निषेधवाद (Nihilism) अराजकतावाद शब्द की भांति ही, जो एक विशेष दार्शनिक विचारधारा को उपस्थित करता है, निषेधवाद भी शिथिल रूप से और भ्रम से ऐसा आतंकवादी कार्यकलाप माना जाने लगा है जिसकी पराकाष्ठा रूस में जार अलेक्जेंउर द्वितीय (१८८२) की हत्या जैसी घटना में हुई। यथार्थ में निषेधावाद १८वीं शती के छठें दशक में रूस के उस बौद्धिक आंदोलन को उपस्थित करता है जो अपना च्ह्रि रूसी बौद्धिक वर्ग पर तथा उस देश के क्रांतिकारी आंदोलन पर छोड़ गया। तुर्गनेव ने अपने उपन्यास 'पिता औैर पुत्र' में उसके नायक को 'निषेधवादी' रूप में चित्रित किया था। उसके बाद 'निषेधवादी' रूप में चित्रित किया था। उसके बाद 'निषेधवादी' शब्द का व्यापक प्रचार हो गया।
ज़ार के समान उग्र निरंकुश शासन में विचार और व्यवहार की समस्याओं ने संवेदनशील लोगों को आकुल कर दिया था और प्राय: भावावेश तथा कुछ अपरिपक्वता में ही आचार के समस्त स्वीकृत मानदंडों से अलग हो जाने की अत्यंत सरलीकृत और अहंवाद प्रवृत्ति का जन्म हुआ। निषेधवाद के प्रमुख प्रतिनिधि पिसारोव नामक युवक ने १८६० में अपने सेंट पीटर्सबर्ग रिव्यू ''रूस्को स्लोवो'' (रूसी शब्द) में लिखा ''यह हमारे मत का मौलिक सिद्धांत है कि जो भी ध्वंस हो सकता है उसे चूर-चूर करना होगा; जो आघात सहन कर लेगा वह खरा है, जो टुकड़े टुकड़े हो जाता है वह कूड़ा है; जो कुछ हो, सब ओर प्रहार करो, उससे कोई हानि नहीं हो सकती।'' इस प्रकार पिसारोव ने पित्रीय और अन्य अधिकारों पर प्रहार किया, लैगिक समानता की घोषणा की, कर्तव्य और धर्मशीलता जैसे विचारों की खिल्ली उड़ाई, और कुछ संभ्रममय ढंग से हृदय के आदेशों का अनुसरण करने की स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया। निषेधवादियों ने बातचीत और व्यवहार में एक प्रकार का अक्खड़पन बरतना आरंभ किया और दिखाने के लिए ऐसे ढंग अख्तियार किए जो उद्धतरूप से भौतिक तथा सत्ता के प्रति असंमानपूर्ण थे। किंतु इस उद्दंखडता के बावजूद इससे ज़ारकालीन रूस के घुटनेवाले वातावरण में ताजी और प्रबल हवा का एक झोंका आया। स्वयं निषेधवादी न होते हुए भी हर्ज़ेन और चेर्निशेव्स्की के समान चिंतकों को इसमें कुछ ऐसा मिला जिसने विकास का काम किया, क्योंकि इसने लोगों के दिमाग के कूड़ाकरकट दूर कर दिया। इस प्रकार, यद्यपि जनता में तथा सामाजिक दृढ़ता में इसका कोई विश्वास नहीं था और यद्यपि वह संपूर्ण रूप से निर्बध व्यक्तित्व पर बल देता था, तथापि यह रूस में क्रांतिकारी विचारों और कार्यों के परवर्ती विकास में एक प्रबल प्रेरक तत्व माना गया।(हीरेंद्रनाथ मुखोपाध्याय)