नेपाली भाषाएँ और साहित्य नेपाल में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं, जैसे किराँती, गुरुंग, तामंग, मगर, नेवारी, गोरखाली आदि। काठमांडो उपत्यका में सदा से बसी हुई नेवार जाति, जो प्रागैतिहासिक गंधर्वों और प्राचीन युग के लिच्छवियों की आधुनिक प्रतिनिधि मानी जा सकती है, अपनी भाषा को 'नेपाल भाषा' कहती रही है जिसे बोलनेबालों की संख्या उपत्यका में लगभग ६५ प्रतिशत है। नेपाली हिंदी तथा अंग्रेजी भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों के ही समान नेवारी भाषा के दैनिक पत्र का भी प्रकाशन होता है, तथापि आज नेपाल की सर्वमान्य राष्ट्रभाषा 'नेपाली' ही है जिसे पहले परवतिया 'गोरखाली' या खस-कुरा (खस सं. कश्यप; कुराउ सं. काकली) भी कहते थे।
नेवारी भाषा आग्नेयदेशीय 'तिब्बत वर्मी परिवार की भाषा मानी जाती है - एक स्वरीय' शब्दों के अनुशासन के कारण। किंतु इस भाषा पर संस्कृत व्याकरण और शब्दगौरव का इतना प्रशस्त प्रभाव है कि नेवारी भाषा के प्रथम शब्दकोश और व्याकरण 'पंचतंत्र' के नेवारी अनुवाद के आधार पर ही रचे जा सके थे। संस्कृत के ही समान नेवारी में भी विभक्तियों के निश्चित प्रत्यय हैं जैसे चतुर्थी के लिए 'यात', षष्ठी के लिए 'यागु', सप्तमी के लिए 'या' प्रत्यय इत्यादि। संस्कृत शब्दों के नेवारी तद्भव बना लेने की इस भाषा में अप्रतिम क्षमता है। कभी कभी एक ही मूल शब्द के कई भिन्न रूप बन जाते हैं जैसे 'बिहार' शब्द के तीन तद्भव नेवारी में मिलते हैं - 'भल' (सं. गोविशारउ ने. गाभल), 'भर' (सं. उच्च विहारउ ने. चौभर) और 'बहाल' (सं. ओअम् विहारउ ने. मूबहल)। 'बुद्ध' शब्द के अरबी 'बौद', फारसी 'बुत' आदि तद्भवों के समान 'महान बुद्ध' मंदिर का काठमांडो में नेवार द्वारा 'माबुत्त' संबोधन होता है। नेवारी भाषा में एक बड़ी विशेषता यह है कि वहाँ कई कोटि के संख्यावाचक शब्द है। चिपटी वस्तुओं (पुस्तक, टिन की चद्दरें आदि) के लिए एक प्रकार के संख्यावाचक शब्द हैं, गोल वस्तुओं (फल आदि) के लिए दूसरे प्रकार के हैं, और मनुष्यों, पशुओं (जीवितों) के लिए तीसरी कोटि के संख्यावाचक शब्द है। वनारस-उत्तर कोसल में जनसाधारण की बोली में अनेक नेवारी शब्द घुल मिल गए हैं जिनकी व्युत्पत्ति बिना नेवारी भाषा जाने ज्ञात नहीं हो सकती जैसे 'बिजे' ('विजे भइल', भोजन तैयार है के अर्थ में), झांसा (झांसा देना), आला (चीनी का लड्डू), 'दिसा' (दिसा जाना), 'व्यालू' (शाम का भोजन) 'चिल्ला' (चिल्ला जाड़ा दिन चालीस बाला) आदि। निम्नांकित दो नेवारी वाक्यों से इस भाषा की गठन का कुछ आभास मिल सकेगा-
(एक) नेवारी : 'झांसा झांसा दिसां'; हिंदी- आइऐ आइऐ बैठिऐ। सामान्यत: नेवारी में 'आओ बैठो' के लिए 'वादा फेतो' कहेंगे। पर विशेष सम्मान के साथ झांसा का प्रयोग होने से शायद 'झांसा देना' प्रयेग में झांसा का विपरीत अर्थ हो जाता है।
(दो) नेवारी - 'बसया दुने चुरठ त्वना दी मते' - हिंदी : बसका (बसया) ऊपर बैठ (दुने) सिगरेट खींचना या कश लेना ('चुरठ त्वना' बंगला का हुक्का टान्ना के समान) जीमत (दीमते)। इसी को नेपाली में 'बस मित्र, धूमपान नगर्नु होला' कहते हैं।
हिमवत खंड (नेपाल) में पहले किराँत जाति का सर्वाधिक प्रभुत्व था। किरातों के बाद लिच्छवियों का प्रभुत्व बढ़ा। ऊपर हिमवत खंड का उत्तर पश्चिमी भाग, जो आज नेपाल का गोरखा प्रदेश कहा जाता है, बहुत दिनों तक आर्यों के प्रभाव से अछूता न रह सका। पहले उस भूमिभाग में 'नाग' जाति के निवास के उपरांत पंजाब और कांगड़ा होती हुई ऋग्वेदीय आर्यों की एक शाखा ने धीरे धीरे इसमें प्रवेश किया और वहाँ के कश्यप गोत्रीय मूल निवासियों के कारण वह प्रदेश खस देश और वहाँ की भाषा खस भाषा या 'खसकुरा' (खासकुरा नहीं जैसा कि अंग्रेज लेखकों ने लिखा है) चाहे नामांकित हुई हो, वहाँ हिंद आर्यभाषा की ही एक शाखा का प्रसार और प्रभुत्व हुआ। खस शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में कई धारणाएँ हैं। कोबेरी भाषा भाषी (पामीर के निकटवर्ती) अपने को 'कोश' कहते हैं। चित्राल और कुभा (काबुल) नदियों के बीच वहने वाली एक नदी का भी 'काश' नाम है और उस नदी के काँठे का भूमिभाग 'कास्कर' (कासगर?) कहलाता है। काश्मीर में वस्तुत: शब्द कस्मेर है जो 'कश्यमेरु' का अपभ्रंश है; (अजमेर, जैसलमेर, आमेर आदि स्थानों का 'मेर' शब्द भी मेरु का ही अपभ्रंश है। ऊजड् पहाड़ी पठार को मेर (मेरु) या अंग्रेजी में 'ग्दृदृद्धड्ढ' कहते हैं। कश्यप का अपभ्रंश कस का खस है) कश्यपवंशीय कस् या खस् का निवास इस शब्द से ही प्रमाणि है। कुल्लू और शिमला में 'राईखस' और 'खस राजपूत' पर्याप्त संख्या में पाए जाते हैं। टेहरी और गढ़वाल में खस ब्राह्मण भी हैं। एक प्रकार से कूमायूँ से नेपाल तक खसों का निवास पाया जाता है।
वास्तव में किन्नर, यक्ष और गंधर्वो के बाद हिमालय पर कश्यप वंश के लोगों का ही अधिकार हुआ था। कश (कष्ट देना) से ही खश या खस शब्द की व्युत्पत्ति है। इस वर्ग के लोग बहुत हिंसक होने के ही कारण कश्यप कहलाए थे। कालांतर में यह भूमिभाग ही खश प्रदेश कहलाने लगा था और यहाँ आकर बसने पर देववंशी आर्य भी खस ही कहलाने लगे। अत: नेपाल में गोरखा प्रदेश में बसने के कारण गोरखा कहे जानेवाले क्षत्रिय और ब्राह्मण कश्यप जाति के वंशज नहीं मान जाने चाहिए। इनमें जिनका गोत्र कश्यप हो वे चाहे हों, गोरखा प्रदेश के क्षत्रियों में बिस्ट, वैस, बस्नेत, शाह आदि तथा ब्राह्मणों में उप्रेती, पांडेय आचार्य आदि नि:संदेह शुद्ध देववंशी ॠग्वेदीय आर्यों के वंशज हैं। और खसकुरा, गोरखाली, 'परवतिया' या नेपाली इन्हीं देववंशियों की मूलभाषा का वर्तमान रूप है। यह हिंद आर्यभाषा की ही एक शाखा है। हिंद आर्यभाषा की पहली शाखा में सिंधी, बिहारी, असमी, मराठी, ओड़िया और बंगला भाषाओं की गणना है। दूसरी शाखा में पूर्वी हिंदी भाषाओं की, तीसरी शाखा में पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, पश्चिमी हिंदी, पहाड़ी और नेपाली की गणना है। नि:संदेह आधुनिक नेपाली में प्रजाबी, गुजराती, अवधी, राजस्थानी (ब्रजबोली) की काफी झलक मिलती है। 'है' के लिए 'छ' 'छु' 'छन्' क्रिया का प्रयोग गुजराती की समानता दर्शाता है। खड़े रहने को नेपाली में भी 'उभी रहनु' कहते हैं। आपका, आपकी के लिए गुजराती में 'पोतानी' शब्द है। नेपाली का 'तपाई' शब्द पोतानी गुजराती का ही अपभ्रंश है।
'तली' नीचे, माथी (ऊपर और लेख का शीर्षक भी) राजस्थानी की समानता दिखलाता है। छाला (चमड़ा), बहुवचन के लिए 'हरू' शब्द का प्रयोग (नाहीहरूउ नारियाँ; बालकहरू लड़के) अवधी के 'हरे' (रामअवध हरे आवत रहे हैं) शब्द नेपाली में बहुत हैं जा भोजपुरी की झलक देते हैं जैसे 'विरामी' (बीमारी), 'विर्सना' (बिसरना), 'बेग्ला' (विलग), बेलुकी (विकालीउ शाम), 'निम्ती' (निमित्त) इत्यादि। पहाड़ी भाषाओं के ही समान नेपाली में भी अकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ भी ले (ने) शब्द का प्रयोग होता है। 'ले' का अर्थ से भी होता है-
साथी! खोलत झ्याल आलु बखड़ा हॉगा हँसाई फुल्यो! केवल प्रथम पंक्ति (हे मित्र, खोल दो खिड़की (और देखो) आलू बुखारा डालियों में (गर्व से) फूल फूल कर हँस रहा है।)
मैं कमरे में गया, को नेपाली में कहेंगे मइले कोठामा गए। (मंदा (अपेक्षा), देखि (से), सम्म (तक), सोही सोई, वही) बाहैक (अतिरिक्त) बिस्तार (धीरे), छीटो (जल्दी), ठूलो बड़ी, आदि लगभग १०० शब्दों की जानकारी हो जाने से हिंदी भाषी के लिए नेपाली विदेशी भाषा नहीं रह जाती। लिपि नेपाली की नागरी है ही। वस्तुत: बंगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी की अपेक्षा नेपाली हिंदी के अधिक निकट है। नेपाली में कुछ ऐसे शब्द हैं जो किसी अन्य हिंदी आर्यभाषा में नहीं हैं। उदाहरणार्थ हुलाक (डाक खाना, से वलाहक का अपभ्रंश), पसल (दूकान, सं. पण्यशाल का अपभ्रंश), बिफर (चेचक, सं. विस्फोटक का अपभ्रंश)। नेपाली में फारसी के भी कुछ शब्द हिंदी में प्रचलित उन्हीं शब्दों के नितांत भिन्न अर्थ में मिलते हैं, जैसे तर्जुमा (अनुवाद नहीं, मौलिक मस्विदा के अर्थ में), बाजाफ्ता (कानूनी नहीं गैरकानूनी के अर्थ में) राजीनामा समझौता नहीं त्यागपत्र के अर्थ में जैसे मराठी में, इत्यादि।
पहले नेपाली भाषा पर संस्कृत का बहुत प्रभाव था। इधर कुछ दिनों से राष्ट्रीयता के प्रभाव से झर्रोवाद का नारा भाषा के संबंध में उठ खड़ा हुआ है। इस वाद के समर्थक प्रो. तारानाथ शर्मा अपने को शर्मा न लिखकर सर्मा लिखते हैं और प्रोफेसर बालकृष्ण पोरवरेल 'पोस्तक' लिखते हैं। किंतु नेपाली भाषा विकास में इस वाद से जो अनिष्ट संभाव्य है उसे वहाँ के सुधी जन जानते हैं।
साहित्य - नेपाली साहित्य (गद्य तथा पद्य) दोनों ही का आरंभ अठारहवीं शती के मध्य से माना जाता है। प्रथम कवि के रूप में उदयानंद अर्ज्याल का और प्रथम गद्य लेखक के रूप में जोसमनी परंपरा के प्रसिद्ध संत शशिधर (जन्म १८०४ वि., वैराग्यांबर गंथ के प्रणेता) का नाम लिया जाता है। भानुभक्त (जन्म १८७१ वि.) नेपाली के तुलसी दास माने जाते हैं। इनकी रामायण अध्यात्मरामायण का अनुवाद है। इनके पूर्व इंदिरा, विद्यारण्य केसरी, वसंतशर्मा, यदुनाथ पोखरेल, पतंजलि गजुर्याल आदि कवि हो चुके थे। नेपाली भाषा को शक्ति एवं आत्मबोध भानुभक्त द्वारा ही मिला। भानुभक्त के पश्चात् पहले खेवे के सशक्त कवियों में मोतीराम भट्ट का नाम अमर है। ये नेपाली के भारतेंदु कहे जा सकते हैं। इनकी लेखनी के माध्यम से बंगला और हिंदी का प्रभाव नेपाली साहित्य पर पड़ा और नेपाली भाषा और साहित्य दोनों ही में व्यापकता का समावेश हुआ। भानुभक्त ने अपनी रामायण की रचना में वर्णिक शब्दों का प्रयोग किया और यह परंपरा नेपाल में इतनी पुष्ट हुई कि श्री माधव प्रसाद घिमिरे जैसे स्वच्छंदतावादी (रोमांटिक) कवि भी अपनी उत्कृष्टतम कविताएँ वर्णिक छंद में ही लिख डालते हैं।
भानुभक्त की नेपाली भाषा का स्वल्प परिचय उनकी रामायण के एक निम्नांकित छंद से मिल सकता है-
अत्रीका आश्रमेमा बसि रघुपतिले प्रेमलोदिन् बिताई।
दोस्त्रा दिन्मा सवेरे उठिक न बनमा जान मन्सुब्चिताई।।
अत्रीजीका नजिक्मा गइकन् अब ता जान्छु बौदा म पाऊँ।
रास्ता यो जाति होला भनिकन कहन्या एक् अगूवा म पाउँ।।
द्वितीय महायुद्ध के बाद भारत के स्वातंत्र्य आंदोलन के प्रभाव से नेपाली साहित्य में भी आधुनिकता का समावेश हुआ। किंतु राणाशाही समाप्त होने पर ही नेपाली साहित्य में सच्ची आधुनिकता का प्रवेश हुआ। राणाशाही का अंत होने के पूर्व उससे लोहा लेने वाले और उसके बाद नयी चेतना का प्रतिनिधित्व करनेवाले साहित्यकारां में लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा तथा मास्टर हृदय चंद्र सिंह प्रधान के अतिरिक्त नेपाली साहित्य के भीष्मपितामह कवि शिरोमणि लेखनाथ पौडेल, पंडितराज सोमनाथ सिग्देल और पंडित धरणीधर कोइराला के अतिरिक्त बालकृष्ण 'सम', भवानी भिक्षु, सिद्धिचरण श्रेष्ठ, 'केदारमान' व्यथित, भीमनिधि तिवारी, माधव प्रसाद धिमिरे, प्रेमराजेश्वरी थापा, विजयबहादुर मल्ल, ऋषभदेव शास्त्री आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। बालकृष्ण सम के संबंध में वर्ल्डमार्क इंसाइक्लोपीडिया ऑव नशंस (हार्पर ऐंड ब्रदर्स, न्यूयार्क) में सम को नेपाली का 'शेक्सपियर' कहा गया है। सर्वश्रेष्ठ नेपाली नाटककार होने के साथ साथ इन्होंने 'चीसो चुलो' (ठंढा चूल्हा) महाकाव्य की भी रचना की है। सिद्धिचरण श्रेष्ठ की कविता में सर्वप्रथम स्वच्छंदतावादी काव्य का समारंभ हुआ है। 'वोखलढुंगा' शीर्षक इनकी कविता अमर है। वर्तमान साहित्यकारों में भवानी भिक्षु बहुमुखी प्रतिभा संपंन्न स्त्रष्टा हैं। आपने काव्य में अस्तित्ववाद और समाजवाद के स्वर मुखर हैं। 'मुहुचा' शीर्षक कविता इसका प्रमाण है। आप अत्यंत उच्चकोटि के कहानीकार भी है। ऐंद्रिकता से परे आध्यात्मिक स्तर पर मानव प्रेम का उदात्त स्वरूप क्या हो सकता है, इसे जानने के लिए इनकी प्रसिद्ध कहानी 'मैआं साहब', और 'त्यो फेरि फर्कला', पठनीय हैं। लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा ने माइकेल मधुसूदन दत्त के 'मेघनाथ वध' महाकाव्य के ढंग के सुलोचना महाकाव्य की रचना कुछ ही दिनों में कर डाली थी।
इसमें संदेह नहीं कि राणा शाही के दिनों में उससे संघर्ष करने वाले कवि, कहानीकार और उपन्यासलेखक प्राय: अन्योक्ति का सहारा लेते थे, और कभी आशा और घोर निराशाजनक परिस्थितियों के प्रभाव से उनके काव्य में छायावाद, प्रतीक और कभी कभी नैराश्यवाद की छाया पड़ती रहती थी। फिर भी नियतिवाद और घोर निराशावाद से नेपाली काव्य सदा ही मुक्त रहा। वास्तव में हिमवत खंड (नेपाल) ही प्रकृति के हाथों मिट्टी पत्थर द्वारा लिखा हुआ एक महाकाव्य है। इसके उर्वर लेक (पहाड़ ऊपर खेत), खौला (नद) हरीयो लंगल, जुनीली रात, आदि स्थायी आहलाद एवं मुक्ति के शाश्वत साधन हैं। भारत के ही समान नेपाल भी कभी प्रमुखत: कृषिकार्य प्रधान देश है। नेपाल में गर्मी तथा जाड़ों की रात में आकाश बहुत ही आकर्षक रहता है। दिन में सदा ही यहाँ सूर्य की महिमा बिखरी रहती है। यही कारण है कि नेपाल के राष्ट्रीय ध्वज के ऊपर चंद्र और उनके नीचे सूर्य की छाप अंकित हैं। कुल मिला कर नेपाल के जड़ चेतन वातावरण में एक निश्चलता, निश्छलता, संगीत, संतोष और आह्लाद की सुवासित गंध व्याप्त रहती है। यही कारण है कि वहाँ की कला और साहित्य में आशा, आस्था, प्रेम की त्यागमयी अनुभूति, और पुरुषार्थ तथा जीवन के प्रति आह्लाद और संगीत की ध्वनि मुखरित है। यद्यपि काव्य ही नहीं, नाटक, उपन्यास, कहानी, समीक्षा और निबंध आदि सभी विधाओं में नेपाली साहित्य पर्याप्त मात्रा में संपन्न है, तथापि यह कहना अत्युक्ति न होगी कि नेपाली में आज भी कविताएँ सर्वाधिक है।
नेपाली साहित्य में भी नाटकों का आरंभ संस्कृत के नाटकों के अनुवाद से हुआ। उन दिनों अनुवादक और लेखक ही प्राय: अभिनेता और प्रबंधक भी होते थे। उस समय के नाटककारों में आशुकवि शंभु प्रसाद तथा केसर शमशेर, और जीवेश्वर रिमाल, उस्ताद झुपकलाल मिश्र तथा वीरेंद्र केसरी अर्ज्याल के नाम प्रमुख हैं। इसके बाद पौराणिक कथानकों के आधार पर मौलिक नाटकों की रचना में लेखनाथ और उनके पश्चात बालकृष्ण सम और भीमनिधि तिवारी का नाम उल्लेखनीय है। लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा कृत सावित्री सत्यवान, रुद्रराज पांडेय का 'प्रेम', हृदय चंद्र सिंह प्रधन का 'छेउ लागेर' (एकांकी संग्रह), श्यामदास वैष्णव का 'चेतना' 'पसल', 'फुटैको बांध' आदि बहुत प्रसित्र नाटक हैं। नेपाली साहित्य में सर्वप्रथम मौलिक उपन्यास 'सुमती' (विष्णुचरण का लिखा) सन् १९३४ में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद पंडित रुद्रराज पांडेय के तीन मौलिक उपन्यास 'रूपवती' 'प्रायश्चित्' और 'चंपाकली' प्रकाशित हुए। हृदयसिंह प्रधान ने उपन्यास के क्षेत्र में जीवन की गहन समस्याओं की स्थापना की और उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'स्वास्नी मान्छे' में आधुनिक उपन्यास के सभी लक्षण पाए जाते हैं। काव्य के बाद नेपाली साहित्य में परिमाण की दृष्टि से कहानी का ही स्थान है। कृष्ण बममल से आरँभ हो नेपाली कहानी साहित्य सम और भवानी भिक्षु तथा भीमनिधि तिवारी, हृदय चंद्र सिंह प्रधान और विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला, विजयबहादुर मल की लेखनी द्वारा उत्फुल्ल यौवन की स्थिति में पहुँच गया। कृष्ण वममल की कहानियों में गहरी मार्मिकता एवं संवेदनशीलता पाई जाती है। विजयबहादुर मल ने नारीजीवन का मनोवैज्ञानिक चित्रण उपस्थित किया है और हृदय चंद्र सिंह प्रधान ने सामाजिक वैषम्य के भीतर करुणा तथा वेदना की झाँकी प्रस्तुत की है। नेपाली का कथासाहित्य आश्वस्त एवं ऊर्ध्वमुखी है।
निबंध तथा समीक्षा के क्षेत्र में भी बहुत प्रगति है। प्रथम खेमे के निबंधकारों में पारसमणि प्रधान, रुद्रराज पांडेय, सूर्यविक्रम ज्ञवाली, बाबुराम आचार्य, लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा तथा बालकृष्ण सम के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। दूसरे खेमे के निबंधकारों में बालचंद्र शर्मा, राजेश्वर देवकोटा, निरंजन भट्ट, राई, ढुंढ़िराज भंडारी, धर्मरत्न यमि, बालकृष्ण पोखरैल आदि के नाम विशिष्ट हैं। यात्रा विवरण प्रस्तुत करने में रामराज पोडैल और शुद्ध आत्मपरक ललित निबंध लेखकों में रामराज पंत तथा प्रिंसेप शाह का नाम उल्लेखनीय है। समीक्षात्मक निबंध लिखनेवाले प्रथम व्यक्ति रामकृष्ण शर्मा हैं। समीक्षा संबंधी प्रथम सम्यक ग्रंथ समालोचना को सिद्धांत (१९४६ ई.) लिखने का श्रेय प्रो. यदुनाथ खनाल को है। हृदय चंद्र सिंह प्रधान ने 'साहित्य: एक दृष्टिकोण' के ही नेपाली नाळक आदि स्फुट पुस्तकें लिखकर समीक्षा के मार्ग को अधिक प्रशस्त किया। रत्नध्वज जोशी, माधव लाल कर्माचार्य, तथा तारानाथ शर्मा (सर्मा) तथा ईश्वर बराल समीक्षक हैं जिनमें ईश्वर बराल का नाम सर्वोपरि है।
नेपाली साहित्य की आधुनिकतम काव्यधारा सशक्त है। इस समय के प्रसिद्ध तरुण कवियों में भीमदर्शन रोका, एम.बी.वि. शाह, श्यामदास वैष्णव, धर्मराज थापा, पोषन प्रसाद पांडेय, वासुशशी, जनार्दनसम, जगतबहादुर बुढाथोकी, नीरविक्रमप्यासी, भूपीशेरचन, तुलसीदिवस, कालीप्रसाद रिसाल, प्रेमशाह आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
(राजनाथ पांडेय)