नायक तंजोर के - सेवप्प नायक ने सन् १५४१ से १५८० ई. तक तंजोर पर शासन किया। इसने १५६५ के लगभग अपनी स्वतंत्रता घोषित की, यद्यपि यह और इसके उत्तराधिकारी युद्धों में विजयनगर साम्राज्य के पक्ष में सहायता देते रहे। १५८३ ई. में सेवप्प के पुत्र और उत्तराधिकारी अच्युतप्प ने मदुरा के वीरप्प नायक के विरुद्ध विजयनगर नरेश वेकंट द्वितीय को सहायता दी। अच्युतप्प ने १५८० से १६०० तक राज्य किया।

अच्युतप्प के पुत्र रघुनाथ का शासनकाल १६०० से १६३४ तक था। यह इस वंश का सबसे महान शासक माना जाता है। इसने देवीकोट द्वीप के शासक को परास्त किया और पुर्तगालियों का प्रभाव कम करने की चेष्टा की। इसके काल में कला और साहित्य की उन्नति हुई। अपने मंत्री गोविंद दीक्षित के सहयोग से इसने संगीतसुधा नामक ग्रंथ की रचना की। इसके समय के अन्य विद्वानों में गोविंद दीक्षित के पुत्र यज्ञनारायण और वेकंटामाखी, राजचूड़ामणि दीक्षित और कवयित्री रामभद्रांबा के नाम उल्लेखनीय हैं।

रघुनाथ का पुत्र विजयराघव नामक शक्तिहीन शासक था। १६५९ में बीजापुर की सेना ने तंजोर पर चढ़ाई की और विजय पाई। १६७३ में मदुरा के चोक्कनाथ नायक का आक्रमण हुआ और इसी में विजयराघव मारा गया।

जिंजी के - नायकों का एक वंश १६वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिंजी पर शासन कर रहा था। देवीकोट का शासक और वेल्लोर के लिंगम नायक जिंजी के राजा को कर देते थे। कृष्णप्प नायक द्वितीय कट्टर वैष्णव था। चिदंबरम में गोविंदराज मंदिर का जीर्णोद्धार कराने में उसे नटराज मंदिर के शैव पुजारियों से टक्कर लेनी पड़ी। बीजापुर की सेना ने १६४९ ई. में उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के शासन का अंत कर दिया। वेल्लोर के नायक विद्वानों के आश्रयदाता थे। इन विद्वानों में संस्कृत में व्याकरण तथा दर्शनशास्त्र संबंधी ग्रंथों के रचयिता अप्पय दीक्षित विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।

इक्केरी (बेदनूर) के - इन्हें केलदी की संज्ञा भी दी जाती है। मैसूर के शिमोगा जिले और दक्षिण कन्नड पर इनका अधिकार था। दक्षिण के सुलतानों के विरुद्ध सदाशिव नायक (१५१३-१५६०) ने रामराय (विजयनगर) की सहायता की थी। वेंकटप्प प्रथम (१५८२-१६२९) ने अपनी स्वंतत्रता घोषित की। पुर्तगालियों ने इससे मैत्रीसंबंध स्थापित किया। १६२३ में इसके यहाँ इतालवी यात्री पेत्रों देल्लावल्ले आया।

वेंकटप्प का उत्तराधिकारी उसका पौत्र वीरभद्र था। उसने १६२० से १६४५ तक शासन किया। उसकी राजधानी बेदनूर थी। कुछ काल तक उसे बीजापुर का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा था।

वीरभद्र के उत्तराधिकारी शिवप्प ने १९४५ से १६६० तक राज्य किया। उसने बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध युद्ध में श्रीरंग तृतीय की सहायता की। वह स्वतंत्र रूप से मैसूर के विरुद्ध भी लड़ा।

सोमशेखर प्रथम (१६६३-१६७१) शिवप्पा का उत्तराधिकारी था। १६६५ ई. में शिवाजी ने इसके बार्सेलोर नामक बंदरगाह पर धावा मारा था। १६७० ई. में तंजोर और मदुरा के नायकों के साथ मिलकर इसने मैसूर के विरुद्ध श्रीरंग तृतीय की सहायता की किंतु विजय शत्रुपक्ष की हुई। १६७१ में सोमशेखर का वध हुआ और उसकी विधवा चैनंमाजी ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर १६७१ से १६९७ तक राज्यभार सँभाला।

बसप्प (१६९७-१७१४) चेनंमाजी का गोद लिया हुआ पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। वह बड़ा विद्वान् था और शिवतत्वरत्नाकर नामक संस्कृत ग्रंथ का रचयिता था।

सन् १७६३ में हैदरअली ने बेदनूर जीत लिया और रानी वीरंमाजी (१७५६-१७६३) को कैद कर लिया। इस प्रकार इस वंश का अंत हुआ।

मदुरा के - १६वीं शताब्दी के मध्य में मदुरा राज्य में शांति स्थापित करनेवाला विश्वनाथ नायक था। विजयनगर नरेश के आदेश से इसने अपने पिता नागम नायक को परास्त कर मदुरा राज्य का शासनभार अपने ऊपर ले लिया था। प्रसिद्ध सहस्त्रस्तंभमंडप की स्थापना करनेवाला अरियनाथ (आर्यनाथ) इसका सहयोगी तथा सेनापति था। विश्वनाथ के शासनकाल में सुरक्षा हेतु दुर्ग बनवाए गए, सिंचाई का अच्छा प्रबंध किया गया और सुंदर भवनों और मंदिरों का भी निर्माण हुआ। राज्य को अनेक भागों में बाँट कर प्रत्येक पर एक एक सामंत नियुक्त किया गया जिसे वार्षिक कर के अतिरिक्त युद्धकाल में राजा को सैनिक सहायता भी देनी पड़ती थी। सन् १५६४ में विश्वनाथ का देहांत हो गया।

कृष्णप्प नायक प्रथम विश्वनाथ का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। इसे मदुरा की स्वतंत्रता का वास्तविक प्रतिष्ठापक माना गया है, किंतु विजयनगर से मदुरा का संबध इसकी मृत्यु के पचास वर्ष बाद तक भी रहा।

वीरप्प (कृष्णप्प पेरिय) और विश्वनाथ ने मिलकर १५७२ से १५९५ तक, लिंगप्प (कृष्णप्प द्वितीय) और विश्वप्प ने मिलकर १५९५ से १६०१ तक, मुत्तु कृष्णप्प (कृष्णप्प तृतीय) ने १६०१ से १६०९ तक और वीरप्प द्वितीय (मुत्तु वीरप्प) ने १६०९ से १६२३ तक राज्य किया। वीरप्प द्वितीय ने त्रिचिनापल्ली को अपनी राजधानी बनाया। इस समय ईसाई धर्मप्रचार जोर से होता रहा।

सन् १६२३ से १६५९ तक वीरप्प द्वितीय के भाई तिरुमल नायक का राज्यकाल था। मदुरा के नायकों में यह सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता है। इसने विजयनगर की प्रभुता न मानकर उसके विरुद्ध मुसलमान विद्रोही सुल्तानों से मिलकर षड्यंत्र रचे। सन् १६३४-३५ में इसने दो बार त्रावणकोर पर आक्रमण किया और दो वर्ष बाद सेतुपति को अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया। १६३४ के लगभग इसने मदुरा को अपनी राजधानी बनाया और उस नगर में सुंदर भवन बनवाए। वहाँ आज भी इसका महल और मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर इसकी कीर्ति के प्रमाणस्वरूप विद्यमान है। संस्कृत का विख्यात विद्वान नीलकंठ दीक्षित इसका मंत्री था। वह शिवलीलार्णव गंगावतरण, नलचरितनाटक और नीलकंठविजय-चंपू आदि ग्रंथों का रचयिता था।

तिरुमल नायक के पुत्र मुत्तु वीरप्प के अल्पकालीन ज्ञासन का अंत १६६० में हो गया। तत्पश्चात् उसका पुत्र चोक्कनाथ नायक प्रथम केवल १६ वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा। उसने १६६५ में त्रिचिनापल्ली को अपनी राजधानी बनाया। उसके राज्यकाल में प्रजा अकाल और मुसलमानों के आक्रमणों स पीड़ित थी। सन् १६७३ में उसने तंजोर पर आक्रमण किया। मैसूर के विरुद्ध एक लड़ाई में वह कैद कर लिया गया। मराठों की सहायता से वह मुक्त हुआ किंतु १६८२ में उसका देहांत हो गया।

चोक्कनाथ नायक प्रथम के पुत्र रंगकृष्ण मुत्तु वीरप्प चतुर्थ ने १६८२ से १६८९ तक शासन किया। इसके राज्य के कई अंशों को पड़ोसी राज्यों ने हड़प लिया। मराठों के चंगुल से अपनी राजधानी को छुड़ाने में इसे सफलता मिली। इसके पुत्र चोक्कनाथ द्वितीय का जन्म इसकी मृत्यु के बाद हुआ। इसलिए इसकी प्रतिभामयी विधवा मंगमाल ने अपने पुत्र के संरक्षक के रूप में १६८९ से १७०६ तक राज्यभार संभाला। तत्पश्चात् उसके पुत्र विजयरंग चोक्कनाथ (द्वितीय) ने १७०६ से १७३२ तक शासन किया। उसके कोई संतान न थी। इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानी मीनाक्षी अपने गोद लिए हुए पुत्र विजयकुमार का संरक्षक बनकर शासन करने लगी। १७३४ ई. में अर्काट के नवाब की ओर से मदुरा पर आक्रमण हुआ। मीनाक्षी कैद कर ली गई और उसका राज्य छिन लिया। उसने १७३६ ई. में विष खाकर प्राण छोड़े।