नालीदार चादर आज बहुत बड़ी मात्रा में संसार में बन रही है। एक समय इसका निर्माण केवल ग्रेट ब्रिटेन और अमरीका में ही होता था, पर अब अनेक देशों में इसका निर्माण हो रहा है। भारत में भी ऐसी चदरें पर्याप्त मात्रा में बन रही हैं। ऐसी चादरों का प्रचलन लगभग एक सौ वर्षों से ही है। पहले पहल ये ब्रिटेन में बनी थीं, जहाँ से इनका अनेक देशों में निर्यात होता था। पहले पीटे, काले लोहे से ही नालीदार चादरें बनती थी। चादरों पर नाली बनाकर उनपर जस्ते का लेप चढ़ाया जाता था। ऐसी चादरें अधिक संख्या में नहीं बन सकती थीं। उपर्युक्त विधि से बनी चादरों की कीमत अधिक हाती थी, पर उनके गुण अच्छे होते थे और वे अधिक वर्षों तक टिकती थीं, जिससे इनकी माँग दिनों दिन बढ़ रही थी। पीछे इनके निर्माण में सुधार हुआ। अब पीटे लोहे के स्थान पर इस्पात की चादरें प्रयुक्त होने लगीं। इससे उत्पादन बहुत बढ़ गया और मूल्य में कमी हो गई।
आजकल जो चादरें बनती हैं, वे अधिकांश इस्पात की होती हैं। चादरों के जस्तीदार बनाने का उद्देश्य होता है इन्हें मोरचा लगने से बचाना। यदि चादरों पर जस्ते का लेप ठीक ठीक हो तो इनका जीवनकाल पर्याप्त लंबा होता है, पर यदि जस्ते का लेप ठीक से न चढ़ाया गया हो तो इनमें मोरचा जल्द लग जाता है। आजकल जस्ते का लेप मशीनों से चढ़ाया जाता है, जबकि पहले हाथों से चढ़ाया जाता था। मशीनों से लेप एक सा और जल्द चढ़ता है, जिससे उत्पादन मूल्य कम बैठता है। इंजीनियरों का सुझाव है कि लेप ऐसा चढ़ना चाहिए कि प्रति वर्ग फुट में जस्ते की खपत दो से लेकर ढाई आैंस तक हो। अधिक मोटे लेप से लेप दृढ़ होता है और जल्दी निकलता नहीं। इससे चादर में जल्द मोरचा लगने की संभावना कम हो जाती है।
नालीदार चादरों में नालियाँ निम्नलिखित विभिन्न प्रकार की होती हैं :
चित्र में चादर के विभिन्न नमूने दिए गए हैं।
नालीदार चादरों को बनाने में चादरों की पहले सफाई की जाती हैं। इन्हें सल्फ्यूरिक अम्ल या हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में डुबाकर कुछ समय तक रखने स मोरचे या ऑक्साइड की परतें घुलकर निकल जाती हैं।
अब इन्हें पानी
में डुबाकर भली
भाँति धोकर
अम्लों से पूर्ण
रूप से मुक्त कर
लेते हैं और
जस्ते के उष्मक में
ले जाते हैं। उष्मक
एक इंच से लेकर
डेढ़ इंच तक मोटा
और इतना लंबा
चौड़ा होता
है कि चादरें
इनमें सुविधा
से रखी जा सकें।
उष्मक का ताप लगभग
४५५° सें. रहता
है। उष्मक में चादरें
ऐसी गति से चलाई
जाती है कि प्रति
वर्ग फुट पर
आैंस से लेकर
आैंस
तक जस्ते का लेप
चढ़ जाए। उष्मक में
ऐमोनियम क्लोराइड
सदृश कुछ द्रावक
भी मिला देते
हैं, जिससे द्रव
के बहाव में सहूलियत
हो जाती है।
यदि लेप पर चमक
लानी है तो
जस्ते में कुछ टिन
(वंग) मिला देते
हैं, फिर चादर
को उष्ण जल की टंकी
में ले जाकर द्रावक
को धोकर निकाल
लेते हैं। अब चादरो
को सुखाते हैं।
सूख जाने पर
चादरों को
घूर्णक रोलरोंवाले
मजबूत दाबकों
में दबाकर नालियाँ
बनाते हैं। यह
काम बहुत शीघ्र
संपन्न होता
है। नालीदार
बन जाने पर चादरों
को तौलते हैं
और विभिन्न भारों
और विस्तार
की चादरों
को अलग अलग बांधकर
भंडार में रख
देते हैं। भंडार
शुष्क और हवादार
रहना चाहिए और
चादर भी शुष्क
रहनी चाहिए। यदि
आवश्यक हो तो
पोंछ पाँछ कर
इन्हें सुखा लेना
चाहिए। कतिपय
चादरों में जोड़ने
के लिए कबलों
(bolts), कीलों
और पेचों के
लिए स्थान भी बने
रहते हैं। कबलों
के लिए पंद्रह पंद्रह,
या बारह बारह,
इंच की दूरी
पर स्थान बने
होते हैं।(विश्वंभरप्रसाद
गुप्त)