'निराला',
सूर्यकांत त्रिपाठी
हिंदी के प्रसिद्ध
छायावादी कवि।
इनका व्यक्तित्व कई
दृष्टियों से महत्वपूर्ण
है। यह सामाजिक
तथा साहित्यिक
दोनों दृष्टियों
से विद्रोही कहे
जाते हैं। अपने
क्रांतिकारी
परिवर्तनों
के कारण यह रूढ़िवादी
काव्यप्रेमियों
द्वारा गलत समझे
जाते रहे। इन्होंने
छंद, भाषा, शैली,
भाव आदि के संबंध
में नव्यतर दृष्टि
देकर हिंदी काव्य
को नई दिशा
दी।
निराला का जन्म महिषादल स्टेट मेदिनीपुर (बंगाल) में सन् १८९६ ई. की बसंत पंचमी को हुआ था। इनके मातापिता उन्नाव जिले के गढ़कोला गाँव के रहनेवाले थे। बंगाल में रहने के कारण बँगला इनकी मातृभाषा हो गई। इनकी शिक्षा केवल मैट्रिकुलेशन तक हुई थी। अनेक प्रकार के सामाजिक और साहित्यिक संघर्षों को झेलते हुए भी इन्होंने कभी भी अपने लक्ष्य को नीचा नहीं होने दिया।
निराला ने हिंदी सीखने में अत्यधिक श्रम किया। यह सरस्वती और मर्यादा की फाइलों के एक एक वाक्य को संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी व्याकरण के सहारे समझने का प्रयास करते थे। निराला को निराला बनाने का बहुत कुछ श्रेय इनकी पत्नी को है।
किसी छोटे मोटे विवाद के कारण यह महिषादल छोड़कर घर चले आए। सन् १९२२ में यह कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाले रामकृष्ण मिशन के पत्र 'समन्वय' के संपादकीय विभाग में आ गए। सन् १९२३- २४ में सेठ महादेवप्रसाद ने इन्हें 'मतवाला' के संपादक मंडल में बुला लिया। मतवाला में भी यह दो तीन वर्षों तक ही रह पाए। मतवाला में इनकी रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। इस काल की अधिकांश कविताएँ 'परिमल' संग्रह में संगृहीत हैं।
सन् १९३० से ४२ तक इनका अधिकांश समय लखनऊ और इलाहाबाद में बीता। इस समय जीविका अर्जित करने के लिए इन्हें लोकप्रिय साहित्य की सर्जना करनी पड़ी। 'लिली', 'चतुरी चामर', 'सुकुल की बीबी' (१९४१) और 'सखी' कहानी संग्रह तथा 'अप्सरा', 'अलका', 'प्रभावती' (१९४६ ई.) 'निरुपमा', इत्यादि उपन्यास अर्थसंकट निवारण के उद्देश्य से लिखे गए।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे लोकरुचि से प्रभावित होकर अपने धरातल से उतरकर सामान्य भूमि पर आ गए। इनके काव्यप्रयोग इस समय भी चलते रहे। सन् १९३६ में नए स्वर तालों से युक्त इनके गीतों का संग्रह 'गीतिका' का प्रकाशन हुआ। दो वर्ष बाद (१९३८) में 'अनामिका' काव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ। सन् १९२२ में जो काव्यसंग्रह अनामिका नाम से प्रकाशित हुआ था उससे यह भिन्न है। कवि के अंतर्मुखी प्रबंध काव्य 'तुलसीदास' का प्रकाशन भी सन् १९३८ में ही हुआ।
हिंदी काव्य के क्षेत्र में निराला का प्रवेश मुक्त वृत्त के साथ हुआ। उनका कहना है- 'भावों की मुक्ति छंदों की भी मुक्ति चाहती है।' उनकी कविता में भाषा, भाव और छंद तीनों स्वच्छंद हैं। रीतिकाल की कृत्रिम छंदबद्धता के विरुद्ध यह पहली विद्रोहवाणी थी। जिस मुक्त वृत्त का प्रवर्तन निराला ने किया वह आज के काव्य का मुख्य माध्यम हो गया है।
अंग्रेजी स्वरमैत्री का प्रभाव बँगला गीतों पर पड़ चुका था। उसके आधार पर रवि बाबू के गीतों की स्वरलिपियाँ तैयार हो चुकी थीं। हिंदी के कवियों में निराला ने इस दिशा में प्रयास किया। इनकी दृष्टि में हिंदी संगीत की शब्दावली और गाने पुराने पड़ चुके थे। इसके फलस्वरूप गीतिका की रचना हुई। इस संग्रह के गीतों का स्वर, ताल और लय अंग्रेजी गीतों से प्रभावित है। १९३५ से ३८ तक की निराला की काव्यरचना को प्रौढ़तर कृतियों का काव्य कहा जा सकता है। इसी बीच 'प्रेयसी', 'रेखा', 'सरोजस्मृति', 'राम की शक्तिपूजा' आदि की रचना हुई।
प्रौढ़ कृतियों की सर्जना के साथ निराला व्यंग्य-विनोद-पूर्ण कविताएँ भी लिखते रहे। कुकुरमुत्ता इनकी इसी कोटि की एक लंबी कविता है। इसके बाद इनके जीवन में एक विशेष प्रकार का विषाद दिखाई पड़ने लगता है। 'अणिमा' में संगृहीत गीत उनके इसी पक्ष के द्योतक हैं। 'बेला' और 'नए पत्ते' में कवि की दृष्टि उर्दू और फारसी के बंदों को हिंदी में ढालने की ओर रही है। 'अर्चना' और 'गीत गुंज' में कहीं व्यंग्योक्तियाँ हैं तो कहीं आत्मानुभूति की गहरी झलक। उनके व्यंग्य का पैनापन देखने के लिए उनकी दो गद्य रचनाओं 'कुत्ली भाट' और 'बिल्लेसुर बकरिहा' को देखा जा सकता है। भाषा संबंधी गहरी पेठ के लिए 'चाबुक' भी द्रष्टव्य है।(बच्चनसिंह )