नैयायिक (भारतीय) ब्राह्मण न्याय (वैदिक न्याय), जैन न्याय और बौद्ध न्याय के अत्यंत सुप्रसिद्ध नैयायिक विद्वानों में निम्नलिखित हैं :

क. ब्राह्मण नैयायिक

गौतम - गौतम अक्षपाद न्याय शास्त्र के जन्मदाता हैं। इनका ग्रंथ 'न्यायसूत्र' या 'न्यायदर्शन' नाम से ख्यात है। ये मिथिला के निवासी थे। ऐतिहासिकों ने इन्हें चौथी शती में विद्यमान माना है, पर संस्कृत के पंडितों का परंपरागत मत यह है कि न्यायशास्त्र के निर्माता वही गोतम ऋषि हैं जो त्रेता में विद्यमान थे और जिनकी पत्नी अहल्या का भगवान् रामचंद्र ने उद्धार किया था। जिन मतों का खंडन न्यायसूत्र में किया गया है, भगवान् बुद्ध आदि उन मतों के जन्मदाता नहीं हैं किंतु व्याख्याता एवं परिष्कर्ता मात्र हैं।

वात्स्यायन - एक ऋषि थे। इन्होंने महर्षि गोतम के न्यायसूत्र पर एक भाष्यग्रंथ की रचना की है। इस भाष्य में अनेक बौद्ध मतों का खंडन किया गया है। इसकी भाषा संक्षिप्त और गंभीर है। इसके अनेक स्थल सांप्रदायिक अध्ययन और सांप्रदायिक टीका के बिना दुर्बोध हैं। वात्स्यायन बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग और वसुबंधु के पूर्वकालिक थे। वे द्रमिल को द्रविड़ का परिवर्तित रूप मानकर उन्हें दक्षिण भारत का निवासी कहा है और उन्हें चौथी शती में विद्यमान बताया है। प्राचीन पंडित परंपरा के अनुसार वे मिथिला के निवासी थे।

उद्योतकर भारद्वाज - इन्होंने न्यायभाष्य पर 'न्यायवार्तिक' नामक ग्रंथ की रचना की है। बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग आदि ने अपने तर्क से 'न्यायसूत्र' और 'न्यायभाष्य' की प्रभा को अभिभूत कर दिया था, किंतु उद्योतकर ने वार्तिक की रचना कर अपने तर्क के प्रखर प्रकाश से न्यायशास्त्र को उद्दीप्त बना अपना नाम अन्वर्थ कर दिया। प्राचीन न्याय का यह अनुपम ग्रंथ है। यह न्याय के प्रमेय रत्नों का भांडागार है। ऐतिहासिकों ने वार्तिककार को छठी शती में विद्यमान बताया है। कुछ लोग इन्हें कश्मीरी और कुछ लोग मैथिल मानते हैं।

वाचस्पति मिश्र - मिथिला के मूर्धन्य विद्वान्। दर्शनों का विशिष्ट विद्वान् होने के कारण वे सर्वतंत्रस्वतंत्र और षड्दर्शनी वल्लभ कहे जाते हैं। इन्होंने 'न्यायवार्तिक' को सुबोध बनाने तथा उसपर धर्मकीर्ति आदि बौद्ध नैयायिकों की आलोचनाओं का उत्तर देने के लिए 'न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका' नामक विशिष्ट ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में इन्होंने त्रिलोचन को अपना गुरु तथा राजा नृग को अपना आश्रयदाता बताया है। इन्होंने अपने 'न्यायसूची निबंध' नामक ग्रंथ में अपना समय ८९८ सं. (८४१ ई.) बताया है। यथा-

न्यायसूची निबंध्ह्रोपावकारि सुधियाँ मुदे,

श्री वाचस्पति मिश्रेण वस्वङ्कबसुवत्सरे।।

इनके अनय ग्रंथो में 'ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य' की 'भामती' टीका, 'सांख्यकारिका' पर 'सांख्यतत्वकौमुदी' आदि बड़े विद्वत्तापूर्ण और ख्यातिप्राप्त हैं।

उदयनाचार्य - न्यायजगत् के जाज्वल्यमान रत्न; इनका जन्म मिथिला में हुआ था। इनके परवर्ती ग्रंथकारों ने आचार्यं शब्द से इनका निर्देश कर इनके अलौकिक पांडित्य का संमान किया है। इन्होंने वाचस्पति मिश्र कृत 'तात्पर्य टीका' पर 'तात्पर्यपरिशुद्धि' नामक अति उत्कृष्ट ग्रंथ की रचना की है, 'आत्मतत्वविवेक' और 'न्यायकुसुमांजलि' इनके पूर्ण मौलिक तथा महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इन्होंने अनेक शास्त्रार्थ सभाओं में अनीश्वरवादी बौद्ध विद्वानों को पराजित कर दिगंतव्यापी यश अर्जित किया था। अपने एक ग्रंथ 'लक्षणावली' में इन्होंने अपना समय ९०६ शक. (९८४ ई.) बताया है। यथा-

तर्काम्बराङ्कप्रमितेष्वतीतेषु शंकातत:।

वषेषूदयनश्चक्रे सुबोधं लक्षणावलीम्।।

जयंतभट्ट - न्यायजगत् में नववृत्तिकार के रूप में विख्यात हैं। इन्होंने 'न्यायमंजरी' नामक ग्रंथ की रचना की है। इसकी भाषा अत्यंत प्रौढ़ और साहित्यिक है। इसमें वैदिक अवैदिक सभी दर्शनों के मतों का खंडन बड़ी प्रौढ़ता से किया गया है। इनका समय नवीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है।

गंगेशोपाध्याय - मिथिला के निवासी तथा नव्य न्याय के जन्मदाता हैं। इनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ 'तत्त्वचिंतामणि' इनके लोकोत्तर वैदुष्य का साक्षी है। नव्य न्याय का उत्तरकालिक सारा विस्तार और परिष्कार इसी ग्रंथ पर आधारित है। ये १२वीं शती में विद्यमान थे।

पक्षधर मिश्र - मिथिला के महान नैयायिक थे। इनका दूसरा नाम जयदेव भी था। इन्होंने गंगेश के 'तत्वचिंतामणि' पर 'आलोक' नाम के विशिष्ट टीका ग्रंथ की रचना की थी। ये उच्चकोटि के नैयायिक तो थे ही, साथ ही प्रसिद्ध नाटककार भी थे। इनके 'प्रसन्नराघव' की नाटक ग्रंथों में बड़ी ख्याति है। इनका समय १३वीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है।

वासुदेव सार्वभौम - बंगाल के प्रसिद्ध नैयायिक तथा नवद्वीप में न्याय विद्यापीठ के प्रथम प्रतिष्ठापक हैं। इन्होंने मिथिला जाकर वहाँ के प्रसिद्ध नैयायिक पक्षधर मिश्र से 'तत्त्वचिंतामणि' का अध्ययन किया था। मिथिला के नैयायिक अपने देश की निधि न्याय विद्या को मिथिला से बाहर ले जाने की अनुमति किसी को नहीं देते थे, इसलिए वासुदेव ने संपूर्ण 'तत्वचिंतामणि' और 'न्यायकुसुमांजलि' को अक्षरश: कंठ कर लिया था, बाद में काशी आकर उन्हें लिपिबद्ध किया और इस प्रकार न्यायशास्त्र को नवद्वीप में ले जाकर उन्होंने वहाँ न्यायशास्त्र के अध्ययन अध्यापन के लिए एक नवीन महान विद्यापीठ की स्थापना की। उनका समय १३वीं शती का उत्तरार्ध और १४वीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है।

रघुनाथ शिरोमणि - नवद्वीप के सर्वोच्च नैयायिक हैं, इन्होंने वासुदेव सार्वभौम और पक्षधर मिश्र से न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। इन्होंने 'तत्वचिंतामणि' पर 'दीधिति' नाम की टीका की रचना की है और उसमें अपने दोनों गुरुओं तथा पूर्ववर्ती अन्य अनेक नैयायिकों के मतों की कठोर आलोचना की है। अपनी असाधारण तार्किक प्रतिभा से न्यायशास्त्र के पूर्व प्रचलित अनेक सिद्धांतों का युक्तिपूर्वक खंडन कर इन्होंने अपने अनेक नितांत नूतन सिद्धांतों को प्रतिष्ठित किया है। इन्होंने अपनी नव चिंतनदक्षता और बौद्धिक प्रगल्भता निम्नांकित पद्य में बड़े विश्वास के साथ निर्दिष्ट की है-

विदुषां निवहैरिहैकमत्याद्यददुष्टं निरटङ्िकच्चदुष्टम्।

मयि जल्पति कल्पनाधिनाथेरघुनाथे मनुतां तदन्यथैव।।

मथुरानाथ तर्कवागीश - नवद्वीप के विद्वन्मुकुट नैयायिक थे। इनके विशिष्ट पांडित्य के संमान में इन्हें 'तर्कवागीश' कहा जाता था, इन्होंने 'तत्त्वचिंतामणि' पर 'रहस्य' नामक टीका की रचना की है; सचमुच 'रहस्य' के बिना तत्वचिंतामणि के अनेक स्थान रहस्य ही रह जाते हैं। इन्हें १६वीं शती में विद्यमान माना जाता है।

जगदीश तर्कालङ्कांर - अपने समय के अत्यंत उच्चकोटि के नैयायिक थे। इन्होंने रघुनाथ की दीधिति पर विस्तृत टीका ग्रंथ की रचना की है जो 'जागदीशी' नाम से प्रख्यात है। 'तर्कामृत' और 'शब्द शक्ति प्रकाशिका' इनके मौलिक ग्रंथ हैं। विद्वानों ने 'जगदीशस्य सर्वस्वं शब्दशक्तिप्रकाशिका' कहकर इस ग्रंथ की प्रशंसा की है। इन्हें १७वीं शती में अवस्थित माना जाता है।

गदाधर भट्टाचार्य - नवद्वीप के यशस्वी नैयायिक; इन्होंने रघुनाथ की 'दीधिति' पर अत्यंत विसतृत और परिष्कृत टीका की रचना की है जो 'गादाधरी' नाम से विख्यात है। व्युत्पत्तिवाद, शक्तिवाद आदि उनके अनेक मौलिक ग्रंथ हैं, जिनसे इनके मौलिक चिंतन की विदग्धता विदित होती है। ये १७ वें शतक में विद्यमान माने जाते हैं।

उन्नींसवीं और बीसवीं शती में भी अनेक उत्कृष्ट नैयायिक प्रादुर्भूत हुए हैं जिनमें राखाल दास न्यायरत्न, कैलाश चंद्र शिरोमणि:, सीताराम शास्त्री, धर्मदत्त, बच्चा झा, वामाचरण भट्टाचार्य, बालकृष्ण मिश्र तथा शंकर तर्करत्न के नाम उल्लेखनीय हैं।

जैन नैयायिक

सिद्धसेन दिवाकर - जैन दर्शन में न्यायशैली के आद्य उद्भावक हैं। उनका 'न्यायावतार' जैन न्याय का प्रथम ग्रंथ है। इनका दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ है सम्मति तर्कसूत्र, जो जैन जगत् में प्रमेयों का महान आकर माना जाता है। सिद्धसेन वृद्धवादि सूरि के शिष्य थे, उज्जैन के विक्रमादित्य से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी। पाँचवीं शती में इन्हें जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण का समकालिन माना जाता है। ये श्वेतांबर जैन संप्रदाय के उत्कृष्टतम विद्वान् हैं।

समंतभद्र - दक्षिण भारत के निवासी थे। दिगंबर जैन संप्रदाय के मूर्धन्य विद्वानों में इनकी गणना की जाती है। इन्होंने उमास्वाती के 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' पर 'गंधहस्ति महाभाष्य' नामक एक विशिष्ट टीका ग्रंथ की रचना की है। इनकी 'आप्त मीमांसा' अपने विचार गांभीर्य के लिए विद्वत्समाज में अति प्रसिद्ध है। ये छठी शताब्दी में विद्यमान माने जाते हैं।

हरिभद्र सूरि - जैन संप्रदाय के विशिष्ट विद्वानों में इन्हें अत्यंत संमानपूर्ण स्थान प्राप्त है। इनके ग्रंथों में 'षडदर्शन समुच्चय' और 'अनेकांतजयपताका' की पंडित मंडली में विशेष प्रसिद्धि है। ये आठवीं शती में विद्यमान माने जाते हैं।

अकलंकदेव - दक्षिण भारत के दिगंबर के मूर्धनय विद्वान्; इन्होंने उमास्वाती के 'तत्वार्थ सूत्र' पर 'राजवार्तिक' नाम के और समंतभद्र की 'आप्त मीमांसा' पर 'अष्टशती' नाम के पांडित्यपूर्ण टीकाग्रंथ की रचना की है। जैन न्याय पर इनके तीन विशिष्ट ग्रंथ उपलब्ध हैं 'लधीयस्त्रय', 'न्यायविनिश्चय' और 'प्रमाणसंग्रह', ये अपनी उद्भव प्रतिभा और अप्रतिम तार्किकता के लिए जैन समाज में बहुत विख्यात हैं। इन्हें आठवीं शती में विद्यमान माना जाता है।

माणिक्य नंदी - दिगंबर संप्रदाय के धुरंधर नैयायिक। इन्होंने जैन न्याय पर 'परीक्षामुख शास्त्र' नामक एक उत्कृष्ट ग्रंथ की रचना की है। ये अकलंक के सिद्धांतों के समर्थक हैं। इनके 'परीक्षामुख' पर विद्वद्वर प्रभाचंद्र ने 'प्रमेयकमल मार्त्तण्ड' नामक विशिष्ट टीका ग्रंथ की रचना की है। ये आठवीं शती में 'अष्टसाहस्त्री' और 'श्लोकवार्तिक' के रचयिता नैयायिक प्रवर विद्यानंद के समय विद्यमान थे।

अभय देव सूरि - श्वेतांबर संप्रदाय के परम संमानित विद्वान्। इन्होंने जैन न्याय पर 'वादमहार्णव' नामक महान् ग्रंथ की तथा 'संमतितर्क' पर एक महनीय टीका ग्रंथ की रचना की है जिसमें विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों की विस्तृत समीक्षा है। ये १२वीं शती में अवस्थित माने जाते हैं।

देवसूरि - मुनि चंद्रसूरि के योग्यतम शिष्य थे। वाक्पटुता के कारण ये वादिप्रवर कहे जाते थे। इन्होंने जैन न्याय पर 'प्रमाणनयतत्वालोकालंकार' नामक एक मौलिक ग्रंथ का निर्माण कर उसपर 'स्वाद्वादरत्नाकर' नामक महान टीका ग्रंथ की रचना की है, जो प्रमेयबाहुल्य, विचार्यगांभीर्य और भाषासौष्ठव की दृष्टि से अत्यंत उच्चकोटि का है। साहित्यिक भाषा में न्याय का ऐसा प्रौढ़ ग्रंथ मिलना कठिन है। ये १२वीं शती में विद्यमान माने जाते हैं।

हेमचंद्र सूरि - जैन संप्रदाय के अत्यंत मान्य आचार्य। इन्होंने काव्य, व्याकरण, दर्शन आदि विषयों पर उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना कर अपने सर्वतोमुख पांडित्य का परिचय दिया है। जैन न्याय पर इनका 'प्रमाणमीमांसा' नामक ग्रंथ बड़ा गंभीर, प्रमेयबहुल और विद्वत्तापूर्ण है। इनकी बहुज्ञता और विशिष्ट विद्वत्ता के कारण इन्हें कलिकाल सर्वज्ञ कहा जाता था। इनका जन्म गुजरात में हुआ था और ये १२वीं शती में विद्यमान थे।

यशोविजय गणि - श्वेतांबर संप्रदाय के नव्य न्याय शैली के सर्वोच्च विद्वान्; इनका जन्म गुजरात प्रांत के बड़ौदा राज्य में डभोई ग्राम में हुआ था। काशी में आकर इन्होंने वैदिक दर्शनों का (विशेषरूप से नव्य न्यायशास्त्र का) अध्ययन किया था। नव्य न्याय का विशिष्ट पांडित्य प्राप्तकर इन्होंने जैन सिद्धांतों के समर्थन में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की जिनमें 'तर्कभाषा', 'न्यायरहस्य', 'न्यायखंडन खाद्य', 'शास्त्रवार्ता समुच्चय' आदि विशेष रूप से उल्लेख्य हैं। ये १७वीं शती में विद्यमान थे।

बौद्ध नैयायिक

नागार्जुन - बौद्ध दर्शन की माध्यमिक शाखा के प्रतिष्ठापक एक महान् नैयायिक; राजा शातवाहन के समय इनका जन्म विदर्भ में हुआ था। इन्होंने कृष्णा नदी के तट पर श्री पर्वत की गुप्त गुफा में वर्षों का समय दार्शनिक चिंतन में बिताया था। लामा तारानाथ ने इन्हें राजा नेमिचंद्र का समकालिक बताया है। 'माध्यमिक कारिका', 'विग्रहव्यावर्तनी' 'प्रमाणविध्वंसन' और 'उपायकौशल्य हृदयशास्त्र' इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। ये १०० ई. में विद्यमान माने जाते हैं।

आर्यदेव - माध्यमिक शाखा के प्रसिद्ध नैयायिक और ग्रंथकार। ये दक्षिण भारत के निवासी और नागार्जुन के प्रधान शिष्य थे। इन्होंने महाकोशल, स्त्रुघ्न, प्रयग और वैशाली आदि की अपनी यात्रा में अनेक ख्यातनामा विद्वानों को शास्त्रार्थ में अभिभूत किया था। नालंदा में इन्होंने अनेक वर्ष तक पंडित के पद पर आसीन होने का गौरव प्राप्त किया था। इन्होंने 'शतकशास्त्र' 'ब्रह्मप्रमथनयुक्तिहेतुसिद्धि' आदि विशिष्ट ग्रंथों का प्रणयन किया था। ये चौथी शताब्दी में विद्यमान माने जाते हैं।

मैत्रेय नाथ - बौद्ध दर्शन की योगाचार शाखा के विख्यात विद्वान्; ये 'बोधिसत्त्वचर्या', 'अभिसमयालंकार' आदि महनीय ग्रंथों के रचयिता है। ये चौथी शताब्दी में विद्यमान माने जाते हैं।

असंग - इनका जन्म गांधार में हुआ था। ये प्रारंभ में हीनयानी थे, वैभाषिक दर्शन के प्रसिद्ध पंडित थे। बाद में मैत्रेय नाथ के संपर्क में आनेपर महायानी हो गए। ये कई वर्ष नालंदा में पंडित पद पर विद्यमान थे। इन्होंने अपने जीवन का लंबा भाग कौशांबी और अयोध्या में व्यतीत किया था। इन्होंने 'महायानसंपरिग्रह', 'सप्तदशभूमिशास्त्र', 'महायानसूत्रालंकार' आदि विशिष्ट ग्रंथों की रचना की थी। ये पाँचवीं शती में विद्यमान माने जाते हैं।

वसुबंधु - असंग के कनिष्ठ भ्राता थे। ये भी पहले हीनयानी वैभाषिकवेत्ता थे, बाद में असंग की प्रेरणा से इन्होंने महायान मत स्वीकार किया था। योगाचार के सिद्धांतों पर इनके अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। ये उच्चकोटि की प्रतिभा से संपन्न महान नैयायिक थे। 'तर्कशास्त्र' नामक इनका ग्रंथ बौद्ध न्याय का बेजोड़ ग्रंथ माना जाता है। अपने जीवन का लंबा भाग इन्होंने शाकल, कौशांबी और अयोध्या में बिताया था। ये कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त और बालादित्य के समकालिक थे। ४९० ई. के लगभग ८० वर्ष की अवस्था में इनका देहांत हुआ था।

दिङ्नाग - बौद्ध न्याय के अप्रतिभट विद्वान् और मध्ययुगीन अभिनय तर्कशैली के जन्मदाता थे। इनकी अनुपम तार्किक प्रतिभा के प्रखर प्रकाश में बड़े बड़े नैयायिकों की मति म्लान हो जाती थी। मद्रास में कांची के निकट सिंहवक्र में एक ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हुआ था। वसुबंधु से विद्या का अध्ययन कर इन्होंने बौद्ध न्याय के ऊपर अनेक विशिष्ट ग्रंथों का प्रणयन किया था, जिनमें प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश, हेतुचक्रडमरू, तथा आलबंनपरीक्षा विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने अपने जीवन का अधिक भाग, महाराष्ट्र, आंध्र और उड़ीसा में व्यतीत किया था। अपने उद्भट पांडित्य के कारण ये नालंदा में बड़े संमान के साथ आमंत्रित किए गए थे। इन्हें पाँचवीं शती में विद्यमान माना जाता है।

धर्मकीर्ति - बौद्धदर्शन के अति प्रख्यात आचार्य; ये दिङनाग के ग्रथों के भाष्यकार माने जाते हैं। इनका जन्म दक्षिण भारत के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इन्होंने बहुत थोड़े ही वय में समस्त वेद वेदांग और वैदिक दर्शनों का अध्ययन कर लिया था। धर्मपाल आदि बौद्ध विद्वानों के सपर्क में आने पर जब इन्होंने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया तो उसके हृदयस्पर्शी सिद्धांतों से प्रभावित हो इन्होंने बौद्धमत स्वीकार कर लिया और अपनी असाधारण प्रतिभा और अप्रतिम विद्वत्ता का विनियोग बौद्धदर्शन के विवेचन में किया। बौद्ध न्याय पर इन्होंने जो महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे, उनमें 'प्रमाणवार्तिक', 'न्यायबिंदु', 'हेतुबिंदु', 'प्रमाणविनिश्चय' और 'वादन्याय' विशेष रूप से उल्लेख्य हैं। ये छठीं शती में विद्यमान माने जाते हैं।

चक्रकीर्ति - स्वतंत्र माध्यमिक संप्रदाय के महान् आचार्य थे। नालदा में लंबे समय तक प्राध्यापक थे। इन्होंने तिब्बत की भी यात्रा की थी और वहाँ एक विशाल विहार की स्थापना कर अध्यक्ष के पद से उसका कई वर्ष तक संचालन किया था। 'तत्त्व संग्रह' इनकी एक महनीय मौलिक रचना है जिसमें अन्य सभी दर्शनों के मतों का साभिनिवेश खंडन कर बौद्ध सिद्धांत को प्रतिष्ठित किया गया है। ये आठवीं शती में विद्यमान माने गए हैं।

(बदरीनाथ शुक्ल)