नीहारिकाएँ आकाश में कोरी आँख से चार स्थानों पर, और दूदर्शक से कई स्थानों, पर धुएँ या बादल के टुकड़े के समान पिंड दिखाई पड़ते हैं। इन्हें नीहारिका कहते हैं। काली नींहारिकाएँ भी ज्ञात हैं। ये तभी दिखाई पड़ती हैं जब इनके पीछे कोई प्रकाशमान पिंड या नीहारिका रहती है। पहली बार देखने पर नीहारिका और पुच्छल तारे (धूमकेतु) बहुत कुछ समान लगते हैं, परंतु पुच्छल तारे हमारे सौर-जगत के सदस्य हैं और आकाश में तारों के बीच चलते रहते हैं। नीहारिकाएँ अपने स्थान पर अचल रहती हैं। नीहारिका को अँग्रेजी में नेब्युला (nebula) कहते हैं।
दोनों मैगिलन मेघ, जो बहुत दक्षिण में हैं और पृथ्वी के उत्तरी भागों से नहीं दिखाई पड़ते, देवयानी तारामंडल की सर्पिल नीहारिका और त्रिकोण तारामंडल को सर्पिल नीहारिका, ये ही चार नीहारिकाएँ कोरी आँखों से देखी जा सकती हैं। छोटी नीहारिकाओं का पता पाने के लिए बड़े दूरदर्शक, फोटो के तेज प्लेट और लंबे प्रकाशदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। माउंट विल्सन के १०० इंच वाले दूरदर्शी से लगभग १० करोड़ नीहारिकाओं का पता चला है और यह संख्या उस दूरदर्शी की शक्ति से ही सीमित है। २०० इंच वाले दूरदर्शक से अध्ययन करने पर इससे कहीं अधिक नीहारिकाओं का पता लगा है।
नीहारिकाएँ दो जातियों में विभक्त की जाती हैं, गांग और अगांग। प्रत्येक अगांग नीहारिका को हम मंदाकिनी (गैलक्सी) भी कह सकते हैं, क्योंकि वह हमारी मंदाकिनी-संस्था की तरह ही संस्था है।
गांगा नीहारिकाएँ आकाशगंगा के समतल में, या उसी समतल के पास, पाई जाती हैं। अगांग नीहारिकाएँ आकाशगंगा के बाहर दिखाई पड़ती हैं। परंतु उनमें केवल इतना ही अंतर नहीं है। उनमें कई महत्वपूर्ण बातों में मौलिक अंतर है - दूरी, नाप, चमक, संरचना, सभी भिन्न हैं। वस्तुत:, दोनों में कोई संबंध नहीं है।
गांग नीहारिकाएँ दो प्रकार की होती हैं, एक बिरल नीहारिकाएँ और दूसरी ग्रहीय नीहारिकाएँ। बिरल नीहारिकाएँ में से कुछ प्रकाशमय और कुछ काली होती हैं, परंतु दोनों में कोई भेद नहीं जान पड़ता, क्योंकि बहुधा वे एक दूसरे में मिली-जुली रहती हैं।
हमारी मंदाकिनी-संस्था में, जो बीच में फूली हुई रोटी-सी है, प्रकाशरहित पदार्थ प्राय: सर्वत्र बिखरा हुआ है। इसमें परमाणु, अणु, धूलि और बड़े कण सब मिले हुए हैं। यह पदार्थ समान रूप से वितरित नहीं है। कहीं यह अपेक्षाकृत सघन है, कहीं अति विरल। कहीं-कहीं इसके सघन भाग चमकीली नीहारिकाओं के सामने पड़ गए हैं। वहाँ बिखरा पदार्थ काली नीहारिकाओं के रूप में दिखाई पड़ता है। कहीं-कहीं चमकीले तारे सघन भागों के बीच में हैं। वहाँ बिखरा पदार्थ दीप्तिमान नीहारिकाओं के रूप में दिखाई पड़ता है, क्योंकि तारे की पराबैंगनी रश्मियों के कारण वहाँ नीहारिका उत्तेजित होकर स्वयं प्रकाश देने लगती है। काली और दीप्तिमान नीहारिकाएँ मिलीजुली वहाँ दिखाई पड़ती हैं जहाँ तारों की पराबैंगनी रश्मियाँ सर्वत्र नहीं पहुँच पातीं।
मृग तारामंडल की वृहत् नीहारिका विरल नीहारिका है, जो अपनी निजी चमक से नहीं, पास-पड़ोस के तारों के कारण चमकती है।
वर्णपट से पता चलता है कि कुछ नीहारिकाएँ केवल इसीलिए हमें दिखाई पड़ती हैं कि निकटस्थ तारों का प्रकाश उनसे बिखर कर हमारे पास आता है। कुछ इसलिए दिखाई पड़ती हैं कि तारों के पराबैंगनी प्रकाश से वे उत्तेंजित हो जाती हैं और तब स्वयं उनसे प्रकाश निकलने लगता है। ऐसा तभी होता है जब निकटस्थ तारे का ताप लगभग २०,०००� सेंटीग्रड से अधिक होता है। कम तप्त तारों के प्रकाश से नीहारिकाएँ उत्तेजित नहीं होतीं; ऐसे तारों के प्रकाश से जब नीहारिकाएँ हमें दिखाई पड़ती हैं तब उसी प्रकार दिखाई देती हैं, जैसे साधारण दीप के प्रकाश में पार्थिव वस्तुएँ, और इस दशा में वे मंद प्रकाश की ही रह जाती हैं। दीप्तिमान विरल नीहारिकाओं की दूरी का अनुमान उनके मध्यस्थ तारों की दूरी से किया जाता है, परंतु यथेष्ट नीहारिकाओं की दूरी का पता यह देखकर लगाया जाता है कि पड़ोस के आकाश की तुलना में नीहारिकावाले भाग में किस चमक के तारे, कितने प्रति शत वर्ग अंश कम दिखाई पड़ते हैं। चमकीले तारों की संख्या तो दोनों क्षेत्रों में एक ही रहती है, परंतु जब मंद तारों की गिनती होती है तब नीहारिका वाले क्षेत्र में उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम हो जाती है। किस श्रेणी से तारों की संख्या कम होने लगती है, यह देखकर बताया जा सकता है कि नीहारिका कितनी दूर है, क्योंकि यह तो ज्ञात रहता ही है कि किसी विशेष श्रेणी के तारों की औसत दूरी क्या है। इस प्रकार पता चला है कि विरल नीहारिकाएँ, काली और प्रकाशमय दोनों, हमारी मंदाकिनी संस्था में हैं।
ग्रहीय नीहारिकाओं का यह नाम इसलिए पड़ा है कि दूरदर्शक में इनका रूप बहुत कुछ ग्रहों की तरह दिखाई पड़ता है, अर्थात् उनमें बिंब दिखाई पड़ता है, जिसका कोर तीक्ष्ण होता है। विरल नीहारिकाओं की तरह अतीक्ष्ण नहीं। अन्यथा ग्रहीय नीहारिकाओं और ग्रहों में कोई संबंध नहीं हैं। साधारणत: ग्रहीय नीहारिकाएँ विरल नीहारिकाओं से अधिक दूरी पर हैं। केवल लगभग २०० ही ग्रहीय नीहारिकाओं का पता चल सका है। सभी ग्रहीय नीहारिकाओं के बीच में कोई अतितप्त तारा रहता है जिसका ताप लगभग १,५०,०००� सेंटीग्रेड होता है। ग्रहीय नीहारिका का बिंब वृत्ताकार या कुछ अंडाकार होता है, और कुछ के बिंब में वलय के भीतर वलय बने हुए दिखाई पड़ते हैं, जो बहुत सुंदर लगते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि केंद्रीय तारे में कभी विस्फोट हुआ होगा और ग्रहीय नीहारका नीहारिका विस्फोट के कारण निकले हुए पदार्थ के फैलने से बन गई होगी। केंद्रीय तारे की पराबैंगनी रश्मियों से ही चारों ओर का विरल पदार्थ चमकता है।
अगांग नीहारिकाएँ आकाशगंगा में नहीं दिखाई पड़तीं, वे उससे दूर के ही आकाश में दिखाई पड़ती हैं। देवयानी तारामंडलवाली नीहारिका इसी जाति की है और सर्पिल नीहारिकाओं में उसी की आभासी नाप सबसे अधिक है। उसका कोणीय व्यास चंद्रमा के कोणीय व्यास का लगभग १२ गुना है, यद्यपि कम प्रकाशदर्शन देकर खींचे गए फोटोग्राफों में व्यास इतना बड़ा नहीं दिखाई पड़ता। छोटी अगांग नीहारिकाएँ इतनी छोटी होती हैं कि हमारे बड़े-से-बड़े दूरदर्शकों के लिए गए फोटोग्राफों में वे तारों से नाममात्र ही विभिन्न लगती हैं। माउंट विल्सन के १०० इंच वाले दूरदर्शक से लिए गए फोटोग्राफों में १० करोड़ अगांग नीहारिकाएँ दिखाई पड़ती हैं। अब यह सिद्ध हो चुका है कि इनमें से प्रत्येक नीहारिका हमारी ही मंदाकिनी-संस्था की तरह एक स्वतंत्र संस्था है, जिसमें लाखों तारे होते हैं। इस प्रकार की दूरतम नीहारिकाएँ हम से ५० करोड़ प्रकाशवर्ष की दूरी पर हैं। इसका पता हमें नीहारिकाओं के सेफीइड चरों से लगा है। आकाशगंगा में, तथा उसके आसपास, अगांग नीहारिकाओं के न दिखाई पड़ने का कारण यह है कि आकाशगंगा में फैले विरल पदार्थ से उनका प्रकाश मंद पड़ जाता है।
अंतरिक्ष में दूर-दूर पर रहने के कारण अगांग नीहारिकाओं को द्वीपविश्व भी कहते हैं। यदि हम पैमाने के अनुसार इन विश्वों का निरूपण करना चाहें और हम दिल्ली शहर को अपनी मंदाकिनी संस्था का केंद्र मानें तथा अपने निकटतम विश्वद्वीप (देवयानी नीहारिका) को मेरठ पर रखें तब इस पैमाने पर हमारी मंदाकिनी संस्था दिल्ली नगर से कुछ ही बड़ी ठहरेगी। विश्वद्वीप बहुत दूर दूर पर छिटके हुए हैं और उनके बीच बहुत-सा स्थान खाली छूटा पड़ा है।
१७९६ ई. में फ्रेंच गणितज्ञ लाप्लास ने पहली बार ब्यौरेवार सिद्धांत बनाया। यह सिद्धांत आज लाप्लास का नीहारिका-सिद्धांत कहलाता है। इस सिद्धांत के घोषित किए जाने पर सौ से अधिक वर्षों तक इसका बहुत आदर था। लाप्लास ने कल्पना की थी कि आरंभ में एक नीहारिका थी, जो अपने अक्ष पर घूम रही थी। आकर्षण से, या ठंडी होने के कारण, नीहारिका संकुचित हुई। तब कोणीय घूर्ण की स्थिरता के नियम के अनुसार नीहारिका अधिक वेग से घूमने लगी। इससे नीहारिका नारंगी की तरह चिपटी हो गई। जब वेग पर्याप्त अधिक बढ़ गया तब चिपटापन भी बहुत बढ़ गया और द्रव्य छटक कर केंद्रीय पिंड से अलग होने लगा। लाप्लास ने कल्पना की कि केंद्रीय द्रव्य से सूर्य बना और छटक कर बाहर निकले पदार्थों से ग्रह बने। उसने यह भी कल्पना की कि ग्रह पहले तरल थे और उनसे भी पदार्थ छटका, जिससे उपग्रह बने।
परंतु अधिक ज्ञान के साथ इस सिद्धांत में कठिनाइयाँ दिखाई पड़ने लगीं। आकाश में इतने युग्मतारे हैं, वे कैसे बने होंगे? इनके देखने से जान पड़ता है कि जब कोई तरल पिंड अधिक वेग से नाचने लगता है तब उससे ग्रह नहीं बनते, वह टूट कर दो खंडों में विभाजित हो जाता है। फिर, जब गणित से लाप्लास के सिद्धांत की सूक्ष्म जाँच की गई तब द्रव्यमान, धूर्ण, वेग आदि के जो सांख्यिक मान निकले वे सौर जगत् के लिए लागू नहीं हो सकते थे। सौर जगत् न इतना बड़ा है और न इतने वेग से नाचता है कि केंद्र से पदार्थ छटकने की संभावना कभी रही हो। इसलिए सौर जगत् की उत्पत्ति के लिए अब लाप्लास का सिद्धांत ठीक नहीं माना जाता।
सं.ग्रं. - गोरखप्रसाद : नीहारिकाएँ (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्) हार्लों शैपली : गैलैक्सीज़ (१९४३)।(गोरखप्रसाद (स्वर्गीय))