नैफ्थेलीन (Naphthalene) कोयले के कार्बनीकरण से अनेक उत्पाद बनते हैं, जिनमें एक उत्पाद अलकतरा है। इसमें एक महत्वपूर्ण कार्बनिक यौगिक नैफ्थेलीन रहता है। कोयला गैस में अलकतरा अपद्रव्य के रूप में रहता है और इसको दूर करना आवश्यक समझा जाता है। यदि कार्बनीकरण निम्न ताप पर हुआ तो ऐसे अलकतरे में नैफ्थेलीन कम रहता है, पर यदि कार्बनीकरण ऊँचे ताप पर हुआ तो नैफ्थेलीन अधिक रहता है। प्रति टन कोयला, ऊर्ध्वाधर भभकों से औसत प्राय: २ पाउंड, कोक चूल्हे से ६ पाउंड तक और क्षैतिज भभके से, जिसका ताप और ऊँचा रहता है, ११ पाउंड तक नैफ्थेलीन बनता है। यदि कार्बनीकरण सावधानी से किया जाए तो नैफ्थेलीन का पृथक्करण सरलता से किया जा सकता है।

कार्बनीकरण में गैस के साथ ही साथ अलकतरा निकलता है। संघनित्र में अलकतरा संधनीभूत करके निकाल लिया जाता है। ऐसे अलकतरे का विशिष्ट गुरुत्व १५ सें. पर १.०८५ से १.३० तक हो सकता है। अलकतरे के प्रभाजक आसवन से १७०रू - २७०रू सें. ताप पर जो प्रभाग आसुत होता है उसे कहीं 'मध्यतैल' या कार्बोलिक तैल और कहीं 'गुरुतैल' कहते हैं। इसी तैल से नैफ्थेलीन प्राप्त होता हैं।

आसवन-भभके से निकले मध्य तैल को सीधे टंकियों अथवा कड़ाहों में ले जाकर, अथवा उसका अम्ल निकाल लेने के बाद अवशिष्ट अंश को टंकियों या कड़ाहों में ले जाकर, ठंढा करते हैं। अधिकांश नेफ्थेलीन क्रिस्टलीकृत हो जाता है। कड़ाह के अवशिष्ट तैल से क्रिस्टलों को निकालकर ढेर में इकट्ठा कर रखते हैं ताकि क्रिस्टलों में चिपका तैल बहकर निकल जाए, अथवा केंद्रापसारक में रखकर तैल को निकाल लेते हैं। केंद्रापसारक में क्रिस्टल प्राय: सूख जाता है। इसी प्रकार कच्चा नैफ्थेलीन प्राप्त होता है।

चिपके तैलों और असंतृप्त हाइड्रोकार्बनों को निकालकर कच्चे नैफ्थेलीन की सफाई की जाती है। क्रिस्टलों को केंद्रापसारक में गरम पानी से धोते हैं, जिससे चिपके तेल का अधिक भाग निकल जाता है, अथवा उसे द्रवचालित प्रेस में गरम अवस्था में ही दबाकर तेल निकाल लेते हैं। पहली रीति सस्ती और अधिक प्रभावकारी होती है। इस प्रक्रिया के बाद जो नैफ्थेलीन प्राप्त होता है उसमें ४ से लेकर ६ प्रतिशत तक तेल अब भी रहता है। इसका गलनांक भी नीचा होता है। ऐसे अंशत: शोधित नैफ्थेलीन को लोहे के पात्र में गरम कर पुन: आसवन करते हैं और नैफ्थेलीन को पिघलाकर, सीस का अस्तर लगे प्रक्षोभक (agitator) में रखकर १.८३५ विशिष्ट गुरुत्व के सल्फ्यूरिक अम्ल से धोते हैं। धोने के बाद अम्ल को निकालकर, कई बार पानी से धोते हैं। अम्ल का निकाल देना आवश्यक है, नहीं तो पानी से धोने पर रेजिन सा पदार्थ बन सकता है। पानी से धोने के बाद प्राय: १.११६ विशिष्ट गुरुत्व के हलके दाहक सोडा के विलयन से धोकर सोडा के विलयन को भली भाँति निकाल लेते हैं। ऐसा नहीं करने से पात्र का पेंदा जल जा सकता है।

नैफ्थेलिन को अब एक छिछले कड़ाह में रखकर, छोटे छोटे पिंडों में तोड़कर, इसी रूप में बेचते हैं, अथवा ताँबे के कड़ाहों में भाप से गरम कर छोटी छोटी गोलियाँ बनाकर बेचते हैं। यदि नैफ्थेलीन को शुद्ध रूप में प्राप्त करना है तो उसका ऊर्ध्वपातन करते हैं। ऊर्ध्वपातन लोहे की बड़ी बड़ी टंकियों में एक ढांप (hood) लगा रहता है, जो एक चिकने कक्ष से जुटा रहता है। नैफ्थेलीन का वाष्प इसी कक्ष में पारदर्शक पट्ट के रूप में संघनित होता है। टंकी का ताप लगभग १५०रू सें. रहना अच्छा है। गरमी में इससे नीचा ताप और जाड़े में इससे कुछ ऊँचा ताप भी उपयुक्त हो सकता है।

नैफ्थेलीन ठोस हाइड्रोकार्बन है। इसका अणु सूत्र का१०हा (क्१०क्त) है। यह ७९रू -८०रू सें. पर पिघलता है और २१८रू सें. पर उबलता है। इसका विशिष्ट गुरुत्व १५रू सें. पर १.१५१ और द्रव का विशिष्ट गुरुत्व ८०रू सें. पर ०.९७७८ होता है। सामान्य ताप पर भी यह उड़ जाता है। यह भाप ऊष्मक पर बड़ी शीघ्रता से उड़ता है। इसके क्रिस्टल पारदर्शक और समचतुर्भुजीय (rhombic) होते हैं। ठंढे जल में यह नहीं घुलता, पर गरम जल में थोड़ा घुल जाता है। क्लोरोफॉर्म, बेंज़ीन, ईथर, ऐलकोहल आदि कार्बनिक विलायकों में यह शीघ्र घुल जाता है।

नैफ्थेलीन के उपयोग अनेक हैं। ऊनी और रेशमी वस्त्रों की कीड़ों से रक्षा करने के लिए नैफ्थेलीन की गोलियों का उपयोग होता है। अनेक रंजकों, विशेषत: 'ऐज़ो रंजकों' (azo colours) और नील निर्माण में बड़ी मात्रा में यह लगता है। इसके अनेक संजात बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इसके ऑक्सीकरण से थैलिक अम्ल या थैलिक ऐनहाइड्राइड बनता है जो एल्किड प्लास्टिक के निर्माण में प्रचुरता से उपयुक्त होता है। गैस की प्रदीप्ति क्षमता बढ़ाने में भी गैस के रूप में नैफ्थेलीन अल्प खर्च होता है।

रसायनत: नैफ्थेलीन सक्रिय होता है। नाइट्रिक अम्ल से मोनो नाइट्रो नैफ्थेलीन, सल्फ्यूरिक अम्ल से नैफ्थेलीन सल्फोनिक अम्ल, क्लोरीन से क्लोरो तथा नैफ्थेलीन बनता है। इनसे फिर अनेक उपयोगी यौगिक, नैफ्थोल, नैफ्थिलेमिन आदि बनते हैं, जो रंजकों के निर्माण में काम आते हैं। नैफ्थेलीन के अवकरण से एक यौगिक टेट्राहाइड्रो नैफ्थेलीन बनता है, जो 'टेट्रालिन' के नाम से बिकता है। यह बड़ा उपयोगी विलायक सिद्ध हुआ है। आज बड़े पैमाने पर यह तैयार होता है। गंधक, वसा, रेजिन आदि कार्बनिक पदार्थ इसमें शीघ्र धुल जाते हैं। वार्निश, लाक्षारस, स्नेहक आदि तैयार करने में यह विलायक का काम करता है। बेंज़ीन और ऐलकोहन के साथ मिलकर यह अंतर्दहन इंजन में भी जलता है। पेट्रोलियम तेलों की प्रतिदीप्ति (fluorescence) को भी यह दूर करता है। इसके लिए दो से लेकर तीन प्रतिशत तक नैफ्थेलीन उपयुक्त होता है।(फूलदेवसहाय वर्मा)