निंबार्क संप्रदाय कृष्णभक्ति से संबंध रखनेवाला व्रजमंडल का प्रमुख वैष्णव संप्रदाय है। इस संप्रदाय के आदि उपदेष्टा श्री हंस भगवान् हैं। उनसे सनक-सनकादि को उपदेश मिला। नारद मुनि ने इस उपदेश को ग्रहण कर आचार्य निंबार्क को दिया। निंबार्काचार्य के जन्मस्थान, जन्मतिथि तथा नाम के सबंध में विद्वानों में बहुत मतभेद पाया जाता है। सांप्रदायिक आचार्यों के अनुसार निंबार्क, भक्तिसूत्र-प्रणेता नारद मुनि के शिष्य थे और इनका प्रारंभिक नाम आरुणि था। दक्षिण देश में गोदावरी के तट पर अरुण मुनि की पत्नी जयंती देवी के गर्भ से इनका जन्म हुआ था। ब्रह्मसूत्रों के व्याख्याता बादरायण व्यास निंबार्क के समकालीन थे, ऐसा भी कहा जाता है। डॉ. भंडारकर उक्त मत को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने निंबार्क का समय सन् ११६२ ई. के आसपास माना है। वर्तमान मैसूर प्रदेश के बेल्लारी जिले के निंबापुर नामक नगर में इनका जन्म हुआ था। इनका शैशवावस्था का नाम नियमानंद था। ऐसी दंतकथा प्रसिद्ध है कि मथुरा के समीप ध्रुवक्षेत्र में जब नियमानंद जी रहते थे, कोई जैन साधु इनके पास आध्यात्मिक चर्चा करने आए और दोनों व्यक्ति शास्त्रचर्चा में इतने लीन हो गए कि इन्हें सूर्यास्त होने का बोध नहीं हुआ। रात्रि का अंधकार फैलने लगा और जैन साधु के भोजन की वेला नहीं रही। नियमानंद जी को यह देखकर बड़ी वेदना हुई कि अतिथि साधु को रात भर निराहार रहना पड़ेगा। इस वेदना में म्लानमन होकर शांत भाव से बैठे हुए नियमानंद क्या देखते हैं कि आश्रम के नीम के वृक्ष के ऊपर सूर्य अपनी किरणों का प्रकाश फेंक रहे हैं। चमकते हुए सूर्य को देखकर तुरंत नियमानंद ने अपने अतिथि को भोजन कराया। भोजन समाप्त होते ही फिर घनांधकार ने अपने अतिथि को भोजन कराया। भोजन समाप्त होते ही फिर धनांधकार सर्वत्र व्याप्त हो गया। इस विचित्र चमत्कार के कारण ही उसी दिन से नियमानंद जी का नाम निंबार्क (नीम का सूर्य का दर्शन करानेवाले) हो गया।
निंबार्काचार्य का जन्म यद्यपि दक्षिण प्रांत में हुआ था तथापि उनकी कर्मभूमि ब्रजमंडल ही रही। वृदावन, गोवर्धन, नीमगाँव आदि स्थानों में घूमकर वे अपने सिंद्धातों का प्रचार कते रहे। उनके चार प्रधान शिष्य बतलाए जाते हैं जिनमें श्रीनिवासाचार्य प्रमुख है जिनका लिखा 'वेदात कौस्तुभ' ग्रंथ है। श्री औदुंबराचार्य, श्री गौरमुखाचार्य और श्री लक्ष्मण भट्ट इनके अन्य शिष्यों में हैं। निंबार्क को भगवान् कृष्ण के सुदर्शनचक्र का अवतार माना जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि अत्यंत सुंदर होने के कारण इनको शैशव में सुदर्शन कहते थे।
निंबार्काचार्य ने अपन सिद्धांतों की स्थापना के लिए पाँच ग्रंथों का प्रणयन किया जिनमें 'पारिजात सौरभ' ब्रह्मसूत्र के ऊपर स्वल्पकाय वृत्ति है। 'दशश्लोकी' भक्ति सिद्धांत-प्रतिपादक दस श्लोकों की सुप्रसिद्ध रचना है। श्रीकृष्णस्तवराज, मंत्ररहस्य षोडशी, तथा प्रपन्नकल्पवल्ली इनकी अन्य कृतियाँ हैं।
निंबार्क का दार्शनिक सिद्धांत 'द्वैताद्वैतवाद' है। इस सिद्धांत को विद्वन्मडली में प्राचीनतम बाद कहा जाता है। निंबार्क ने इसे पुनउज्जीवित मात्र किया है। प्राचीन 'भेदाभेदवाद' का ही यह नवीन रूप माना जाता है। दशश्लोकी में निंबार्क ने ईश्वर, जीव, प्रकृति आदि का सरल भाषा में निरूपण प्रस्तुत किया है। वेदांत-पारिजात सौरभ में अपन द्वैताद्वैतवादी विचारधारा का दर्शनिक धरातल पर वर्णन है। निंबार्क के मत में ईश्वर को सगुण अवतारी कृष्ण रूप में स्वीकार किया जाता है। कृष्णपदारविंद की सेवा, पूजा, अर्चा करनी चाहिए, उनके बिना अन्य कोई गति नहीं है। कृष्णभक्ति में राधाकृष्ण का युगलभाव स्वीकृत है। वामभाग में वृषभानुजा राधा के साथ विराजमान श्रीकृष्ण ही उपास्य हैं। कृष्ण लीलावतारी हैं अत: श्री तथा लक्ष्मी दोनों रूपों में वह कृष्ण के साथ प्रकट होती हैं। निंबार्क संप्रदाय में राधा के स्वकीया रूप में स्वीकार किया गया है और भक्ति के पाँच रूपों में उज्ज्वल भक्ति या दांपत्य भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। प्रेम लक्षणा अनुरागात्मिका परा भक्ति ही साधनमार्ग में वरेण्य है।
निंबार्क संप्रदाय के अनेक मंदिर आज भी उत्तर भारत में विद्यमान हैं। राजस्थान के सलेमाबाद स्थान में इस संप्रदाय की सबसे बड़ी गद्दी है। वृंदावन में भी श्री जी की बड़ी कुंज वाला स्थान निंबार्क संप्रदाय का है। मथुरा, राधाकुंड, गोवर्धन तथा नीमगाँव में निंबार्कीय मंदिर हैं।
निंबार्क संप्रदाय के विशिष्ट आचार्य - निंबार्क संप्रदाय के आचार्यों में संस्कृत तथा हिंदी में ग्रंथरचना करनेवाले अनेक विद्वान् आचार्य हुए। श्री पुरुषोत्तमाचार्य, श्रीदेवाचार्य, सुंदर भट्टाचार्य और केशव कश्मीरी का नाम संस्कृत भाषा में ग्रंथ लिखनेवालों में प्रसिद्ध है। केशव कश्मीरी ने लगभग आधे दर्जन प्रौढ़-ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि वाणी सरस्वती इनके मुख में विराजमान रहती थी। इन्होंने अपनी प्रतिभा से अन्य मतों का खंडन कर स्वमत की तर्कप्रमाण पुरस्सर स्थापना की थी। यवनों के साथ भी इनका शास्त्रार्थ हुआ था और उन्हें पराजित करने में इन्हें सफलता मिली थी। तत्वप्रकाशिका, कौस्तुभ प्रभा, भागवत टीका आदि इनके सुप्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
हिंदी में काव्यरचना करनेवाले पाँच प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जाता है।
श्रीभट्ट - निंबार्क संप्रदाय के भक्त कवियों में व्रजभाषा में काव्यरचना करनेवाले श्री भट्ट जी प्रथम व्यक्ति है। इनके पूर्वज हरियाणा प्रदेश के हिसार जिले के निवासी थे जो वृंदावन में आकर बस गए थे। श्रीभट्ट जी के जन्मसंवत् के विषय में बहुत विवाद है। इन्होने अपनी सुप्रसिद्ध कृति 'जुगलशतक' में जो रचनाकाल दिया है वही इनकी जन्मतिथि पर प्रकाश डालता है, किंतु उस दोहे में भी पाठभेद होने से पूरे तीन सौ वर्ष का अंतर आ जाता है। इनका जन्मसंवत् १६३० के आस पास माना जाता है। 'जुगलशतक' का दोहा इस प्रकार है :
नयन वान पुनि राग ससि, गनौ अंक गति वाम।
जुगल शतक पूरन भयो, संवत अति अभिराम।।
इस दोहे में 'राग' शब्द के स्थान पर 'राम' शब्द पाठभेद से स्वीकृत किया जाता है। यदि राग को प्रामाणिक माना जाए तो संवत् १६५२ में जुगलशतक की रचना हुई और यदि राम को पाठ माना जाए तो संवत् १३५२ को रचनाकाल मानना होगा। यह संवत् अन्य कारणों से भी विवाद का विषय बना हुआ है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से जुगलशतक का अध्ययन संवत् की समस्या को और अधिक उलझाने वाला है।
श्रीभट्ट जी का ब्रजभाषा में लिखा हुआ एक ही ग्रंथ उपलब्ध है - जुगलशतक। इस ग्रंथ में लगभग १०० पद हैं, प्रत्येक पद के पहले मूलभाव को संक्षेप में व्यक्त करनेवाला एक दोहा है। इस ग्रंथ का नाम आदिवाणी भी संप्रदाय में प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में गोपीभाव या सखीभाव की भक्ति को स्थान दिया गया है। पदों में सरल भाषा के साथ संगीतात्मकता सर्वत्र व्याप्त है।
हरिव्यास देव - निंबार्क संप्रदाय का सुदृढ़ संगठन करनेवाले आचार्यों में श्री हरिव्यासदेव का नाम मूर्धन्य है। अपने बारह शिष्यों के माध्यक से इन्होंने अखाड़ों की स्थापना की और निंबार्क संप्रदाय का गौरव बढ़ाया। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि इन्होंने देवी के मंदिर में होनेवाली पशुबलि को वंद करवाने में बड़ा योग दिया था। श्रीभट्ट जी के शिष्य होने के कारण इनका समय भी संवत् १६८० के समीप ठहरता है। श्री हरिव्यास देव ने संस्कृत में चार ग्रंथ लिखे किंतु उनकी ख्याति ब्रजभाषा के ग्रंथ महावाणी के कारण ही है। ब्रजभाषा का महावाणी ग्रंथ जुगलशतक का विस्तार पूर्वक कथन मात्र है। अभी तक यह निर्णय नहीं हुआ है कि महावाणी हरिप्रिया जी को भेंट रूप में समर्पित ग्रंथ है या स्वयं हरिव्यास जी की निजी रचना है। संप्रदाय में ऐसी किंवदंती चली आ रही है कि श्री रूपरसिकदेव ने इस ग्रंथ को भेंट रूप में दिया। यह ग्रंथ पाँच सुखों में विभक्त है, सेवासुख उत्साहसुख, सहजसुख और सिद्धांतसुख। इसमें श्रीकृष्ण और राधा को दार्शनिक रूप में भी चित्रित किया गया है। समस्त ग्रंथ में रसलीलाएँ ही हैं। रस का आगर यह ग्रंथ निंबार्क संप्रदाय में बहुत काल तक गोप्य बना रहा, किंतु १५ वर्ष पूर्व यह मुद्रित होकर सर्वजनसुलभ हो गया है।
परशुरामदेव - हरिव्यास देव के शिष्यों में परशुराम देवजी प्रमुख माने जाते हैं, परशुराम देव जी ही ब्रजमंडल से निंबार्कीय गद्दी को उठाकर सलेमाबाद ले गए थे। इन्होंने राजपूताने में निंबार्क संप्रदाय का प्रचार और प्रसार किया। इनका जन्म जयपुर राज्य के नारनौल नगर में एक गौड़ ब्राह्मण परिवर में हुआ था। परशुराम जी के अनेक चमत्कारों का उल्लेख भक्तमाल ग्रंथ में उपलब्ध है। इनका रचा हुआ 'परशुरामसागर' विशाल ग्रंथ प्रसिद्ध है। परशुराम जी रचित २२ अन्य ग्रंथों की तालिका श्री मोतीलाल मेनारिया ने प्रस्तुत की है। इनकी भक्ति विषयक रचनाएँ सगुणधारा के साथ कहीं कहीं निर्गुण के मेल में भी हैं। इनकी रचनाओं की विविधता को देखकर कुछ विद्वान् इन्हें सूरपूर्व स्थिर करते हैं। ब्रजभाषा और राजस्थानी भाषा का पुट इनकी कविता में सर्वत्र विद्यमान है।
रूपरसिकदेव - हरिव्यास देव के शिष्यों में रूपरसिक देव का स्थान है। रूपरसिक जी का इतिवृत्त अभी तक अनिर्णीत है, किंतु इनकी रचनाओं के आधार पर इनके गृहस्थी और पुत्रकलत्रवान होने का पता चलता है। अपने एक ग्रंथ लीला विंशति में इन्होंने उसका रचनाकाल संवत् १७८७ दिया है। अत: इनका जन्म भी १७५० के आसपास माना जा सकता है। इनके चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं जिनमें 'बृहदुत्सव मणिमाल' प्रकाशित हो चुका है। इसमें लगभग तीन सहस्त्र छंद है। वर्ष भर के उत्सवों का परिचायक इतना विशद ग्रंथ कोई दूसरा नहीं है। हरिव्यास रसामृत, नित्यविहार पदावली और लीलाविशंति इनके अन्य ग्रंथ हैं। कृष्ण की नित्यविहार लीला तथा अन्य लीलाओं का वर्णन इन्होंने बहुत रसमयी शैली में किया है।
वृंदावनदेव - वृंदावनदेव प्रसिद्ध रीतिकालीन कवि धनानंद के समकालीन थे। संवत् १८०० तक इनका उपस्थि होना माना जाता है। काव्यगुण से ओतप्रोत सरस पदावली के लिए इनकी ख्याति है। वस्तुत: रीतिकालीन कवियों के सपर्क में आनेसे इन्होंने अपनी भक्तिरचनाओं में भी उसी सरस शैली को स्वीकार किया है। इनकी प्रसिद्ध कृति का नाम कुछ विद्वान् 'गीतामृतगंगा' और कुछ 'कृष्णामृतगंगा' कहते हैं।
(विजयेंद्र स्नातक)