नौइंजीनियरी नौकाओं के निर्माण तथा उनके संचालन की कला बहुत पुरानी है। इसकी चर्चा प्राचीनतम साहित्य में पाई जाती है।

इतिहास - यद्यपि आर्य जाति के प्राचीन ग्रंथों का एक बड़ा भाग लुप्त हो गया है, किंतु वेद पुराणादि जितने भी प्राचीन ग्रंथ इस समय उपलब्ध हैं उनके अध्ययन से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में भी भारतीय लोग सदृढ़ जहाज बनाकर समुद्रपार के सुदूर देशों में व्यापार तथा दिग्विजय के लिए जाया करते थे। 'युक्तिकल्पत'रु नामक एक प्राचीन ग्रंथ में तो नौकाओं तथा जहाजों के दस दस भेद भी बताए गए हैं। भोजराज के समय में लिखित एक ग्रंथ में काष्ठों का वर्गीकरण करके बताया है कि नौकानिर्माण के लिए से काष्ठ अधिक उपयुक्त होंगे। महाभारत के आदि पर्व में विदुर द्वारा स्थापित एक नौका के लिए 'सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्' कहकर उसके यंत्रचालित होने का भी संकेत किया है।

यूरोपीय इतिहास से भी पता चलता है कि १८वीं शती के अंतिम भाग तक जहाज लकड़ियों को धातु की कीलों और पत्तियों से जोड़कर ही बनाए जाते थे और समुद्र में पालों की सहायता से हवा की शक्ति द्वारा संचालित किए जाते थे। १७८४ ई. में जब जेम्स वॉट ने अपना द्विक्रियात्मक पंप इंजन बना लिया, तब वहाँ के लोगों का ध्यान जहाजों में वाष्प की शक्ति का प्रयोग करने की तरफ गया और क्रमश: उनका ढाँचा भी पूर्णतया इस्पात का बनाया गया। वस्तुत: नौकाओं पर इंजनों के प्रयोग के प्रयास तो १८वीं शती से ही होने लगे थे। वाष्पइंजनचालित नौकाओं का संक्षिप्त विकासक्रम निम्न प्रकार है :

१६९८ ई. में प्रोफेसर पॉपेन (Papain) और लाइपसिट्स (Leibnits) के बीच हुए एक पत्रव्यवहार से विदित होता है कि एक नौका में सेवरी (Savery) का पंप इंजन लगाकर उसके पैडल चक्र को पानी की धारा के बल से चलाने का प्रयत्न किया गया था। इस प्रयोग के समय प्रो. पॉपेन भी उपस्थित थे, लेकिन यह प्रयोग असफल रहा।

१७०७ ई. में स्वयं प्रो. पॉपेन ने मार्बर्ग में एक नौका पर सेवरी का पंप इंजन लगाकर सफलतापूर्वक उसका संचालन किया, लेकिन मल्लाहों ने इसका घोर विरोध किया और उस नौका पर आक्रमण भी किया, जिसमें पॉपेन की जान मुश्किल से बची।

१७३६ ई. में जॉनथैन हल्स (Jonathan Hulls) ने 'स्टीमटग' नामक नौका पर न्यूकोमेन (Newcomen) का वायुमंडलीय इंजन लगाकर, उसके पैडल चक्रों को रस्सों द्वारा घुमाने का प्रयत्न किया, लेकिन वह प्रयोग भी असफल रहा।

१७८३ ई. में फ्रांस के मॉर्क्विस ड जूफ््व्राा (Morquis de Jouffroy) ने १५० फुट लंबी तथा १६ फुट चौड़ी नौका पर वॉट का एक क्रियात्मक इंजन लगाकर उसके १४ फुट व्यास के पैडल चक्र को चलाया। लेकिन फ्रांस की सरकार से प्रोत्साहन न मिलने के कारण यह प्रयोग भी असफल रहा।

१७८७ ई. में फिलाडेल्फिया के जॉन फिच (John Fitch) ने नौका ने वॉट के एक क्रियात्मक इंजन द्वारा उसके पैडल को चलाकर तीन चार मील प्रति घंटे की गति से संचालन किया, लेकिन कई व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण वे असफल रहे। इसके पश्चात् १७९६ ई. में उन्होंने एक प्रकार का स्क्रूप्रोपेलर बनाकर वॉट के एकक्रियात्मक इंजन द्वारा नौका चलाने का प्रयत्न किया, लेकिन इंजन अनुपयुक्त होने के कारण प्रोपेलर को एक समान बल से गति नहीं मिली अत: यह प्रयोग भी असफल रहा। वास्तव में १७५२ ई. में बेर्नूली (Bernoulli) ने ही स्क्रूप्रोपेलर का आविष्कार किया था, लेकिन उसे चलाने के लिए उपयुक्त प्रकार का इंजन न मिलने पर प्रयास असफल रहा।

१७८८ ई. में स्कॉटलैंड के मिलर (Miller), टेलर (Taylor), और साइमिंग्टन (Symington) नामक इंजीनियरों ने २५ फुट लंबी और ७ फुट चौड़ी नौका पर एकक्रियात्मक, चार इंच व्यास के सिलिंडरों से युक्त, दो इंजन लगाकर पैडल चक्र को चलाया, जिससे पाँच मील प्रति घंटा की रफ्तार भी प्राप्त की, लेकिन दोनों इंजनों का समकालन (synchronisation) ठीक न होने के कारण प्रयोग असफल रहा।

उपर्युक्त विवरण में हम देखते हैं कि १८वीं शताब्दी में इंजनों द्वारा नौकाओं को चलाने के जितने भी प्रयोग हुए, लगभग असफल रहे,

श्

क्योंकि इंजन की बनावट एकदिश क्रियात्मक होने के कारण उसकी चाल में स्थिरता नहीं आने पाती थी।

१८०१ ई. में साइमिंग्टन ने शारलॉट डंडैस (Charlotte Dundas) नामक नौका (चित्र १.) बनाकर उसे फोर्थ (Forth) और क्लाइड (Clyde) नहर में चलाया, जिसका पैडलचक्र वॉट के बनाए द्विक्रियात्मक इंजन से चलता था। यही सर्वप्रथम प्रयोग है, जो सफल समझा जाता है।

१८०७ ई. में न्यूयार्क के राबर्ट फुल्टन (Robert Fulton) ने क्लेरमाँ (Clermont) नामक नौका बनाई, जिसकी लंबाई १३३ फुट, चौड़ाई १८ फुट और गहराई ९ फुट थी। इस पर बोल्टन और वॉट (Boulton and Watt) का बनाया एक द्विक्रियात्मक इंजन लगाया था, जिसके सिलिंडर का व्यास दो फुट और स्ट्रोक चार फुट था। पैडलचक्र के चलने पर नौका की गति पाँच मील प्रति घंटा हो जाती थी। यह प्रयोग भी सफल रहा।

१८१२ ई. में इंग्लैंड के हेनरी बुल (Henry Bull) ने अपने पूर्ववर्ती इंजनों के समस्त दोषों को सुधारकर, तीन अश्वशक्ति का द्विक्रियात्मक इंजन बनाया। इसे ३० टन भारी, ४० फुट लंबी और फुट चौड़ी कॉमेट नामक नौका पर लगाया। इस नौका

चित्र २. कॉमेट

सन् १८१२ में निर्मित

ने ग्लासगो ओर ग्रीनक के बीच कई वर्षों तक यात्रियों के ले आने, ले जाने का काम किया (चित्र २.)। यह प्रयोग इतना सफल रहा कि १८१४ ई. में इसी नमूने की पाँच नौकाएँ और बनीं, फिर उनकें कुद सुधारकर १८२० ई. में २० नौकाएँ तैयार की गई। फिर तो इनकी बनावट तथा इंजनों में अनेक महत्वपूर्ण सुधार कर ग्लास्गो नगर के रॉबर्ट नेपियर ऐंड संस ने व्यापारिक ढंग एक से एक कारखाना खोलकर १८४० ई. तक १,३२५ नौकाएँ बना डालीं। इनमें और भी अधिक सुधार कर अन्य कारखानेदारों ने १८८८ ई. तक १९३० समुद्री जहाज तथा नौकाएँ बना लीं। आरंभ में इनपर जो पैडलचक्र लगाए जाते थे उनके त्रिज्यीय दिशा में स्थिर पैडल लगाए जाते थे; बाद में इन्हें सुधारकर पंखनुमा अस्थिर पैडल लगाए गए।

वॉट के द्विक्रियात्मक इंजन में भी कई ऐसे दोष थे जिनके कारण नौकासंचालन में बड़ी असुविधा होती थी। आरंभिक काल में स्टीफेंसन के वाल्व गतियंत्र का भी उपयोग हुआ, लेकिन जब ज्वायज़ (Joys) के वाल्व गतियंत्र का आविष्कार हुआ तो नौसंचालन के

 

लिए इसका उपयोग बड़ा सुविधाजनक सिद्ध हुआ। नौकाओं पर जगह की कमी के कारण उपर्युक्त प्रकार के आड़े इंजन बड़े असुविधा जनक रहते थे, अत: लोगों ने कई प्रकार के खड़े इंजनों का भी आविष्कार किया। १८५० ई. तक इंग्लैंड में जितने भी जहाज या नौकाएँ बनीं उनके पैडलचक्रों को चलाने के लिए बगली लीवर युक्त इंजनों की ही प्रधानता थी, जो जहाजी कामों के लिए साधारण बीम इंजन के ही परिष्कृत रूप थे। इसके बाद, ग्रासहॉपर नामक एक विशेष प्रकार के बीम इंजन का आविष्कार हुआ, जो अपने पूर्ववर्त्ती आड़े इंजनों की अपेक्षा कम जगह घेरता था

(चित्र ३.)। इसके बाद १८२७ ई. में उत्तरी अमरीका के रॉबर्ट स्टिवेंसन ने एक 'वॉकिंग बीम' नामक इंजन का निर्माण किया जिसके सिलिंडरों का व्यास इंच और स्ट्रोक ८ फुट था। इसका पैडलचक्र प्रति मिनट २४ चक्कर लगाता था (चित्र ४.)।

१८४० ई. में स्टपुल (Stuple) इंजन (चित्र ५.) और १८८५ ई. में डायगोनैल (Diagonal) इंजन का आविष्कार हुआ

चित्र ५. स्टपुल इंजन

(चित्र ७.), जो जहाजों पर बहुत ही कम जगह घेरते थे। डाइगनल इंजन में जाइस के वाष्प गतियंत्र का उपयोग होता था।

१८५० ई. में दोलक (Oscillating) इंजन का आविष्कार हुआ, जिसका सिलिंडर स्थिर रहने के बदले दो चूलों पर झूमा करता था (चित्र ६.)। इस इंजन ने इतनी सफलता दिखाई कि पुरानी नौकाओं पर, एक शताब्दी बाद, अब भी यह कभी कभी देखने को मिल जाता है। १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पेंन का ट्रंक इंजिन (Penn's Trunk Engine) और मूड्स्ले का रिटर्न कनेक्टिंग रॉड (Moudslay's Return Connecting Rod) इंजन का आविष्कार हुआ (चित्र ८. और ९.)। आरंभ में तो इनसे पैडलचक्र ही चलाए जाते थे लेकिन इनकी अनुदैर्घ्य लंबाई इतनी छोटी और सुविधाजनक बन गई कि इन्हें नौकाओं पर आड़ा लगाकर स्क्रूप्रोपेलर भी बड़ी आने लगा। क्रमश: यह इंजन इतना विकसित हो गया कि इसके द्वारा ९,००० अश्व शक्ति तक प्राप्त की जाने लगी और यह संयोजी प्रकार (compound) के त्रिप्रसारीय भी बनने लगे।

वास्तव में इंजनों के संयुक्तीकरण का विचार जेम्स वॉट के दिमाग में भी था, लेकिन लंदन के ऑर्थर उल्फ (Arthur Woolf) ने १८०४ ई. में अपने बनाए एक इंजन पर ४० पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब की वाष्प से ही सर्वप्रथम सफल प्रयोग किया। संयुक्तीकरण की इस प्रयुक्ति को डब्ल्यू. मैकनॉट (W. Mc Naught) ने १८४५ ई. में और भी परिष्कृित किया। १८५४ ई. में रैनडॉल्फ एवं एल्डर (Randolph and Elder) नामक अंग्रेजी जहाज निर्माता ने स्क्रूप्रोपेलर युक्त अपने ब्रैंडन (Brandon) नामक समुद्री जहाज

चित्र ६. दोलक इंजन

पर संयुक्तीकरण का सफल प्रयोग किया जिसकी वाष्प दाब २२ पाउंड प्रति वर्ग इंच थी। इसके बाद १८७० ई. तक सभी जहाजों पर संयुक्त इंजन लगाए जाने लगे। इनकी वाष्प दाब ६० पाउंड प्रति वर्ग इंच तक होती थी।

१८७४ ई. में ए. सी. कर्क (A. C. Kirk) ने अपने स्क्रूप्रोपेलर युक्त प्रापूटिस (Propoutis) नामक जहाज पर त्रिप्रसार

चित्र ७. डायलोनैल इंजन और बॉयलर

ये जाइस के गतियंत्र से युक्त होते थे।

(triple expansion) इंजन लगाया, जिसके सिलिंडरों का व्यास क्रमश: २३ इंच, ४१ इंच और ६२ इंच था तथा उनका स्ट्रोक ४२ इंच था। यह इंजन एक मानक प्रकार के जहाजी इंजन के रूप में समझा जाने लगा। १८८० ई. में इन इंजनों की वाष्प दाब १००

चित्र ८. पेन्स ट्रक इंजन

पाउंड प्रति वर्ग इंच, १८९० ई. में १६० पाउंड प्रति वर्ग इंच और १९०० ई. में २०० पाउंड प्रति वर्ग इंच तक बढ़ गई।

इधर अंतर्दहन इंजनों का प्रयोग नौकाओं पर आरंभ हो जाने के कारण और डीज़ल इंजन जहाजों पर सुविधाजनक सिद्ध हो जाने के कारण, वाष्प और अंतर्दहन इंजनों में प्रतिद्वंद्विता बढ़ने लगी। अत: वाष्प इंजनों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए, अल्पदाब सिलिंडर के आगे वाष्प टरबाइन लगाना आरंभ हो गया। १८९४ ई. में ही टरबाइनों के

चित्र ९. माड्स्ले का इंजन

(यह रिटर्न कनेक्टिंग रॉड युक्त होता है)

आविष्कार पारसन्स ने स्क्रू प्रोपेलर युक्त एक जहाज पर स्वनिर्मित टरबाइन लगाया। इस जहाज की लंबाई १०० फुट, चौड़ाई ९ फुट और भार, टन था। इसका टरबाइन अकेले ही जहाज के स्क्रूप्रोपेलर को बड़ी दक्षता से चलाता था, लेकिन इसमें इंजन की अपेक्षा प्रति अश्व शक्ति अधिक वाष्प खर्च होता था। अत: अन्य बड़े जहाजों में खड़े त्रिप्रसार इंजनों की क्षमता बढ़ाने के लिए इंजन के सहायक रूप में ही टरबाइन, जिसमें अल्पदाब सिलिंडर से निकला हुआ वाष्प ही काम करता था, लगाया जाने लगा।

१९१४ ई. में 'ब्रिटैनिक' नामक जहाज में चार सिलिंडर युक्त, त्रिप्रसार इंजन लगाया गया, जिसके सिलिंडर क्रमश: ५४ इंच, ८४ इंच और ९७ इंच व्यास के तथा ७५ इंच स्ट्रोक युक्त थे और इसके बॉयलर की वाष्प दाब २३० पाउंड प्रति वर्ग इंच थी। इसके सिलिंडरों में १६,००० सूचित अश्व शक्ति (I. H. P.) उत्पादित कर तथा नोदक धुरों को ७७ चक्कर प्रति मिनट चलाने के बाद, अल्प दाब सिलिंडरों से निकला हुआ वाष्प ९ पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब पर मध्यवर्ती एक पारसन्स टरबाइन को चलाता था, जिससे १८,००० धुरीय अश्व शक्ति (shaft horse power) १७० चक्कर प्रति मिनट पर प्राप्त हो जाती थी। १९३० ई. तक टरबाइनों में गियरबक्स (gear box) लगाकर प्रणोदित्र युक्त बड़े बड़े जहाजों को बिना इंजनों की सहायता से, केवल टरबाइनों द्वारा ही चलाया जाने लगा।

अब तो जहाजी बॉयलर भी इतने उन्नत हो गए हैं कि जलनालिका बायलरों से ५७५ पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब का वाष्प, जिसका ताप लगभग ३९९° सें. होता है, २,००,००० पाउंड प्रति घंटा तक प्राप्त किया जा सकता है (देखें बॉयलर)। आधुनिक जहाजी वाष्प इंजन भी अब इतने शक्तिशाली बनाए जाने लगे हैं कि उनके द्वारा चतुष्प्रसार क्रम के प्रत्येक सिलिंडर से १,००० से लेकर ३,००० तक अश्वशक्ति प्राप्त की जा सकती है।

विंटरथर (Winterthur) की सुल्ज़र ब्रदर्स (Sulzer Brothers) नामक फर्म जहाजी उपयोगों के लिए इस प्रकार के डीजल इंजन बनाती है जिनकी प्रत्येक इकाई में १,००० अश्व शक्ति उत्पन्न करनेवाले १० सिलिंडर तक होते हैं। ये दोहरे स्ट्रोक की विधि से काम करते हैं (देखें डीज़ल इंजन)।

सं. ग्रं.- सैमुएल स्माइल्ज : लाइब्ज़ ऑव इंजीनियर्स; प्रो. जैमिसन : स्टीम इंजन ऐंड बायलर्स; प्रो. थर्स्टन : हिस्ट्री ऑव स्टीम इंजन।

नौशक्ति संयंत्र तथा उपसाधित्र

(Marine power plants and accessories)

इंजन चालित जहाजों के आरंभिक काल में सभी नौकाएँ पैडल चक्रों द्वारा ही चलाई जाती थीं, लेकिन प्रणोदित्र (propeller) का आविष्कार हो जाने के बाद से समुद्री जहाजों में पैडलचक्रों

चित्र १० अस्थिर पैडलयुक्त चक्र

का प्रयोग बंद हो गया, फिर भी नदियों में चलनेवाली नौकाओं में अब भी इनका प्रयोग होता है। लकड़ी के प्लवों (floats) की बनावट के अनुसार पैडलचक्र दो प्रकार के होते हैं : (१) अरीय प्लव (स्थिर पैडल) युक्त चक्र और (२) पंखनुमा चल प्लव (अस्थिर पैडल) युक्त चक्र (चित्र १० और ११) अरीय प्लव

चित्र ११ स्थिर पैडलयुक्त चक्र

तो चक्र की परिधि के ऊपर त्रैज्य दिशा में पक्के कसे होते हैं। इन्हें कसने की तरकीब चित्र के कोने पर दिखाई है। पंखनुमा प्लव अपनी चूल पर थोड़ा घूमकर आवश्यकतानुसार तिरछे भी हो जाते हैं। अरीय प्लर्वों में यह दोष है कि पानी से ऊपर उठते समय वे कुछ पानी अपने साथ भी ले जाते हैं, जिसे उठाने में इंजन की शक्ति का थोड़ा अपव्यय होता है। दूसरा दोष यह है कि पैडल चक्र के चक्कर के केवल थोड़े से भाग में वे लगभग ऊर्ध्वाधर स्थिति में रह पाते हैं। इसमें ही वे पानी पर अच्छी ताकत लगा सकते हैं। पंखनुमा प्लव अपने त्रैज्य संयोजक दंडों की सहायता से, जो चक्र के वक्ष से संबंधित रहते हैं, आवश्यकतानुसार अपनी चूल पर घूमकर अपने कोण को बदलकर, जब तक वे पानी में रहते हैं उसपर पूरा दबाव डालते हैं। बाहर निकलने पर वे अपने साथ अधिक पानी भी नहीं उठाते।

पैडल चक्रों को चलानेवाले इंजन - पैडल चक्रों को चलानेवाले घुरे नौकाओं के बच भाग में आड़े लगाए जाते हैं और नौका के मध्य में दो इंजन इस प्रकार लगाए जाते हैं कि यदि चाहें तो दोनों इंजन मिलकर दोनों ही पैडलचक्रों को एक साथ चलाएँ और चाहें तो असंबद्ध होकर केवल अपने अपने ही पैडलचक्र को यथेच्छा, एक आगे और दूसरा पीछे की तरफ चलाकर, आवश्यकतानुसार नौका की दिशा को बदल दें या पैतरा बदली करें। ऐसा कर सकने के लिए दोनों इंजनों के धुरों बीच में जहाँ मिलते हैं, वहाँ एक धुरे के सिरे को पनालीदार (w) (splined) बनाकर उसपर सरकती हुई, चालक चर्खी (sheave) लगा देते हैं। जब दोनों को एक साथ चलाना होता है तब वह चर्खी सरककर दूसरे धुरे पर बनी एक क्रैंक पिन में फँस जाती है। यह प्रयुक्ति चित्र १२. में स्पष्ट दिखाई है। पैडल चक्रों की छोटी नौकाओं को चलाने के लिए खड़े इंजन तो अपने झोंके के कारण अनुपयुक्त होते ही है और आड़े इंजन बहुत जगह घेरते हैं; अत: इनके लिए १९वीं शताब्दी में कई विशेष प्रकार के इंजन बनाए गए थे, जो ऊँचे भी नहीं थी और अधिक जगह भी नहीं घेरते थे। इन इंजनों में स्टपुल इंजन (Stuple engine), डायैगोनैल इंजन (Diagonal engine), औसिलेटिंग इंजन (Oscillating engine), पेन का ट्रंक इंजन (Penn's Trunk engine) और माउड्स्ले का रिटर्न कनेक्टिंर्ग रॉड इंजन (Moudslay's Return Connecting Rod Engine) मुख्य हैं (देखें भाप इंजन)।

पेंच प्रणेदित्र के सिद्धांत और क्रिया (Principles and action of screw propeller) - आधुनिक जहाजों को चलाने के लिए उनके पिछले सिरे पर जो पंखेनुमा यंत्र लगाया जाता है उसे प्रणोदित्र अथवा प्रणोदी पेंच कहते हैं। इसकी आकृति पंखेनुमा दिखाई देती हैं, लेकिन क्रिया ठीक चूड़ीदार पेंच के समान ही होती है। यह पंखेनुमा पेंच समुद्र के पानी में चूड़ी सी काटता हुआ जहाज को लेकर आगे बढ़ जाता है। चित्र १३. में तीन पंखड़ियोंवाला एक

चित्र १२.

प्रणोदित्र दिखाया है। पेंच के ऊपर तो हमें चूड़ियों की पूरी वेष्ठनें दिखाई पड़ती हैं, लेकिन इन पंखों में नहीं दिखाई पड़तीं, क्योंकि प्रत्येक पंखुड़ी, एक बहुत बड़े (pitch) पिचवाले अभिकल्पित पेंच की पतली सी अंगोडी (slice) की एक त्रैज्य फाँक हैं। साधारण पेंच में जैसे जैसे चूड़ी की गलियों की संख्या बढ़ती हैं उसकी लीड (lead) की लंबाई भी उसी अनुपात से बढ़ जाती है। प्रणोदित्र की पंखुड़ियों का वक्र भी एक बहुत बड़ी लीड में फिट होता हुआ बनाते हैं। अत: यदि कोई पंखा छोटी लीड का है तो उसे लंबे फासले को तय करने के लिए अधिक चक्कर लगाने पड़ेंगे और यदि वह बड़े लीड का है तो वह कम चक्करों में ही उस फासले को तय कर सकता है। जिस प्रकार ठोस पेंच और लीड के हिसाब से चक्कर लगाने पर एक निश्चित फासला तय कर लेता है, पानी में चलनेवाला यह पंखेनुमा पेंच वैसा ही नहीं कर सकता, क्योंकि पानी तरल पदार्थ होने के कारण इधर उधर वह जाता है। इस प्रकार जहाज की चाल में जो कमी आ जाती है उसे प्रणोदित्र का सर्पण या सरक (slip) कहते हैं।

सर्वप्रथम जब प्रणोदित्र का आविष्कार हुआ, उस समय जहाजी इंजीनियरों के सामने उसे तेज चाल से चलाने की समस्या आई। पैंडल

चित्र १३. प्रणोदित्र (पंखा)

चक्रों को चलानेवाले इंजन बहुत ही धीमे (gears) की सहायता लेनी पड़ी। बाद में द्रुत गति से चलनेवाले खड़े इंजन बन जाने और फिर टरबाइन तथा डीजल इंजनों का प्रयोग आरंभ हो जाने से यह समस्या हल हो गई।

प्रणोदित्र संचालन - प्रणोदित्र के ठीक प्रकार से काम करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पंखे पानी में पूरी तरह से डूबे रहें। अत: उसे चलानेवाले धुरे भी जहाज के पीछे की तरफ किसी उपयुक्त प्रकार के छेद में से होकर उसके फ्रेम और आवरण के बाहर निकले रहें। यह जल-तल-रेखा से काफी नीचे होता है। उन छेदों की परिधि और धुरों की परिधि के बीच ऐसा प्रबंध भी होता है कि समुद्र का पानी उसमें से जहाज में न घुसने पाए। इस काम के लिए अनेक प्रकार की युक्तियों बनाई गई हैं जिनमें से एक चित्र १४. में

चित्र १४.

दिखाई गई है। साधारण युक्तियों में धुरा गरम भी हो जाता है, अत: इसमें तेल भरकर चलाने का प्रर्वध और विशेष अवसरों पर गरम पानी से ताप कम करने का प्रबंध भी किया गया है। जिन जहाजों में दो या तीन प्रणोदित्र लगाए जाते हैं उनमें बगली प्रणोदित्रों के धुरों की खोलों को सहारा देने के लिए जहाज के बाजू के फ्रेम में उचित प्रकार से ब्रैकेट लगाकर, उनमें खोलों को स्थिरता से बाँधकर प्रणोदित्र का धुरा चलाया जाता है।

प्रणोदित्र का नोद (Thrust of propeller) - प्रणोदित्र घूमते समय जब पानी को चीरकर जहाज को आगे की तरफ ढकेलता है, उस समय उसकी प्रतिक्रिया के रूप में उसी परिमाण का नोद आगे की तरफ मुड़ता है, जिससे बेयरिंगों (bearings) के बहुत ही शीघ्र घिस जाने तथा पुर्जों के स्थानच्युत हो जाने का डर रहता है। अत: प्रणोदी धुरे की पिछली खोल, जिसमें से वह धुरा पीछे की तरफ बाहर निकला रहता है, और इंजन अथवा टरबाइन के बीच एक बॉक्सनुमा नोदक बेयरिंग लगा दिया जाता है, जिसके भीतर की तरफ खाँचों में धुरे पर बनी कई कालरें (collar) सही सही बैठी रहती हैं और वे सब मिलाकर प्रणोदी पंखे से आनेवाले नोद को सह लेती हैं। इस प्रकार के एक बेयरिंग बॉक्स की खंड-परिच्छेद-मय (port section) आकृति चित्र १५. में दिखाई है। बेयरिंग के खाँचों में, धुरे की कालरों के दोनों तरफ, मुलायम पीतल के बने अर्धचंद्राकार अस्तरपट्ट डाल दिए

चित्र १५. नोदक बेयरिंग बाँक्स

जाते हैं और ऊपर से उनपर तेल चुआने का प्रबंध रहता है। कई नोदक बेयरिंग बॉक्सों में तेल की नाँद नीचे की तरफ बनी होती है, जिसमें धुरे की कॉलरें खंडश: डूबी हुई चला करती हैं। इनमें लगे अस्तरपट्ट घोड़े की नाल की आकृति के होते हैं।

प्रणोदित्रों को चलनेवाले इंजन - वाष्प टरबाइनों के आविष्कार के पहिले तक, प्रणोदित्रों को चलाने के लिए ऊपर की तरफ सिलिंडरोंवाले खड़े वाष्प इंजन काम में लाए जाते थे, जो अक्सर चतुष्संयोजी (quadruple compound) प्रकार के हुआ करते थे। जहाजों में प्रत्येक प्रणोदित्र को चलाने के लिए दो दो इंजन एक जोड़े में लगाए जाते हैं। जब जहाज का परिभ्रमण हो या दिशा बदलनी हो तब उन दो में से केवल एक का ही प्रयोग किया जाता है। जहाज को तेजी से आगे चलाते समय दोनों इंजन मिलकर एक प्रणोदित्र को चलाते है (देखे वाष्पइंजन)।

वाष्प टरबाइन - प्रणोदित्रों को चलाने के लिए आजकल टरबाइनों का रिवाज बढ़ता जा रहा है, क्योंकि ये कई बातों में इंजनों से भी अधिक सुविधाजनक तथा सस्ते पड़ते हैं। वैसे इनमें इंजनों की अपेक्षा वाष्प का खर्चा प्रति अश्वशक्ति अधिक होता है। चित्र १६, में एक प्रणोदित्र युक्त छोटे जहाज में एक उच्च दाब और एक अल्प दाब के टरबाइनों का जोड़ा उनके संघनित्र सहित दिखाया है। टरबाइन बड़ी तेजी से घूमनेवाला यंत्र है, इधर प्रणोदित्र से दक्षतापूर्वक काम लेने के लिए उसे टरबाइन की अपेक्षा काफी मंद गति से चलाना पड़ता

चित्र १६. टरबाइन युक्त चालक संयंत्र

केवल टरबाइन युक्त यह संयंत्र छोटे जहाजों के लिए है।

है। अत: प्रणोदित्र की चाल मंद करने के लिए बीच में छोटी और बड़ी गरारी लगाना आवश्यक हो जाता है। टरबाइन की धुरी पर छोटा पिनियन (pinion) और प्रणोदित्र के धुरे पर बड़ा पिनियन लगाया जाता है (देखें टरबाइन)।

किसी जहाज में कहाँ कहाँ टरबाइन बैठाए जाऐं यह, बात उस जहाज के आकार एवं प्रकार पर निर्भर करती है। सब से सरल तरीका तो यह है कि एक प्रणोदित्र के लिए कम से कम एक टरबाइन तो अवश्य ही होना चाहिए। दूसरा तरीका यह है कि उच्चदाब और अल्पदाब के टरबाइन का जोड़ा संघनित्र सहित प्रत्येक प्रणोदित्र के साथ लगाए जाए। इस प्रबंध में बॉयलर में से आनेवाला ताजा वाष्प पहले उच्चदाब के टरबाइन में और फिर अल्पदाब के टरबाइन में काम करने के बाद संघनित्र में जाकर विसर्जित हो जाएगा। इस प्रबंध में उत्पादित शक्ति का इस प्रकार से समविभाजन किया जाता है कि प्रत्येक टरबाइन का जोड़ा एक एक प्रणोदित्र को गियर के माध्यम से दोनों तरफ स्वतंत्रतापूर्वक चला सके। कई जहाजों में, जिनमें तीन प्रणोदित्र होते हैं, उच्चदाब की टरबाइन तो बीच के प्रणोदित्र को चलाता है और दोनों बाजुओं में लगे अल्पदाब टरबाइन बगली प्रणोदित्रों को चलाते हैं।

चित्र १७. में एक बहुत बड़े जहाज के टरबाइनों का विन्यास जिसमें ६०,००० अश्व शक्ति से चलनेवाले चार प्रणादित्र लगे हैं। इनमें प्रत्येक प्रणोदित्र के लिए, जहाज के आगे की ओर तो उच्च और मध्यदाब के टरबाइन लगे हैं, जिनके पीछे की तरफ नोदक धुरे की चाल मंद करने के लिए गीयर बॉक्स हैं और उनके भी पीछे की तरफ अल्पदाब के दो दो टरबाइन हैं और इनके भी पीछे नोदक बेयरिंग बॉक्स और नोदक धुरों के पिछले भाग हैं, जो प्रणोदित्र पंखों से संबद्ध रहते हैं। जहाज को पीछे की तरफ चलाने के लिए, अर्थात् टरबाइनों की चाल पलटने के निमित्त, दो अल्पदाब के टरबाइनों के बीच में एक छोटा सा उच्चदाब का टरबाइन और लगा दिया जाता है, जिसकी पंखुड़ियाँ उल्टी दिशा में लगी होती हैं और इसमें उल्टी दिशा से ही वाष्प प्रविष्ट करता है (चित्र १८.)। जब जहाज आगे चलता है तब इस टरबाइन में वाष्प काम नहीं करता और इसकी पंखुड़ियाँ (blades) निर्वातन में ही चलती रहती हैं। पीछे की तरफ जहाज चलाते समय जब और सब टरबाइन बंद हो जाते हैं तभी इसे वाष्प द्वारा चलाया जाता है (देखें टरबाइन)

इंजनों और टरबाइनों का संयुक्त प्रयोग - टरबाइनों के प्रयोग के आरंभिक काल में, और आजकल भी, कई बड़े बड़े जहाजों में संयोजी इंजनों (compound engines) के साथ साथ टरबाइनों का भी प्रयोग किया जाता है। जब जहाज पूरी रफ्तार से आगे चलता है तब तो टरबाइन और इंजन दोनों ही मिलकर काम करते हैं, लेकिन जब जहाज को उल्टा चलाना होता है तब टरबाइन का संबंध धुरे से काट दिया जाता है। ऐसा करते समय अल्पदाब के सिलिंडर में काम करने के बाद वाष्प, टरबाइन में जाकर काम करने के बदले सीधे संघनित्र में चला जाता है। चित्र १९. में इसी प्रकार का एक विन्यास दिखाया है। इसमें जहाज का मध्यवर्ती प्रणोदित्र तो उच्चदाब, मध्यदाब और अल्पदाब के त्रिप्रसारीय संयोजी इंजन द्वारा चलाया जाता है और अल्पदाब के सिलिंडर में काम कर चुकने के बाद वाष्प लगभग नौ पाउंड प्रतिवर्ग इंच की दाब पर, बाजुओं में लगी टरबाइनों को चलाता है, जिससे बाजुओं के प्रणोदित्र चलते हैं। फिर बाद में यह वाष्प संघनित्र में जाकर विसर्जित हो जाता है। जिन बड़े जहाजों की रफ्तार १६ नॉट प्रति घंटा से नीची हो उन्हीं में इंजन और टरबाइनों का संयुक्त विन्यास उपयोगी हो सकता है। इससे ऊँची रफ्तारवाले जहाजों के लिए तो पूर्णतया टरबाइनों का प्रयोग ही लाभदायक रहता है।

जहाजी वाष्प इंजनों तथा टरबाइनों के सहायक

संबंध और उपसाधित्र

(Auxiliaries and accessories for steam engines and turbines)

बॉयलर - २० वीं शताब्दी के प्रथम चरण तक जहाजी इंजनों को वाष्प देने के लिए अग्निनाल बायलरों का ही अधिकतर प्रयोग हुआ करता था, जिनमें स्कॉच (Scotch) सर्वोत्तम समझा जाता था और जलनाल बायलरों में विलकॉक्स-बैबकॉक (Wilcox Babcok) बायलर ही श्रेष्ठ समझा जाता था। अब जलनालिका बायलरों का प्रचार बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इनके द्वारा उच्च दाब का वाष्प विपुल मात्रा में बहुत ही थोड़े समय में प्राप्त किया जा सकता है। अब विलकॉक्स-बैवकॉक में भी बहुत सुधार हो गए हैं। इनके अतिरिक्त स्टलिंग (Stirling) बॉयलर, थॉरनिक्राप्ट (Thorny

चित्र १७.

croft) बॉयलर, यारो (Yarrow) बॉयलर, ह्वाइटफॉस्टर (Whitefoster) बॉयलर आदि, जलनालिका बायलरों का जहाजी कामों में बहुत प्रयोग हुआ करता है (देखें बॉयलर)।

समुद्री पानी खारा होता है अत: उसका प्रयोग सीधा ही बॉयलरों में नहीं किया जा सकता और यह पीने के योग्य भी नहीं होता। जहाजों पर इस पानी को काम के योग्य बनाने के लिए आसवन

चित्र १८.

यंत्र (distiller), उद्वाष्पक (evaporator) आदि उपसाधित्र लगाए जाते हैं। बॉयलर के भीतर पानी पहुँचाने के लिए विशेष प्रकार के भरणयंत्र (feed pump) और बॉयलर में प्रवेश करने के पहले ही उसे काफी गरम करने के लिए भरण तापक (feed heater) लगाए जाते हैं। इंजनों और टरबाइनों में प्रयोग करने के बाद वाष्प को वृथा न जाने देकर, उसे संघनित्रों में जमाकर तथा ठंढाकर पानी के रूप में फिर से प्रयोग के लायक बना लिया जाता है। आसवनयंत्र और उद्वाष्पक तो संघनित्र के पानी में होनेवाली कमी को ही पूरा करते हैं। खाद्य पदार्थों को पूरी यात्रा भर सुरक्षित रखने के लिए प्रशीतित्र (refrigerator) लगाए जाते हैं। संवातन (ventilation) तथा छोटे यंत्रोंपकरणों को अटकाव की जगहों पर चलाने के लिए वायुसंपीड़क (air compresser), प्रकाश के लिए विद्युदत्पादक यंत्र (डायनमो, dynamo), कर्ण गियर (steering gear) तथा क्रेनों के लिए द्रवचालित पंप (hydraulic pumps) आदि उपसाधित्रों के रूप में लगाए जाते हैं। बंदरगाहों पर पहुँचने पर मुय वाष्प इंजन बंद कर दिए जाते हैं। वहाँ जहाज को आगे पीछे चलाने तथा प्रकाश और मरम्मत के कामों के लिए छोटे डीज़ल और तेल इंजन लगाए जाते हैं।

जहाजों को चलाने के लिए अंतदर्हन इंजनों का उपयोग - घाट नौकाओं (ferries) और नदियों में चलनेवाली नौकाओं (river boats) के संचालन के लिए आजकल तेल और पेट्रोल इंजनों का अधिकतर प्रयोग होता है। समुद्र में चलनेवाले छोटे जहाज ऑटो साइकल के अनुसार काम करनेवाले डीज़ल इंजनों से चलाए जाते हैं। बहुत बड़े जहाज तो अब भी वाष्प इंजन और टरबाइनों से भी चलते हैं, क्योंकि डीज़ल जहाजों पर लगभग ५-६ डीज़ल इंजन मिलकर एक प्रणोदक धुरे को चला पाते हैं। डीज़ल इंजनों में एक ही सिलिंडर होता है, जो साधारणतया १,००० अश्वशक्ति से अधिक का नहीं होता। आधुनिक प्रकार के अच्छे से अच्छे, विशेष प्रकार के, डीज़ल इंजन से भी प्रति सिलिंडर दो या ढाई हजार से अधिक अश्वशक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। यदि एक प्रणोदित्र के लिए पाँच डीज़ल इंजन भी एक साथ लगाए जाएँ तो वे हजार अश्वशक्ति ही प्राप्त होगी, जबकि एक आधुनिक प्रकार के बड़े जहाज को निरतर ७०-८० हजार अश्वशक्ति की आवश्यकता हुआ करती है। इसलिए बहुत बड़े जहाजों का चलाने के लिए अब भी वाष्प इंजनों का ही प्रयोग किया जाता है। हाँ, उनपर छोटे मोटे कामों के लिए डीज़ल इंजनों से सहायता ली जा सकती है। बेशक, छोटे जहाजों के लिए डीज़ल इंजन सर्वथा उपयुक्त

चित्र १९.

होते हैं, क्योंकि इनका प्रयोग करने से बॉयलर, कोयला, उद्वाष्पक, भरणजलतापक, भरण फिल्टर, भरणपंच और संघनित्रों की आवश्यकता नहीं रहती और उनसे बचा हुआ स्थान व्यापारिक माल लादने के काम में आ सकता है। थोड़ी सी जगह में ही पूरी यात्रा के लिए तेल भर

चित्र २०

कर रखा जा सकता है, डीज़ल इंजनों के चौगिर्द अच्छी सफाई रखी जा सकती है, क्योंकि वहाँ राख, कोयला और धुएँ का काम ही नहीं होता। फायरमैन जैसे कुशल कर्मचारियों की भी आवश्यकता नहीं रहती और एक ही चालक कई इंजनों को सँभाल सकता है, अत: वेतन में भी बचत हो जाती है।

कर्ण गियर और रडर (Steering gear and Rudder) - जहाजों तथा नौकाओं का कर्ण संचालन रडर के द्वारा होता है, जो स्टर्नपोस्ट (कुदास) के आधार पर लगा होता है। इसे चलाने के लिए छोटी नौकाओं में तो मोटर कार जैसे राडार के डंठल के ऊपरी सिरे पर हाथचर्खी लगा दी जाती है, लेकिन बड़े जहाजों में उसे चलाने के लिए छोटे इंजनों या जलशक्तिचालित यंत्रों की सहायता ली जाती है। रडर को घुमाने के लिए आवश्यक बल रडर के आकार, जहाज की रफ्तार और जहाज की अनुदैर्ध्य मध्यरेखा से रडर के पल्ले के कोण पर निर्भर करता है। उदाहरणत:, यदि कोई जहाज १५ नॉट प्रति घंटे की रफ्तार से चल रहा हो उसके रडर के पानी में डूबे हुए भाग का क्षेत्रफल १०० वर्ग फुट हो तथा मध्यरेखा से उसका कोण ३०° हो तो गणित द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि उस रडर को घुमाने में ३२,१३० पाउंड का बल लगाना पड़ेगा, जो मानवीय सामर्थ्यं के बाहर की बात है। इस काम के लिए ब्राउन की हाइड्रॉलिक स्टियरिंग टेलिमोटर, हैरीसन का स्टियरिंग गियर (जिसमें दो छोटे छोटे वाष्प इंजनों का प्रयोग होता है), हेस्टी (Hastie) का स्टियरिंग गियर और हैले-शॉ मार्टिन्यू (Hele Shas Martinue) का हाइड्रॉलिक स्टियरिंग गियर आदि मुख्य हैं। चित्र २०. में जहाज के पीछे के भाग की थोड़ी सी खड़ी काट अनुदैर्ध्य दिशा में बनाकर उसमें हैरिसन के स्टीयरिंग गियर की प्रयुक्ति दिखाई गई है। छोटे वाष्प इंजनों के जोर से कुछ दंतचक्र चलकर रडर दंड के ऊपर लगे एक बड़े दंतचक्र को आवश्यकतानुसार घुमा देते हैं। उस चक्र को इच्छित जगह पर रोक रखने के लिए विशेष प्रकार की कमानी और क्लच ब्रेक आदि भी लगे होते हैं।

सं.ग्रं. - ए. ई. सीटप् : ए मैन्युएल ऑव मैराइन इंजीनियरिंग; डब्ल्य. रिप्पर : स्टीम इंजन, थ्योरी ऐंड प्रैक्टिस।(ओकारनाथ शर्मा)