निषाद संस्कृत भाषा का शब्द है और बहुत पुराना है। वैदिक युग में भी 'निषाद' शब्द प्रचलित था और जलयानों द्वारा यातायात तथा आयात निर्यात का काम करनेवालों में रूढ़ था। 'निषाद' जन देवों मे भी थे और द्रविड़ों को भी लोग निषाद कहते थे; क्योंकि इनमें समुद्री व्यापारियों की प्रधानता थी।
चातुर्वर्ण्यं में निषाद- 'निषाद' शब्द का धातुमूलक अर्थ है- 'बैठनेवाला' या 'बैठानेवाला'। और इस शब्द की रूढ़ि है हिंदू (आर्य) जाति के उस वर्ग में, जिसे लोकभाषा में 'केवट', 'मल्लाह' आदि कहते हैं। नदियों में नाव चलाना इनका काम है और पार जानेवाले लोगों को नावपर बैठाकर ये पार उतारते थे। शब्दों की उत्पत्ति-व्युत्पत्ति किसी निमित्त को लेकर होती है और फिर आगे चलकर उस (शब्द) की प्रवृत्ति किसी दूसरे निमित्त को लेकर अन्यत्र हो जाती है। इसीलिए कहा गया है- 'अन्यद्धि शब्दानामुत्पत्ति निमित्तमन्यचच प्रवृत्तिनिमित्तम्'। हिंदू जाति में 'निषाद' उन लोगों को कहते हैं, जो नाव चलाने का अपना परंपरागत काम करते हैं। यह शब्द एक वर्ग में रूढ हो गया है। यदि कोई निषाद (केवट) नाव चलाने का काम न कर कुछ और काम करता है, तो भी उसे 'निषाद' बतलाते हैं।
पहले नदियों द्वारा दूर दूर तक यातायात तथा माल का आयात निर्यात होता था। बड़ी बड़ी नावों के समूह (काफिले) चलते थे। बड़े बड़े निषादराजों के पास सौ-सौ, हजारा हजार नावों के बेड़े रहते थे। इनके सरंक्षण में हजारों निषाद काम करते थे। ऐसे ही एक निषादराज ने वनयात्रा के समय राम की सेवा की थी, जिसका सादर उल्लेख रामायण में किया गया है। आजकल नावों से या नावों के पुलों से लोगों को पार करने के लिए अनिषाद लोग ठेके ले लेते हैं और गरीब निषाद इनकी नौकरी करते हैं।
निषाद या द्रविड़- अति प्राचीन युग में दक्षिण-पूर्व एशिया से एक बहुत बड़ा 'जन' समुद्री रास्ते से आकर भारत के दक्षिणी छोर पर बस गया। इस 'जन' (जाति) में समुद्री व्यापारियों की प्रधानता थी। समुद्री व्यापार से ये लोग अत्यंत समृद्ध हो गए थे और इनके उस भूभाग को इधर के (पहले से बसे हुए) आर्य लोग द्रविण प्रदेश कहने लगे। आगे चलकर, 'द्रविण' शब्द 'द्रविड़' बन गया। द्रविड़ जन चतुर्था विभक्त होकर ('तमिल' आदि चार भाषाओं के आधार पर) चार प्रदेशों में फैल गए।
आर्यों ने इन नवागंतुक (दक्षिण पूर्व से आए हुए) जनों से कोई संघर्ष नहीं किया। 'सहअस्तित्व' के सिद्धांत पर एक नया भूखंड आबाद हो गया जो खाली पड़ा था। चूंकि इनमें समुद्री व्यापार की प्रधानता थी, इसलिए आर्यों ने पहले इन्हें 'निषाद' नाम दिया और बहुत आगे चलकर 'द्रविण' जन।
जब आर्यों के दो स्वतंत्र राष्ट्रों में संघर्ष (महासमर) हुआ आर्यों ने अपने पड़ोसी इन निषादों (द्रविड़ों) का आह्वान सहयोग के लिए किया था। ऋग्वेद की एक ऋचा है-
तदथ वाचा प्रथमं मंसीय,
येनासुरां अभि देवा असाम।
ऊर्जाद उत यज्ञिवास:।
पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्।
असुरों का अभिनव करने के लिए 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' 'पंचजन' मेरे आह्वान् को सुनें।
इस मंत्र के 'पंचजना:' शब्दों की व्याख्या में यास्क ने (अपने 'निरुक्त' में) लिखा है-
'चत्वारो वर्णा: पंचमो निषाद:' चार वर्ण (संपूर्ण आर्य जाति) और पाँचवे 'निषाद' दक्षिण भारत सहित संपूर्ण भारत'। यह 'पंचजन' शब्द हो राष्ट्रीय एकता सूचित करता है।
इसी से निषाद (द्रविड़) जनों की शक्तिसमृद्धि का पता चलता है। इस मंत्र का 'निषाद' शब्द उन्हीं के लिए हैं।
अनेक विद्वानों ने यह गलत लिखा है कि निषादों (द्रविड़ों) को आर्यों ने मारते मारते भारत के दक्षिण समुद्रतट तक खदेड़ दिया। इसके लिए न कोई वेदों में प्रमाण है न तमिल साहित्य में ही। 'जिनबेकनार' आदि शब्दों को इन लोगों ने द्रविड़परक बताया है, उनके स्पष्ट: भिन्न अर्थ हैं। 'बेकनार' वेद में इन निषादों (द्रविड़ों) के लिए नहीं, जनशोषक सूदखोरों के लिए आया है। यास्क ने लिखा है 'बेकनारा: कुसीद जीविन:' - व्याज से रुपया दूना करनेवाले 'बेकनार' कहलाते थे। क्या 'बेकनार' आर्यों में संभव नहीं? इन्हीं बेकनारों से बचाने के लिए इंद्र (राजा) से प्रार्थना की गई है। लोगों ने द्रविड़ों को बेकनार बतला दिया और संघर्ष की कल्पना कर ली। इसी तरह एक मंत्र में आए हुए 'शिश्नदवा:' का अर्थ इन लोगों ने 'द्रविड़ जन' कर लिया है। मंत्र में कहा गया है कि ये (शिश्नदेवा:) लोग हमारे यज्ञ में न आने पाएँ। लोगों ने लिखा है कि 'शिश्नदेवा': से मतलब है- 'लिंग पूजका:' और लिंग (शिवलिंग) की उपासना मूलत: द्रविड़ों में ही थी। वे प्रतिहिंसा से प्रेरित होकर आर्यों के यज्ञों में बाधा डालते थे। जिन्हें 'प्रबलतम' आर्यों ने मारते मारते समुद्रतट तक पहुँचा दिया हो, वे फिर मरने के लिए आकर यज्ञों में धबा डालेंगे? और यह भी इन सिद्धांतों ने न सोचा कि शिवलिंग के लिए कभी किसी ने 'शिश्न' शब्द का प्रयोग किया भी है क्या? 'लिंग-पूजा' की जगह 'शिश्नपूजा' कभी किसी ने कहा है? उस मंत्र के शिश्नदेवा:' का अर्थ है - 'शियनपरायण: देवा:' - देव, जो विषयवासना में ही डूबे हुए हैं। उनके आने से यज्ञ की प्रतिष्ठा जाएगी। इसीलिए इंद्र (राजा) से प्रार्थना है कि इन (शिश्नदेवा:) जनों का यज्ञ में आने से रोका जाए।
निषादों में- दक्षिणात्य निषादों में यानी द्रविड़ों में- आर्यों की सी वर्णव्यवस्था न थी; सब निषाद (द्रविड़) एक इकाई के रूप में थे और अब भी हैं। अब भी वहाँ 'चातुर्वण्य' जैसी कोई चीज नहीं है। सब 'द्रविड़' हैं। 'ब्राह्मण' जो वहाँ हैं इधर से गए हुए हैं। जब सुखद सह अस्तित्व जम गया, तो व्यापार आदि से मिलना जुला शुरू हुआ और फिर दुर्गम विंध्य तथा बीहड़ वनों को चीरते हुए कुछ साहसी ब्राह्मण उधर गए, जिनके अगुआ या नेता अगस्त्य थे। ये लोग द्रविड़ों में घुलमिल गए। तमिल भाषा का प्रथम व्याकरण अगस्त्य ने बनाया और वहाँ आयुर्वेद की चिकित्सापद्धति चलाई। वहाँ आयुर्वेद की अगस्त्य-पद्धति आज भी प्रचलित है। ये ब्राह्मण सगर्व अपने को 'द्रविड़' कहने लगे।
परंतु द्रविड (या दाक्षिणात्य निषाद) जनों ने अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखा। संस्कृत से पूर्णत: प्रभावित होने पर भी उनकी अपनी भाषाएँ मूल आर्यभाषाओं से भिन्न प्रकृति रखती हैं। उनकी अपनी अनेक सामाजिक विशेषताएँ भी स्पष्ट हैं। इसका कारण यही है कि वे जहाँ आकर बसे थे, वहीं रहे। इसके विपरीत, शक और हूण आदि बाहर से आकर संपूर्ण भारत में फैल बिखर गए और आर्यसमुद्र में विलीन हो गए। आस्ट्रेलिया की भाषा के अनेक तत्व भाषाविज्ञानियों ने द्रविड़ भाषाओं में खोज निकाले हैं। वे लोग आस्ट्रेलिया से समुद्री रास्ते इधर हिंदेशिया और बरमा आदि होते हुए आए। वहीं से पान, सुपारी, केला आदि यहाँ अपने साथ ले आए। कुछ द्रविड़ बरमा में बसे और कुछ लंका में समुद्रतट पर। शेष बड़ी संख्या भारत में समुद्रतट पर बस गई और फिर दूर-दूर तक फैलाव कर लिया, जिससे उनके चार प्रादेशिक भेद हो गए।
'आस्ट्रिक' भी 'निषाद' ही हैं। इतिहासकारों ने द्रविड़ों से पृथक एक 'आस्ट्रिक' जाति की कल्पना की है और लिखा है कि ये (आस्ट्रिक) लोग अपने मूल निवास (भूमध्य सागर के 'फिलस्तीन') से अलग होकर ईराक और ईरान होते हुए भारत आए। नाम 'आस्ट्रिक' और आए उसके विरुद्ध दिशा से। यह भी लिखा है कि इन लोगों में 'पान' (तांबूल) का बहुत रिवाज था। ईराक ईरान में या फिलस्तीन में पान, केला जैसी चीजें कहाँ? पान, सुपारी आदि पूर्वी ओर दक्षिणपूर्वी एशिया की चीजें हैं।
वस्तुत: ये 'आस्ट्रिक' दाक्षिणात्य निषाद (या द्रविड़) ही हैं। इन से पृथक् एक और 'आस्ट्रिक' जाति की कल्पना निराधार है।
'आस्ट्रिक' की ही तरह इतिहासकारों ने एक 'नेग्रिटो' जाति की भी कल्पना की है और कहा है कि सबसे पहले ये लोग भारत आए।
आर्य-निषाद सम्मिलन - जबकि ऋग्वेद में दाक्षिणात्य निषाद (द्रविड़) जनों का नाम उस तरह आया है, कल्पना कर सकते हैं कि वे कितने प्राचीन काल में आकर यहाँ बसे थे। ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम साहित्य है और तमिल साहित्य भी (उतना प्राचीन तो नहीं, पर) बहुत प्राचीन है; इसमें संदेह नहीं। परंतु न वेदों में ही वैसे किसी संघर्ष का उल्लेख है, न तमिल साहित्य में ही। इसके विपरीत 'पंचजना:' आदि प्रयोगों में परस्पर सहयोगिता प्रमाणित होती है।
रामानुज तमिल ब्राह्मण थे, जिन्होंने मूल तमिल 'आलवार' संतों से प्रभावित होकर उन मत (संस्कृत भाषा के द्वारा) संपूर्ण भारत में पहुँचाया। शंकराचार्य केरल के नबूदरी (द्रविड़) ब्राह्मण थे। मध्व और निंबार्क आदि धर्माचार्य भी द्रविड़ थे। इन्होंने मूल द्रविड़ों को आर्य संस्कृति दी और उनके अनेक धार्मिक तत्व संपूर्ण भारत में पहुँचाए। यों 'पंचजना:' में जो आर्य-निषाद (द्रविड़) तत्व पृथक होते हुए भी इकट्ठे दिखाई देते हैं; आगे चलकर एकदम एकाकार हो गए।(कािशेरीदास वाजपेयी)