नेल्सन (हीरेशियो) इस महान् ब्रिटिश एडमिरल का जन्म २९ सितंबर १७५८ को नार्फोस में एक पादरी के घर बर्नहमथॉर्प में हुआ था। इनके पिता एडमंड नेल्सन पैरिश (parish) के रेक्टर (rector) थे और उनकी माता कैथेरीन सकलिंग सर रॉबर्ट वाल्पोल के परिवार की थी। ९ वर्ष की ही अवस्था में इनक माता का देहावसान हो गया था। निदान रुग्ण एवं दुर्बल बालक नेल्सन अपने मामा कैप्टन सकलिंग के साथ ही रहा। कैप्टन सकलिंग नौसेना के उच्चपद पर थे। उनके संपर्क से नेल्सन को कई नौ सैनिक एवं व्यापारिक जहाजों पर कार्य करने पर अनुभव बचपन में ही हो गया और शीघ्र ही उन्हें छोटे छोटे जहाजों के चालक की योग्यता प्राप्त हो गई। सन् १७७२ के अप्रैल एवं अक्टूबर के बीच उन्होंने कैप्टन फिप्पस के नेतृत्व में आर्कटिक सागर में प्रसिद्ध अन्वेषणयात्रा की थी। इसके बाद ही ये ईस्ट इंडीज भेजे गए।

इन्होंने ९ अप्रैल १७७७ को लेफ्टीनेंट के पद से संबंधित परीक्षा उतीर्ण की और दूसरे ही दिन इन्हें उसपद पर नियुक्त कर दिया गया पर शीघ्र ही उन्होंने और उन्नति की तथा २० वर्ष की अल्पावस्था में ही कैप्टन का पद प्राप्त कर लिया। १७८० में इन्हें सैन जुआन डि निकारागुआ भेजा गया। वहाँ के गंभीर रूप से बीमार हुए और घर लौट आए। फिर इनकी नियुक्ति एक युद्धपोत पर हुई। इसके बाद उत्तरी सागर, न्यूफाउंडलैंड एवं उत्तरी अमरीका इनके क्रिया क्षेत्र रहे। इस समय इनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। क्यूबेक से वेस्ट इंडीज गए और वहाँ इनका संपर्क एडमिरल लार्ड हुड से हुआ जिन्होंने इनका परिचय क्लैरेंस के ड्यूक प्रिंस विलियम से कराया। इनके जलयुद्ध संबंधी वार्तालाप का राजकुमार पर बहुत प्रभाव पड़ा।

इंगलैंड एवं फ्रांस के युद्ध के समय ३० नवंबर १७९३ में नेल्सन की नियुक्ति 'सेगामेननन' नामक युद्धपोत के कैप्टन के पद पर हुई। तबसे कुछ महीनों को छोड़कर लगातार सात वर्षों तक ये नौसैनिक सेवा में रहे। ये वर्ष इनके जीवन के सबसे अधिक व्यस्त एवं महत्वपूर्ण थे। १७९४ में कॉल्वी में नौसैनिक बेड़े का नेतृत्व करते समय इनकी दाहिनी आँख पर चोट आई और जुलाई १७९७ में सान्ताक्रुज डि टेनेरिफ पर असफल आक्रमण के समय दाहिनी केहुनी पर गोली लगी और इस भुजा को कटवा देना पड़ा। भूमध्य सागर में कैप्टन एवं कमोडोर के रूप में इन्होंने हुड, हाथम एवं जर्विस के नेतृत्व में कार्य किया।

जब इंग्लैंड को सूचना मिली कि नैपोलियन 'टुलन' में एक बड़ा भारी समुद्री बेड़ा तैयार कर रहा है तो शीघ्र ही जिब्राल्टर से नेल्सन को वैनगार्ड नामक जहाज पर फ्रांसिसी बेड़े की टोह लगाने एवं उसका पीछा करने के लिए २ मई १७९८ को भेजा गया। उनकी यह यात्रा संकटापन्न थी। अपने उद्देश्य की पूर्ति में उन्हें सफलता नहीं मिली। एक बार फिर प्रयत्न करने पर उन्हें फ्रांसीसी बेड़ा नील नदी के मुहाने के पास मिला। थोड़ी ही सैनिक शक्ति के होते हुए भी नेल्सन ने अदम्य उत्साह से चढ़ाई की।

पहली अगस्त १७९८ को भयंकर युद्ध हुआ, फ्रांसीसी युद्धपोत ओरिएंट की धज्ज़ियाँ उड़ा दी गई और फ्रांसीसियों की गहरी क्षति हुई। नेल्सन के मस्तक पर भी एक गोली लगी थी किन्तु वह जरा भी विचलित न हुए। इस विजय ने नेल्सन की ख्याति बहुत अधिक बढ़ा दी। अनेक बधाइयाँ मिलीं और इन्हें बैरन की उपाधि से विभुषित किया गया। इसके पश्चात् नेल्सन ने नेपुल्स और सिसली को फ्रांसीसियों से मुक्त कराया। इस पराक्रम के फलस्वरूप उन्हें ब्राँते का ड्यूक बनाया गया।

ब्रिटेन की नौसेनिक प्रतिष्ठा को समाप्त करने के उद्देश्य से रूस, स्वीडेन और डेनमार्क ने एक संगठन किया था। इंगलैड ने तुरंत अपना बेड़ा इस योजना को ध्वस्त करने के लिए भेजा। सर हाइड पार्कर इस बेड़े के एडमिरल एवं नेल्सन बाहस-एडमिरल नियुक्त किए गए। लोगों को आश्चर्य था कि नेल्सन ऐसा अनुभवी एवं वीर नाविक एडमिरल क्यों नहीं बनाया गया। कोपेनहेगेन का युद्ध भी नेल्सन ने अपनी बुद्धिमत्ता से जीता। इस शौर्य के लिए नेल्सन को वाईकांट बनाया गया।

भूमध्यसागर में पुन: युद्ध छिड़ा। नेल्सन को प्रधान सेनापति बना कर भेजा गया। सन् १८०४ में २१ अक्तूबर को ट्रफैल्गर की जब विजय निकट थी तब नेल्सन की रीढ़ में एक गोली लगी। वे घायल होकर गिर पड़े। भयंकर पीड़ा में वह तब तक जीवित रहे जब तक उन्होंने विजय का समाचार सुन नहीं लिया। फ्लैग कैप्टन टामस हार्डी द्वारा विजय का समाचार सुनते ही वह विह्नल होकर बोल उठे - 'अब मैं संतुष्ट हूँ। ईश्वर को अनेक धन्यवाद है कि उसने मुझे अपना कर्त्तव्य पूरा करने दिया'।

इस महान् नाविक तथा अद्वितीय योद्धा की देशसेवाएँ अप्रतिम हैं। अंग्रेज जाति उनके युद्धकौशल पर आजतक गर्व करती है। नेल्सन को कोई संतान नहीं थी। इसी लिऐ उनके भाई विलियम नेल्सन को ट्राफल्गर की विजय के उपलक्ष में ट्रफैल्गर अर्ल नेल्सन बनाया गया।

(हनुमानप्रसाद शर्मा)