निर्गुण संप्रदाय निर्गुणवादी या निर्गुनिया लोगों के उस धार्मिक वर्ग के लिए प्रयुक्त होता है जो साधारणत: संत परपंरा के भी नाम से अभिहित किया जाता है, किंतु यह उतना प्रचलित नहीं रह गया है। इसी प्रकार 'निर्गुण' शब्द से तात्पर्य 'गुणरहित' का है और इसका प्रयोग, परमात्मतत्व के सगुण रूप से भिन्नता प्रकट करने के लिए किया गया था; परंतु निर्गुण संप्रदाय के अनुयायियों के यहाँ यह वस्तुत: 'गुणतीत' का बोधक समझा जाता है। 'संप्रदाय' शब्द भी यहाँ, किसी सांप्रदायिक विशेषतावालों के समुदाय का सूचक न होकर एक ऐसे मत का प्रचार करनेवाले संत पुरुषों की हीे ओर संकेत करता है जिसमें विभिन्न रूढ़ियों के अनुसरण की अपेक्षा स्वानुभूतिपरक आचरण को कहीं अधिक महत्व दिया जाता है तथा जिसके लिए इसी कारण, किसी प्रकार के शास्रादि संबंधी विधानों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। इसके सिवाय निर्गुण संप्रदायवालों की दृष्टि में हिंदू, बौद्ध, जैन, इसलाम जैसे धर्मविशेष की धार्मिक वेशभूषा, पूजापाठ, तीर्थभ्रमण, व्रतपालन, आदि बातों में निष्ठा रखते हुए, अपने को किसी एक पृथक् वर्ग का समझ लेना भी कोरी संकीर्णता का परिचायक माना जाता है, क्योंकि उनके अनुसार इसके द्वारा अनेक भ्रांतियों को प्रश्रय मिलता है तथा एक ही व्यापक मानव समाज के अंतर्गत पारस्परिक विद्वेष भी बढ़ा करता है।
ऐसे निर्गुण संप्रदाय के प्रवर्तन का श्रेय बहुधा संत कबीर साहब (भृ. लगभग सन् १४४८ ई.) को दिया जाता है जो काशीपुरी के निवासी थे, किंतु जिन्होंने अपनी धारणाओं में यथेष्ट दृढ़ता आ जाने पर, उसके अनुसार अपनी बानियों की रचना की तथा वहाँ से कई अन्य प्रदेशों में जाकर सर्वसाधारण को अपने सिद्धांतों एवं साधनाओं से परिचित कराया। कहते हैं, इसके पहले उन्होंने अपने प्रसिद्ध समसामायिक स्वामी रामानंद से दीक्षा ग्रहण कर ली थी, किंतु इसके संबंध में कोई ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं है, प्रत्युत उनकी रचनाओं के आधार पर इतना अनुमान कर लेना संभव है कि उन्हें अपने पूर्ववर्ती संत नामदेव से कुछ प्रेरणा मिली होगी। जहाँ तक पता चलता है संत कबीर ने स्वयं किसी प्रकार के संगठन की नींव नहीं डाली और न उनके किसी वैसे समसामयिक संत ने ही कोई ऐसी प्रवृत्ति प्रकट की जिसके आधार पर निर्गुण संप्रदाय का उस समय प्रचलित किया जाना संभव कहा जा सके। ऐसी किसी धार्मिक परंपरा को कोई न कोई व्यवस्थित रूप देने की आवश्यकता का अनुभव, सर्वप्रथम, कदाचित्, उनके कुछ परवर्ती गुरु नानक देव तथा फिर पीछे संत दादू दयाल ने भी किया और, इनके अनुकरण में, क्रमश: विभिन्न पंथों की सृष्टि की गई जिनमें से कुछ तो, अपने प्रवर्तकों के नामानुसार, दादूपंथ, मलूक पंथ, जैसे नामों द्वारा अभिहित किए गए तथा अन्य को अपने अनुयायियों की पद्वियों के आधार पर चरणदासी संप्रदाय जैसे दे दिए गए। इसके सिवाय इन्हें कभी कभी राधास्वामी सत्संग, संतमन सत्संग अथवा लिंगजी की परंपरा जैसे अन्य कतिपय रूपों में परिचित कराने की प्रथा चल निकली, किंतु ये सभी सदा उक्त सर्गुण संप्रदाय का ही प्रतिनिधित्व करनेवाले माने जाते रहे।
संत कबीर के मत का स्वरूप तत्वत: एक व्यावहारिक जीवनदर्शन के अनुसार निर्मित जान पड़ता था। उसका सिद्धांतपक्ष प्राचीन उपनिषदों का जैसा लगता था और उसका साधनापक्ष भी बहुत कुछ अजयोग की बातों से मिलता जुलता था। परंतु उसकी 'भावनगीत' अंतर्गत जिस नामस्मरण की चर्चा की जाती रही उसका रूप एक से 'अजपाजाप' की साधना में परिणत हो जाता रहा जिसकी सिद्धि संभवात: 'सहज समाधि' बन जाया करती थी। इस प्रकार की 'सहज साधना' में निरत साधकों के लिए एक ओर जहाँ भगवान् के किसी सगुण अवतारी रूप का ध्यान करना अथवा उसका गुणगान करना आवश्यक न था वहाँ दूसरी ओर उसमें सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से, घर छोड़कर कहीं बाहर चले जाने की भी आवश्यकता थी। इसके द्वारा उसके जीवनक्रम के भीतर किसी ऐसे कायापलट का आ जाना मात्र यथेष्ट था जिसके अनुसार वह आजीवन एक सच्चे जीवन्मुक्त का जैसा व्यवहार करता रहे तथा इस प्रकार वह भूतल को स्वर्ग का रूप देने में न्यूनाधिक सहायक भी बन जाए। निर्गुण संप्रदाय के अनुयायियों में ऐसी बातें पीछे क्रमश: ओझल होती भी दिखाई पड़ी और उनमें से बहुतों के ऊपर या तो शुष्क वेदांत दर्शन का रंग चढ़ गया अथवा अन्य अनेक, प्रचलित सगुण भक्ति द्वारा विशेष प्रभावित होकर भजनानंदी जैसे बने रह गए। इसके सिवाय संप्रदाय के अंतर्गत गिने जानेवाले कई पंथों के लोगों ने तो पीछे अपने प्रमुख प्रचारकों को सगुण भावना जैसा कोई रूप तक दे डालना प्रारंभ कर दिया।
फिर भी वैसे लोगों में जहाँ किसी प्रकार के समन्वय की प्रवृत्ति आग्रत हुई वहाँ पर उनके मत में उतना परिवर्तन नहीं हो पाया। इस संप्रदाय के कतिपय सुधारवादी प्रचारकों ने अपने यहाँ लक्षित होनेवाली विभिन्न त्रुटियों के परिमार्जन का भी प्रयत्न आरंभ कर दिया जिसके फलस्वरूप इसके आधुनिक अनुयायियों में फिर एक बार पुनर्जीवन में आ जाने की आशा बंधने लगी। तदनुसार, क्रमश: 'निर्गुणमत' की जगह 'संतमत' 'निर्गुण साहित्य', के स्थान पर 'संतसाहित्य' एवं 'निर्गुण संप्रदाय' के भी लिए 'संत परंपरा' जैसे नामों के व्यवहार में आ जाने के आधार पर, ऐसा अनुमान किया जाने लगा कि इसकी ओर प्रदर्शित नवीन दृष्टिकोण में जितना संतत्व की मौलिक भावना काम करने लगी है उतना उसपर निर्गुणोपासकों की कोई साधना मात्र प्रभाव डालती नहीं हो सकती। 'संत' शब्द से अभिप्राय यदि, वास्तव में, किसी सत्स्वरूप नित्यसिद्ध वस्तुपरक स्वानुभूतियों में प्रतिष्ठित रहकर तदनुसार आचरण करनेवाले व्यक्तिविशेष का हो, उस दशा में, वैसे महापुरुषों के समुदाय के लिए, 'निर्गुण संप्रदाय' जैसे शब्द का प्रयोग उतना उपयुक्त भी नहीं कहा जा सकता।(परशुराम चतुर्वेदी)
सं.ग्रं. - डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल : 'हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय' (अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ, सं. २००७ वि.); परशुराम चतुर्वेदी : 'उत्तरी भारत की संतपरंपरा' (द्वितीय संस्करण, इलाहाबाद, सं. २०२१ वि.)।