- जैनन्याय में भी कथा के तीन भेद बताए गए हैं- वाद, जल्प और वितंडा; पर इनमें केवल 'वाद' को ही उपादेय माना गया है। शेष दो को केवल हेय ही नहीं कहा गया है, अपितु उनका साभिनिवेश खंडन भी किया गया है।

छल और जाति - इस न्याय में भी छल और जाति का परिचय दिया गया है; किंतु वादात्मक कथा के ही उपादेय होने के कारण उनके प्रयोग का साग्रह निषेध किया गया है।

निग्रहस्थान - जैन न्याय में वैदिक न्याय और बौद्ध न्याय के निग्रहस्थान-निरूपण को सदोष बताकर अपने ढंग से उसका विवेचन किया गया है और उसके संदर्भ में जय पराजय के निर्णायक तत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। जैन न्याय में प्रतिवादी को किसी प्रकार मूक कर देने मात्र से ही वादी को विजयी नही माना जाता, किंतु जब वह प्रतिवादी के विरोधी तर्कों को निरस्त कर अपने पक्ष को सप्रमाण प्रतिष्ठित कर देता है उसे विजयी समझा जाता है।

न्यायवाक्य - जैन न्याय में वैदिक न्याय या बौद्ध न्याय के समान न्यायवाक्यों की कोई नियत संख्या नहीं मानी गई है, किंतु उसे प्रतिपाद्य पुरुष की योग्यता पर निर्भर किया गया है। अत: इस मत में स्थिति के अनुसार एक से पाँच तक न्यायवाक्यों के प्रयोग का औचित्य मान्य है।

सद्धेतु - जैन न्याय में किसी हेतु की सद्धेतुता के लिए उसे पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और अबाधितत्व-इन पाँच रूपों से अथवा आदि के तीन रूपों से संपन्न होना आवश्यक नहीं; बल्कि सांध्य का अविनाभावी मात्र होना आवश्यक है।

हेत्वाभास - जैन न्याय की श्वेतांबर परंपरा में हेत्वाभास के तीन ही भेद माने गए हैं- विरुद्ध असिद्ध तथा व्यभिचारी; किंतु दिगंबर परंपरा में 'अकिचिंत्कर' को जोड़कर उनकी संख्या चार कर दी गई है।

जैन न्याय का तत्वज्ञान - जैन न्याय में कुल सात तत्व माने गए हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।

जीव - जीव यह है, जिसमें उपयोग (बोधव्यापार) का उदय हो। बोधव्यापार चैतन्य शक्ति का कार्य है और वह जीव में स्वाभाविक है। जीव की संख्या अनंत है और उसका परिमाण देहव्यापी है।

अजीव - जिसमें बोधव्यापार की उत्पादिका चैतन्यशक्ति नहीं होती वह 'अजीव' कहा जाता है। उसके दो भेद हैं - अस्तिकाय एवं अनस्तिकाय। 'अस्तिकाय' रूप अजीव के चार भेद हैं - धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, अकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। अस्तिकाय का अर्थ है - प्रदेशसमूह तथा अवयवसमूह। प्रथम (प्रदेशसमूह) में धर्म, अधर्म और आकाश का तथा दूसरे (अवयवसमूह) में पुद्गलों समावेश है। पदार्थों की गति के निमित्तभूत द्रव्य को 'धर्म', उनकी स्थिति के निमित्तभूत द्रव्य को 'अधर्म', उन्हें स्थान देने के निमित्तभूत द्रव्य को 'आकाश' तथा जीव के जीवन मरण के निमित्तभूत द्रव्य को 'पुद्गल' कहा जाता है। 'अनस्तिकाय' का एक ही भेद है और वह है काल।

आस्रव - जीव को कर्मबंधन में डालनेवाले जीवव्यापार को 'आस्रव' कहा जाता है। वह मन, वाक् और काय से जनित होने के कारण त्रिविध होता है।

बंध - आत्मप्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों के संबंध का नाम है - 'बंध'। वह मिथादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच हेतुओं से उत्पन्न होता है।

संवर - मन, वचन और शरीर की कुत्सित प्रवृत्तियों के निरोध का नाम है।

निर्जरा - तप, संयम आदि के सेवन से चिरसंचित शुभ, अशुभ कर्मों के आंशिक विनाश को 'निर्जरा' कहा जाता है।

मोक्ष - कर्मबंधनों के आत्यंतिक विनाश का नाम है - मोक्ष। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्रय के सेवन से उसकी प्राप्ति होती है।

जैन न्याय की विस्तृत जानकारी के लिए उमास्वास्ति, समंतभद्र, सिद्धदर्शन, अकलंक, वादिराजसूरि, देवसूर, हेमचंद्र मल्लिषेणसूरि और यशोविजय आदि जैन विद्वानों की रचनाओं का अध्ययन आवश्यक है।

जैन न्याय का साहित्य अर्धमागधी, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में प्राप्त होता है, अत: उसके विकासक्रम के परिज्ञानार्थ तथा उसके तत्वों के सम्यक् आकलनार्थ उक्त तीन भाषाओं का ज्ञान अपेक्षित है।(बदरीनाथ शुक्ल)