नैरात्म्यवाद भारतीय दर्शन में नैरात्म्यवाद (अनात्मवाद) का विशिष्ट स्थान है। अन्य सभी आस्तिक भारतीय दर्शन आत्मवादी हैं। एक बौद्ध धर्म ही नैरात्म्यवाद का प्रतिपादक है। बौद्ध दार्शनिक संप्रदायों में अन्य कई एक विषयों को लेकर मतभेद है। नैरात्म्यवाद पर सभी एकमत हैं। इसलिए वे सभी अपने ढंग से हेतु-युक्ति-उदाहरणों द्वारा इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं।

बौद्ध दर्शन के अनुसार शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दो अंत हैं। शाश्वतवाद के अनुसार आत्मा नित्य, कूटस्थ और एकरस है। इसलिए धर्माचरण का उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। उच्छेदवाद के अनुसार वर्तमान शरीर के साथ ही जीवन का उच्छेद हो जाता है। इसके अनुसार भी धर्माचरण निरर्थक है। इसलिए एक अवसर पर बुद्ध ने वच्छ नामक परिव्राजक से कहा था, 'मालुक्पुत्त' शाश्वत्तवाद और उच्छेदवाद से संबोधि और निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती। (मज्झिमनिकाय, चूलमालुंक्य-सुत्त) इसे हम नैरात्म्यवाद की धार्मिक पृष्ठभूमि कह सकते हैं।

उपर्युक्त दोनों अंतों को त्याग कर बौद्ध दर्शन मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करता है। वह प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात् कार्य-कारण-सिद्धांत पर आश्रित है। इसके अनुसार सारा संसार घटनाओं का एक प्रवाह मात्र है। कार्य-कारण रूप में इन घटनाओं के पारस्परिक संबंध को हेतुफल नियम के अनुसार समझ सकते हैं।

बौद्ध दर्शन के अनुसार पाँच स्कंधों के समूह को 'सत्व' या जीव कहते हैं। वे हैं रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान। रूप धर्म दो प्रकार के हैं - भूत रूप और भौतिक रूपद्य चार महाभूत ही भूतरूप कहलाते हैं। भौतिक रूप उपदाय रूप भी कहलाते हैं। वे स्वभावत: १४ प्रकार के हैं। अनिष्पन्नों को मिलाकर वे २४ प्रकार के होते हैं। इस प्रकार सभी भूत और उपादाय रूप धर्म २८ हैं। ये सब रूप स्कंध में संगृहीत हैं। वेदनाएँ - सुख, दु:ख और उपेक्षा-वेदनास्कंध में संगृहीत हैं। इंद्रियों की दृष्टि से संज्ञा छ: प्रकार की है। वे सब संज्ञा स्कंध में संगृहीत हैं। संस्कार स्कंध में ५० चेतसिक संगृहीत हैं। वेदना और सज्ञा के साथ कुल ५२ चेतसिक हैं। चेतसिक चित्त के धर्म हैं। इनके द्वारा ही चित्त का स्वभाव प्रकट होता है। विज्ञान अर्थात् चित्त की चार भूमियाँ हैं। एक विभाजन के अनुसार ८९ प्रकार के चित्त हैं, और दूसरे विभाजन के अनुसार १२१ प्रकार के हैं। वे सब विज्ञानस्कंध में संगृहीत हैं।

पाँच स्कंधों के समूह के लिए 'सत्व' संज्ञा का व्यवहार होता है। इनमें कोई नित्य और कूटस्थ वस्तु नहीं है। इसलिए परमार्थ दृष्टि से कोई सत्व, जीव, पुरुष या पुद्गल उपलब्ध नहीं होता। ये संज्ञाएँ सांवृतिक हैं। इस बात को लक्ष्य करके वजिरा भिक्षुणी ने कहा है :

यथा हि अंगसंभारा, होति सद्दोरथो इति।

एवं खंवेसु संतेसु, हाति सत्तो ति सम्मुति।।

(संयुत्तनिकाय, वजिरा-सुत्त)।

जैसे अवयवों का समूह रथ के नाम से जाना जाता है वैसे ही (पाँच) स्कंधों के समूह के लिए 'सत्व' का व्यवहार होता है।

हमारा अस्तित्व शरीर और मन के संयोग से बना है। शरीर रूप धर्मों का समूह है। मन चित्त और चेतसिक धर्मों का समूह है। ये नाम भी कहलाते हैं। विश्लेषणात्मक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि शरीर असंख्य परमाणुओं से बना है ये अणु क्षण क्षण परिवर्तनशील हैं। ये शैशवावस्था से बाल्यावस्था में, बाल्यावस्था से युवावस्था में युवावस्था से प्रौढ़ावस्था में, और प्रौढ़ावस्था से बृद्धावस्था में परिवर्तित होते रहते हैं। क्षणिक परिवर्तन में इस अवस्था-भेद को हम अपनी सुविधा के लिए मान लेते हैं। मन की भी यही दशा है।

अब यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि नाम और रूप धर्म क्षणिक हैं तो हम अपने और अन्य वस्तुओं के अस्तित्व की एकरूपता को कैसे समझ सकते हैं? इसे संततिवाद के अनुसार समझ सकते हैं। सभी संस्कृत धर्म प्रतीत्यसमुत्पन्न अर्थात् हेतु प्रत्ययजनित हैं। एक कारण रूप है और दूसरा कार्य-रूप है। एक दूसरे को जन्म देता है। इसलिए एक क्षण दूसरे क्षण को प्रभावित करता है। कार्य-कारण-भाव से प्रवृत्त धर्म संतति अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रहती है। इस प्रकार वस्तुओं की एकरूपता बनी रहती है। दिया रात भर जलता रहता है। ज्वाला का एक क्षण दूसरे पर आश्रित है। इस प्रकार दीपशिखा की एकरूपता अविच्छिन्न संतति पर आश्रित है।

वस्तुओं की यह स्थिति विलक्षण है। किसी धर्म संतति का एक क्षण दूसरे क्षण से न तो अभिन्न है और न भिन्न ही है। अंकुर बीज से उत्पन्न होता है। इसलिए उसका अस्तित्व बीज पर आश्रित है। लेकिन अंकुर न तो बीज ही है और न उससे भिन्न ही है। मिलिंद नागसेन संवाद से इस स्थिति पर प्रकाश पड़ता है:

राजा बोला - भंते! जो उत्पन्न होता है, वह वही व्यक्ति है या दूसरा?

स्थविर बोले - न वही और न दूसरा ही (न च सो, न च अञ्यो) कृपया उपमा देकर समझाएँ।

महाराज ! दूध दुहे जाने पर कुछ समय के बाद जम कर दही हो जाता है; दही से मक्खन, और मक्खन से घी भी बना लिया जाता है। कोई कहे - जो दूध था वही दही था। महाराज! ऐसा कहनेवाला उचित कहता है?

नहीं भंते! दूध से ये चीज़ें बन गईं।

कृपया एक और उपमा देकर समझावें।

महाराज! अगर आदमी काई दिया जलावे तो क्या वह रात भर जलता रहेगा।

हाँ भंते! रात भर जलता रहेगा।

महाराज! राज के पहले पहर में जो दिए की टेम थी, क्या वही दूसरे या तीसरे पहर में भी बनी रहती है।

नहीं भंते!

महाराज! तो क्या वह दिया पहले पहर में दूसरा, दूसरे और तीसरे पहर में दूसरा हो जाता है?

नहीं भंते! वही दिया सारी रात जलता रहता है।

महाराज! इसी तरह, किसी वस्तु के अस्तित्व के प्रवाह में एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है - और इस तरह प्रवाह जारी रहता है। एक तरह की दो अवस्थाओं में एक क्षण को भी अंतर नहीं होता, क्योंकि एक के लय होते ही दूसरा उत्पन्न हो जाता है।

एक जन्म के अंतिम विज्ञान के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है। इसी कारण न वही जीवित रहता है और और न दूसरा ही उत्पन्न होता है। (मिलिंद प्रश्न, पृ. ४९-५०)

प्रतीत्यसमुत्पन्न वस्तुओं की इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए आचार्य नागार्जुन ने भी कहा है:

प्रतीत्य यद्यद्भवति न हि तादत्तदेव तत्।

न चान्यदपि तत्तस्मान्नोच्छिन्नं नापि शाश्वतं।।

(माध्यमिकवृत्ति:, आत्मपरीक्षा, १०)।

जो जो (वस्तु) प्रतीत्यसमुत्पन्न है वह न तो वही है और न उससे भिन्न ही है। इसलिए न तो वह उच्छिन्न है और न शाश्वत है।

बौद्ध दर्शन पुनर्जन्म को भी मानता है। इसलिए जन्म जन्मांतरों का संबंध भी उपर्युक्त प्रक्रिया के अनुसार समझना चाहिए। क्षणिक होते हुए भी वर्तमान अस्तित्व को प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत पर आश्रित संततिवाद के अनुसार समझ सकते हैं। लेकिन इससे पूर्व भी कोई जन्म रहा हो, यह कैसे समझें? कार्य-कारण सिद्धांत के अनुसार कार्यकारण भाव को वर्तमान तक ही सीमित नहीं कर सकते। कार्यकारण के सिलसिला के प्रारंभ को मानना ही इस सिद्धांत का प्रतिवाद करना है। प्रतीत्यसमुत्पन्न यह धर्म-संतति अनादि काल से चली आ रही है। तदनुसार हम पूर्वजन्म के अस्तित्व को भी समझ सकते हैं।

अविद्या के कारण पृथकजन को पाँच स्कंधों में सत्कायदृष्टि अर्थात् आत्म दृष्टि उत्पन्न होती है। आत्मदृष्टि से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार से आसक्ति उत्पन्न होती है। वह तृष्णा से प्रेरित हो अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए अनेक प्रकार के कुशल और अकुशल कर्म करता है। कर्मानुसार वह सुगतियों और दुर्गतियों में जन्म लेता रहता है। जबतक पाँच स्कंधों के अनात्मस्वभाव का ज्ञान नहीं होगा, तथा तदाश्रित तृष्णा का क्षय नहीं होगा, और निर्वाण की प्राप्ति नहीं होगी धर्म संतति प्रवाहित होती रहेगी।

वात्सिपुत्रीय पुद्गलवादी थे। वे बुद्ध के उपदेशों में व्यवहृत, 'पुदगल' को शब्दश: ग्रहण कर परमार्थ रूप से उसके अस्तित्व को मानने लगे। लेकिन अनात्मवाद के समक्ष वे उसका प्रतिपादन नहीं कर पाते थे। प्रतिवादियों द्वारा पुद्गल का स्वरूप पूछे जाने पर वे बताते थे कि वह न तो पाँच स्कंध ही हैं और न उनसे भिन्न ही है। अन्य सभी बौद्ध संप्रदायों ने पुद्गलवाद का खंडन कर नैरात्म्यवाद का प्रतिपादन किया है। कथावस्तु का प्रथम प्रसंग पुद्गल का निराकरण है। अभिधर्मकोश का अंतिम अध्याय पुद्गलविनिश्चय है। इसका मुख्य विषय पुद्गलवाद का विवेचन है।

अभिधार्मिकों की धर्मसंबंधी व्याख्या को लेकर उत्तरकालीन महायानी संप्रदायों ने नैरात्म्यवाद के दो भेद किए हैं - पुद्गलनैरात्म्यवाद और धर्मनैरात्म्यवाद। उन्होंने आभिधार्मिक संप्रदायों की व्याख्या को पुद्गलनैरात्म्यवाद सिद्ध किया है और अपनी व्याख्या को धर्मनैरात्म्यवाद। इस भेद को समझने के लिए यहाँ पर आभिधार्मिकों के दृष्टिकोण का उल्लेख करना आवश्यक है।

स्थविरवादी अभिधर्म के अनुसार ७२ परमार्थ धर्म हैं। वे हैं चित्त १अ चेतसिक ५२अ रूप १८अ असंस्कृत धर्म १ (निर्वाण)उ ७२। इनमें निर्वाण को छोड़कर शेष ७१ धर्म संस्कृत अर्थात् प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं।

सर्वास्तिवाद के अनुसार ७५ परमार्थ धर्म हैं। वे हैं चित्त धर्म १अ चैत्त धर्म ४६अ वि प्रयुक्त धर्म १४अ रूप धर्म ११अ असंस्कृत धर्म ३ (आकाश, प्रतिसंख्या निरोधअ अप्रतिसंख्यानिरोध)उ ७५। इनमें ७३ धर्म संस्कृत हैं।

उपर्युक्त दोनों तालिकाओं में कुछ ही धर्मों को लेकर मतभेद हैं। अभिधार्मिकों के अनुसार संस्कृत धर्म भी वस्तुत: विद्यमान हैं।

विज्ञानवादियों ने कई विभागों में धर्मों के १०० रूप माने हैं। लेकिन उनके अनुसार परमार्थ दृष्टि से सभी धर्म विज्ञानमय हैं। इसलिए ये विभाग सांकृतिक दृष्टि से हैं। शून्यवादियों के लिए अभिधार्मिक विभाजनों में कोई आपत्ति नहीं है। उनके अनुसार परमार्थ सत्य अनिवर्चनीय है। अत: अभिधार्मिक विभाजनों का केवल सांस्कृतिक महत्व है। इस प्रकार महायानी संप्रदायों ने अभिधार्मिकों की व्याख्या में कुछ त्रुटि पाई। उनके अनुसार यह व्याख्या केवल पुद्गल नैरात्म्य को निर्देश करती है, न कि धर्मनैरात्म्य को।

अधिधार्मिकों की व्याख्या में कुछ त्रुटि अवश्य है। लेकिन हमें इस बात का स्मरण रहना चाहिए कि अभिधार्मिकों के अनुसार भी संस्कृत धर्म अनित्य हैं। जो धर्म अनित्य हैं, उन्हें वस्तुसत् मानना असंगत है। मालूम होता है कि आरंभ में अभिधार्मिकों ने धर्मों के विश्लेषणात्मक अध्ययन और उनके यथास्वभाव को समझना परम सत्य के बोध के लिए आवश्यक समझा था। इस दृष्टि से उन्होंने इन धर्मों को पारमार्थिक कहा है। लेकिन बाद में कुछ लोग 'शब्द' में अभिनिवेश करने लगे। महायानियों ने इस दोष को देखा, और अपने सूत्रों और शास्त्रों में इसकी कड़ी आलोचना की। इसलिए यह भेद व्याख्या तक ही सीमित हैं।

नैरात्म्य पर बुद्ध वचन इस प्रकार है:

सब्वे धम्मा अनत्ताति यदा पञ्याय परसति।

अथ निब्बिन्दति दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया।।

(धम्मपद, मग्गवग्ग, ७)।

'सभी धर्म अनात्म है' - ऐसा जब प्रज्ञा से देखता है सभी दु:खों से निर्वेद को प्राप्त होता है यही विशुद्धि का मार्ग है।

यह उक्ति सभी बौद्ध संप्रदायों को मान्य है। इसलिए सिद्धांतत: उनमें कोई भेद नहीं है।

((भिक्षु) उ. धर्मरत्न)