नूरजहाँ नूरजहाँ का बचपन का नाम मेहरुन्निसा था। उसके पिता का नाम मिर्ज़ा गयासवेग और माता का नाम असमत था। गयासवेग तेहरान का निवासी था। तेहरान में गुजर न होने के कारण, उसने नौकरी की इच्छा से भारत के लिए प्रस्थान कर दिया। उसके साथ उसकी गर्भवर्ती पत्नी भी थी। १५७६ में कन्दहार पहुँचने पर, उसकी पत्नी ने एक कन्या को जन्म दिया, जिसका नाम मेहरुन्निसा रखा गया। काफिले के मुखिया मसऊद की मदद से गयासबेग अपने परिवार सहित सीकरी पहुँच गया और बादशाह अकबर के पास नौकरी कर ली। अपनी योग्यता के बल पर गयास और उसका लड़का एतमाद खां जो आसफ खाँ के नाम से प्रसिद्ध है, राज्य के ऊँचे पदों पर आसीन होते चले गए।

गयास की पुत्री मेहरुन्निसा बड़ी रूपवती स्त्री थी। उसके पिता ने उसे सुशिक्षित करने में कुछ उठा न रखा। अत: रूपवती होने के साथ साथ वह बुद्धिमती, सुसंस्कृत व व्यवहारकुशल भी थी।

१६ वर्ष की होने पर मेहरुन्निसा का विवाह अलीकुली नाम के एक ईरानी के साथ कर दिया गया, जो अकबर की सेना में एक अधिकारी था। शाहजादा ने मेवाड़ के आक्रमण के साथ उसकी वीरता से खुश होकर उसे शेरअफगन की उपाधि प्रदान की थी। सलीम जब जहांगीर के नाम से बादशाह बना तो शेरअफगन को बर्दवान का हाकिम बना दिया गया। लेकिन वहां के अफगानों का विद्रोह दबाने में शेरअफगन ने कोई रुचि नहीं दिखाई। इस पर बादशाह ने अप्रसन्न होकर बंगाल के सूबेदार कुतुबुद्दीन को सूचित किया कि शेरअफगन को वापस भेज दें। सूबेदार जब शेरअफगन को कैद करने बर्दवान पहुँचा तो दोनों परस्पर युद्ध कर खतम हो गये। (मार्च, १६०७ ई.)।

शेरअफगन के मर जाने पर जहांगीर ने उसकी बेगम मेहरुन्निसा और पुत्री लाडली बेगम को आगरे बुला लिया और उन्हें अपनी माता सलीमा बेगम (अकबर की प्रथम पत्नी) की सुरक्षा में सौंप दिया। चार वर्ष बाद नौरोज के उत्सव के समय मीना बाजार में जहांगीर की नजर मेहरुन्निसा पर जा अटकी और उसके सौंदर्य पर मोहित होकर उसने उसके साथ विवाह कर लिया (मार्च, १६११ ई.)। बादशाह ने पहले उसे 'नूरमहल' और फिर 'नूरजहां' की उपाधि प्रदान की।

नूरजहां बहुत सी प्रतिभाशाली महिला थी। उसके अनुपम गुणों के कारण जहांगीर ने उसे १६२२ ई. में 'बादशाह बेगम' की उपाधि प्रदान की। शासन-कार्य में बादशाह उसकी यदा कदा सलाह लिया करता था। जहाँगीर को उसकी बुद्धिमत्ता और कुशलता पर विश्वास था। वह भी यथाशक्ति सेवा करने को उद्यत रहती थी और आवश्यकता पड़ने पर सक्रिय हो जाती थी। बादशाह की इच्छानुसार सिक्कों और शाही फरमानों पर उसका भी नाम अंकित रहता था।

सन् १६२० में नूरजहां ने शेरअफगन से उत्पन्न अपनी बेटी लाडली बेगम का विवाह जहांगीर के सबसे छोटे लड़के शहरेयार के साथ कर दिया। शहरेयार को बादशाह का उत्तराधिकारी हो जाने की संभावना से व्याकुल होकर शाहजादा खुर्रम ने जो शाहजहां के नाम से प्रसिद्ध है, विद्रोह कर दिया। बादशाह ने सेंनापति महाबत खां की मदद से शाहजहां को दबा दिया (१६२२ ई.)। कुछ समय बाद नूरजहाँ के भाई वजीर आसफ खाँ की नीति से अप्रसन्न होकर महाबतखां ने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जहाँगीर तब काबुल जाते हुए झेलम के तट पर रुका हुआ था। महाबत खां ने खेमे पर घेरा डाल दिया। नूरजहाँ तब झेलम पार कर चुकी थी। उसने बादशाह को छुड़ाने का प्रयत्न किया और असफल होने पर स्वयं जहांगीर के पास महाबतखां की कैद में चली आई। महाबत खां की देखरेख में शाही दरबार काबुल पहुँचा।

यह स्थिति नूरजहां के लिए असहनीय हो चली। इसी समय फिर दक्षिण में शाहजहाँ के विद्रोह करने की खबर काबुल पहुँची। अत: महाबतखां के साथ-साथ शाही लश्कर काबुल से भारत के लिए चल पड़ा। नूरजहाँ ने धीरे धीरे शाही सेना बढ़ा ली और महाबत खाँ की स्थिति को कमजोर कर दिया। फलत: पंजाब पहुँचने पर महाबतखां डर कर भाग गया और दक्षिण जाकार शाहजहाँ से मिल गया (१६२५ से १६२६ ई.)।

२९ अक्टूबर, १६२७ ई. में जहृांगीर की मृत्यु होने पर नूरजहाँ की मदद से लाहौर में शहरेयार ने अपने को बादशाह घोषित कर दिया। लेकिन नूरजहाँ के भाई आसफखाँ ने, जिसकी बेटी आर्जुमंद बानू बेगम (मुमताज महल) शाहजहाँ से व्याही थी, शहरेयार को कैद करा दिया और शाहजहाँ को आगरे बुला लिया। ६ फरवरी, १६२८ ई. को शाहजहाँ आगरे में गद्दी पर बैठा। उसने नूरजहां को दो लाख पेंशन की। नूरजहाँ राजनीति से तटस्थ हो गयी और अपनी बेटी लाडली बेगम के साथ लाहौर में रहने लगी।

सन् १६४५ ई. में वह परलोक सिधारी।(भगवतीप्रसाद पांथरी)