निर्वात (Vacuum) कार्बन-फिलामेंट बल्बों के आगमन (१८७९ ई.) से पूर्व हिर्टफ्रॉ (जर्मनी) तथा क्रूक्स (इंग्लैंड) विसर्जन नलिकाओं (गेसलर विसर्जन नली) में कम दबाव की गैसों (दबाव लगभग ०.२५ मिमी. पारा) पर प्रयोग कर रहे थे। इस कार्य के लिए पिस्टन-वाले पंप तथा इससे कम दाब के लिए हाथ से चलनेवाले टॉप्लर पंप का प्रयोग होता था।

बाद में तारों में फ़िलामेंट बल्बों के आने पर रोटरी तैल पंप (निर्वात लगभग ०.१ से ०.०१ मिमी. तक) को प्रयोग में लाया जाता था। इसके विकास में गेडे (Gaede) ने काफ़ी योग दिया। फिर गेडे ने १९०५ ई. में रोटरी पारे का पंप (निर्वात = ०.१ माइक्रॉन) तथा १९१३ में ''आणविक'' पंप का, और १९१५ ई. में ''विसरण'' (Diffusion) पंप का आविष्कार किया, जिनका उपयोग कूलिज एक्स-किरण नलिकाओं में किया जाने लगा। तुरंत ही १९१६ ई. में ''विसरण'' पंप से प्रोत्साहन पाकर लंगमूर (Langmuir) ने संघनन (Condensation) पंप का आविष्कार किया। इन दोनों पंपों से १०-४ माइक्रॉन (१ माइक्रॉन =m = १०-३ मिमी.) का निर्वात प्राप्त हो सकता था, जिसके कारण रेडियो वाल्व बन सके (१९२० ई.)। इनके विविध उपयोग सर्वाविदित हैं (देखें रेडियो, प्रसारण, दूरवीक्षण, रेढार आदि लेख)।

सन् १९२८ ई. में बुर्च (C. R. Burch) ने पेट्रोलियम से निकले उच्च क्वथनांकवाले कुछ पदार्थों को पारे की जगह संघनन पंपों में उपयोगी पाया तथा हिकमैन (Hickman) ने वाष्प पंपों में कुछ 'थैलेट' तथा 'सिबाकेट' (Phthalates and Sebacates) के उपयोग की संभावनाओं का अध्ययन किया। चूँकि कमरे के ताप पर इन तत्वों तथा पेट्रोलियम से प्राप्त तत्वों की वाष्पदाब १०-६ मिमी. से भी कम है, इस कारण इन पंपों से निर्वातापेक्षित पात्र तथा पंप के मध्य में बिना शीतक पाश (trap) का उपयोग किए बहुत अधिक गति प्राप्त की जा सकती है। ऐसे पंपों से प्राकृतिक कार्बनिक तेलों से विटामिन को अलग करने, पेनिसिलीन तथा 'प्लाज़्मा' के निर्जलीकरण, निर्वात भट्टियों में धातुओं के आसवन आदि का विकास हुआ। १९४० ई. तक १०-३ माइकॉन तक के निर्वात की उत्पत्ति संभव हो गई।

पंप की गति - इसकी परिभाषा निम्न सूत्र से दी जाती है-

... ... ... (१)

जहाँ Pf = अंतिम निर्वात दबाव, P = आरंभिक वायु दबाव, V = वह आयतन जिसमें निर्वात उत्पन्न करना है तथा S = पंप की गति, किसी दिए दबाव पर, लिटर प्रति सेंकड में है। इस प्रकार एक मिमी. दबाव पर १ लिटर प्रति सेकंड का अर्थ १०००/७६० घन सेंमी. प्रति सेकंड है।

अथवा,- ... ... ... (२)

यहाँ S1 = S (1-Pf/P) किसी भी क्षण पंप की वास्तविक गति है। इस प्रकार S1 का मान P के लिए S के बराबर तथा Pf = P के लिए शून्य तक बराबर बदलता है। जब अंतिम प्राप्त हो सकनेवाला निर्वात उत्पन्न हो जाता है, तब S का मान्य समीकरण (१) में शून्य हो जाएगा। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि बाष्पधारावाले पंपों में सैद्धांतिक रूप से Pf के मान की कोई अंतिम सीमा नहीं है।

एक तंत्र को पंप करके ७६० मिमी. से Pf मिमी. पारे का निर्वात लाने के लिए आवश्यक अवधि t का सूत्र निम्नलिखित है :-

t = 2.3 ... ... ... (३)

यहाँ t मिनट में, V घन फुट में, S घन फुट प्रति मिनट में तथा J = 'लीक' (छिद्र) के कारण दबावृद्धि की दर (मिमी. पारा प्रति मिनट में) व्यक्त की गई है।

एक 'लीक' के कारण उत्पन्न दबाववृद्धि के अनुसार आवश्यक पंप की गति, SJ, का सूत्र निम्नलिखित है :

Sj= ... ... ... (४)

भाग प्रथम : पंप

पंपों के वर्ग तथा प्रकार - मोटे तौर पर निर्वात पंपों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है - प्रथम वे, जो किसी पात्र से वायु को वायुमंडलीय दबाव का पंप करते हैं (यह कार्य प्राय: यांत्रिक पंप करते हैं) तथा द्वितीय वे, जिनके लिए एक पूर्वनिर्वात, अर्थात् प्राथमिक, पंप या सहायक पंप की आवश्यकता पड़ती है। ''पूर्व पंप'' (प्राथमिक या fore pump),अथवा 'सहायक पंप' (backing pump) प्रथम वर्ग के होते हैं। दूसरे शब्दों में, यह पंप एक विशेष दबाव की सीमा के बाद ही कार्य करते हैं।

प्रथम श्रेणी के कुछ पंपों के नाम हैं : (१) जल-सेट (jet) पंप, (२) गेडे पंप (Gaede pump), (३) सेन्को. हाइवैक (Cenco-hyvac) पंप, (४) किनी (Kinney) पंप तथा (५) गैस ब्लास्ट पंप। इसके अतिरिक्त इनके संशोधित प्रतिरूप तथा टाँप्लर पंप (जो टॉरिसेली के प्रयोग पर आधारित है तथा हाथ से चलाने पर चलता है) आदि हैं।

कुछ पंपों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है -

(१) जल-जेट (Water jet) पंप या निष्कासक (Ejector) पंप-

चित्र१. जल-जेट पंप

'अ' पर, तेज धारवाले नल से, पानी आकर सँकरे जेट 'ब' से तीव्र गति से निकलता है (देखें चित्र १.)। जेट को घेरे शंकु, पानी को छितराने से रोक और उसे उचित दिशा में चलाकर, नाली आदि में 'स' से पहुँचा देता है। 'द' से संबंधित पात्र से वायु पानी की धारा में बराबर खिंच, खिंचकर बाहर निकल जाती है। इस प्रकार उत्पन्न निर्वात ७ मिमी. (पारा) होता है, जबकि कमरे के ताप पर पानी का बाष्प दबाव १२ मिमी. होता हैं। यह प्राय: इस्पात या काच का बना होता है। इसके साथ कोई सुखाने वाला पदार्थ, जैसे फॉस्फोरस-पेंटॉक्साइड अथवा सिलिका-जेल, प्रयोग में लाना चाहिए। इसकी पंप करने की गति १० सेंमी. पारे पर २० घन सेंमी. प्रति सेकंड है।

(२) टॉप्लर पंप (Toepler Pump) - इस पंप में (देखें चित्र २) पारा स्वयं ही कुछ छेदों या नलियों को खोलता या बंद करता है। इस कारण सिवाय एक मोटा काम करनेवाले वाल्व 'ग' के इसमें किसी अन्य वाल्व की आवश्यकता नहीं है। पंप के मुख्य भाग काँच के हैं तथा पात्र 'इ' से वायु का निष्कासन (exhaust) पारे का नाँद 'ना' को बार बार ऊपर तथा नीचे करके कर लिया जाता है। 'ब' कक्ष के नीचे की लंबाई ७६ सेंमी. हैं। नाँद को प्रत्येक बार ऊपर उठाने पर कक्ष 'ब' की वायु पात्र 'इ' से अलग और बंद हो जाती है और बल पूर्वक 'फ' नली से गुजरकर प्याली 'प' से वायुमंडल में चली जाती है। नाँद के प्रत्येक बार नीचे करने पर पात्र 'इ' का दबाव, गैस के कक्ष 'ब' में प्रसार के कारण, कम हो जाता है। इससे प्राय: ०.०२- ०.०१ माइक्रॉन तक का निर्वात प्राप्त हो जाता है, पर समय तथा मेहनत अधिक लगती है।

चित्र २. टाँप्लर पंप

प्रयोग से पहले रबर की नली को कॉस्टिक सोडा के विलयन से तथा फिर आसुत जल से धो और सुखा लेना चाहिए।

(३) सेंको-हाइवैक रोटरी तैल-पंप- यह प्रयोगशालाओं तथा कारखानों का बहुत प्रिय पंप है तथा अमरीका का बना है। इसमें इस्पात का बना बेलनाकार आंतिरिक घूर्णक (रोटर, Rotor) है, जो एक दूसरे इस्पात के बेलन के खोल 'स' के अंदर धुरी 'ब' के चारों ओर घूमता है। धुरी 'ब' 'अ' के केंद्र से हटी हुई, उत्केंद्रीय (eccentric) है। अंदर लाने और बाहर ले जानेवाली नलियाँ य, छेद पास पास हैं तथा एक छड़ (पुच्छफलक, vane), भुजा 'ड' की सहायता से काम करनेवाली एक अकेली कमानी के द्वारा कार्य करती है। रोटर तीर की दिशा में घूमता है। वायु पात्र से, 'इ' नली द्वारा खिंचकर आयतन 'क' घेरती हैं तथा बाहरी वाल्व 'फ' के निकट के थोड़े से आयतन में छड़ तथा रोटर की गति से दब कर, 'फ' से वायुमंडल को चली जाती हैं। बक्स 'ग' में संपूर्ण उपकरण तेल में डूबा रहता है, जो छिद्रों (लीक) को भी बंद करता है। इस प्रकार १०-३ मिमी. पारे के बराबर निर्वात प्राप्त हो जाता है। इसकी गति ८ लिटर प्रति सेकंड होती है। व्यापारिक 'हाइवैक'

चित्र ३. सेंके हाइवैक रोटरी पंप

प्राय: दी श्रेणीबद्ध पंपों का बना होता है, जो एक ही धुरी पर घूमते हैं तथा एक दूसरे की सहायता करते हैं। अन्य 'हाइवैक' पंपों के

 

चित्र ४. गैडे फलक (vane) पंप (दो फलकवाला)

प्रकार हैं : ''मैगावैक'' तथा ''हाइपरवैक''। श्रेणी क्रम में जुड़े होने पर निर्वात और अधिक बढ़ जाता है (१०-४ मिमी. पारा से भी कम दबाव)।

(४) गेडे (Gaede) Pump - फिसलनेवाली छड़ (पुच्छफलक) वाला (Sliding Vane Type) - इसमें भी एक उत्केंद्रीय (केंद्र से हटी) अक्ष पर एक रोटर ड्रम घूमता है। यह पुच्छफलकों के द्वारा कक्ष को दो कोष्ठों में विभक्त कर देता है। ये फलक (vanes) ड्रम के खाँचों (slots) के स्वतंत्र रूप से घूम सकते हैं, पर कमानी के द्वारा 'अ' भाग में वायु को बंद किए रखते हैं। ड्रम के घूमने से वायु दबकर वाल्व 'व' से निष्कासित हो जाती है, उस समय आनेवाली नली बंद रहती है। दोनों कोष्ठों को मील करने तथा खाँचों के घर्षण या रगड़ को चिकना करके रोकने के लिए तेल की आवश्यकता पड़ती है। इससे उत्पन्न निर्वात १०-२ मिमी. पारे के बराबर होता है। यदि दो पंपों को श्रेणी में जोड़ दिया जाए तो १०-४ मिमी. का निर्वात उत्पन्न किया जा सकता है।

(५) रोटरी प्लंजर पंप (किनी पंप) - यह अमरीका की किनी (Kinney) कंपनी द्वारा बनाया गया पंप है तथा हाइवैक और गेडे पंपों जैसा ही काम करता है।

फिसलने फलकों के स्थान पर इसमें एक नली 'फ' होती है, जो रोटर 'रो' से कसकर जुड़ी रहती है। 'फ' एक छोटे बेलन, ब, में कसी कसी फिसल सकती है। यही नली प्लंजर या रोटर के घूमने पर ऊपर नीचे चलती है तथा गैस या वायु के अंदर आने का रास्ता बनाती है। 'रो', एक मोटरचालित केंद्र से हटी, धुरी 'धु' पर सवार होता तथा दो भागों में होता है : अंदर का ड्रम या बेलन 'स' तो धुरी के साथ ही उसके चारों ओर घूमता है, पर उसके चारों ओर का बेलना

कार खोल 'द' उसके अंदर कसा कसा फिसल सकता है और चूँकि यह नली 'फ' से कसकर जकड़ा होता है इस कारण 'स' के साथ घूमता तो नहीं, पर ऊपर नीचे चलता है, जिसके कारण रोटर 'रो' तथा स्थिर बाह्य बेलन 'क' के बीच का संपर्कबिंदु ल' 'क' की दीवार के सहारे खिसकता है। इस प्रकार पूर्ण कक्ष दो कोष्ठ 'म' तथा 'न' में बँट जाता है।

तीर की दिशा में 'रो' की गति में 'म' का आयतन बढ़ता है तथा 'न' की वायु तथा तेल दबर और वाल्व 'व' से मिलकर एक बगल के तेल की टंकी में पहुँचता है, जहाँ तेल तो बच रहता है किंतु वायु वायुमंडल को चली जाती है। यही क्रिया दोहराई जाती है। कहा जाता है कि इसके द्वारा पाँच माइक्रॉन तक का दबाव प्राप्त हो सकता है।

(टिप्पणी - यह तांत्रिक तैलपंप द्रवित होनेवाली वाष्पों, जैसे जलवाष्प, तैल वाष्प, नल की चर्बी की वाष्प आदि, को निष्कासित करने

में असमर्थ है। इस कारण यह वांछनीय है कि फॉस्फोरस-पेंटॉक्साइड की एक छोटी ''नौका'' को पंप तथा निर्वात पात्र के बीच में रखकर, इन पंपों को सुरक्षित रखा जाए। इस प्रकार न तो जलवाष्प दबाव को खराब कर पाता है और न बेलन तथा रोटर आदि की चिकनी सतहों को ही।)

अपकेंद्री पंप (Centrifugal Pump) - गैस बैलैस्ट पंप (Gas Ballast pump) तथा लोब पंप (Lobe pump - Rootstype) आदि का वर्णन किसी भी भौतिकी की पुस्तक में मिलेगा।

द्वितीय प्रकार के पंपों के, जिनके लिए एक पूर्वपंप (fore-pump) की जरूरत होती है, कुछ प्रकार नीचे दिए जाते हैं :

(१) गैडे के आणविक पंपों (Molecular pumps) का सिद्धांत चित्र ६. से सिद्ध हो जाएगा। बेलन 'अ' तीर की दिशा में खोल 'ब' के अंदर ऐसी गति से चक्कर लगाता है कि इसके तल के किसी बिंदु का स्पर्शरेखीय वेग (tangential velocity) आंशिक निर्वातवाले छिद्र 'स' में वायु के अणुओं के वेग से अधिक होता है। जो अणु इस घूमनेवाले ढोल (ड्रम) से टकराते हैं, उनमें गति की दिशा में स्पर्शरेखीय वेग उत्पन्न हो जाता है। इस कारण जो कण नली 'ड' में प्रवेश करते हैं, उन्हें निकास नली 'इ' की ओर गति प्राप्त हो जाती है, जहाँ पर वे पूर्वपंप द्वारा खींच लिए जाते है।

पंपों में सर्वश्रेष्ठ विसरण (Diffusion) अथवा संघनन (Condensation) पंप है। जेट 'स' (देखें चित्र ७.) पर इन पंपों की गति बहुत अधिक होती है। इस कारण नलियों में से गैसों के विसरण की दर तथा दीवारों से मुक्त हुई वायु मिलकर प्राप्य निर्वात की सीमा निर्धारित कर देती हैं। सैद्धांतिक रूप से यह पंप पूर्ण निर्वात उत्पन्न कर सकता है। इसके अतिरिक्त इसका चल भाग केवल पारे अथवा तेल के वाष्प की धारा है।

पारा-विसरण अथवा पारा-संघनन पंप - इस पंप में पारे में पारे के वाष्प की एक धार एक जेट छिद्र से निकलती (चित्र ७.) है। पारे को गरम

करने से पहले निर्वात पात्र को एक पूर्वपंप के द्वारा इसी विसरण पंप में से होकर वायुरिक्त किया जाता है; तज्जनित दबाव (अर्थात् १०-२ मिमि. पारे से भी नीचे) पर तब पारे को उबाला जाता है। इस प्रकार पारे के वाष्प की उच्च गति वाली धारा में वे वायु अणु, जो इसकी धारा में निर्वात पात्र से 'विसरण' द्वारा आ जाते हैं, फँसकर इसके साथ पूर्व पंप में चले जाते हैं, जहाँ से वायु वायुमंडल को निष्कासित कर दी जाती है। चूँकि पारे के वाष्प कणों की गति, जेट से निकलने के पश्चात् वायु के अणुओं के विसरण की गति से कहीं अधिक होती है, इस कारण गैसों के गतिज सिद्धांत के द्वारा ज्ञात हुई संभाव्यता, कि वायु के अणु विपरीत दिशा में विसरण करेंगें अथवा वाष्प के द्वारा न फँसेंगे, केवल १०२० में के बराबर है। इसी कारण पारे के विसरण पंप की कार्यक्षमता बहुत अधिक होती है।

क्रिया विधि - चित्र ७. में 'अ' से पारे की वाष्प निकल कर, कुचालक से ढकी नली 'ब' में होती हुई जेट या सँकरी नली 'स' से बड़े वेग से निकलती है तथा यहाँ पर पानी की ''जैकेट'' के कारण द्रवित होकर पारे के रूप में यू-नली 'इ' में से होती हुई, पुन: 'ब्बॉयलर', अ', में पहुँच जाती है। यहाँ पारा पुन: गरम किया जाता है। पूर्व पंप फ, ब्वॉयलर में पारे की वाष्प-दबाव की तुलना में, नली 'ग' में दबाव काफ़ी कम बनाए रखता है। निर्वात पात्र, 'ह' से आनेवाली वाष्प का सँकरी नली, 'स' के निकट विसरण होता है, जहाँ पर पारे का वाष्प उसे फँसाकर अपने साथ ले जाता है तथा पूर्व पंप उसका चूषण कर लेता है।

व्यवहार में देखा गया है कि इन पंपों की गति जेट के आकार तथा रूप पर निर्भर करती है।

पारे के संघनन पंपों के कई कई प्रकार हैं। इनमें से कुछ पूर्ण रूप से इस्पात के बने तथा दो या चार खंडों में श्रेणी में जुड़े होते हैं (आयनीकरण-गेज द्वारा नापा निर्वात =´ १०-८ मिमी. तथा गति = ७०० घन सेंमी. प्रति सेकंड)।

चित्र ८. में तीन खंडों (three stages) वाला सुदृढ़ संघनन पंप दिखाया गया है। पारे को तीन भागों में बाँट दिया जात है। स-१ से गुजरनेवाला वाष्प द्वितीय खंड के लिए स-२ पर पुर्वनिर्वात का निर्माण करता है तथा स-२ तीसरे खंड स-३ के लिए दबाव में कमी करती है। यह पंप बहुत शीघ्र १०-५ माइक्रॉन से भी कम निर्वात उत्पन्न कर देता है।

तीन खंड का (धातु का बना) तैलवाष्प पंप कम से कम ३´ १०-४ माइक्रॉन दबाव शीघ्र उत्पन्न कर देता है। इसकी गति ६० लिटर प्रति सेकंड होती है।

भाग द्वितीय : दबाव तथा निर्वात मापी (Gauges)

दबाव की इकाइयाँ- निर्वात तंत्र में दबाव मिमी. पारा, माइक्रॉन अथवा 'बार' (bar) में नापा जाता है। १ माइक्रॉन (m ) = १०-३

चित्र ८. सुदृढ़ तीन खंडों (three stages) का पंप

मिमी. पारा तथा १ बार = उस दबाव के जो १ डाइन का बल १ सेमी. वर्ग पर डालता है,

अथवा १ मिमी. पारा = १,००० m = १,३२५ बार।

एक कक्ष के अंदर का दबाव यदि वह बहुत नीचा न हो तो चित्र ९. में दिखाए गए (१) बंद अथवा (२) खुले दाबमापियों द्वारा नापा जा सकता है। यदि इन्हें ऊर्ध्व न रखकर से भिन्न रूप में लगाया जाए तो सुग्राहिता बढ़ जाएगी।

मैक्लाउड प्रमापी (McLeod Gauge) - दबाव को अच्छे ढंग से मापने के लिए यह प्रमापी काफी उपयुक्त है। चित्र १०. में

काच का बल्ब 'अ' एक कोशिका नली 'ब' से जुड़ा है। 'स' एक पार्श्वभुजा है, जो कोशिका नली 'ड' से संबद्ध है। 'ब' तथा 'ड'

(१) मैक्लाउड प्रमापी तथा (२) मैक्लाउड प्रमापी का संक्षिप्त रूप। साइकिल पंप के द्वारा नांद ग से पारा प्रमापी में भेजा जा सकता है।

केशिका नलियों के आंतरिक व्यास समान हैं। ये दोनों पास पास तथा समानांतर हैं। काच के तंत्र को पूर्ण रूप से साफ करके विंदु 'ह' तक पारे से भर देते हैं। चित्र (१) में यदि प्रमापी वायुशून्य हो तो 'ग' को ऊपर उठा कर उसे पारे से भर जाएगा, यदि इसे पंप करके वायुरिक्त कर दिया गया हो। प्रमापी से बाहर निकालने के लिए पारे को नली 'ज' से पूर्वपंप के द्वारा खींच लिया जाता है। पारे को फिर से ऊपर उठाने के लिए 'न' छिद्र से नाँद 'ग' के लिए रास्ता है, जो टोंटी 'ट' के द्वारा खोला या बंद किया जा सकता है। बल्व 'अ' का आयतन उसको बनाते समय ही नाप लिया जाता है। उसका तथा 'ब' नली का आयतन आ (V) है। वायु, जिसका निम्न दबाव p नापा जाना हो, बल्व में स्वतंत्रता से 'स' नली से आ सकती है। 'ग' को ऊपर उठाने से वायु विंदु 'क' तक दब जाती है, जिसके कारण इसका आयतन अ (v) तथा दबाव दा (P) हो जाता है, तो बॉयल के नियमानुसार :

pV=Pv ... (१)

तथा v = p r2h, जहाँ r = 'ब' का अर्धव्यास (बनाते समय ज्ञात किया हुआ) मिमी. में तथा h = 'ब' के शिखर तक की दूरी मिमी. में। दूसरी ओर पारा बिंदु 'ख' तक जाता है, इस कारण P = h1 मिमी. पारा।

\ p = मिमी. पारा ... (२)

V घन मिमी. में है। यदि मापी को सुविधा के विचार से h = h1 कर के प्रयोग करें तो

p = kh2 ... (३)

यहाँ k = स्थिरांक । अब एक पैमाना 'ब' नली के समानांतर लगाकर उपकरण को १ मिमी. से १०-६ मिमी. तक का पाठ देनेवाला बनाया जा सकता है।

(टिप्पणी : यह बात ध्यान देने योग्य है कि मैक्लाउडमापी वाष्प दबाव बिल्कुल नहीं नाप सकते हैं। इस कारण यह परमावश्यक है कि काच, रबर तथा पारा आदि बड़ी सावधानी से साफ करके तब जोड़े जाऐं।)

निर्वात के केवल गुणवाचक तथा केवल संनिकट परिमाणवाचक ज्ञान एक विसर्जन नली में उत्पन्न क्रूक्स के अंधकारमय भाग (Crooke's Dark Space) की चौड़ाई से प्राप्त लिए जा सकते हैं, क्योंकि यह चौड़ाई = d मिमी. वायु की मध्यमान स्वतंत्र दूरी, L, (mean free path) और इस कारण दबाव पर निर्भर करती है। सूत्र है :

p = k/L=k1/d,

जहाँ अवशिष्ट वायु का दबाव p मिमी. पारा है तथा k और k, स्थिरांक हैं। यह संनिकट सूत्र है, क्योंकि ऐस्टन तथा बाट्सन के अनुसार 'd' धारा के धनत्व पर भी निर्भर करती है। विसर्जन या तो डी. सी. विभवांतर के द्वारा अथवा उच्च आवृत्ति वाले दोलक (oscillator) के द्वारा वायु में धाराएँ उत्पन्न करके, अथवा एक टेस्ला कुंडली (Tesla Coil) द्वारा भी उत्पन्न किया जा सकता है। टेस्ला कुंडल की विधि इस बात में मूल्यवान है कि यदि काच का कोई वर्तन पंप किया जा रहा हो और उसमें कोई विसर्जननली न जुड़ी हो, तब भी विसर्जन उत्पन्न हो सकता है, यदि पूर्व दबाव पर्याप्त कम हो। यदि दीप्ति (glow) सब तंत्र में (बिना नाइट्रोजन के गुलाबी विसर्जन के) फैल जाए तो दबाव १०-१ मिमि. पारे से नीचे होगा। १०-१ मिमी. से नीचे के दबाव पर विसर्जन नली की प्रकृति, आयु तथा विभवांतर पर निर्भकर करती है। १०-२ मिमि. से नीचे यदि विद्युत-क्षेत्र १०० वोल्ट प्रति मिमि. से कम हुआ तो विजर्सन समाप्त हो जाता है। इसे 'काला' विसर्जन कहते हैं।

विसर्जन धारा (streamer) १ से २० मिमी. दबाव तक दोनों विद्युदाओं के मध्य में उत्पन्न होती है। उच्च दबाव पर (लगभग २० मिमी. पर) यह धारा सँकरी, तथा १ मिमी. दबाव पर चौड़ी तथा नली की दीवार तक फैली हुई तथा १मिमी. से भी नीचे कैथोडदीप्ति अंधकारमय भाग आदि उत्पन्न हो जाते हैं।

कैथोडदीप्ति कैथोड को घेरे हुए तथा उसकी बाटों के अनुरूप होती है। उसके पश्चात् क्रुक्स का अंधकारमय भाग, फिर ऋणात्मक दीप्ति, तक फैराडे का अंधकारमय भाग और इसके बाद धनात्मक सिरों तक फैली धनात्मक दीप्ति होती है। यदि नली में वायु, ऐमानिया, हीलियम, निऑन, जलवाष्प, तथा ऑक्सीजन हों, तो विसर्जन का रंग क्रमश:, लाल, नीला, लाल, पीला, सफेद-नीला तथा लाल होगा।

(३) पिरानी प्रमापी (Pirani gauge) - यह प्रमापी इस भौतिक सिद्धांत पर काम करता है कि किसी गैस के दबाव, p, तथा उसकी तापीय चालकता, k, में निम्नांकित संनिकट (approximate) संबंध है :

k = a p. (a = स्थिरांक)।

जितना दबाव अधिक होता है उतनी ही अधिक, गैस की चालकता के कारण, एक निर्वात तंत्र में सील किए हुए गरम फिलामेंट से ताप के क्षय की दर होती है। यदि फिलामेंट में बहनेवाली धारा का मान स्थिर रखा जाए, तो इसका ताप तथा उसी के साथ ही उसका प्रतिरोध भी दबाव के साथ-साथ बदलेगा। यह परिवर्तन एक व्हीटस्टोन सेतु द्वारा नापा जा सकता है। इसको अंशांकित करने के

क. निर्वात पात्र, ख. टंग्स्टन का फिलामेंट, G. गैल्वैनोमीटर, A. ऐम्पियर मीटर, तथा V. वोल्ट मीटर

लिए एक मैक्लाउड गेज प्रयुक्त होता है। दोनों के बीच में एक द्रवित वायु का पाश (trap) रख दिया जाता है ताकि पारे का वाष्प वहीं रह जाए। यदि दबाव अधिक होगा, तो प्रतिरोध कम होगा।

इसे प्रयोग में लाने की दो विधियाँ हैं, जिनमें से दूसरी अधिक उत्तम है : (१) गरम करनेवाली धारा स्थिर रखी जाए तथा दबाव में परिवर्तन के साथ साथ उत्पन्न प्रतिरोध का परिवर्तन नापा जा, (२) ताप तथा इसी कारण से प्रतिरोध स्थिर रखा जाए और इसके लिए आवश्यक, लगाए गए विभव को नाप लिया जाए, जिसका मान भिन्न भिन्न दबाव पर भिन्न भिन्न होगा। कैंपबेल के अनुसार, यदि प्रमापी में दबाव p के लिए विभव V तथा प्राप्य न्यूनतम दबाव के लिए विभव Vo हो तो,

(V2 - Vo 2) / Vo 2 = K p (K = स्थिरांक है)। यह संनिकट सूत्र है। यदि (V2 - Vo 2) / Vo 2 = तथा p का ग्राफ

अ. सर्पिल प्रमापी, तथा ब. अंग्रेजी अक्षर C के आकार का प्रमापी। ऊपर बाईं ओर नली की चपटी दीर्घवृत्तीय रूपी अनुप्रस्थ काट दिखाई है।

खींचा जाए, तो हाइड्रोजन से रिक्त सभी गैसों के लिए ०.०५ मीमी. दबाव के नीचे एक सरल रेखा आएगी। परंतु हाइड्रोजन रखनेवाली अलग अलग गैसों के लिए अलग अलग ग्राफ खींचना चाहिए। इसमें १०-५ मिमी. तक के दबाव नापे जा सकते हैं। व्यवहार में एक टंग्स्टेन फिलामेंट लट्टू (१०-४० वाट), जिसमें कस कर एक फिलामेंट जुड़ा हो, उपयोग में लाया जा सकता है। ड्यूमांड तथा स्कॉट के संशोधित पिरानी प्रमापी हैं।

(४) तापवैद्युत युग्मप्रमापी (Thermo Couple Gauge) तथा तापीय प्रमापी (Thermal Gauge) - युग्ममापी के लिए डनलप तथा ट्रंप का लेख महत्वपूर्ण हैं। इसका संशोधित रूप 'तापीय प्रमापी' (Thermai Gauge) है। संशोधि रूप 'तापीय प्रमापी' (Thermai Gauge) है। इसमें चार तारों को विंदु संधान (spot-weld) की विधि से जोड़ कर एक युग्म बनाते हैं। दो तार समान धातु (जैसे जर्मन सिल्वर) के गरम करने के लिए तथा दो विभिन्न पदार्थों जैसे लोहा-ताँबा, लोहागिलट आदि के बने युग्म हैं। गरम करनेवालों तारों में धारा दौड़ाकर युग्मजोड़ (junction) का गरम कर दिया जाता है तथा तज्जनित ताप विद्युद्वाहब बल (Thermo-EMF.) एक सूक्ष्मग्राही यंत्र (जैसे माइक्रो-ऐमीरटर आदि) से नाप लिया जाता है। चूँकि युग्म का ताप एक स्थिर धारा पर, चारों ओर से घेरनेवाली गैस के दबाव अथवा अणुओं के यग्म से टकराने की संख्या पर निर्भर करता है, इस कारण माइक्रो-ऐमीटर के पाठों को दबाव में व्यक्त किया जा सकता है।

(५) वैक्युस्टैट (Vacu-stat) तथा ऐनरायड निर्वातप्रमापी (Aneroid gauge) आदि के वर्णन भौतिकी की पुस्तकों में द्रष्टव्य हैं।

(६) वूरडॉन प्रमापी (Bourdon Gauge) - यह प्रमापी वक्राकार में चपटे-छेद की ऐसी नली का बना होता है, जो दबाव से दोलित होती है (देखें चित्र १२.)। इसका एक सिरा बंद तथा दूसरा सूचक (सूई) से जुड़ा होता है। माप परास (range) के अनुसार यह विभिनन आकार का तथा सुदृढ़ होता है और सरलता से लगाया जा सकता है।

(७) आणविक (Molecular) गेज या प्रमापी - यह श्यानता (Viscosity) के सिद्धांत पर कार्य करता है।

चित्र १३. आणविक, प्रमापी

(अ), तथा (ब) दो आणविक प्रमापी हैं। (स) एक

आयनीकरण प्रमापी (Ionization Gauge) है।

चित्र १३ (अ) भाग में गोल मंडल (disc), (अ) में, चुंबक, 'ब' के (जो स्वयं एक घूमनेवाले चुंबकीय क्षेत्र 'स' के द्वारा विचलित होता है) द्वारा विक्षेप होता है। इसके फलस्वरूप हल्का मंडल ड, जा क्वार्ट्ज़ के रेशे (fibre) द्वारा लटका है, उपस्थित गैस के श्यानकर्ष (Viscous drag) के कारण विचलित हो जाता है। उस समय मौजूद दबाव पर 'ड' तथा 'अ' के बीच की दूरी का मान गैस के मध्यमान-स्वतंत्र-पथ (mean free path) से कम होना आवश्यक है। यदि 'अ' की गति स्थिर रहे तो रेशे में उत्पन्न विक्षेपकोण, जो दर्पण 'द' के बिंब की सहायता से नापा जाता है, उस समय उपस्थित दबाव का समानुपाती होगा। यह सूक्ष्म मापी है तथा इसे भी पिराने-प्रमापी की तरह मैक्लाउड प्रमापी की सहायता से अंशांकित करते हैं।

दोलित रेशा (vibrating fibre) प्रमापी (देखें चित्र १३ का (ब) निर्यात तंत्र में लटके क्वार्ट्ज़ के डोरे का बना होता है। जिस दर से इसके दोलनों में अवरोधपूर्ण अवमंदन (damping) होता हैं, वह तंत्र के दबाव का मान बताता है। केवल १ मिमि. १०-४ मिमि. तक का परास (range) रहता है। उससे नीचे असंतोषप्रद होता है।

(८) आयनीकरणप्रमापी (Ionization Gauge) - चित्र १३ (स) में दिया गया बक्ले का आयनीकरणमापी लाभकारी उपकरण है। विशेषकर निम्न दबावों पर गरम फिलामेंट 'फ' से इलेक्ट्रॉन, बैटरी vm के कारण, त्वरण पा कर ग्रिड 'ग' की ओर आर्कर्षित होते हैं। इनमें से कुछ ग्रिड में पहुँचकर धारा Iq (०.५ से २० मि. ऐंपीयर तक) उत्पन्न करते हैं और शेष ्य्राड की जाली से निकलकर ऋण आवेशवाली पट्टिक (plate) 'प' पर पहुँचते हैं तथा वहाँ से विकर्षित होकर ग्रिड को वापस लौट आते हैं। इस क्षेत्र में प्रस्तुत गैस इन इलेक्ट्रॉनों द्वारा उनकी उपस्थित संख्या, और इसके फलस्वरूप उपस्थित दबाव, के अनुपात में आयनीकृत हो जाती है। इस प्रकार उत्पन्न धनात्मक आयन पट्टिका 'प' की ओर आकर्षित होकर गैल्वैनोमीटर धारा Iq उत्पन्न कर देते हैं। इस प्रमापी की किसी अन्य मानक प्रमापी से लगभग १०-४ मिमि. दबाव पर तुलना करके स्थिरांक k, का मान निम्नांकित समीकरण द्वारा ज्ञात किया जा सकता है :

P = k Iq, (P = दवाब)

Iq गैस दबाव का समानुपाती हो इसके लिए निम्नांकित शर्तें पूरी होना आवश्य हैं :

  1. गैस का दबाव उस दबाब के मान से कम होना चाहिए, जिसमें गैस में इलेक्ट्रॉनों का मध्यमान-स्वतंत्रय-पथ ग्रिड तथा पट्टिका के बीच की दूरी से कम होता है। यदि दबाव अधिक हुआ तो गैस के अणुओं से इलेक्ट्रॉन की एक से अधिक टक्करें हो सकती हैं, जिसके कारण आवश्यक समानुपात न रहेगा। इस कठिनाई को दूर करने के लिए दबाव लगभग १०-३ मिमि. पारे से कम तथा ग्रिड पट्टिका की दूरी उचित होनी चाहिए। इसके लिए व्यापार में विशेषरूप से बने रेडियो वाल्व (जैसे FP७२) मिलते हैं, पर कुद अन्य वाल्व भी जैसे १०१ D, १०२ D, २०५ D, २१६ A तथा ४५ भी प्रयोग में लाए जा सकते हैं।
  2. प्रत्येक इलेक्ट्रान द्वारा जनित आयनों की संख्या इलेक्ट्रॉन ऊर्जा में परिवर्तन (अर्थात् ग्रिड फिलामेंट के बीच के विभवांतर में परिवर्तन) के कारण बहुत थोड़ी बदलनी चाहिए। इलेक्ट्रॉन का आयमीकरण विभव १०० और ५०० वोल्ट के बीच में अधिक तथा प्राय: स्थिर होता है। इस कारण प्रमापी का इसी चौड़े उच्चिष्ठ (maximum) के (जहाँ आयनीकरण की संभाव्यता प्राय: स्थिर है) बीच में उपयोग करना चाहए। वायु के लिए उच्चिष्ठ २५० से ३०० वोल्ट के बच में पड़ता है, पर व्यवहार में १६० वोल्ट अधिक संतोषजनक सिद्ध हुआ है।
  3. ग्रिड धारा, Ig, द्वारा मापी, गैस को बंबारित करनेवाली इलेक्ट्रॉनों की संख्या, अवश्य स्थिर रखी जानी चाहिए। यह उद्देश्य केवल वाल्व के विभवों को स्थिर रखकर ही पूरा नहीं किया जा सकता, क्योंकि फिलामेंट का ताप (गैस की तापधाराओं (convection) से उत्पन्न ताप घटता है) व इसी कारण इक्लेट्रॉन उत्सर्जन (emission) दबाव के अनुसार बदलता है। Ig को लगभग स्थिर रखने के लिए इसके प्रमाप में फिलामेंट के ताप के नियंत्रण के लिए, थोड़ा ही परिवर्तन आने देना चाहिए। यदि Ig इच्छित मान से अधिक हो जाती है, ता इस वृत्रि से फिलामेंट की धारा को घटा दिया जाता है, जिससे उत्सर्जन कम हो जाए, तथा इसके विपरीत (vice-versa)।

डुश्मन ने सत्यापित किया है कि ३´ १०-६ मिमि. तक Ig दबाव की समानुपाती है। यह समानुपात १०-८ मिमि. तक समझा जाता है, पर इसमें त्रुटियाँ हैं। बेयार्ड तथा ऐल्पर्ट का मापी साधारण आयनीकरणमापी से 'उल्टा' है तथा प्लेट का अनुप्रस्थकाट ग्रिडविकिरण समेटने के लिए १०० गुना कम है। इससे १०-१० मिमि. पारे तक नापा जा सकता है।

निर्वात तंत्र (system) के च्यवन (लीकेज, leakage) का पता लगाना - ल्यूसेक (lusec) या लिटर माइक्रॉन प्रति सेकंड (litre microns per sec.) एक उच्च निर्वातवाले उपकरण में सामान्य रूप से अपनाई हुई गैस लीक (leak) करने की दर की इकाई है। एक ल्यूसेक की लीक करने की दर वह दर है, जिसमें एक लिटर के आयतन में प्रति सेकंड १०-३ मिमी. (= १ माइकॉन) पारे के दबाव में वृद्धि हो। इस प्रकार यदि लीक के कारण दबाव में वृद्धि 'ज' मिमी. प्रति मिनट, किसी 'व' घनफुट आयतनवाले बरतन में हो तो लीक होने की दर = ४७२ (ज, व) ल्यूसेक होगी।

'लीक' सिद्ध करना (Leak Proving) लीक की दर का परिमाण ज्ञात करना है।

लीक का स्थान (स्थिति) ज्ञात करना (Leak Location) - इससे केवल स्थान (छिद्र) का पता लगाया जाता है तथा यह केवल गुणवाचक विधि है।

लीक की खोज या पता लगाना - इसका विस्तृत अर्थ है तथा इसमें लीक का सिद्ध करना तथा लीक का स्थान ज्ञात करना दोनो संमिलित है।

लीक की खोज की विधियाँ - लीक की खोज करने की कई विधियाँ हैं। प्राथमिक विधियों के रूप में निम्नांकित विधियाँ अपनाई जाती हैं :

  1. यदि संभव हो तो विभिन्न भागों को साबुन के विलयन में डुबोकर उनपर संपीडित (compressed) वायु छोड़ी जाती ताकि छिद्र का पता लगाया जा सके।
  2. यदि तंत्र (system) काच का बना हो तो ''टेसला कुंडली'' (Tesla coil) सर्वाधिक उपयोगी उपकरण है। तंत्र को केवल सहारेवाले अथवा पूर्वपंप के द्वारा पंप कराके, काच के ऊपर टेसला कुंडली की ''एषणी'' (probe) रखी जाती है। एक दीप्तिविसर्जन उत्पन्न कर दिया जाता है और यदि एषणी काच में किसी अति सूक्ष्म छिद्र पर से गुजरती है, तो उस धातु की एषणी तथा चालक गैस के मध्य एक स्फुलिंग दिखाई देगा।
  3. यदि 'लीक' (च्यवन) संभवत: काच और धातु के जोड़ में हो अथवा किसी कारणवश टेसला कुंडली द्वारा न खोजा जा सके, और यदि उस तंत्र में दीप्तिविसर्जन उत्पन्न किया जा सके, तो जब पेट्रोल या मेथिलित स्पिरिट में भीगा हुआ कपड़ा उस छिद्र के स्थान पर फेरा जाएगा, तब उस स्थान पर विसर्जन का रंग बदल जाएगा, क्योंकि कुछ कार्बनिक वाष्प निर्वात में प्रवेश कर जाएगा।

यह विधि केवल किसी विशेष आकार के छिद्रों में ही कार्य करती है। यदि छिद्र बहुत छोटा हुआ, तो पर्याप्त वाष्प प्रवेश न कर सकेगी; यदि यह पर्याप्त बड़ा होगा तो निर्वात तंत्र हानिकारक रूप में अशुद्ध हो जाएगा, क्योंकि बहुत अधिक वाष्प प्रवेश कर जाएगा। इन्हीं कारणों से यह विधि अधिक उपयुक्त नहीं समझी जाती।

(४) एक उलझे हुए तंत्र में, जिसमें बहुत सी टोंटियाँ तथा विच्छेद (cut-offs) हों, छिद्र की स्थिति, तंत्र के विभिन्न भागों को बिलकुल अलग' (isolate) करके तथा उन्हें विच्छेद (cut off) परीक्षाएँ देकर ज्ञात की जा सकती है। बहुत ही छोटे छिद्रों (leak) के लिए, अर्थात् ऐसे छिद्र, जिनके कारण आधे घंटे में १०-६ मिमि. पारे से १०-४ मिमि. पारे तक दबाव में वृद्धि हो सकती है, केवल विच्छेद परीक्षा ही सबसे सरल विधि है।

पात्र को पहले पर्याप्त निम्न दबाव तक पंप करके, उसका संबंध पंप से निर्धारित अवधि के लिए काट दिया जाता है। इस अवधि में हुई दबाव की वृद्धि को एक मापी (gauge) में पढ़ लिया जाता हैं। तदनंतर जहाँ छिद्र की संभावना हो वह स्थान कड़े मोम या गाढ़ी चरबी से ढक दिया जाता है और फिर से विच्छेद परीक्षा की जाती है। इस क्रिया को उस समय तक बार बार करने से, जब तक १० मिनट के लिए विच्छेद करने के पश्चात् भी दबाव में कोई वृद्धि न हो, छिद्र का पता लगा लिया जाता है।

दबाव वृद्धि से सिद्ध करने की विधि - इसमें किसी मँहगे उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती तथा समय भी कम लगता है। यही विधि व्यवसाय में प्राय: उपयोग में लाई जाती है। यह विधि कितने ही निर्वातवाले उपकरणों में काम में लाई जा सकती है। परीक्षा करने से पहले लंबी अवधि तक पंप करके, दबाव पर्याप्त नीचे तक पहुँचा देना चाहिए, ताकि शोषित वायु के निष्कासन (outgassing) से कोई

यह परीक्षा दबाव वृद्धि द्वारा होती है

प-१ पंप, ख. विलग करने का वाल्ब (isolating valve), व-२ निर्वात विच्छेद वाल्व (vacuum

break valve) तथा व-३ पंप वियोजक वाल्व (pump disconnecting valve)।

बाधा न पड़े। हो सकता है, समय की कमी से यह क्रिया पर्याप्त देर तक न की जा सके। इस कारण उपस्थित वस्तुओं के वाष्प-दबाव से पर्याप्त ऊँचे दबाव के परास में परीक्षा करनी चाहिए। एक सूखे तंत्र के लिए दबाव १० मिमी. पारे से ऊपर संतोषजनक रहता है। पर यदि नमी भी हो तो ३० मिमी. पारे से ऊपर का दबावपरास ठीक होगा।

दबाववृद्धि से सिद्ध करने के परिणाम को दो तरह से व्यक्त किया जा सकता है : दबाववृद्धि की दर के रूप में, अथवा परीक्षा में सम्मिलित आंतरिक आयतन तथा दबाववृद्धि की दर के गुणनफल के रूप में। व्यवसाय में पहला प्रकार की साधारणतया उपयोग में लाया जाता है।

इस विधि के लिए अपेक्षित उपकरण चित्र १४. में दिखलाया गया है।

परीक्षाविधि इस प्रकार है :

जब सब बातें अनुकूल हों तब व-१ तथा व-३ को बंद तथा व-२ को खोल देते हैं। यदि व-१ पूर्ण रूप से बंद होगा, तो दबाव की वद्धि आरंभ हो जाएगी तथा वृद्धि की दर सब छिद्रों (लीक) तथा शोषित गैस निष्कासन (out-gassing) के मिले जुले प्रभाव पर निर्भर करेगी।

दबाव तथा समय का पाठ साथ साथ लिया जाना चाहिए, उनसे अंतर लेकर भिन्न भिन्न अवधियों तथा तत्संबंधी दबाव वृद्धियों का ज्ञान हो जाएगा। स्थिर अवस्था प्राप्त होने पर दबाव वृद्धि की प्रति मिनट की दर भी ज्ञात हो जाएगी।

'लीक' करने की दर में विलग करनेवाले वाल्व के स्थान पर पंप की ओर वायु दबाव के कारण उत्पन्न 'लीक' करने की दर सम्मिलित है। इस कारण परीक्षा तभी यथार्थ हो सकती है जब वह वाल्व कसा हुआ हो। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि (१) निर्वातप्रमापी के क्रमिक पाठ का मान नाप सकने योग्य होना चाहिए, अर्थात् प्रमापी को पर्याप्त सूक्ष्मग्राही होना चाहिए तथा (२) स्थिर अवस्था तब कही जाती है जब एक एक घंटा के अंतर से लिए गए लीक दर के पाठ में १०% से अधिक का अंतर न आए।

६. लीक का स्थान ज्ञात करने की अन्वेषी गैस (Search gas) विधियाँ- ये विधियाँ 'छिद्र' (लीक) का पता लगाने में बड़ी शीघ्रता से काम करनेवाली हैं, पर इनके लिए अधि मूल्यवान् उपकरण की आवश्यकता पड़ती है। इनको एक माइक्रॉन दबाव तक के परास में उपयोग में लाया जा सकता है। ये विधियाँ 'छिद्र' (लीक) की स्थिति ज्ञात करने के लिए सर्वाधिक सूक्ष्मग्राही हैं, पर ''लीक को सिद्ध करने के लिए'' व्यावसायिक उपकरणों के रूप में साधारणतया व्यावहारिक नहीं हैं।

इस विधि को कार्यान्वित करने के दो ढंग है :

(१) परीक्षाधीन उपकरण को एक अन्वेषी गैस के द्वारा उसके वातावरण से अधिक दबाव पर भर दें, और फिर वातावरण पर अन्वेषक गैस की खोज के लिए परीक्षा कें।

(२) उपकरण को एक ऐसे पात्र में बंद कर दें जिसमें अन्वेषी गैस भरी हो तथा एषणी को निर्वात तंत्र में रख दें

साधारणतया प्रथम विधि बड़े उपकरणों, अथवा उपकरणों के समूहों, की परीक्षा करने के लिए अधिक सुविधाजनक है।

अन्वेषकगैस विधि कितने ही परिमाण के निर्वात उपकरण में लागू की जा सकती है। परिमाण की शुद्धता एषणीतंत्र की सूक्ष्म ग्राहिता पर निर्भर करती है।

व्यापारियों से उपलब्ध उपर्युक्त विधि पर आधारित उपकरण निम्नांकित हैं :

(१) हैलोजेन अन्वेषी, गैस एषणी (अधिकतम सूक्ष्मग्राहिता = १०-१ ल्यूसेक) -

इसे ह्वाइट तथा हिकि ने विकसित किया। यह एषणी अपने कार्य के लिए इस सिद्धांत पर निर्भर करता है कि एक गरम किए गए धनाग्र से मुक्त धनात्मक आयनों की संख्या उस दशा में बहुत अधिक बढ़ जाती है, जब हैलोजिन से युक्त यौगिकों का वाष्प धनाग्र की सतह पर टकराता है। इस उपकरण में प्लैटिनम

चित्र १५. हैलोजेन यौगिकों को पहचानने का परिपथ

इसमें तापायनिक संसूचक (detector) सम्मिलित

है। 'ब' ट्रांस्फ़ांर्मर के द्वितीयक (secondary)

का मध्य विंदु है। फि. = फिलामेंट, बे. = बेलन,

ऋ. = ऋणाग्र तथा ट्रा. = ट्रांसफॉर्मर।

का एक पोला बेलन होता है जिसको हवा में अंदर पड़े प्लैटिनम के फ़िलामेंट द्वारा ९००° सें. तक गरम करते हैं। दोनों एक दूसरे से पृथग्न्यस्त होते हैं। इस बेलन को चारों ओर से घेरे समाक्ष (coaxial) धातु का ऋणाग्र होता है। धनाग्र तथा ऋणाग्र के बीच में ५० से ५०० वोल्ट तक का विभवांतर रखा जाता है तथा एक माइक्रोऐमीटर से श्रेणीबद्ध होता है।

इस उपकरण का उपयोग करने की दो विधियाँ हैं। प्रथम विधि यह है कि जिस तंत्र में छिद्र (लीक) खोजना हो, उसमें निर्वात उत्पन्न करने के बजाए उसे किसी हैलोजेन के यौगिक की (फ्रीयान (frion), कार्बन टेट्राक्लोराइड अथवा ट्राइ-क्लोरो-एथिलीन इस कार्य के लिए बड़े उपयुक्त हैं) वाष्पमिश्रित वायु से, वायुमंडल के दबाव से कुछ अधिक दबाव पर, भर देते हैं। वायु और हैलोजेन का मिश्रण तब किसी छिद्र (लीक) से निकलता है और इसे एषणी के रूप में कार्य करनेवाली पतली नली द्वारा पहचान लिया जाता है। यह नली विद्युदग्र संयोजन (assembly) से जुड़ी होती है। यह विद्युदग्र संयोजन प्राय: सुविधा के लिए एक पिस्तौल के आकार में बने धातु के खोल में जकड़ा रहता है। अब यदि माइक्रो-ऐमीटर अथवा डी. सी. ऐंप्लिफ़ायर के निर्गतमापी (output meter) में धनात्मक-आयन की धारा में वृद्धि हो (एक चेतावानी घंटी (alarm) का उपयोग भी किया जा सकता है) तो इससे बड़ी सूक्ष्मग्राहिता से हैलोजन की उपस्थिति ज्ञात हो जाती है। इसके बजाए दूसरी विधि यह हो सकती है कि विद्युदग्र संयोजन को अपने खोल सहित निर्वाततंत्र में, आम रीतियों के अनुसार, 'सील' कर दिया जाता है। तब एक छोटे ''जेट'' (jet) में से हैलोजेन के यौगिक-मिश्रित वायु को उच्च दबाव पर बलात् प्रविष्ट कराया जाता है यौगिक-मिश्रित वायु को उच्च दबाव पर बलात् प्रविष्ट कराया जाता है और तब इस जेट को प्रत्याशित लीक के क्षेत्र पर फेरा जाता है। यदि हैलोजन तंत्र में प्रवेश कर जाती है, तो इस युक्ति द्वारा इसकी उपस्थिति (अनुलिखित) हो जाती है और इस प्रकार 'लीक' की उपस्थिति भी। एक डी. सी. ऐंप्लिफ़ायर को उपयोग में लाने से प्राप्त सूक्ष्मग्राहिता १०-५ ल्यूसेक है।

(२) तापीय चालकता (thermal conductivity) की विधियाँ (अधिकतम सूक्ष्मग्राहिता १०-२ ल्यूसेक) - इन विधियों में एक चूषण पंखा (suction fan) दो प्रतिरोधों पर वायुधारा खींचता है; उनमें से एक अन्वेषक गैस एषणी से संबंधित होता है तथा दूसरा एक ऐसे विंदु से जो एषणी से दूर हो।

ये दोनों प्रतिरोध एक ह्वीटस्टोन-सेतु की दो भुजाएँ बनाते हैं तथा इस सेतु को किसी भी परिवात ताप (ambient temperature) के लिए संतुलित किया जा सकता है। यदि वायु से भिन्न चालकतावाली कोई गैस (जैसे वायु तथा अन्वेषी गैस का मिश्रण) अब इन प्रतिरोधों में से किसी एक के ऊपर से पारित होगी, तो उस प्रतिरोध के ताप में, गैस-मिश्रण की तापीय चालकता में परिवर्तन के कारण, परिवर्तन उत्पन्न हो जाएगा। इस कारण सेतु में असंतुलन से उत्पन्न धारा अन्वेषक गैस के जमाव को प्रदर्शित कर देगी।

बहुत सी गैसें इस के लिए उपयुक्त हैं। उदाहरण के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड बहुत संतोषजनक है।

कुछ विधियाँ निर्वातप्रमापियों के उपयोग पर आधारित हैं। रेडियो कॉपोंरेशन ऑव अमरीका ने बहुत ही अधिक सूक्ष्मग्राहिता का 'लीक' एषणी निर्मित किया है। यह हाइड्रोजन से प्रभावित होनेवाला आयनीकरणमापी अथवा एक विशेष प्रकार का ट्रायोड-वाल्व, (आर. सी. ए., १९४५) है। यह प्रमापी में साधारणतया दबाव १०-७ मिमी. पारे के बराबर होता है। इसकी सूक्ष्मग्राहिता १०-४ ल्यूसेक है। साथ ही यह प्रमापी केवल हाइड्रोजन गैस से ही प्रभावित होता है। अन्य विधियों में (जिनमें अन्य प्रकार के प्रमापी, जैसे पिरानी-गेज या साधारण आयनीकरण गेज प्रयुक्त होते हैं) वह अन्य गैसों या वाष्पों से भी प्रभावित होकर भम उत्पन्न करते हैं, क्योंकि पात्र की दीवारों से निकला वाष्प या गैस भी प्रभाव डालेगी।

जैकब्स तथा त्सूर (Jacobs & Zuhr) ने अपने लेखों में १९४३ ई. से पूर्व प्रयोग में आनेवाली विभिन्न विधियों का वर्णन किया है।

सबसे अधिक सूक्ष्मग्रही तथा कम से कम समय में छिद्र (लीक) खोजनेवाली विधि हीलियम द्रव्यमान - वर्णक्रममापी (mass spectrometer) है तथा यह आयनीकरण-मापी-विधि से १०० गुना अधिक सूक्ष्मग्राही है, पर अधिक मूल्यवान होने के कारण केवल बड़े बड़े निर्वात तंत्रों में ही यह उपयोगी में लाया जा सकता है। इसकी सूक्ष्मग्राहिता ७ ´ १०-७ ल्यूसेक (१०-१० घन सेंमी. वायु प्रति सेंकड, क्योंकि १ ल्यूसेक = १.३२ घन सेंमी. वायुमंडलीय वायु प्रति सेकंड) है। यह निम्नलिखित सिद्धांत पर कार्य करता है :

जब धनात्मक आयनों के पुंज (beam) को, जिसको एक विभव के द्वारा त्वरण प्रदान कर दिया गया हो, उसकी के लंबवत् लगे चुंबकीय क्षेत्र में से पारित होने दिया जाता है तब भिन्न भिन्न आयन अपने आवेश मात्रा की निष्पत्ति के अनुसार विचलित होकर एक वृत्तीय पथ बनाएँगे। उस वृवृत्त की त्रिज्या का सूत्र एक इकाई आवेशवाले आयन के लिए निम्नाकिंत है :

R = सेमी.,

जहाँ H = चुं. क्षेत्र आयर्स्टेड में, V = विभव वोल्ट में, तथा M = आणविक द्रव्यमान ग्राम में है। इस प्रकार किसी निश्चित विभव पर आयनों की धारा का मान पुज (beam) में आयनों के फ्लक्स पर, अर्थात् वर्णक्रममापी में हीलियम के अणुओं की 'लीक' होने की दर पर, निर्भर करेगा।

कैसेन तथा बर्नंहाम ने अवात मुद्रित हुए भागों को बिना क्षति पहुँचाए एक रेडिय सक्रिय गैस (क्रिप्टाँन ८५) को लीक के भागों से विसरित कराकर पहचानने की विधि दी है। इस विधि को ''रेडिफ्लो'' (Radiffo) कहते हैं। इस गैस की अर्ध वायु १०.३ वर्ष है तथा ९९% विघटनों के द्वारा बीटा-कण (अधिकतम ऊर्जा = ०.६७ मेव (Mev)) केवल ०.७% विघटन ०.५४ मेव (Mev) वाली गामा किरणों के उत्सर्जन द्वारा होता है। गामा किरणों का ही पहचानने के गणित्र (counters) प्रयोग में लाए जाते हैं, क्योंकि केवल गामा किरण ही (बीटा नहीं) अधिकतर पदार्थों को भेद कर प्रवेश कर जाती है।

परिशिष्ट - निर्वात प्राप्त करने में जोड़ने और चिपकनेवाले अनेक पदार्थ आज काम में आते हैं। ऐसे पदार्थों में ऐपीजन यौगिक (Apiezon compounds) : एपीज़न-एल, एपीज़न-एम, ऐपीज़न-एन, ऐपीज़न-क्यू, ऐपीज़न-डब्लू, ऐपीज़न डब्लू ४, ऐपीज़न डब्लू १०४ जो विभिन्न तापों पर विभिन्न डिग्रियों के निर्वात प्रापत में हैं, उपयुक्त होते हैं। इनके अतिरिक्त ऐराल्डाइटा, डौकोनिंग सिलिकोन ग्रीज़ (Dow corning silicone greases,), ग्लिप्टाल (Glyptal), पिसीन (Picien), खोटिंसकी सीमेंट (Khotinsky cement) सिरामिक्स और अनेक मिश्रधातुएँ भी इस काम में प्रयुक्त होती हैं।

सं. ग्रं. - डुशमान ऐंड लैफर्टी : सायंटिफिक फांउडेशन ऑव वैक्युअम टेक्निक ८६४- ८७०; डब्लू गेउ : फिज़िक्स ज़ाइट १३, १९१२; पी. ऐलेक्ज़ैंडर : जे, एर्ससी इंस्टि. २३, ११, १९४६; २५, २४५ १९४८; ऐस्टन ऐंड वाटसन : प्रोसी: रॉय. सोस., ८६, १६८ १९११; केसेन एंड बुर्नंहम : इंटर. ज. ऐल्पायड रेडियेशन ऐंड आइसोटोप ९, ५४ (१९६०)।(लवलश्रेााय माथुर)