नीत्शे, फ्रेडरिक (१५, अक्टू, १८४४ से २५, अगस्त १९००) जर्मन दार्शनिक। नीत्शे का जन्म लाइपज़िग के निकट रोएकन नामक ग्राम में एक प्रोटेस्टेट पादरी के परिवार मे हुआ था। उसके माता-पिता, दोनों ही, परंपरा से धर्मोपदेश के कार्य मे संलग्न परिवारों के वंशज थे। अपने पिता की मृत्यु के समय नीत्शे पॉच वर्ष का था, परंतु उसकी शिक्षा की व्यवस्था उसकी माता ने समुचित ढंग से की। स्कूली शिक्षा मे ही वह ग्रीक साहित्य से प्रभावित हो चुका था। थियोलॉजी तथा भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए उसने बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहाँ अपने प्राध्यापक रित्शल से घनिष्टता उसके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई। रित्शल के लाइपज़िग विश्वविद्यालय जाने पर नीत्शे ने भी उसका साथ दिया। २४ वर्ष की ही अवस्था मे नीत्शे बेस्ल विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञान के प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुआ। नीत्शे को सैनिक जीवन के प्रति भी आकर्षण था। दो बार वह सैनिक बना परंतु दोनों बार उसे अपने पद से हटना पड़ा, पहली बार एक दुर्घटना में घायल होकर और दूसरी बार अस्वस्थ होकर। लाइपज़िग के विद्यार्थी जीवन में ही वह प्रसिद्ध संगतीज्ञ वेगेनर के घनिष्ठ संपर्क में आ चुका था और, साथ ही, शोपेनहावर की पुस्तक ''संकल्प एवं विचार के रूप में विश्व'' से अपनी दर्शन संबंधी धारणाओं के लिए बल प्राप्त कर चुका था। नीत्शे-वेगेनर संबंध तो नीत्शे के व्यक्तित्व को समझने के लिए बड़े महत्व का माना जाता है। १८७९ ई. में अस्वस्थता के कारण नीत्शे ने प्राध्यापक पद से त्यागपत्र दे दिया। तत्पश्चात् लगभग दस वर्षों तक वह स्वास्थ्य की खोज में स्थान स्थान भटकता फिरा; परंतु इसी बीच में उसने उन महान् पुस्तकों की रचना की जिनके लिए वह प्रसिद्ध है। १८८९ में उसे पक्षाघात का दौरा हुआ और मानसिक रूप से वह सदा के लिए विक्षिप्त हो गया। नीत्शे की मृत्यु के समय तक उसकी रचनाएँ प्रसिद्धि पा चुकी थीं, पर विक्षिप्त नीत्शे इस तथ्य से परिचित नहीं हो सकता था।
नीत्शे का चिंतन उसके अपने समय की वैचारिक एवं सांस्कृतिक यथार्थता के प्रति एक बड़ी व्यापक एवं समृद्ध परंतु कुछ उलझी हुई प्रतिक्रिया है। वह ऐसे दर्शन की सृष्टि करना चाहता है जो सभी मूल्यों का पुनर्मूल्यीकरण' कर सके। यूरोपीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों की वह आलोचना करता है। अलोचना सूक्ष्म तथा मनावैज्ञानिक है और उसमें मौलिक एकता है। परंतु जिन प्रश्नों को उठाया गया है उनके विश्लेषण में क्रांतिकारी की सी बेसब्री और उनके समाधान में एक पैगंबर का सा आत्विश्वास है। मूल विचारों की विभिन्न पुस्तकों में पुनरावृत्ति हुई है, अत: यह पुनरावृत्ति थकावट नहीं उत्पन्न करती। उसकी अधिकतर पुस्तकें सूक्तियों में लिखी गई हैं, इससे यदि व्यंजना की प्रभावोत्पादकता बढ़ी है तो विचारों की अस्पष्टता भी बढ़ी है, और नीत्शे यत्र तत्र अपना ही खंडन करता प्रतीत होता है।
ईसाई मत के परमार्थवाद पर, जनवाद तथा समाजवाद पर, सामाजिक प्रगति की नियतिवादी व्याख्या पर (चाहे वह हीगेल प्रदत्त इतिहासवादी हो या डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकासवादी) तथा अंग्रेजी उपयोगितावाद पर नीत्शे कड़े प्रहार करता है। प्रोटेस्टेंट परिवार ने तथा प्राचीन ग्रीक साहित्य के आरंभ के परिचय ने उसे इन विचार परंपराओं के विरोधी संस्कार दे दिए थे, परंतु कांट की ज्ञानमीमांसा शोपेनहॉवर के चिंतन, जर्मन साहित्य तथा कला में व्याप्त रोमांसवाद (रोमांटिसिज़्म), तुलनात्मक नीतिशास्त्र एवं स्वयं विकासवाद ने उसके इन प्रहारों के लिए आधारभूमि का कार्य किया। कांट के अनुसार हम निज-रूप पदार्थों को नहीं जान सकते क्योंकि अनुभव के प्रदत्त ज्ञान बनने में ज्ञानेंद्रियों के तथा बुद्धि के नियमों से वे प्रतिबंधित हो जाते हैं एवं समस्त ज्ञान में अनुस्यूत होने के कारण ये नियम ही सर्वाभौभ होते हैं। नीत्शे की व्याख्यानुसार ये नियम भी सर्वाभौम नहीं होते, वे स्वयं हमारी रुचियों से, मूल्यों एवं संकल्पों से, प्रतिबंधित होते हैं। 'हम सत्य को ही क्यों जानना चाहते हैं, नीत्शें प्रश्न करता है ''क्यों नहीं असत्य, अनिश्चिता या अज्ञान को जानना चाहते?'' क्योंकि, उसका उत्तर है, अनिश्चितता में हमें जीने की संभावना नहीं प्रतीत हाती। ज्ञान इस विश्व को व्यवस्थित, सुनियोजित एवं पूर्वानुमेय बनाता है। अत: हमारा ज्ञान, और इसलिए यह विश्व, हमारे 'जीने के संकल्प' का परिणाम है। परंतु जीवन का अर्थ है आत्मसात्करण, विस्तार, शोषणशक्ति का संकल्प'। अत: 'शक्ति का संकल्प' ही सार्वभौम सत्य है, यही हमारे ज्ञान के रूप को निर्मित करता है। 'शक्ति के संकल्प की धारण नीत्शे के चिंतन का आधार है।'
नैतिक या अनैतिक क्या है, इसका कोई वस्तुनिष्ठ मानदंड नहीं हो सकता। नैतिक वही है जो 'शक्ति के संकल्प की प्रबलता का परिणाम हो, अनैतिकता का निर्बलता का ही प्रकट रूप है। व्यक्तियों में 'शक्ति के संकल्प' की 'मात्रा में भिन्नता के कारण समाज की रूपरेखा पिरामिड की भाँति होती है। नीत्शे ऊपर के व्यक्तियों को शासक तथा नीचे के व्यक्तियों को दास वर्ग को मानता है। दोनों वर्गों की स्वीकृत मूल्य-संरणी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है। उच्च वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-मूल्य उनके व्यक्तित्व की क्षमता तथा उसके उत्पन्न सहज जीवन के परिणाम होते हैं, पर निम्नवर्ग के मूल्य उच्च वर्ग के प्रति प्रतिक्रिया के परिणाम हैं। ईसाई मत तथा जनवाद से संबंधित मूल्यों को नीत्शे निम्न वर्ग के मूल्य मानता है। ये मूल्य निर्बल व्यक्तित्व की मानसिक ग्रंथियों के परिणाम हैं। इनमें श्रेष्ठ व्यक्तियों को भी नीचे घसीटने की कुचेष्टा है। प्रगाति के लिए नीत्शे उच्च वर्ग की मूल्यपरंपरा का स्थापित होना आवश्यक समझता है। हिंदू वर्ण-व्यवस्था भी कभी कभी उसे अपने आर्दश के अनुकूल प्रतीत होती है, एवं इसी आधार पर वह मनुस्मृति को बाइबिल से श्रेष्ठ ग्रंथ मानता है।
मानव-व्यक्तित्व का विकास ही मानव की क्षमताओं को प्रकट करेगा, यह सिद्धांत नीत्शे के दर्शन की आत्मा है। मानव साधन है पृथ्वी पर अतिमानव के अवतरण का, परंतु यह अवतरण विकासवाद के अनुसार न होकर मानव के सक्रय एवं सावधान प्रयत्नों का परिणाम होगा। सहज जीवन और उसके लिए स्वेच्छा से अपनाया हुआ अनुशासन नीत्शे के आदर्श व्यक्ति की कसौटी है। व्यक्ति को रूढ़ियों का नहीं श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण करना चाहिए। ''ईश्वर की मृत्यु हो गई है'' नीत्शे की प्रसिद्ध उक्ति है, परंतु इस उक्ति के द्वारा वह मूल्यों में शाश्वतवाद के अंत का तथा मानव-मन में व्याप्त अनास्था का निर्देश तो करना ही चाहता है। साथ ही वह यह भी स्पष्ट करना चाहता है कि श्रेष्ठ पुरुष ही अब मानव की सबसे बड़ी आशा है।
नीत्शे का प्रभाव बड़ा व्यापक हुआ। उसकी पुस्तक 'ज़र्थ्राुस्ट की वाणी' (Also sprach Zarathustra) विश्व की श्रेष्ठतम साहित्यिक कृतियों में गिनी जाती है। इसी प्रकार 'पुण्य और पाप के आगे (Jenseitsvon Gut und Bose) तथा 'मूल्यों की परंपरा' (Zur Genealogie der Moral) दर्शन में नये मोड़ प्रस्तुत करती है। मनोविश्लेषणवाद का वह पूर्वानुभावक था। अस्तित्ववादी एवं दृष्टिज्ञानवादी (Phenomenalism) विचारधाराओं का तो वह प्रमुख निर्माता ही था। व्यक्तिवादी तथा राज्यवादी दोनों प्रकार के विचारकों ने उससे प्रेरणा ली है, हालाँकि नात्सी तथा फासिस्ट राजनीतिज्ञों ने उसकी रचनाओं का दुरुपयोग भी किया। जर्मन कला तथा साहित्य पर तो नीत्शे का प्रभाव है ही, भारत में भी इकबाल जैसे कवि की रचनाएँ नीत्शेवाद से अभिभूत हैं (देखिए इकबाल की 'असरारे खुदी' और 'बालेज़िबरील')।
सं.ग्रं.- द कंप्लीट वर्क्स ऑफ नीत्शे : ऑस्कर लेवी दूवारा संपादित, अंग्रेजी में अनूदित, १८ खंड (लंदन, १९११-१३)।(दयालुाश्रण वर्मा)