निरोद कुमार विश्वास, बिशप का जन्म १६ दिसंबर, १९०५ को पादरी राखालचंद्र विश्वास के कुटुंब के बंगाल में नदिया जिले के पुटीमारी ग्राम में हुआ था। पारिवारिक प्रार्थना और बाइबिल का अध्ययन प्रति दिन घर में होता था, अत: महाविद्यालय पहुँचने तक वह बाइबिल के ज्ञान से अच्छी तरह परिचित हो गए थे।

कलकत्ता के सेंट पॉल महाविद्यालय में ९ वर्ष की उम्र में निरोद कुमार ने प्रवेश किया। १७ वर्ष की उम्र में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उनके पिता उसी महाविद्यालय के अहाते में बने होली ट्रिनिटा चर्च के विकर थे। दो वर्ष बाद उन्होंने इंटर साइंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। डॉक्टर बनने के लिए एक सरकारी अस्पताल में भरती हो गए। इस अस्पताल में केवल सांसर्गिक बीमारियों की रोकथाम पर शिक्षा दी जाती थी। परीक्षा पास करने पर डिप्लोमा प्रैक्टिस करने के लिए दिया जाता था। उनको छात्रवृत्ति भी मिली।

छात्र निरोद कुमार कवि और संगीतप्रेमी भी थे। राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत उनके गीत जनता में प्रचलित हो गए। चर्च और देश की सेवा उन्होंने अपनी काव्यकला से भी की। निरोद ने २३ वर्ष की अवस्था में मेडिकल कोर्स समाप्त किया। प्राइवेट प्रैक्टिस करने की इच्छा न था। परिणामस्वरूप वे कलकत्ता साइंस कालेज में बी. एस-सी. डिग्री के लिए भरती हुए।

१९३० में राष्ट्रीय जागरण अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था। सरकारी नौकरी करना युवकों में बड़ा घृणित समझा जाने लगा था। निरोदकुमार भावुक गीतकार, जिसके दिल में राष्ट्रप्रेम और आदर्शवादिता कूट कूट कर भारी हो, कैसे सरकारी नौकरी कर सकता था?

१९३० ई. में महात्मा गांधी ने 'सविनय आज्ञा उल्लंघन' आंदोलन प्रारंभ किया। महिसबतन नगर में उनका नमक बनाने का निश्चय हुआ। महात्मा गांधी अपने भक्तों को लेकर वहाँ जा पहुँचे। निरोद कुमार भी उनके साथ थे। उन्हें (निरोदकुमार को) जोशीला भाषाण देने की कला अपने पिता से विरासत में मिली थी। वे गांधी जी और गोपीनाथ वारदोलोई (भूतपूर्व मुख्य मंत्री, असम) के मुख्य साथियों में थे। जब वे असम के बिशप हुए तो उन्होंने मुख्यमंत्री गोपीनाथ बारदोलोई से मिलकर अपनी मिशन की कई समस्याएँ सुलझाईं। राजनीति में भाग लेने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।

निरोदकुमार तथा उनके मित्र तारकनाथ राय ने रघुनाथपुर में एक दवाखाना खोला। उनकी प्रैक्टिस जम गई। उन्होंने काफी रुपया कमाया व इसी समय पादरी पी.ए.एन. सेन ने कलकत्ता में एक कोढ़ी सेवासदन खोला। निरोदकुमार ने प्रैक्टिस छोड़ दी और कोढ़ियों की सेवा करने लगे। कुछ ही महीनों बाद कोढ़ी सेवासदन से काम छोड़कर वे बिहार के चर्च मिशनरी सोसायटी हॉस्पिटल में काम करने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने आक्सफोर्ड मिशन हॉस्पिटल में काम करना शुरु किया।

यद्यपि वे सी.एम.एस. मिशन के वातावरण में पले थे किंतु अपनी कलात्मक अभिरुचि तथा संगीत के प्रति प्रेम के कारण उनका संबंध आक्सफोर्ड मिशन से था। जो सत्य था, वही उन्हें पसंद था।

डॉक्टर विनोद कुमार विश्वास महात्मा जी के सहयोग रह चुके थे। १६ वर्ष बाद राष्ट्रपिता की मृत्यु होने पर, जिस समय उनकी पुण्य राख डिब्रूगए लाई गई, असम के बिशप डॉ. निरोदकुमार विश्वास ने बड़े ही भाव भींगे शब्दों में गांधी जी का प्रिय गीत सुनाया।

डॉक्टर निरोद विश्वास ने मध्यप्रदेश के बीना शहर में बाइबिल चर्च मेन्स मिशनरी सोसायटी के अस्पताल में भी छह वर्ष तक काम किया। ओषधियों को सदैव प्रार्थना के साथ रोगियों को दिया करते थे।

१९३४ ई. में उनके पिता की मृत्यु हुई। डॉ. निरोद कुमार विश्वास के अंत:करण में इच्छा हुई कि वह अपने पिता के रिक्त स्थान की पूर्ति करें१ बिशप हार्डी चाहते थे कि डॉ. विश्वास को कलकत्ता के बिशप कालेज में प्रशिक्षण के लिए भेजा जाए।

पिता की मृत्यु के दो वर्ष बाद उन्होंने कुमारी वायलेट डाउने से विवाह किया। ये मिशन स्कूल बीना में अध्यापिका थीं। उनके दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं।

डॉ. निरोदकुमार विश्वास की चिकित्सा से एक राजा की माँ को आराम हुआ और राजा ने डॉ विश्वास को राजकीय वैद्य नियुक्त किया।

राजकीय चिकित्सक होने के एक साल बाद उनकी भेंट बंबई तट पर एक महाराजा से हुई। उन्होंने डॉ. विश्वास को स्वयं राजा से माँगकर अपना व्यक्तिगत डॉक्टर बना लिया। वहाँ सुख के समस्त साधन उपलब्ध थे।

किंतु वह दरबारी वातावरण को पसंद नहीं करते थे। वह अब प्रभु की सेवा चर्च द्वारा करना चाहते थे, अत: उन्होंने महाराजा की नौकरी छोड़ दी।

डॉ. विश्वास ने बिशप हार्डी से नागपुर में मुलाकात की। उन्होंने बिशप हार्डी को बताया कि वह आर्थिक हानि मसीही सेवा के लिए उठाने को तैयार हैं।

१९४१ ई. में डॉ. निरोदकुमार विश्वास कलकत्ता लौटे और प्रशिक्षण लेना आरंभ किया।

४ जुलाई, १९४३ के दिन नागपुर के चर्च में वे डीकन के पद के लिए अभिषिक्त हुए। उसी वर्ष उन्हें प्रीस्ट बनाया गया। उन्होंने अपने को प्रभु के चरणों पर समर्पित कर दिया था। अपनी जेब में स्टेथस्कोप और बाइबिल रखकर ही वे बाहर जाया करते थे।

१९४६ में निरोदकुमार विश्वास चर्च के कार्यकाल के दो वर्ष बाद असम के बिशप बनाए गए। वे सफल प्रचारक, सफल चिकित्सक और ईश्वरभक्त थे।

सन् १९४८ में सब देशों के ऐंग्लिकिन चर्च के बिशपों की एक कॉन्फ्रसें लेंबेथ में आर्चबिशप की कोठी (लंदन) में हुई।

वहाँ से वे सितंबर, १९४८ में भारत लौटे और १७ नवंबर, १९४८ को उनका निधन हो गया। (मिल्टनचरण अध्यक्ष)