नादिरशाह का नाम पहले नादिरकुली था। वह खुरासान के एक गरीब तुर्कमान इमामकुली अफसर का लड़का था। उसका जन्म १६८७ में हुआ था। उसका प्रारंभिक जीवन निर्धनता, बेरोजगारी के कारण कठिनाई में बीता। जब वह १३ वर्ष का था तब पिता की मृत्यु हो गई। १७ वर्ष की अवस्था होगी, जब उसकी माता का निधन उजबकों की कैद में हुआ। पहले तो वह जंगलों में लकड़ी चुनकर अपनी जीविका का निर्वाह करता रहा। लुटेरों ने एक बार उसे चार साल तक अपने यहाँ कैद में रखा। छूटने पर वह पुन: खुरासान लौटा और उसने अपने नेतृत्व में साहसिक लुटेरों का एक दल कायम किया। सन् १७२७ में वह ईरान के बादशाह शाह तहमास्य की सेवा में चला आया। उसने अफगानों की परतंत्रता से ईरान को स्वतंत्र किया। तदनंतर हेरात, खुरासान पर विजय प्राप्त की। फलत: ईरान की जनता का वह लोकप्रिय नायक बन गया। ईरान को स्वतंत्र करने के उपलक्ष में शाह ने इस प्रतिभाशाली और महान् सैनिक व सेनापति को अपना आधा राज्य प्रदान किया और उसे अपने नाम के सिक्के चलाने का अधिकार दिया।
ईरान का बादशाह शाह तहमास्प निकम्मा, मूर्ख और अयोग्य व्यक्ति था। अत: सेना के आग्रह पर नादिरकुली ने सन् १७३२ ई. में तहमास्प को गद्दी से उतार दिया। नादिर ने तब शा के आठ महीने के बच्चे को तख्त पर बिठाया और स्वयं संरक्षक बनकर शासन करने लगा। १७३३ में लैलाँ के युद्ध में रूस के प्रसिद्ध सेनानायक तोपल उस्मान को और १७३४ में सलीमपाशा को जार्जिया में परास्त कर दिया। उसने रूस के सम्राट् की प्रबल सेना को भंयकर युद्ध में परास्त किया तथा उसी प्रकार रूसी सेना की उत्तर की ओर आती हुई बाढ़ को रोक दिया। चार वर्ष बाद जब वह बच्चा मरा तो नादिरकुली स्वयं शाहंशाह नादिरशाह के नाम से ईरान की गद्दी पर बिठा दिया गया।
सन् १७३७ में नादिरशाह से ८० हजार सैनिक लेकर कंदहार परर चढ़ाई की और एक साल के घेरे के बाद अफगानों को हराकर उस पर १७३८ में कब्जा कर लिया। उसने पराजित अफगान सरदारों के साथ बहुत कृपालुता का व्यवहार किया और अफगानों को अपनी सेना में स्थान दिया।
कंदहार लेने के बाद नादिर ने अब भारत की ओर बढ़ने की योजना बनाई। भारत का प्रचुर स्वर्णभंडार उसका अभीष्ट था। लेकिन आक्रमण के लिए उसने नीति से काम लिया। वह केवल प्रतिभावान् सेनापति ही नहीं, चतुर राजनीतिज्ञ भी था। उसने कंदहार पर आक्रमण करने से पूर्व ही दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह को सूचित कर दिया था कि भगोड़े अफगानों को वह अपने काबुल प्रदेश में शरण न लेने दे। मुहम्मदशाह ने नादिर की बात मान तो ली लेकिन जब पराजित अफगान मुगलों के अफगानिस्तान प्रदेश में घुसने लगे तो मुगल बादशाह की तरफ से उन्हें रोकने का कोई प्रयत्न संभव न हो सका। इसपर नादिरशाह ने मुगल बादशाह से बचनभंग का कारण तलब किया (सन् १७३७)। दिल्ली से जब एक वर्ष बीतने पर भी उसे उत्तर नहीं मिला, तो नादिरशाह ने चढ़ाई की तैयारी कर दी।
काबुल के सूबेदार ने अफगानिस्तान पर नादिर के बढ़ते हुए खतरे की सूचना भेजकर मदद माँगी। लेकिन शक्तिहीन बादशाह मोहम्मदशाह और उसके लापरवाह सलाहकारों ने नादिरशाह के खतरे का विभिन्न मत होने के कारण यथेष्ट प्रबंध न किया और अकर्मण्यता दिखाई। फलत: नादिर उत्तरी अफगानिस्तान की ओर बढ़ा और उसने १७३८ में पहले गजनी ले लिया और फिर काबुल पर भी कब्जा कर लिया। उसी वर्ष जलालाबाद पर भी ईरानियों का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् नादिरशाह ने भारत के लिए प्रस्थान किया। नवंबर, १७३८ में उसने पेशावर ले लिया। जनवरी, १७३९ में उसनेपंजाब में घुसकर लाहौर पर आक्रमण किया। पंजाब के सूबेदार जकारिया खाँ ने नादिर का सामना किया पर शीघ्र ही आत्मसमर्पण कर दिया। लाहौर के सूबेदार से २० लाख रुपया बसूल किया गया। पंजाब के अन्य नगरों को भी लूटा गया।
नादिरशाह लाहौर से चला और दस दिन में सरहिंद पहुँच गया। यहाँ उसे खबर लगी कि दिल्ली का बादशाह उसे रोकने के लिए करनाल में सेना लेकर शिविर डाले है। फरवरी में नादिरशाह भी करनाल के निकट पहुँच गया और इसी मास में युद्ध हुआ। आपसी वैमनस्य के कारण तथा अवध के नवाब की जल्दवाजी एवं कुटिलता के कारण पहली मुठभेड़ में वीरतापूर्वक लड़ते हुए भी हिंदुस्तानी सेना मोर्चा न जीत सकी। अवध का नवाब नादिर के वश में आ गया। निजामुल मुल्क की अकर्मण्यता तथा धूर्तता के कारण मुगल सम्राट् नादिर शाह के शिविर में पहुँचा दिया गया। ऊपरी ढंग से शांति का वातावरण पैदा हो गया। नादिर मुहम्मदशाह को लेकर दिल्ली के किले में मेंहमान बनकर आ बैठा।
दो दिन बाद दिल्ली के किले में झूठी खबर फैली की नादिरशाह किले में मरवा डाला गया है। इसपर दिल्ली के कुछ दंगापसंद लोगों ने यकायक ईरानी सैनिकों पर आक्रमण कर बहुतों को मार डाला। इसपर क्रुद्ध होकर नादिर ने कत्लेआम का हुक्म निकाल दिया। इसमें २० हजार से कम आदमी नहीं मारे गए और नगर की संपदा लूट ली गई। नौ बजे प्रात: कत्लेआम शुरू हुआ और मुहम्मदशाह की अर्ज पर दो बजे बंद किया गया।
नादिर दिल्ली में बादशाह बनकर रहा। उसने अपने सिक्के भी ढाले। सिंध नदी के पश्चिमी भाग को प्रांतों को हस्तगत कर शेष साम्राज्य उसने पुन: मुहम्मदशाह को प्रदान कर दिया। मई सन् १७३९ में उसने दिल्ली से ईरान के लिए प्रस्थान पर दिया। वह भारत से असंख्य धनमाल और शिल्पियों व कारीगरों को अपने साथ ले गया। उसके सचिव के अनुसार वह १५ करोड़ नगद ले गया था। इसके अलावा करोड़ों की लागत के स्वर्ण और आभुषण व जवाहरात आदि भी उनकी लूट में शामिल थे। कुल मिलाकर वह लगभग अस्सी करोड़ का माल ले गया। शाहजहाँ का प्रसिद्ध मयूर सिंहासन भी वह लूट में ले गया था। लेकिन लूट की यह अपार संपदा बहुत दिन तक ईरानी राजकोष में न टिक सकी।
भारत आक्रमण के आठ साल बाद षडयंत्रकारीयों ने नादिरशाह को मार डाला। तदनंतर ईरान में फिर ऐसी अराजकता पैदा हुई कि ईरान के कोष में जमा किया गया उसका सारा धनमाल लूटमार में गायब हो गया।(भगवतीप्रसाद पांथरी)