नेहरू,
जवाहरलाल पंडित
जवाहरलाल नेहरू
गांधी युग के
उज्वलतम नक्षत्र थे।
भारत के राजनीतिक
मंच पर गांधी
जी का अवतरण
एक नए युग के सूत्रपात
का कारण हुआ।
सदियों से दासता
की जंजीरों
में बँधी हुई
भारतीय आत्मा
पतन की ओर अभिमुख
थी। पतन की इस
धारा की बलपूर्वक
और बड़े वेग के
साथ गांधी जी
के अवतरण ने रोका।
गांधी जी केवल राजनीतिक क्रांति के प्रवर्तक नहीं थे। वे भारत के समस्त राष्ट्रीय जीवन के उन्नायक तथा उसके पुनर्जागरण के प्रतीक के रूप में इतिहास में अपना नाम अमर कर गए। उन्होंने भारतीय जीवन की समस्त शुभ्रता और उज्वलता को पुन: उद्दीप्त करने का प्रयास किया। इस प्रयास ने भारत के इतिहास में एक नऐ युग की सृष्टि की। सारे राष्ट्र का जीवन, नीचे से लेकर ऊपर तक, उस युग के प्रभाव से प्रभावित हुआ। जब ऐसे युग आते हैं तो जागरण और उत्थान के प्रतीक के रूप में महामानवों की सृष्टि हा जाती है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ऐसी ही विभूतियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। गांधी युग ने जहाँ भारत की युग युग से प्रचलित सांस्कृतिक साधना को व्यक्त किया, और जहाँ उसने जीवन के लिए नए मार्ग और व्यवहार के लिए नई परिस्थितियों की रचना की, वहीं एक नहीं अनेक ऐसे मनुष्यों का भी निर्माण किया जो इतिहास में उस काल के विशिष्ट पुरुष बन गए। जवाहरलाल जी इस देश की गांधी जी की देन थे। गांधी जी के द्वारा उनका जीवन जिस विचित्र प्रकार से प्रभावित हुआ और जिस प्रकार युग के प्रतीक के रूप में उनका नवनिर्माण हुआ वह स्वयं आश्चर्यजनक है।
उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ जो अंग्रेजी वेशभूषा और भावों से प्रभावित था। संपन्नता और विलासिता की सामग्रियाँ उनके आँगन में खेलती थीं। लाड़ और प्यार की गोद में वह पले थे। भारत के कोटि कोटि नर नारियों का जीवन जिस विपन्नता, दु:ख और दरिद्रता में बीतता था, उसका भान उन्हें नहीं था। विदेशी सत्ता राष्ट्र के स्वाभिमान का अपहरण और आत्मा का दलन करने में किस सीमा तक समर्थ हो चुकी है, इसका परिचय दूर से भी होना उनके लिए संभव न था। पंडित मोतीलाल ने प्रयाग हाईकोर्ट के मशहूर वकील के रूप में अपरिमित धन कमाया था। राजनीति से उनका कोई संबंध था तो वह भी केवल तत्कालीन परिस्थिति के अनुकूल पाश्चात्य संस्कृति और विदेशी सत्ता से कुछ पा जाने की ओर ही उन्मुख था। उन्हीं के घर में १४ नवंबर, १८८९ ई. को जवाहरलाल जी ने जन्म ग्रहण किया। उनकी शिक्षा दीक्षा अंग्रेजी ढ़ंग से हुई। १५ वर्ष की छोटी उम्र में ही पठनपाठन के लिए वे इंगलैड भेजे गए। प्राय: ८ वर्षों तक हैरों में और फिर कैब्रिज के ट्रिनिटी कालेज में शिक्षा प्राप्त करके स्नातक की उपाधि ग्रहण की और फिर बैरिस्टरी की परीक्षा पास की। पंडित मोतीलाल जी ऐसे विख्यात वकील के पुत्र के लिए वैरिस्टर बनकर भारत वापस अपना ही परिवार की दृष्टि में वांछनीय था। यह सेचने की बात है कि कांग्रेस की स्थापना के चार वर्ष बाद उनका जन्म हुआ था। उस समय राजनीति की धारा एक विशेष दिशा में प्रवाहित हो रही थी। जब कोई राष्ट्र पराभवजन्य पतन को प्राप्त होता है तो उसकी आंतरिक शक्तियाँ सुषुप्त हो जाती है। बाह्य रूप से विजेता की शक्ति का लोहा स्वीकार करके वह उसी की श्रेष्ठता मान लेता है। तत्कालीन हमारी राजनीति इसी दिशा में अग्रसर हुई। अंग्रेजी वेशभूषा, भाव, रहन सहन और जीवन के क्रम को ग्रहण करके हम ऊँचे उठ सकते हैं और जो विजयी है उसे प्रसन्न करके तथा उसका अनुसरण करके स्वयं बड़े बन सकते हैं, यह धारणा व्याप्त हो उठी थी। ऐसे युग में जन्म ग्रहण करके और उपर्युक्त वातावरण में पले तथा पोषित होकर भी जवाहरलाल जी के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन उस युग की विशेषता का द्योतक है जिसका प्रवर्तन गांधी जी के नेतृत्व के फलस्वरूप हुआ।
सन् १९१२ में वे पूरी अंग्रेजी शिक्षा दीक्षा प्राप्त करके तथा पाश्चात्य सभ्यता के संस्कारों से प्रभावित होकर स्वदेश वापस आए और यहाँ अपने पिता के जूनियर के रूप में स्वयं भी वकालत करने लगे। पर उनके जीवन का यह क्रम अधिक दिनों तक न रह सका। उनके कलेवर में एक दूसरी आत्मा निवास कर रही थी जो बाह्याडंवरों से परिवेष्ठित होते हुए भी मौलिक रूप से उनसे अस्पृश्य थी। इसी समय गांधी जी का सत्याग्रह आंदोलन अफ्रका में गोरी जाति के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष और विप्लव की अभिनव प्रणाली के रूप में मूर्त हुआ। देश का ध्यान साश्चर्य उसकी गतिविधि की ओर आकृष्ट हो चला था। बिना शस्त्र उठाए, बिना प्रतिरोध के शक्तिमती सत्ता का सामना करना कैसे संभव हो सकता है, यह प्रश्न पहेली बना हुआ था। जवाहरलाल जी भी गांधी जी के नाम और अफ्रीका की उनकी गतिविधि की ओर चकित भाव से देख रहे थे। वकालत के साथ साथ उनका संबंध राजनीति से भी जुड़ा रहा था। इग्लैंड के स्वतंत्र वातावरण में उनका जीवन निर्मित हुआ था, अत: भरत में स्वतंत्रता की परिधि उन्हें असह्य प्रतीत हो रही थी। श्रीमती एनी बेसेंट का इस समय देश पर व्यापक प्रभाव था। होमरूल लीग के नाम से उन्होंने आंदोजन भी चला रखा था। जगत् की छाती पर प्रथम महायुद्ध संसार के विनाश की प्रक्रिया चरितार्थ कर रहा था। जवाहरलाल भी मिसेज बेसेंट से प्रभावित होकर 'होमरूल लीग' के आंदोलन से संबद्ध थे, पर साथ साथ उनकी दृष्टि थी जा राष्ट्र के जीवन में प्रतारण और दमन के विरुद्ध प्रतिरोध की भावना भर सके। युवक स्वभावत: उग्र होता है और आदर्शों की ओर उन्मुखता उसकी सहज प्रवृत्ति होती है। ऐसे ही समय सन् १९१६ में व गांधी जी के संपर्क में आए।
अब उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू हुआ। विदेशी वातावरण और विलासमय जीवन में पले हुए जवाहरलाल बिलकुल बदले हुए दूसरे व्यक्ति हो गए। घर का दुलारा जवाहरलाल ज्यों ही बदला त्यों ही उनके सारे परिवर के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। जवाहरलाल जी का विवाह १९१६ ई. में ही कमला जी के साथ हुआ था। १९१८ ई. में संतान के रूप में इंदिरा प्राप्त हुई। जवाहरलाल जी के परिवर्तित जीवन का प्रभाव स्वभावत: उनकी पत्नी पर पड़ा और वे वास्तव में जीवनसहचर बन चलीं। पुत्र और पुत्रवधू ने जीवन की एक दिशा बनाई और फिर तो स्वर्गीय पं. मोतीलाल जी की माता स्वरूपरानी नेहरू ने भी दूसरी दिशा पकड़ी। भारत में शायद ही कोई दूसरा ऐसा परिवर हो जिसने विचित्र और नया मोड़ इस प्रकार लिया हो जैसा नेहरू परिवर ने लिया। आगे चलकर नेहरू परिवार का कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं रहा जो देश के स्वतंत्रतासंग्राम में न कूद पड़ा हो। साहबी रंग ढंग में डूबा हुआ यह परिवार देखते देखते भारतीय आकांक्षा और भारतीयता का प्रतीक बन चला। सन् १९१८ में जवाहरलाल जी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गए और वहीं से उन्होंने देश की उत्पीडित किंतु मूक और दलित जनता के साथ अपने जीवन को मिला दिया।
प्रथम
महायुद्ध की समाप्ति
के साथ साथ अंग्रेज
सरकार ने भारत
में दमन की आग
लगाई। रोलट
एक्ट के नाम से केंद्रीय
अर्सेबली ने एक कानून
बनाया जो उसी
समय 'काला कानून'
के नाम से विख्यात
हुआ। गांधी जी
ने इस कानून के
विरुद्ध व्यापक जनक्षोभ
उत्पन्न किया और
स्वयं अवज्ञा की घोषणा
की। रौलट ऐक्ट
के विरुद्ध सत्याग्रह
करने की घोषणा
के फलस्वरूप महात्मा
जी गिरफ्तार
किए गए और पंजाब
में जलियाँवाला
वाग का भीषण
हत्याकांड हुआ।
वर्बरता के इस
कृत्य ने देश की
आत्मा को आमूल
कंपित कर दिया।
भारत ने अपनी
असहाय स्थिति देखी,
दासता के घृणित
रूप का दर्शन किया,
अपनी दुर्बलता
का और पतन
का विकृत स्वरूप
पहचाना। देश
ने देखा कि विदेशी
सरकार की पशुता
का सामना करने
की सामर्थ्य उसमें
नहीं। युग पुकार
रहा था कि किसी
ऐसे मार्ग का
अवलंबन करना
चाहिए जो इस असहाय
स्थिति में भी विप्लव
का रूप धारण कर
सके। यही समय
था गांधी जी
के लिए जब वे मंत्रद्रष्टा
ऋषि के रूप में
चमक उठे। जालियानवाला
बाग हत्याकांड
की जाँच के लिऐ
अखिल भारतीय
कांग्रेस कमेटी
की ओर से समिति
बनी। जवहरलाल
जी भी उस समिति
के सक्रिय कार्यकर्ता
हुए। समिति की
रिपोर्ट ने
नृशंस क्रूरता
तथा भारतीय
जनसमाज के दलन
का वीभत्स चित्र
उपस्थित किया और
यह माँग की कि
जनरल डायर की,
जो जालियाँवाला
बाग हत्याकांड
के लिए उत्तरदायी
था, पेंशन बंद
कर दी जाए। उसी
समय अमृतसर
की कांग्रेस हुई।
राष्ट्र की इस छोटी
सी किंतु सामयिक
माँग की ब्रिटिश
सरकार ने ठुकराकर
गांधी जी के
अभिनव नेतृत्व
का मार्ग प्रशस्त
कर दिया। जवाहरलाल
जी के जीवन पर
इन घटनाओं का
प्रभाव उन्हें भारतीय
क्रांति के उद्भट
योद्धा के रूप में
निर्मित करने
में सफल हुआ।
यहीं से जवाहरलाल जी के त्यागमय जीवन का सूत्रपात होता है। दासता की बेड़ियों को छिन्न भिन्न करने के लिए वे आकुल हो उठे और देश की अपमानित, शोषित तथा दलित जनत के दर्द से स्वयं कराह उठे। उत्तर प्रदेश के अवध के किसानों की दुर्दशा की कहानियाँ उनके कानों में पड़ रही थीं। तालुकेदार और नवाबों के जुल्म से अवध के किसान त्रस्त थे और विशाल जनसमूह पशुओं के समान जीवन व्यतीत कर रहा था। किसानों के आंदोलनों का सूत्रपात अवध में हो गया था। जवाहरलाल जी इस आंदोलन के अगुवा बने और आज भी अवध के कतिपय जिलों की झोपड़ियों से उस समय किए गए उनके कार्यों की गाथाएँ यदाकदा गूँज उठती हैं। गाँव गाँव और दर दर की खाक छानता हुआ, रोते और कलपते किसानों की झोपड़ियों में उनकी दु:खभरी कथाओं को सुनता हुआ और स्वयं उनके क्लेश में आँसू बहाता हुआ जवाहरलाल इस देश की पीड़ित जनता के आर्त स्वर का प्रतिनिधि बन गया।
राजसुलभ सुख और संपन्नता से पले जीवन को ठुकराकर जिस व्यक्ति ने त्याग और उत्सर्ग का मार्ग पकड़ा था उसकी ओर से केवल देश की जनता बल्कि समाज के बुद्धिजीवी तथा उच्च वर्ग का ध्यान भी आकृष्ट हुआ। अब तो जवाहरलाल का व्यक्तित्व ऐसा निखर चला जिसे देखने के लिए लोग सहज ही आतुर हो उठे। देश के युवकों के जीवन पर तो उनका असाधारण प्रभाव पड़ा। वे राष्ट्र के उत्थान के तथा प्रतिरोध और सेवा के प्रतीक बन चले। उनका सुंदर रूप, भावुक हृदय, दृढ़ संकल्प और देश के प्रति करुणा से भीगी आँखें लाखों नर नारियों को आकृष्ट और प्रभावित करन लगीं। उधर ब्रिटिश निरंकुशता अपनी सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। ब्रिटेन ने तुर्की के साथ विश्वासघात किया। पश्चिमी एशिया के मुस्लिम देशों पर आघात किया तथा भारत को भी अँगूठा दिखाया। अब देश की आवश्यकता थी ऐसे व्यापक जनांदोलन की जो भारत की झोपड़ियों तक को प्रभावित करे और राष्ट्रीय विप्लव की भावना को देश के कोने कोने तक पहुँचाए। भारत की राजनीति को, जो पढ़े लिखे शहरी वर्गों तक ही सीमित थी, ऐसी प्रचंड वेगवती धारा का रूप देना आवश्यक हो गया जो व्यापक जनसमुदाय के जीवनोदधि को आलोड़ित कर दे। गांधी जी कालात्मा की इस माँग के प्रतीक के रूप में शांतिमय असहयोग आंदोलन की योजना लेकर प्रस्तुत हुए। सहज ही उनकी दृष्टि जवाहरलाल जी पर पड़ी। उनकी शिक्षा दीक्षा यद्यपि पाश्चात्य सभ्यता के वातावरण में हुई थी तथापि भारत की युग युग की शुभ्रता की प्रतिमूर्ति गांधी जी के व्यक्तित्व का स्पर्श होना था कि जवाहरलाल जी ने वह सोई हुई भारतीयता जाग उठी जो बाह्य कारणों से अब तक ढकी हुई थी। उनके जीवन में पश्चिमी सभ्यता के सारे गुण आए पर उन दोषों से वे वंचित रहे जो विदेशी संस्कृति से उद्भूत होते हैं। साथ साथ पुरातन देश होने के नाते अनावश्यक रूढ़ियों और हानिकारक परंपराओं से जो दोष उत्पन्न हो जाते हैं उनसे भी वे बचे रहे। उनमें पूर्व और पश्चिम का, पुरातन और नवीन का, सुंदर तथा शुभ्र संगम देख पड़ता था। समय की पाबंदी, सक्रियता, व्यापक दृष्टिकोण, स्वतंत्र मनोवृत्ति और चिंतन, बुद्धि की कसैटी पर प्रत्येक विचर तथा सिद्धांत को कसना, जो काम उठाएँ उसके प्रति उत्तरदायित्व का बोध, लोकतंत्र तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अटल आस्था आदि ऐसे गुण थे जो पश्चिम से उन्होने प्राप्त किए थे। साथ ही विवेक, नैतिक मूल्यों में अटल निष्ठा, ऊँचे आदर्शों की ओर उन्मुखता, साधन और साध्य की पवित्रता में विश्वास, सत्य और न्याय के लिए अडिग भाव से बलिदान के पथ पर अग्रसर होने की प्रवृत्ति आदि वे गुण थे जिनका समावेश गांधी जी का लोकोत्तर व्यक्तित्व उनके जीवन में करने में सफल हुआ।
जवाहरलाल जो वैज्ञानिक युग की रचना थे। बुद्धि और तर्क उनकी बौद्धिक कसौटी के साधन थे। दृश्य जगत् और प्रमाण उनके लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण थे। पर उनकी दृष्टि यहीं रुकती नहीं थी। वे विज्ञान को नैतिक मूल्यों के आधार पर स्थापित करने के पक्षपाती थे। कहा करते थे कि विज्ञान और आध्यात्मिकता के समन्वय के बिना आधुनिक जगत् का कल्याण असंभव है। जो जगत् है, वह प्रभुता की पिपासा, संघर्ष, शोषण और विनाश की क्रिया चरितार्थ करने के लिए नहीं है। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य के जीवन का प्रयोजन मानव जगत् को अधिक सुंदर, सुखी, संपन्न और कलामय बनाना है। वे मनुष्य की स्वतंत्रता को मनुष्य का वैसा ही नैसर्गिक अधिकार मानते थे जैसे सूर्य का प्रकाश और हवा पाने का उसे सहज अधिकार है। इसका अपहरण जहाँ हो उसे अमानवीय, अनैतिक और प्रकृति के विरुद्ध मानते थे और उसके विरुद्ध लड़ना अपना धर्म समझते थे। फलत: गांधी जी के नैतिक विचारों ने उन्हें इस प्रकार प्रभावित किया कि राजनीतिक सिद्धांतों और कार्यक्रमों के संबंध में गांधी जी के मत से कभी कभी विरोध प्रकट करने के बाद भी वे अंतत: महात्मा जी की विचारपद्धति में गंभीर और गूढ़ नैतिकता देखकर उनका ही पदानुसरण करने के लिए तैयार हो जाते थे। जीवन पर्यंत उन्होंने यह स्वीकार किया कि पवित्र साध्य के लिए साधन की पवित्रता अनिवार्य है। यह विचार समस्त जगत् के चिंतनक्षेत्र को गांधी जी की अपनी अभिनव देन थी।
ऐसे
गुणों और संस्कारों
से प्रभावित जवाहरलाल
जी भारत के सार्वजनिक
क्षेत्र में उतरे और
सहज में ही उन्होंने
गांधी युग के
उच्चतर नेताओं
में अग्रणी स्थान प्राप्त
कर लिया। अखिल
भारतीय कांग्रेस
कमेटी का प्राय:
संपूर्ण संचालन
अनेक वर्ष तर्कों
उनके ही द्वारा
होता रहा। कांग्रेस
की अध्यक्षता तो
उन्होंने इतनी बार
की जितनी कभी
किसी एक व्यक्ति को
नहीं प्राप्त हुई
होगी। गाँधी
जी उन्हें इतना मानते
थे कि उनकी ओर
अपने उत्तराधिकारी
के रूप में संकेत
किया करते थे।
सन् १९२० से लेकर
सन् १९४२ तक भारत
में जितने भी
राष्ट्रीय आंदोलन
हुए उन सब में जवाहरलाल
जी अग्रणी थे। अनेक
बार इन्हें जेलयात्रा
करनी पड़ी निडर
और साहसी थे।
उनका तेजस्वी व्यक्तित्व
और उनकी सहज
निर्भयता हर
खतरे का समना
करने के लिए उन्हें
सदा सबसे आगे
रहने के लिए बाध्य
करती थी। भारतीय
स्वाधीनता के
युद्ध का नेतृत्व
करते हुए भी देश
को विशाल विश्व
के चित्र में देखना
उनकी अपनी नई
दृष्टि थी। वे यह
मानते थे कि जिस
प्रकार भारत
दलित देश है
वैसे ही संसार
के अनेक भूखंडों
की अनेक जातियाँ
आधुनिक साम्राज्यवाद
की विभीषिका
से पीड़ित और
शोषित हैं। विभिन्न
देशों की स्वतंत्रता
के आंदोलन उनके
लिए इतिहास का
एक विशाल प्रवाह
था और भारत
की स्वतंत्रता का
आंदोलन उस प्रवाह
की ही उत्ताल तरंग
थी। साम्राज्यवादी
अनाचारों और
दासता के विरुद्ध
होनेवाले संघर्षों
को, चाहे वे कहीं
भी किसी कोने
में क्यों न हों,
वे मानव विकास
के इतिहास की
गति मानते थे
और यह मानते
थे कि सारी मानवता
इसी भाँति प्रगति
की ओर उन्मुख हो।
उस संदर्भ में भारतीय
संघर्ष देखने
का प्रयास जवहरलाल
जी ने आरंभ से
ही किया। इसी के
फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय
जगत् से न केवल
उनका संपर्क स्थापित
हुआ अपितु आगे
चलकर वे विश्व
के ऐसे ही महान्
नागरिक बने
जिसने अंतरराष्ट्रीयता
तथा अंतरराष्ट्रीय
सहयोग एवं सामंजस्य
के उत्तम मानवीय
सिद्धांतों का
प्रतिपादन किया।
जवाहरलाल जी ने १९२७ में ब्रसेल्स में दुनिया के शोषित राष्ट्रों के अंतरराष्ट्रीय संमेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया और इस प्रकार भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सारे विश्व के मानचित्र में स्थान प्रदान किया। फिर तो धीरे धीरे उनका संबंध दुनिया के उन सभी आंदोलनों से स्थापित हुआ जो शोषण और दलन के विरुद्ध कहीं किसी भी कोने में चल रहे थे। अपने देश में वे पूर्ण स्वतंत्रता के हिमायती थे और १९२८ में तो कलकत्ता कांग्रेस में उन्होंने उस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए अपने पिता पं. मोतीलाल नेहरू जी का भी विरोध नेहरू कमेटी की सिफारिश के माध्यम से की गई माँगों का विरोध करके किया। इंडिपेंडेंस आफ इंडिया लीग की स्थापना करके पूर्ण स्वतंत्रता की आवाज उन्होंने उठाई और १९२९ में लाहौर में जब कांग्रेस के अध्यक्ष हुए तो ३१ दिसंबर की रात १२ बजे उन्हीं की अध्यक्षता में ब्रिटिश सरकार से संबंधविच्छेद करके पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया।
पं. जवाहरलाल जी के विचारों पर समाजवादी विचारधारा का बड़ा प्रभाव पड़ा था। सन् १९३३-३४ में रूस से लौटने के बाद तो विशेष रूप से उनके समाजवादी विचार अभिव्यक्त हुए। नाजीवाद, अधिनायकवाद, फासिस्टवाद आदि विचारों के वे घोर विरोधी थे और उन्हें मानव जगत् के अभिशाप के रूप में मानते थे। उनका समाजवाद अपने देश की चिंतन और आचरणपद्धति से आवेष्टित था। यदि रूसी समाजवाद में हिंसा और वर्गमूलक अधिनायकवाद उसका अभिन्न अंग था तो जवाहरलाल जी आर्भिक और सामाजिक व्यवस्था को समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर स्थापित करते हुए भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्रात्मक जीवनव्यवस्था का समावेश आवश्यक मानते थे। द्वितीय महायुद्ध आरंभ होने पर वे नाजी जर्मनी और फासिस्ट इटली के उत्थान को जगत् के लिए विभीषिका मानते थे और चाहते थे कि लोकतंत्रात्मक शक्ति विजयिनी हो। इसी कारण वे १९४२ वे 'भारत छोड़ो' आंदोलन को भी सोच समझकर आरंभ करने की बात करते थे जिसमें लोतंत्रात्मक शक्ति को विजय प्राप्त करने में कठिनाई न हो। पर अंग्रेज सरकार की हठधर्मी ने भारत के लिए गांधी जी के नेतृत्व में उस विशाल अहिंसात्मक जनविद्रोह का सूत्रपात करने के लिए बाध्य किया जिसने १९४७ में ब्रिटिश-साम्राज्य की अट्टालिका को ही धराशायी कर दिया।
सन् १९४७ में १५ अगस्त को अंग्रेज सरकार ने बाध्य हाकर सत्ता हस्तांतरित करन का निश्चय किया पर इसके पूर्व ही केंद्र में अंतरिम सरकार २ सितंबर, सन् ४६ को संघटित हुई। उस समय भारत एक था जिसमें पाकिस्तान का जन्म नहीं हुआ था। पर घटनाओं का जो क्रम चला उसके फलस्वरूप १५ अगस्त, १९४७ को भारत का बँटवारा भारत और पाकिस्तान के रूप में दो प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्रों की रचना करके कर दिया गया। इस बँटवारे के पूर्व कौन कौन सी कठिनाइयाँ आईं और कौन से कुचक्र रचे गए इनका अपना अलग इतिहास है। बँटवारे के खतरे से सभी परिचित थे, फिर भी ब्रिटिश शासन की जैसे भी हो समाप्ति की उत्सुकता ने बँटवारा स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
१५ अगस्त के बाद जवाहरलाल जी स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री बने। तब से लेकर मृत्यु पर्यंत वे इस देश के अनन्य सेवक, नेता और भारतीय गणतंत्र के सर्वमान्य प्रधान मंत्री बने रहे। उन्हीं के नेतृत्व में भारत का संविधान भारतीय संविधान परिषद् द्वारा बनाया गया और २६ जनवरी, १९५० को भारतीय गणतंत्र की स्थापना हुई। उसके बाद सन् १९५२, १९५७ तथा १९६२ में सारे देश में बालिग मताधिकार के आधार पर निर्वाचन हुए और इन निर्वाचनों के बाद केंद्र में जो सरकार बनी पंडित जवाहरलाल जी बार बार उसके प्रधान मंत्री बनते गए। भारतीय स्वाधीनता ने देश की सारी सत्ता और शक्ति जनता के हाथों में सुपुर्द की और उसे उन मौलिक अधिकारों का अधिकारी बनाया जिनके अभाव में मनुष्य मनुष्य नहीं रह गया था।
स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद ही बँटवारे के फलस्वरूप सांप्रदायिकता की जो आग भड़की उसने देश की क्षतविक्षत कर डाला। उस विस्फोट से भारत ने अपनी अमूल्य और अपरिमित निधि उस गांधी को भी खो दिया जिसने नूतन भारत को जन्म दिया था। पर उन आघातों के बावजूद जवाहरलाल जी के नेतृत्व में देश अविचल भाव से अग्रसर होता चला गया। उन्हीं के नेतृत्व में और सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिभा से देशी रियासतों का महान् भारतीय संघ में विलय हुआ और भारत की राष्ट्रीय एकता संपन्न हुई।
स्वतंत्रोत्तर भार में जवाहरलाल के नेतृत्व ने एक दूसरे युग की सृष्टि की। एक राष्ट्र, एक पताका, एक केंद्रीय शासनपद्धति, एक भाषा और एक लोकतंत्रात्मक जीवनव्यवस्था की स्थापना का लक्ष्य लेकर उनका नेतृत्व आगे बढ़ा और इसमें उन्होंने बड़ी सीमा तक अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। पर भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता ही उसकी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर सकती थी। जवाहरलाल जी का विचार था, और स्वयं गांधी जी भी कहा करते थे कि हम भारत की स्वाधीनता चाहते हैं इसलिए कि देश की कोटि कोटि दु:खी और मूक जनता सुखी और स्वावलंबी बन सके। इतना ही नहीं, उनका लक्ष्य कदाचित् कुछ और भी था। वे भारत की स्वाधीनता शांतिमय और उचित उपायों से प्राप्त करके जगत् के संमुख समस्त सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों के हल करने के लिए एक नवीन और नैथ्तक मानवीय मार्ग की प्रतिष्ठा करना चाहते थे। जवाहरलाल जी पर इन दोनों कामों को पूरा करने का उत्तरदायित्व था।
भारत स्वतंत्र तो हुआ, पर उस समय भी वह दु:खी, त्रस्त, दीन दरिद्र, भूखा और नंगा था। अब स्वतंत्र भारत का लक्ष्य क्या हो और उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए मार्ग और साधन क्या हो? माना कि राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र कैसे चलेगा जिसमें भाषा, भेष, धर्म, जाति और समृद्धि की इतनी भिन्नता और इतने भेद विभेद मौजूद हैं? यह सारे महान् प्रश्न थे जिन्हें स्वतंत्र भारत को हल करना था। बिना राष्ट्रीय एकता के देश सशक्त नहीं हो सकता और बिना सबल हुए स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती और सबलता यदि एकता का परिणाम है तो हमारी आधुनिक सामाजिक एकता कैसे स्थापित की जाए। फिर सबसे बड़ा प्रश्न था कि राजनीतिक स्वाधीनता के साथ साथ आर्थिक तथा सामाजिक क्रांति कौन सा रूप ग्रहण करे जो ऐसा हो कि सारे नैतिक आदर्शों के अनुकूल तो हो ही, साथ साथ राष्ट्रीय आंदोलन और उसके संदर्भ की परिधि के भी प्रतिकूल न हो।
ये प्रश्न थे जिनका उत्तर १८ वर्षों में बड़ी सीमा तक जवाहरलाल जी ने दिया। उन्होंने नूतन प्रयोग किए। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की शांतिमय उपायों से, और देशी रियासतों का भी उन्मूलन हुआ शांतिमय उपायों से। फिर सामंतवादी व्यवस्था प्रदेश्, प्रदेश में समाप्त की जाने लगी, वह भी शांतिमय उपायों से। अब प्रश्न था कि आर्थिक और सामाजिक क्रांति की प्रतिक्रिया भी चरितार्थ की जाए शांतिमय उपायों से ही। लोकतंत्र की पद्धति में दमन और दलन से, डंडे और तलवार से योजनाओं का संचालन नहीं हो सकता। पर साथ ही साथ योजनाबद्ध अर्थनीति और सामाजिक नीति का संचालन करने के लिए जिस नियंत्रण की आवश्यकता है उसके लिए बलप्रयोग भी कदाचित् आवश्यक हो जाता है। किंतु यह बल प्रयोग ही न हो, फिर भी नियंत्रण और आयोजित योजना के आधार पर नए समाज की व्यवस्था हो; जो समाज लोकतंत्र की पद्धति से, लोकतंत्र का आधार बनकर स्थापित हो उसमें विषमता और विभेद शोषण और दोहन तथा वर्गप्रभुता और स्थिर स्वार्थ का लोप हो जाए। दुनिया में कहीं भी इस तरह की क्रांति लोकतांत्रिक ढंग से संपन्न नहीं हुई। योजनाओं का प्रवर्तन रूप ने किया, पर उसके पीछे वर्गवादी अधिनायकवाद हाथ में तलवार लिए खड़ा था। भारत ने उस पद्धति का परित्याग किया और आरंभ से ही उसने नैतिक पथ को ही हितकर माना। इस देश की योजनाएँ इसी आशा और विश्वास से चलीं कि भारत की भूमि में शांतिमयी शक्ति का प्रकृत निवास है, अत: हमें उसमें सफलता मिलेगी ही। देश के लिए जवाहरलाल जी के नेतृत्व में लक्ष्य स्थिर हो गया और मार्ग भी चुन लिया गया। लक्ष्य हुआ लोकतंत्र के आधार पर समाजववदी व्यवस्था की स्थापना और मार्ग हुआ लोकतंत्रात्मक पद्धति से लोकसहयोग प्राप्त करके जीवन को सबल और संपन्न बनाने के लिए योजनाओं का कार्यान्वय। देश इस लक्ष्य की ओर बढ़ चला और स्वतंत्र भारत की रूपरेखा निश्चित रूप से नए रंगें से अंकित कर दी गई।
सभी धर्मों के प्रति समान भाव से शासन की ओर से आदर व्यक्त हो, जाति धर्म के नाम पर भेद विभेद न हों और न अधिकारों का अपहरण हो, बल्कि भारत का प्रत्येक नागरिक प्रत्येक दृष्टि से स्वतंत्र, समान अधिकारों का अधिकारी और मातृभूमि की स्वतंत्रता में समान रूप से हिस्सेदार बनकर जीवनयापन करे। इसी मौलिक आधार से अनुप्राणित लोकतंत्र की व्यवस्था, जो बुनियाद बने समाजके भवन को स्थापित करने के लिए, आज भारत का लक्ष्य है और इस लक्ष्य को शांतिमय उपायों से जनता का सहयोग प्राप्त करके योजनाओं को सफल बनाकर सिद्ध करना राजनीतिक प्रयास है।
इसके साथ साथ भारत उन आदर्शों का पुजारी है जो अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मानव बंधुत्व, मानव सहयोग और राष्ट्रों के परस्पर सद्भाव और सहयोग में विश्वास करते हैं। भारत के लोग समझते हैं कि मानव की प्रगति पशुतापूर्ण हिंसा, रक्तपात और युद्ध के द्वारा नहीं, प्रत्युत इनसानियत के आदर्शों को सामने रखकर परस्पर सहयोग और सद्भाव के द्वारा ही हो सकती है। इसी दृष्टि से जवाहरलाल जी ने मार्च १९४७ में में समस्त एशियाई देशों के एक सम्मेलन का आयोजन किया। सन् १९५४ में उन्होंने राष्ट्रों के सहअस्तित्व के लिए पंचशील के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया और इन्हीं पंचशील और सहअस्तित्व के सिद्धांतों से प्रेरित होकर १९५५ में प्रसिद्ध बांदुंग संमेलन हुआ।
भारत की मान्यता है कि वैज्ञानिक शक्ति और ज्ञान का प्रयोजन जगत् के कल्याण के लिए हैं, उसके विनाश का साधन वे न बनाएँ जाएँ। इसी से भारत विनाशकारी शस्त्रास्त्रों के परित्याग का हिमायती और जगत् से युद्ध की विभीषिका को सदा के लिए मिटा देने का समर्थन है। दुनिया के किसी राष्ट्र से भारत का द्वेष नहीं। परस्पर सौहार्द और सहयोग, राष्ट्रों द्वारा परस्पर की स्वतंत्रता और अधिकारों का संमान, जगत् में शांति बनाए रखने का एक मात्र मार्ग हैं। इसी कारण वह किसी गुट विशेष में भी सम्मिलित नहीं होता। इस प्रकार अंतराष्ट्रिय राजनीति में तटस्थ राष्ट्रों का एक तीसरा वर्ग नेहरू की प्रेरणा से बना जिसने अंतराष्ट्रिय गुटबंदियों से दूर रहकर तटस्थ ढंग से समस्याओं पर न्याय और कल्याण की दृष्टि से विचार और निर्णय करने की नीति अपनाई। १९६१ में बेलग्रेड के तटस्थ राष्ट्रों के शिखर सम्मेलन में नेहरू जी की इस नीति की पुष्टि की। जवाहरलाल जी पर गत १८ वर्षों में इसी आदर्श की व्यंजना का भार पड़ा था जिसे व्यक्त करने का प्रयास उन्होंने अपने अंतिम श्वास तक किया। इस महान् भारतीय नेता का निधन २७ मई, १९६४ को दिन में दो बजे हुआ जिसपर सारा संसार रो पड़ा। उनके तिरोधान से भारत की तो अपूरणीय क्षति हुई ही जिसे आघात से देश का जन जन कराह उठा।
( कमलापति त्रिपाठी)