निरंजनी संप्रदाय यह एक ऐसे धार्मिक वर्ग के अनुयायियों की परंपरा है जिसका मूल प्राय: नाथ पंथ समझा जाता है। कहते हैं, यह किसी न किसी रूप में उड़ीसा प्रांत के अंतर्गत प्रचलित है और वहीं से यह कभी पूर्व की ओर असम प्रांत तक एवं पश्चिम में राजस्थान तथा पंजाब और पश्चिमोत्तर भारत तक फैल गया था। ऐसे कथन के लिए कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है और न इसी प्रकार उस अनुमान का ही कोई आधार पाया जाता है जिसके अनुसार इसके मूल प्रवर्तक कोई स्वामी निरानंद निरंजन भगवान रहे जो निर्गुण के उपासक थे और वे विक्रम की १४वीं शती के आसपास वर्तमान थे। ऐसे मतों से कहीं अधिक विश्वसनीय दादूपंथी राघोदास का वह 'बरनन' माना जा सकता है जिसे उन्होंने अपनी 'भक्तमाल' में किया है तथा जिसके अनुसार कबीर, नानक, दादू एवं जगन को यहाँ क्रमश: अपने अपने निर्गुण पंथों का प्रवर्तक बतलाया गया है और इसी प्रसंग में, निरंजन पंथ को प्रचलित करनेवाले उक्त जगन को 'लपट्यो जगन्नाथ दास' जैसा भी नाम देकर उनका 'थरौली' निवासी होना भी ठहराया गया है। वहाँ पर इस पंथ के प्रमुख प्रचारकों में श्यामदास, कान्हड़दास, ध्यानदास, बेमदास, नाथ, जगजीवन, तुलसीदास, आनंददास, पूरणदास, मोहनदास एवं हरिदास नामक अन्य ११ निरंजनियों के भी नाम लिए गए हैं जिनके परिचयों द्वारा ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी १२ महंथ राजस्थान के रहे होंगे। फिर भी, राघोदास के इस कथन में भी हमें ऐसा कोई ऐतिहासिक या भौगोलिक तथ्य नहीं प्राप्त होता जिसे सहसा स्वीकार कर लिया जा सके।
इसके विपरीत एक अन्य मत उस हरिदास को ही निरंजन पंथ का प्रवर्तक मानता है जिसे राघोदास ने उक्त रूप में १२वाँ स्थान दिया है। इसका समर्थन करनेवालों में दादूपंथी संत सुंदरदास (सन् १५६६-१६८५ ई.) एवं रामसनेही संत रामदास (सन् १७२६-९८ ई.) के भी नाम लिए जा सकते हैं जिनमें से प्रथम ने जहाँ इन्हें गोरखनाथ, दत्तात्रेय, कंथड़, भर्तृहरि और कबीर जैसे महान् गुरुओं की श्रेणी में स्थान दिया है वहाँ द्वितीय ने इनके संबंध में 'नाम निरंजनपंथ चलाया' (वाणी, ६ पृ. २०१) जैसा स्पष्ट उल्लेख भी कर दिया है। अतएव, ऐसी दशा में, उक्त जगन की अपेक्षा हरिदास को निरंजनी संप्रदाय का मूल पुरुष मान लेने की प्रवृत्ति स्वभावत: प्रदर्शित की जा सकती है। परंतु इन हरिदास निरंजनी के जीवनकाल का निर्णय करते समय भी, सभी सहमत होते नहीं दिखाई पड़ते और न इनका वैसा यथेष्ट परिचय दिया जाता है। कुछ लोग इनका पहले दादूपंथी प्रागदास (मृत्यु सन् १६३५ ई.) का शिष्य रहना बतलाते हैं जिसका समर्थन स्वयं इनके द्वारा अपनी एक साखी के अंतिम चरण 'कहाँ अकबर नौरोज (भरम विधंस जोग, सा. १८) से भी होता है। जिसमें सम्राट् अकबर (मृ. सन् १६०५ ई.) के देहांत का स्पष्ट उल्लेख किया गया जान पड़ता है तथा इस मत की पुष्टि ऐसी एक सांप्रदायिक धारणा से भी हो जाती है जिसके अनुसार इनकी मृत्यु सं. १७०० की फागुन सुदी ६ को हुई थी। फिर भी हरिरामदास निरंजनी (१८वीं शती) द्वारा रचित 'परचई' में इनका जन्म सं. १५१२ (सन् १४५५ ई.) में होना निश्चित किया गया है और कतिपय अन्य उल्लेखों के आधार पर भी इनका सं. १६०० तक वर्तमान रहना सिद्ध होता है तथा उनके साथ जगद्धर शर्मा गुलेरी द्वारा ठहराए गए इनके रचनाकाल (सन् १५२०-४० ई.) की भी संगति बैठ जाती जान पड़ती है। अतएव, इस प्रकार की बातें स्वीकार कर लेने पर, हमें इनकी साखी का उक्त अंश प्रक्षिप्त सा प्रतीत होने लगता है तथा वैसे अन्य मत भी हमारे लिए ग्राह्य नहीं जान पड़ते जब तक, इस संबंध में यथेष्ट छानबीन करके अंतिम निर्णय न कर लिया जाए।
इन हरिदास निरंजनी के लिए कहा गया है कि इनका पूर्वनाम हरिसिंह था और ये क्षत्रिय थे तथा इनका जन्म, राजस्थान के डीडवाणा नामक परगने के कापड़ोद गाँव में हुआ था और इन्होंने वैवाहिक जीवन भी व्यतीत किया था। कहते हैं, अपनी ४५ वर्ष की अवस्था तक ये प्राय: लूटमार भी करते रहे और इसी दशा में इनकी भेंट किसी ऐसे महात्मा से हो गई जिनके प्रभाव में आकर इन्होंने अपने शस्त्रादि किसी कुएँ में डाल दिए और फिर 'तीखी डूँगरी पहाड़ी की गुफा में साधना करने लग गए। तदुपरांत इन्होंने क्रमश: नागोर, अजमेर, टोड़ा, जयपुर तथा शेखावटी आदि में भ्रमण किया और अंत में सन् १५२३ ई. के लगभग डीडवाणी में आकार निवास कर लिया। वहीं पर रहते समय इनका ८८ वर्ष की अवस्था में, देहांत हो जाना भी बताया जाता है। (रघुनाथ दास निरंजनी रचित 'परिचई')।
हरिदास के ५२ शिष्य कहे जाते हैं। इनकी रचनाएँ श्री हरिपुरुष जी की वाणी एवं महाराज श्री हरिदास जी की वाणी नामों से प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें पाठभेद की दृष्टि से, कोई विशेष अंतर नहीं लक्षित होता। इनके अंतर्गत अनेक पद, साखी, कवित्त, कुंडलिया और चांद्रायण संगृहीत हैं तथा इनके अतिरिक्त ४७ लघुग्रंथ भी पाए जाते हैं जिनमें से दो गद्य में हैं। इसी प्रकार हरिदास निरंजनी के कई शिष्यों प्रशिष्यों की भी बहुत सी रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें से अभी तक केवल कुछ ही प्रकाशित हैं। तुलसीदास, मोहनदास, ध्यानदास, कल्याणदास, सेवादास, नारीदास, आत्माराम, रूपदास आदि की वाणियाँ प्रचुर संख्या में पाई जाती हैं तथा इनमें से प्रथम एवं पंचम द्वारा रचित पद्य क्रमश: छ: सहस्र एवं आठ सहस्र से भी अधिक बतलाए जाते हैं। इसके सिवाय भगवान्दास, मनोहरदास, हरीरामदास, रघुनाथदास व निपट निरंजन जैसे कुछ अन्य ऐसे निरंजनी संत भी हैं जिनकी रचनाएँ विभिन्न अनुवादों, चौपाइयों, वेदांत ग्रंथों और छंद:शास्त्र तक के रूपों में मिलती हैं।
संत हरिदास की वाणी से प्रकट होता है कि गुरु गोरखनाथ एवं कबीर के प्रति इनकी अपार श्रद्धा और निष्ठा थी तथा इनमें से प्रथम को इन्होंने अपने प्रत्यक्ष गुरु के रूप में स्वीकार किया है और द्वितीय की भी दृढ़ टेक एवं निर्भीकता की प्रशंसा करते हुए इन दोनों को काल पर विजय प्राप्त करनेवाले उस अमर महापुरुष की पदवी प्रदान की है जो निरंजन में लीन होकर दूसरे पार पहुँच गया हो। इसी प्रकार इन्होंने गोपीचंद, नाभा, पीपा तथा रैदास के भी नाम आदर के साथ लिए हैं और कहा है कि जिस नाथ निरंजन को अंतिम अभीष्ट मान कर इन सभी संतों ने सिद्धि प्राप्त की उसीको मैं भी अपने लिए अनुभवगम्य समझता हूँ। इन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मैंने सोच विचारकर कबीर का 'करडा पंथ' अपना लिया है जिसकी रीति 'उलटी' है, किंतु मैं उसीको अपने लिए श्रेयस्कर समझता हूँ (वाणी मरिया को अंग)। संत सेवादास भी प्राय: इसी प्रकार की बातें कहते हैं और कबीर आदि की साधना को अधिक महत्व देते हैं। हरिदास जी ने अनाहतनाद, आदि की चर्चा करते हुए 'नामस्मरण' के लिए कहा है कि यही वह 'डोरा' वा धागा है जो हमें उस निरंजन के साथ जोड़ सकता है जिसे उन्होंने परमतत्व के रूप में, 'रामनिरंजन' 'हरिनिरंजन' या 'अलख निरंजन' जैस विभिन्न शब्दों द्वारा अभिहित किया है तथा जिसे रूपरेखादि से रहित भी ठहराया है। फिर भी इनके अनुसार जिस प्रकार जलती हुई लकड़ी के टुकड़े टुकड़े कर देने पर अग्नि के टुकड़े नहीं हो जाते उसी प्रकार वह सर्वत्र एक भाव से व्याप्त है। तुलसीदास ने ऐसे अनिर्वचनीय परमात्मतत्व के प्रति प्रदर्शित की जानेवाली निर्गुण भक्ति के नवधा रूपों की व्याख्या अपने ढंग से की है।
डॉ. बड़थ्वाल ने निरंजनी संप्रदाय की साधना में वेदांतप्रभावित योग के कुछ उदाहरण पाकर इसे न केवल नाथपंथ का एक विकसित रूप मात्र मान लिया था, अपितु 'राधास्वामी सत्संग' एवं 'कबीर पंथ' की धारणा के अनुसार निरंजन को कालपुरुष मानने की प्रवृत्ति पाकर इसे संतमत से भिन्न समझा था। परंतु वेदांतप्रभावित योग की चर्चा दादूपंथ आदि में भी प्राय: इसी प्रकार की गई मिलती है तथा निरंजन को कालपुरुष के रूप में समझने की बात भी संतमत के अंतर्गत, वस्तुत: इसकी पिछली सांप्रदायिक दशा में ही आ गई जान पड़ती है। इसके सिवाय स्वयं हरिदास निरंजनी तक की उपर्युक्त विचारधारा में संतमत की प्रमुख विशेषताएँ स्पष्ट रूप से लक्षित होती हैं। निरंजनी संप्रदाय को भी हम उसी प्रकार का धार्मिक वर्ग मान सकते हैं जैसे संतमत वाले अन्य संप्रदाय पाए जाते हैं। इसके अनुयायियों में एक विशिष्ट प्रवृत्ति इस रूप में दिखाई पड़ती है कि ये किसी प्रकार के सांप्रदायिक संगठन को उतना महत्व नहीं देते। ये लोग सगुणोपासना अथवा मूर्तिपूजा तक की भावना के प्रति स्पष्ट विरोध की भावना नहीं प्रदर्शित करते, प्रत्युत, सदा केवल सामंजस्य के अनुसार चलने की चेष्टा करते हुए, अधिक से अधिक अविरोध ही प्रदर्शित करते पाए जाते हैं। इसके ऊपर नाथपंथ का प्रभाव लगभग उसी मात्रा में पाया जाता है जिस प्रकार 'विश्नोई संप्रदाय' और 'जसनाथी संप्रदाय' के विषय में कहा जा सकता है। इसके अनुयायियों की वेशभूषा अधिकतर सादी ही हुआ करती है और उनके लिए केवल एक गुदड़ी तथा एक पात्र तक भी पर्याप्त है। उनके 'निहंग' और 'घरबारी' नामक दो वर्गों में से प्रथम कोई खाकी रंग की गूदड़ी या कभी कभी 'सेली भी' गले में डाल लेते हैं और भिक्षावृत्ति अपना लिया करते हैं। डीडवाणे के निकट 'गाढ़ा' गाँव में प्रति वर्ष फागुन सुदी १ से १२ तक एक मेला लगता है जिसमें हरिदास जी की गूदड़ी के दर्शन करने की परंपरा प्रचलित है। जहाँ तक पता चलता है इस समय निरंजनी संप्रदाय के लोग विशेषकर राजस्थान प्रदेश में ही पाए जाते हैं, उड़ीसा आदि प्रांतों में नहीं मिलते।
सं.ग्रं. - श्री महाराज हरिदास जी की वाणी (सं. मंगलदास स्वामी, जयपुर सन् १९३२ ई.); श्री हरिपुरुष की वाणी (सं. सेवादास, जोधपुर सं. १९९३ ई.); डॉ. बड़थ्वाल 'दि निर्गुण स्कूल ऑव हिंदी पोएट्री' (बनारस, १९३६ ई.) परशुराम चतुर्वेदी : 'उत्तरी भारत की संतपरंपरा' (द्वितीय संस्करण, इलाहाबाद सं. २०२१)
(परशुराम चतुर्वेदी)