नृसिंह दिति और कश्यप का पुत्र हिरण्यकशिपु बड़ा पराक्रमी था। उसने ग्यारह हजार वर्षों की तपस्या करके ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर लिया था कि मैं किसी भी मनुष्य, देवता, राक्षस, पिशाच आदि से न मारा जाऊँ और न मेरी मृत्यु किसी के शाप से, न किसी अस्त्र शस्त्र से, न दिन में न रात में, न जल में, न थल में और न अंतरिक्ष में हो। यह वरदान प्रापत करने के बाद वह बड़ा उत्पाती तथा विष्णुद्रोही हो गया। उसके चार पुत्र अनुह्लाद, ह्लाद, प्रह्लाद और संह्लाद थे, जिनमें प्रह्लाद विष्णु का भक्त हो गा। विष्णुद्रोही हिरण्यकशिपु प्रह्लाद से रुष्ट हो गया और उसे विष्णु भक्ति से विरत करने के लिए उसको अनेक प्रकार की यातनाएँ देने लगा। उसे पाशबद्ध किया, पर्वत से गिराया, समुद्र में डुबाया, सर्प, विष, अग्नि कृत्या, अस्त्रशस्त्र के प्रयोग से भी हिरण्यकशिपु न प्रह्लाद को त्रास दिया, किंतु भगवत्कृपा से प्रह्लाद का कुछ न बिगड़ा। उसकी विष्णु में आस्था बढ़ती ही गयी। विष्णुपुराण (१.१९) के अनुसार अंत में हिरण्यकशिपु ने शंबासुर नामक दैत्य को नियोजित किया जिसने अनेक मायाओं द्वारा प्रह्लाद को भक्तिविरत करने और कष्ट देने की चेष्टा की। किंतु प्रह्लाद की रक्षा के लिए विष्णु ने अपना चक्र भेद दिया था जिसने शंबासुर की मात्र लीलाओं को विनष्ट कर दिया। इसके बाद हिरण्यकशिपु ने नागफाँस से बाँधकर समुद्र में डालकर उसे पर्वत से दबोच दिया। किंतु भगवान विष्णु ने साक्षात् उपस्थित होकर प्रह्लाद की रक्षा की और अनन्य भक्ति भावना की वृद्धि का आशीर्वाद किदया। विष्णुपुराण के अनुसार इसके बाद हिरण्यकशिपु ने पुत्र से प्रभावित होकर उसे (प्रह्लाद को) क्षमा कर दिया और उससे प्रेम करन लगा। (अंश १० अध्याय २०) नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु के वध का संकेतमात्र है, विस्तार नहीं दिया है। मत्स्य पुराण (अ. १६२) में नृसिंह और हिरण्यकशिपु की दैत्य सेना के साथ हुए युद्ध का विस्तार भी वर्णित है। इसमें हिरण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद को त्रास पहुँचाने का कोई प्रसंग नहीं है। नृसिंह या नरसिंह रूप धारण करने का निमित्त भी प्रह्लाद न होकर वे देवगण हैं जो हिरण्यकशिपु के ब्रह्मा के वरदान से अत्यन्त प्रभावशाली होने से त्रस्त थे। देवगणों ने ब्रह्मा के आशीप का प्रतिकार ढूंढने के लिए विष्णु से हिरण्यकशिपु के बध की याचना की थी। विष्णु ने नरसिंह रूप (अधोभाग नर का और मुख भाग सिंह का) धारण कर अपने नख से हिरण्यकशिपु का वध करने की योजना बनाई और इसी हेतु नरसिंह रूप में हिरण्यकशिपु की राजसभा में प्रवेश किया। मत्स्य पुराण में नरसिंह के विराट रूप का, जिसमें संपूर्ण चराचर विश्व अपने समस्त उपादानों के साथ समाविष्ट था, अच्छा वर्णन है (अ. १६१)। हिरण्यकशिपु की राजसभा में पहुँच कर नरसिंह ने दैत्यों तथा हिरण्यकशिपु से भयंकर युद्ध किया और अंत में सबको परास्त कर, उसे पकड़ कर नखों से विदीर्ण किया (अ. १६२)।
नरसिंह का एक नाम स्थूण भी विख्यात है। इस नाम का आधार हिरण्यकशिपु के वध की एक भिन्न परंपरा है। इसके अनुसार जब अनेक यातनाओं के बावजूद प्रह्लाद की भक्ति विष्णु में कम न हुई तो हिरण्यकशिपु बहुत क्रुद्ध हो गया। उसने प्रह्लाद को राजमहल के स्तंभ में बाँध दिया और त्रास देने लगा। क्रुद्ध होकर उसने प्रह्लाद से पूछा कि तुम्हारा हरि (विष्णु) कहाँ है? प्रह्लाद ने कहा वह तो यत्र तत्र सर्वत्र है, यहाँ तक कि इस स्तंभ में भी है जिसमें मुझे बाँधा गया है। इस उत्तर से और भी क्षुब्ध होकर उसने स्तंभ पर एक लात मारी। स्तंभ टूट गया और उसमें से नृसिंह रूप में विष्णु प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी जाँघों पर चित लिटाकर नखों से विदीर्ण कर दिया। यह अनुश्रुति विशेष लोकप्रिय हुई तथा कला में इसकी अनेक विधियों से अवतारण की गई।
भारतीय मूर्तिपरंपरा में नृसिंह की प्रतिमा दो प्रकार से बनती है। या तो हिरण्यकशिपु से युद्ध करते हुए नृसिंह प्रदर्शित होते हैं, अथवा नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु उपरिलिखित विशिष्ट मुद्रा में वध होते दिखाए जाते हैं। इलौरा में प्रथम शैली का अच्छा प्रदर्शन है और धरवा तथा पैकोर में द्वितीय शैली का। विद्वानों की धारणा है कि नृसिंह रूप में विष्णु की कल्पना पंचरात्रिव्यूह से अधिक संबंधित है। नृसिंह रूप में विष्णु के अवतार की कल्पना बाद की है। संकर्षण जो चर्तुविंशति विष्णुओं में एक हैं, सिंहमुख माने जाते हैं। सिंह भारतीय प्रतीक विद्या में ज्ञान का प्रतीक माना गया है। नृसिंह की पूजापरंपरा गुप्तकाल से चली प्रतीत होती है। नृसिंह का सर्वप्रथम अंकन गुप्तकालीन एक मृण्मुद्रा (Seal) पर उपलब्ध हुआ है, जो बसाढ़ से प्राप्त हुई थी।
विष्णुभक्तों में नृसिंह का उग्र रूप लोकप्रिय नहीं है। वैखानस आगम में नृसिंह के एक विशिष्ट रूप केवल नृसिंह की कल्पना की गयी है, जो बड़ा सौम्य है। सौम्यरूप नृसिंह की सबसे अच्छी अवतारणा बादामी की मूर्तिकला में उपलब्ध हुई है।
(बलराम श्रीवास्तव)