नास्तिकवाद नास्तिकवाद आस्तिकवाद का अस्वीकार है। आस्तिकवाद की धारणा के अनुसार जगत् का सिरजन, स्थिति और लय एक अप्राकृत चेतन शक्ति के संकल्प पर आधारित है और वह शक्ति प्राकृत नियम (सत्य) के साथ नैतिक नियम (ऋत) की भी नियंता है। नास्तिकवाद ऐसी चेतन शक्ति के अस्तित्व से इन्कार करता है। किसी किसी निषेधात्मक वाक्य की सिद्धि बहुत कठिन होती है। अब नास्तिकबाद की अधि संख्या अपनी धारणा को निश्चयात्मक नास्तिकवाद के रूप में प्रस्तुत नहीं करती, अपितु इसे संदेहात्मक या आलोचनात्मक रूप देती है। संदेहवादी कहते हैं कि ईश्वर के भावाभाव का प्रश्न हमारी बुद्धि की पहुँच से परे है। आधुनिक संदेहवादियों में टामस हक्सले का यह मत है। हर्बर्ट स्पेंसर के विचारानुसार, अंतिम सत्ता का अस्तित्व ही असंदिग्ध है, परंतु उसके स्वरूप के वाबत जानना मानव बुद्धि के लिए संभव नहीं। आलोचनात्मक नास्तिकवाद ईश्वर को अज्ञात या अज्ञेय भी नहीं कहता; वह इतना ही कहता है कि ईश्वर की सिद्धि के जो प्रमाण दिए जाते हैं, वे निर्णायक नहीं। नवीन काल में काँट ने कहा है, कि 'विशुद्ध बुद्धि' ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने में असमर्थ है, परंतु 'व्यावहारिक बुद्धि' इस बोध के लिए द्वार खोल देती है। इस विचार के अनुसार जो लोग विशुद्ध बुद्धि का आश्रय लेते हैं, उनका आस्तिकवाद निर्बल नींवें पर स्थित है।

लापलास ने ज्योतिष पर पुस्तक लिखी। नैपोलियन ने पुस्तक को देखा और लापलास से कहा - लापलास, तुमने देवलोक पर पुस्तक लिखी है ओर उसमें ईश्वर का जिक्र तक नहीं किया। लापलास ने कहा - महाराज। मुझे इस कल्पना की आवश्यकता नहीं हुई। वास्तव में नास्तिकवाद का दृश्टिकोण यही है कि ईश्वर को माने बिना भी जगत् का समाधान हो सकता है।

नास्तिकवाद अपनी इस धारणा को कैसे पुष्ट करता है?

श्वेताश्वेत उपनिषद् इस प्रश्न के साथ ही आरंभ होती है।

  1. ब्रह्मवेत्ता कहते हैं -
  2. जगत् का कारणभूत कैसा है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं, किसके द्वारा जीवित हैं, कहाँ स्थित है? सुख-दुख के संबंध में हम किसकी व्यवस्था में विचरते हैं?

  3. क्या यह कारण काल है? वस्तुओं का स्वभाव है? नियति है? आकस्मिक संयोग है? या भूत है? या जीवात्मा कारण है? इसपर विचार कना चाहिए। पहले पाँच या इनका संयोग कारण नहीं, क्योंकि आत्मा बच रहता है। आत्मा भी कारण नहीं क्योंकि सुख और दु:ख की व्यवस्था इसकी सामर्थ्य में नहीं। (१:१-२)

जगत् में हम जड़ प्रकृति, जीवन और चेतना को देखते हैं। ये तीनों मनुष्य में विद्यमान हैं। पहले श्लोक में कहा गया है कि सृष्टि के समाधान में इन तीनों को ध्यान में रखना आवश्यक है। दूसरे श्लोक में कुछ समाधानों की ओर संकेत किया है और उन्हें अमान्य बताया है।

बाह्य जगत् के स्वरूप के बावत दार्शनिकों में तीव्र मतभेद हैं : वस्तुवादी इसे प्राकृतिक कहते हैं, प्रत्ययवादी मानवी समझते हैं। जन साधारण सभी वस्तुवादियों के साथ है। पहले उनके विचार को लें।

नास्तिकवाद का प्रमुख रूप प्रकृतिवाद है। इसके अनुसार जो कुछ होता है, परमाणुओं का संयोग वियोग ही है। एक विशेष स्थिति प्राप्त होने पर प्रकृति सजीव हो जाती है और इसके बाद समय आने पर चेतना प्रकट हो जाती है। प्रकृति में व्यक्त जगत् का रूप धारण करने की क्षमता विद्यमान है।

हम बाह्य जगत् को एक विशेष रूप में देखते हैं। परमाणुओं के संयोग वियोग ने जगत् का वर्तमान रूप ही क्यों धारण किया? प्रकृतिवादी इस प्रश्न के कई उत्तर देते हैं। इनके बावत कुछ विचार करें।

यदृच्छा - परमाणुओं का संयोग असंख्य रूप धारण कर सकता था। इन असंख्य संभावनाओं में से कोई एक संभावना ही वास्तविकता में परिणत हो सकती थीं; वर्तमान जगत् को यह अवसर प्राप्त हुआ है। यह केवल आकस्मिक योग का फल है।

नियति - विज्ञानवादी आकस्मिक योग या इत्तिफाक के प्रत्यय को त्याज्य समझते हैं। कुछ प्रकृतिवादी कहते हैं कि केवल एक ही जगत् की संभावना थी, और यह आरंभ से नियत थी।

स्वभाव - कुछ प्रकृतिवादी कहते हैं कि वर्तमान जगत् का रूप नियत करने में किसी बाहरी शक्ति का हाथ न था, यह प्राकृत वस्तुओं के स्वभाव का परिणाम है।

काल - आस्तिकवाद की प्रमुख दलील यह है कि जगत् रचना है और रचना के लिए रचयिता की आवश्यकता होती है। विकासवाद कहता है कि जगत् रचना है ही नहीं, यह एक उत्थान है। कुर्सी और मेज को बनाने के लिए बढ़ई की आवश्यकता है, वृक्ष तो आप उगते और बढ़ते हैं। इसी तरह प्रकृति ने काल के प्रभाव में वर्तमान रूप धारण कर लिया है। यह प्राकृतिक विकासवाद का मत है।

उपनिषद् इनमें से किसी समाधान को संतोषजनक नहीं समझती क्योंकि ये अकेले या मिलकर आत्मा का समाधान नहीं कर सकते - 'आत्मा बच रहती है' नवीन काल में बर्गसाँ ने भी ऐसा विचार व्यक्त किया है। परमाणुओं का संयोग वियोग गति है और गति तथा चेतना में इतना अंतर है कि एक सत्ता के एक सिरे पर है, और दूसरी दूसरे सिरे पर। बर्गसाँ के अनुसार जीवन और चेतना परमाणुओं के संयोगवियोग से उत्पन्न नहीं हो सकते। प्रकृति के परिवर्तन में नूतनता के लिए कोई स्थान नहीं, और नूतनता जीवन का विशेष चिन्ह है। प्राकृतिक विकासवाद को अपर्याप्त समझ कर वर्गसाँ ने उत्पादक विकासवाद का समर्थन किया।

वस्तुवाद के समाधानों को छोड़कर अब प्रत्ययवाद को देखें। प्रकृति मानव विचारों से भिन्न कुछ नहीं। कांट ने कहा था - सृष्टि के निर्माण में बुद्धि का भान है; कुछ प्रत्ययवादी आगे बढ़े और उन्होंने कहा 'सृष्टि जीवात्मा की रचना है।' उपनिषद् इस समाधान को भ अस्वीकार करती है; कारण यह कि मनुष्य सुख दु:ख के भो में विवश है, वह जगत् का रचयिता नहीं हो सकता।

इस तरह जो कुछ नास्तिकवाद अपने पक्ष में कहता है, वह मान्य नहीं।(दीवानचंद)