नेमाटोडा (Nematoda) गोलकृमियों का संघ है। पहले यह नेमथेलमिंथीज़ (Nemathelminthes) संघ का एक वर्ग था, किंतु अब यह एक स्वतंत्र संघ मान लिया गया है। इस संघ के कृमि स्वाश्रय या पराश्रय जीव होते हैं। इन कृमियों की लंबाई चौथाई मिलीमीटर से एक मीटर तक की होती है। जल और मिट्टी में रहने वाले स्वाश्रय जीव की जातियां साधारणतया लंबाई में छोटी होती हैं। परजीव कृमि लंबाई में बड़े होते हैं। इनका सिर और पूँछ गावदुम, शरीर खंड रहित तथा उपांग संधिरहित होते हैं। इन कृमियों पर उपचर्म का आवरण होता है, जिसमें कीटों के काइटिन (chitin) के कुछ गुण होते हैं। इन पर रोमाभ नहीं होते। शरीर गुहा तरलता से भरी रहती है और इस द्रव में नली के आकार का अंग तैरता रहता है। सिर के अंतिम भाग पर मुँह हाता है, जिसमें ग्रसिका (oesophagus) होती है। ग्रसिका से नलिकाकार आंत्र आरंभ होकर अधर पृष्ठ में स्थित मलाशय में समाप्त होती है।
इसके नर और मादा अलग अलग होते हैं। मादा कृमि में दो जननेद्रियाँ होती हैं। दो सूत्रकार, पर्याप्त कुडंलित अंडाशय जुड़वाँ गर्भाशयों में जाते हैं। ये योनि में से होते हुए अधर मध्य रेखा पर स्थित एक बिंदु पर समाप्त होते हैं। स्वतंत्र रहने वाले नेमाटोडा केवल कुछ ही बच्चे पैदा करते हैं। एक बच्चा एक बार में होता है। जैसे जैसे परजीविता बढ़ती जाती है अंडों की संख्या भी बढ़जी जाती है। नर कृमि में जननेंद्रिय प्राय: एक होती है, जिसमें सूत्राकार वृषण नलिका एवं आशय (vesicle) होता है। ये दोनों मलाशय में खुलते हैं। नर की पहचान उसकी जोड़ा मैथुन कंटिका (copulatory spicules) हैं। अधिकांशत: नेमाटोडा अंडज होते हैं, पर कोई कोई जरायुज भी होते हैं। इनके अंडे प्रतिकूल दशाओं में रहने के योग्य होते हैं। उपचर्म के बनने से लार्वा की वृद्धि में व्यवधान होता है और यह व्यवधान प्राय: चार बार होता है, अर्थात् अंडों को वयस्क बनने में लार्वा की चार अवस्थाएँ पार करनी पड़ती हैं।
नेमाटोडा मुख्यत: परजीवी कृमि समझे जाते हैं। इनके १,००० वंश और लगभग ५,००० जातियां ज्ञात हैं, जिनमें से लगभग आधे से कम कशेरुदंडी प्राणियों के परजीवी हैं। केवल ५० जातियाँ बहुत दुर्लभ हैं। फाइलेरिया और गिनीवर्म के अतिरिक्त मनुष्य के अन्य परजीवियों का जीवनचक्र मनुष्य में ही पूरा होता है। नेमाटोडा की कुछ जातियां विश्व के सभी भागों में पाई जाती हैं, जैसे ऐल्कारिस लंबरिकॉयड (Ascaris lumbericoides), ट्रिक्यूरिस (Trichuris), सूत्रकृमि (Thread Worm) इत्यादि। नेमाटोडा की सभी जातियों के नाश के लिए कोई एकमात्र ओषधि का आविष्कार नहीं हुआ है। कुछ ओषधियाँ जो कृमियों के लिए हानिप्रद होती है, वे परपोषी के लिए भी विषाक्त हो सकती हैं। अत: इन कृमियों से पीड़ित रोगी की चिकित्सा कुशल चिकित्सक द्वारा ही होनी चाहिए।
मनुष्य एवं जंतुओं के परजीवी कृमि परपोषी के शरीर में संबर्धन नहीं करते। इनके अंडे या लार्वा परपोषी के शरीर से बाहर आते हैं और परिवर्धन की विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करने के बाद परपोषी के शरीर में पुन: प्रवेश करते हैं। उपर्युक्त वास्तविकता के कारण परपोषी के शरीर के बाहर, कृमि के विकास की विभिन्न अवस्थाओं के समय ही, इन कृमियों के नाश के लिए निरोधक उपाय निर्भर करता है। पराश्रयी नेमाटोडा परपोषी के संबध में निश्चितता व्यक्त करते हैं। मनुष्य एवं सुअर दोनों ही एस्कारिस के परपोषी है। यद्यपि इन दोनों में पाए जाने वाले ऐस्कारिस की आकृति में अंतर नहीं किया जा सकता, किंतु यदि दोनों के एस्कारिस में अदलबदल कर दिया जाए तो इनका अपूर्ण परिवर्धन होता है। पौधों के पराश्रयी नेमाटोडा पर प्रयोगात्मक अध्ययन में देखा गया है कि भोजन के विशेषीकरण से नेमाटोडा की नवीन जातियों का जन्म होता है। उपयुक्त नेमाटोडा का जीवनचक्र, जिनका परपोषी केवल एक होता है, सरल होता है।
जिन नेमाटाडा के परपोषी एक से अधिक होते हैं, उनका जीवनचक्र एवं परपोषी निश्चितता अधिक जटिल होती है। भारत और अफ्रीका का गिनीवर्म मनुष्य की त्वचा के नीचे रहता है और इसकी लंबाई ४ फुट तक होती है। जब त्वचा जल में डूबती है तब इसका लार्वा बहिर्वेधन करता है। यह लार्वा उस समय तक जल में तैरता रहता है जब तक कि जल निवासी कोपेपॉड (Copepod) क्रस्टेशियन (crustacean) इसे निगल नहीं जाता। अब कृमि उस समय तक क्रस्टेशियन में रहता है जब तक पानी के द्वारा क्रस्टेशियन मनुष्य में नहीं पहुँच जाता। इसकी मादा कृमि एक वर्ष में वयस्क होती है। पानी को छानकर उपयोग में लाने से तथा रोगी को पानी से दूर रखने पर, रोग के फैलाव को रोका जा सकता है। इसी प्रकार फाइलेरिया के कृमि को भी मध्यवर्ती परपोषी की आवश्यकता पड़ती है।
पौधों के परजीवी नेमाटोडा मिट्टी में प्रसुप्त रहते हैं। और शीत ऋतु को अंडे की अवस्था में बिता देते हैं। वसंत ऋतु में अंडे फूटते हैं और नऐ परपोषी को प्रभावित करते हैं। अंडे मृत मादा के शरीर की पुटी (cyst) में पाँच से दस वर्ष तक प्रसुप्त अवस्था में उस समय तक रह सकते हैं जब तक कि इन्हें उपयुक्त परपोषी न मिल जाए, जैसे आलू का एच. रॉस्टौचेन्सिस (H. rostochensis)। पौधों के कुछ परजीवियों के लार्वा अपने विकास की चौथी अवस्था में प्रसुप्त रह सकते हैं, जैसे गेहूँ का ईलवर्म (eelworm)।
सं.ग्रं. - एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, दी एनसाइक्लोपीडिया अमरीकाना, चैंबर्स एनसाइक्लोपीडिया।
(अजितनारायण मेहरोत्रा)