नीबू (Citrus limon, Linn.) यह छोटा पेड़ अथवा सधन झाड़ीदार पौधा है। इसकी शाखाएँ काँटेदार, पत्तियाँ छोटी, डंठल पतला तथा पत्तीदार होता है। फूल की कली छोटी और मामूली रंगीन, या बिल्कुल सफेद, होती है। प्रारूपिक नीबू गोल या अंडाकार होता है। छिलका पतला होता है, जो गूदे से भली भाँति चिपका रहता है। पकने पर यह पीले रंग का या हरापन लिए हुए होता है। गूदा पांडुर हरा, अम्लीय तथा सुगंधित होता है। कोष रसयुक्त, सुंदर एवं चमकदार होते हैं।

नीबू अधिकांशत: उष्णदेशीय भागों में पाया जाता है। इसका आदिस्थान संभवत: भारत ही है। यह हिमालय की उष्ण घाटियों में जंगली रूप में उगता हुआ पाया जाता है तथा मैदानों में समुद्रतट से ४,००० फुट की ऊँचाई तक पैदा होता है। इसकी कई किस्में होती हैं, जो प्राय: प्रकंद के काम में आती हैं, उदाहरणार्थ फ्लोरिडा रफ़, करना या खट्टा नीबू, जंबीरी आदि। कागजी नीबू, कागजी कलाँ, गलगल तथा लाइम सिलहट ही अधिकतर घरेलू उपयोग में आते हैं। इनमें कागजी नीबू सबसे अधिक लोकप्रिय है। सन् १९५३ की गणना के अनुसार भारत में नीबू प्रजाति के फलों के अंतर्गत अनुमानित क्षेत्र १,२८,०६८ एकड़ था, जिसमें ७९ प्रति शत तथा १६.२ प्रति शत क्षेत्र क्रमश: संतरे तथा नीबू के अंतर्गत थे। इसके उत्पादन के स्थान मद्रास, बंबई, बंगाल, पंजाब, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र हैदराबाद, दिल्ली, पटियाला, उत्तर प्रदेश, मैसूर तथा बड़ौदा हैं।

नींबू के पौधे के लिए पाला अत्यंत हानिकारक है। यह दक्षिण भारत में अच्छी तरह पैदा हो सकता है, क्योंकि वहाँ का जलवायु उष्ण होता है और पाला तथा शीतवायु का नितांत अभाव रहता है। पौधे विभिन्न प्रकार की भूमि में भली प्रकार उगते हैं, परंतु उपजाऊ तथा समान बनावट की दोमट मिट्टी, जो आठ फुट की गहराई तक एक सी हो, आदर्श समझी जाती है। स्थायी रूप से पानी एकत्रित रहना, अथवा सदैव ऊँचे स्तर तक पानी विद्यमान रहना, या जहाँ पानी का स्तर घटता बढ़ता रहे, ऐसे स्थान पौधों की वृद्धि के लिए अनुपयुक्त हैं।

नीबू के पौधे साधारणतया बीज तथा गूटी से उत्पन्न किए जाते हैं। नियमानुसार पौधों को २०.२० फुट के अंतर पर लगाना चाहिए। इसके लिए, २ २' के गड्ढे उपयुक्त हैं। इनमें बरसात के ठीक पहले गोबर की सड़ी हुई खाद, या कंपोस्ट खाद, एक मन प्रति गड्ढे के हिसाब से डालनी चाहिए। पौधे लगाते समय गड्ढे के मध्य से थोड़ी मिट्टी हटाकर उसमें पौधा लगा देना चाहिए और उस स्थान से निकली हुई मिट्टी जड़ के चारों ओर लगाकर दबा देनी चाहिए। जुलाई की वर्षा के बाद जब मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए तभी पौधा लगाना चाहिए। पौधे लगाते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जमीन में इनकी गहराई उतनी ही रहे जितनी रोप में थी। पौधे लगाने के बाद तुंरत ही पानी दे देना चाहिए। जलवृष्टि पर निर्भर रहनेवाले क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में कई बार सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। सिंचाई का परिमाण जलवृष्टि के वितरण एवं मात्रा पर निर्भर है।

हर सिंचाई में पानी इतनी ही मात्रा में देना चाहिए जिससे भूमि में पानी की आर्द्रता ४-६ प्रति शत तक विद्यमान रहे। सिंचाई करने की सबसे उपयुक्त विधि 'रिंग' रीति है।

नीबू प्रजाति के सभी प्रकार के फलों के लिए खाद की कोई निश्चित मात्रा अभिस्तावित नहीं की जा सकती है। पर साधारण रूप से नीबू के लिए ४० सेर गोबर की खाद, एक सेर

सुपरफॉस्फेट तथा आधार सेर पोटासियम सल्फेट पर्याप्त होता है। गौण तत्वों की भी इसको आवश्यकता पड़ती है, जिनमें मुख्य जस्ता, बोरन, ताँबा तथा मैंगनीज़ हैं।

जहाँ पर सिंचाई के साधन हैं, वहाँ पर अंतराशस्य लगाना लाभप्रद होगा। दक्षिण भारत तथा असम में अनन्नास तथा पपीता नीबू के पेड़ों के बीच में लगाते हैं। इनके अतिरिक्त तरकारियाँ, जैसे गाजर, टमाटर, मूली, मिर्चा तथा बैगन आदि भी, सरलतापूर्वक उत्पन्न किए जा सकते हैं।

नीबू प्रजाति के पौधों को सिद्धांत: कम काट छाँट की आवश्यकता पड़ती है। जो कुछ काट छाँट की भी जाति है, वह पेड़ों की वांछनीय आकार देने के लिए और अच्छी दशा में रखने के लिए की जाती है।

उत्तरी भारत में साधारणत: फल साल में दो बार आते हैं, परंतु इनके फूलने का प्रमुख समय वसंत ऋतु (फरवरी-मार्च) है। इसके उत्पादन की कोई विश्वसनीय संख्या प्राप्त नहीं है, किंतु नीबू की विभिन्न किस्मों का उत्पादन प्रति पेड़ १५० से १,००० फलों के लगभग होता है।

नीबू की उपयोगिता जीवन में बहुत अधिक है। इसका प्रयोग अधिकता से भोज्य पदार्थों में किया जाता है। इससे विभिन्न प्रकार के पदार्थ, जैसे तेल, पेक्टिन, सिट्रिक अम्ल, रस, स्क्वाश तथा सार (essence) आदि तैयार किए जाते हैं।

नीबू को अनेक प्रकार के रोग तथा कीड़े भी हानि पहुँचाते हैं। इनमें से शल्क (scab), नीबू कैंकर, साइट्रस रेड माइट (Citrus red mite), ग्रीन मोल्ड (Penicillium digitatum), मीली बग (mealy bugs) इत्यादि प्रमुख हैं।(अवधोबिहारी लाल)