नाट्यशालाएँ (यूरोपीय) यूरोप में नाट्यशाला का इतिहास प्राय: ३,२०० ई.पू. से प्रारंभ होता है। इस काल के प्राचीन मिस्त्र में कई प्रकार के नाटक मिले हैं। इनमें ५५ पिरामिड नाटक है।, तथा राजगद्दी, त्यौहार संबंधी भी कई नाटक हैं। एक आयुर्वेद संबधी नाटक भी मिला है। पिरामिड नाटक, जो सबसे प्राचीन मिला है, वह पाँचवें और छठे राजघराने के मकबरों की भीतों पर अंकित है। इनको देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि इनके कुछ भाग प्राय: ई.पू. ४००० वर्ष के आसपास के हैं। इनमें पात्रों के नाम, उनके कथोपकथन के पूर्व नहीं लिखे हुए हैं - पात्र स्वयं कहते हैं 'मैं नट हूँ', 'मै होरस हूँ।' इन नाटकों में पात्र पशु पक्षियों के चेहरे व्यवहार किया करते थे, ऐसा अनुमान होता है। प्राय: ये नाटक इन मकबरों के पास रहने वाले पुजारियों के द्वारा खेले जाते थे। इन नाटकों के व्यय के हेतु फाराओं के द्वारा कुछ निधि अलग की जाती थी। प्राय: ये नाटक मकबरों या महातवा के पास बन हुए राजा के मंदिरों में खेले जाते थे। इनमें लिखे महातवा के पास बने हुए राजा के मंदिरों में खेले जाते थे। इनमें लिखे हुए निर्देशों से यह पता चलता है कि किस स्थान से पात्र नाट्यशाला में प्रवेश करते थे, वहाँ क्या होता था, इत्यादि। इस प्रकार के डेयर एल बहरी (Deir El Bahri) के मंदिर के नक्शे का पुनरुद्धार भी किया गया है। इसको देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि ये मंदिर कई तल पर बनते थे तथा प्राय: विकृष्ट होते थे। एक पाषाण पर उत्कीर्ण नाटक में नाट्यशाला में पात्रों का प्रवेश कैसे हो यह भी दिखाने का प्रयत्न किया गया है। इसे शबका पाषाण (Shabaka Stone) कहते हैं। जोसर के पिरामिड में नाट्यशाला का एक चित्र मिला है जिसमें लपेटे हुए पर्दे को भी प्रदर्शित किया गया है। प्राय: यह नाटक खंभों पर आधारित बरामदों में खेले जाते थे। पुजारी लोग जो जानवरों का चेहरा पहनते थे उसका भी दर्शन हमें एक चित्र में होता है।

यूनान में नाटकों का प्रारंभ डायनोसस देवता की पूजा से हुआ। हो सकता है कि यहाँ के प्रारंभिक नाटकों पर मिस्त्र का प्रभाव पड़ा हो क्योंकि डायनोसस का त्योहार मनाने की प्रथा हेरोडोटस (Herodotus) के अनुसार मिस्त्र में प्रारंभ हुई और पीछे अत्तिका (Attica) में भी यह मनाया जाने लगा। सीरिया में यूनानी नाटकों के खेले जाने के प्रमाण प्राय: ईसा पूर्व १२५० से मिलने लग जाते हैं। ये नाटक रास शमरा (Ras Shamra) में दो खपड़ों पर अंकित मिले हैं। हो सकता है कि मिस्त्र से सीरिया होते हुए नाटकों के खेलने की प्रथा यूनान पहुँची हो। डायनोसस के ये त्योहार वर्ष में चार बार मनाए जाते थे। पहला दिसंबर और जनवरी के बीच में, जिस पोसेडॉन (Poseidon) मास कहते थे, दूसरा लेनाए (Lenaea) जनवरी के अंत तथा फरवरी के प्रारंभ में गामेलियोन (Gemelion) महीने में होता था, तीसरा फरवरी के अंत में तथा मार्च के प्रारंभ में पड़ता था (इसे अन्थेरिआ (Anthesteria) कहते थे) तथा चौथा जो सबसे मुख्य था वह मार्च के अंत और अप्रैल के प्रारंभ में पड़ता था। यह एलाफेबालिओन (Elaphebolion) कहा जाता था।

पहला नाटक, जो मिला है, दुखांत है। वह यूनान में प्राय: ५३४ ई.पू. में खेला गया था। भारत की भाँति यूनान में भी सर्वप्रथम कंदराओं में नाटक होते थे। उसके पश्चात् मैदान में होने लगे। ये कई दिन तक चलते रहते थे। इस काल में पात्रों के मुँह पर सफेद पीसा हुआ जस्ता लगाया जाता था तथा मुँह पर चित्रकारी भी की जाती थी। थेस्पिस (Thespis) ने सर्वप्रथम कपड़े का चेहरा लगा कर नाटक खेलने की प्रथा चलाई। इसके कारण पात्रों को अपनी वेशभूषा को प्रत्येक बार बदलने की अवश्यकता नहीं होती थी। कोएरिलस (Choerilus) ने सर्वप्रथम स्त्रियों के चेहरे बनाए। प्राय: इन नाटकों में कथोपकथन का ही महत्व होता था। एसकिलस (Aeschylus) ने सर्वप्रथम अपने पात्रों की वेशभूषा को निश्चित किया, उनको ऊँचे जूते पहनाकर उनकी ऊँचाई बढ़ाई तथा उनके चेहरे भी बड़े किए। इसी ने नाट्यशालाओं को सुंदर बनाने के हेतु इनमें चित्रों को लगवाना प्रारंभ कराया तथा कुछ कलपुर्जे भी लगाए, तथा एक स्थान पर दो पात्रों को इसने रंगमंच पर एक साथ प्रवेश कराया। इस काल में यूनानी नाट्यशाला के चारों ओर सीढ़ीदार प्रेक्षागृह भी बनने लगे।

एथेन्स में डायनोसस के मंदिर के पास बना हुआ प्राचीन प्रेक्षागृह का अवशेष प्राप्त हुआ है तथा देल्फी (Delphi) के प्रेक्षागृह का जो अवशेष मिला है उसमें पाषाणनिर्मित अर्धचंद्राकार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, बीच में स्थान खाली है। इन सीढ़ियों पर दर्शक बैठते थे तथा उनके सामने के खुले स्थान में नाटक होते थे। पीछे चलकर बीच का भाग वृत्ताकार बनने लगा जहाँ एक वेदी रहती थी तथा सीढ़ियों के बगल से इस स्थान पर आने को एक मार्ग पात्रों के आने के हेतु भी छोड़ा जाने लगा। यह प्रेक्षागृह किसी पहाड़ी के सामने बनता था और सीढ़ियों के सामने की ओर मूर्तियाँ भी बनाई जाने लगीं। देवता की मूर्ति बीच में रहती थी उसके चारों ओर पात्र नाचते थे। सोफोक्लीज ने नाट्यशालाओं में चित्रित पर्दों का भी व्यवहार प्रारंभ किया। ये पर्दे लकड़ी के सहारे पात्रों के पीछे खड़े कर दिए जाते थे। यह प्राय: ईसा पूर्व ४२५ के आस-पास की बात है। हास्य रस के नाटकों में पात्र सिर पर लिंग का आकार धारण करते थे। पात्र अपने कपड़े पास की एक झोपड़ी में बदलते थे जो नेपथ्य का काम देती थी। गाने बजानेवाले प्रेक्षागृह के सामने बीच में बैठते थे। इनके पीछे का स्थान ढालदार रहता था जिसपर देवताओं का उतरता हुआ दिखाया जाता था। पीछे चलकर इन सीढ़ियों पर लकड़ी का रंगमंच बनने लगा। पेरिक्लीज़ (Pericles) के काल में सर्वप्रथम पत्थर का रंगमंच बना। इस रंगमंच में सामने की ओर भीत में यूनान के मकानों की भाँति तीन द्वार थे और दोनों ओर भीत के पक्ष फैले हुए थे। इन्हें 'परसकीनिया' कहते थे। इनमें भी द्वारं रहते थे। इस भीत के सामने सीढ़ियाँ थीं। रंगमंच की छत पर एक बारहदरी बनी हुई थी। इसे 'एपिसकेनियोन' कहते थे। इसी रंगमंच के दोनों पक्षों के पीछे नेपथ्य भी बनाया गया था जहाँ पात्र अपनी वेशभूषा बदलते थे। यह रंगमंच सामने से ६५ फुट लंबा तथा इतना ही भीतर की ओर गहरा था। पहले प्रेक्षागृह में केवल सीढ़ियाँ थीं। पीछे चलकर इन सीढ़ियों के सामने लकड़ी की चौकियाँ नगर के अधिकारियों के हेतु रख दी जाती थीं। कुछ दिन पश्चात् इन चौकियों के स्थान पर अलग-अलग सुंदर सिंहासन रखे जाने लगे।

यह धारणा भ्रमात्मक है कि यूनान में चित्रित पर्दे रंगमंच पर नहीं टाँगे जाते थे। पहले चित्र भीत पर ही बनाए जाते थे परंतु बाद में चलकर चित्र मोटे कपड़े पर अंकित करके बल्ली के सहारे लटका दिए जाते थे। लकड़ी का एक चबूतरा भी रहता था जो रथ की भाँति खसकाया जाता था। मकान के ऊपर की बारहदरी स्वर्ग का दृश्य दिखाने के काम में आती थी। उसपर पात्रों को नीचे से जाने के हेतु एक लकड़ी के यंत्र का व्यवहार होता था। हेलेनिस्टिक (Hellenistic) काल में रंगमंच का और भी परिष्कार हुआ। रंगमंच पृथ्वी से ऊँचा बनने लगा। इस काल में इटली में यूनानी नाट्यशाला सर्वप्रथम सिसली के टापू में बनी। पहले यहाँ का रंगमंच लकड़ी की चौकियों से बनाया गया और इनके दोनों ओर लकड़ी के खंभे खड़े करके उनपर पर्दे टाँगे गए। सामने की ओर चार या सात सीढ़ियाँ बनाई गई। नाटक यहाँ भी यूनानी ही खेले जाते थे। भाषा भी यूनानी ही थी। पीछे चलकर, प्राय: ईसा पूर्व २१२ में, अपोलो देवता के संमान में नाटक खेले जाने लगे। जूलियस सीजर के काल में सीजर की विजय के अवसरों पर नाटक खेले जाने लगे। नाट्यशालाओं का रूप भी बदला। अब रंगमंच अठपहल आकार के ऊँचे चबूतरे पर बनने लगे। इनपर पर्दे लगते थे। लकड़ी की होने के कारण ये नाट्यशालाएँ किसी भी स्थान पर बनाई जा सकती थीं। प्राय: ईसा पूर्व १७९ में रोम में सर्वप्रथम एक स्थायी नाट्यशाला अपोलो के मंदिर के पास बनी। एक पत्थर की नाट्यशाला बनाने की योजना भी बनी परंतु रोम के कुछ कट्टरपंथी लोगों के विरोध के कारण उसका निर्माण नहीं हो सका। यहाँ लकड़ी की जो नाट्यशाला बनी थी, इन्हीं लोगों के द्वारा नष्ट कर दी गई। वह प्लिनी के अनुसार ३६० खंभों पर बनी थी तथा उसमें ३०० मूर्तियाँ थीं। रंगमंच तीन खंडों का था तथा प्रेक्षागृह में प्राय: ८० हजार दर्शकों के बैठने का प्रबंध था। यह नाट्यशाला ऊपर से छाई हुई थी।

पीछे पांपे (Pompey) के परिश्रम से रोम में पत्थर की एक नाट्यशाला बनी। इसका विस्तार प्लूटार्क के अनुसार आगस्टस सीजर (Augustus Caesar) के काल में ई. पू. ३२ में हुआ। इसी काल में पांपे के मित्र एलकार्नेंलियस बलबस के उत्साह के कारण एक दूसरी नाट्यशाला ई. पू. १३ में बनी और आगस्टस ने ई. पू. ११ में एक और पाषाण की नाट्यशाला कापिटोलिक पहाड़ी के दक्षिण पूर्व की ढाल पर बनवाई। इन नाट्यशालाओं में रंगमंच के पीछे एक भवन रहता था जिसकी भीत पर चित्र बने रहते थे। भवन के सामने रंगमंच रहता था जिसे पुल्सपिटम कहते थे। यह पृथ्वी से पाँच फुट ऊँचा होता था। प्रेक्षागृह अर्धचंद्राकार बनता था। सुसज्जित रंगमंच के सामने सीढ़ियाँ थीं। प्रेक्षागृह में दर्शकों को धूप से बचाने के हेतु एक मोटे कपड़े का पर्दा खिंचा रहता था। नाट्यशाला के चारों ओर की भीत बीच में रंगमंच के पीछे के मकान की ऊँचाई के बराबर रहती थी जो प्राय: तीन या चार खंड का रहता था। नाट्यशाला के बाहर की भीत बहुत सुंदर बनाई जाती थी। नाट्यशाला में जाने के तथा निकालने के हेतु छाएँ हुए मार्ग होते थे।

पहले पात्रों को नाटक के लेखक नौकर रखते थे। पीछे चलकर पात्रों की अपनी एक टोली बन गई। इनें अधिकतर यूनान तथा सिसली के लाए हुए दास थे जो दासता बँधने के पूर्व अपने देश में नाटक का काम करते थे। ये प्राय: यूनानी पात्रों की भाँति ही वस्त्र पहनते थे। प्लाटस तथा टेरेंस रोम के दो हास्यरस के प्रधान नाटककार (२५४-१५९ ई. पू.) थे। सेनेका ने दु:खांत नाटक लिखे। रोम में ईसाईयों के विरोध के कारण नाटक का खेला जाना ३४७ ई. के लगभग बंद सा हो गया। थियोदिसियस प्रथम ने कुछ नाटककारों का उत्साहवर्धन किया तथा पियोडोरिक महान् ने एक नाट्यशाला रोम में पुन: पाँचवीं शताब्दी के लगभग स्थापित की। परंतु नाटकों का खेला जाना बहुत कम हो गया था। बाद में धार्मिक कृत्यों को नाटक का रूप दिया जाने लगा। इन्हें मिस्ट्रीज (Mystries) कहा जाता था। ये नाटक के सदृश ही पुजारियों द्वारा लैटिन से अनभिज्ञ उपासकों में धर्मप्रचार के हेतु खेले जाते थे। कुछ नाटक संतों के जीवन से संबंधित घटनाओं के आधार पर बने। इन्हें मिराकिल्स (Myracles) कहते थे। ये सब नाटक गिरजाघरों में ही खेले जाते थ। मध्ययुग में इनका प्रचार बहुत बढ़ा। जब भीड़ बढ़ने लगी, ये नाटक गिरजाघर के सामने बरामदे में होने लगे। इन नाटकों में उत्पात होने के कारण पोप ने इनका खेला जाना बंद कर दिया। ये नाटक नगरों और गाँवों में खेले जाने लगे और इसके लिए चलते हुए रथ व्यवहार किए जाने लगे। भारतीय रामलीला की भाँति इन नाटकों का भी प्रदर्शन मैदान में होता था। ये रथ छह पहियों के होते थे और इनके ऊपर के भाग में नाटक होते थे तथा नीचे के भाग में पात्र वेशभूषा बदलते थे। ये रथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाए जाते थे। इन नाटकों में स्वर्ग तथा नरक के दृश्य भी दिखाए जाते थे। नरक के दृश्य दिखाने के हेतु कल पुर्जों का भी व्यवहार होता था। एक बड़ा सा मुँह खलता था, उसमें से धुँआ और आग निकलती हुई दिखाई देती थी। पापी मनुष्य उसी में काले काले आदमियों के द्वारा घसीटकर ले जाए जाते हुए दिखाए जाते थे। ये नाटक जब होते थे उस समय नगर के प्रवेशद्वार बंद कर दिए जाते थे और अस्रधारी रक्षक नगर के चारों ओर उसकी रक्षा के हेतु घूमते रहते थे।

पीछे चलकर यूरोप के प्रत्येक देश में नाट्यशलाओं के विकास की कहानी पृथक्-पृथक् हो गई। कहीं-कहीं, जैसे फ्रांस में, ये खेल प्राचीन रोम की लकड़ी की बनी नाट्यशालाओं में दिखाए जाने लगे। इनमें दर्शकों के हेतु लकड़ी का सीढ़ीनुमा प्रेक्षागृह बना। रोम में ये खेल कलीसियम में जहाँ किसी समय खेलकूद हुआ करते थे, दिखाए जाने लगे तथा स्पेन में इस प्रकार के नाटक कोरालेस में होने लगे। हालैंड तथा इंग्लिस्तान में रथों का ही व्यवहार होता रहा। पहले नाटकों में पादरी ही काम करते थे, परंतु पोप की निषेधाज्ञा निकलने के पश्चात् विविध व्यवसायी संघों ने इस काम को अपने ऊपर ले लिया और ये क्रिसमस या ईस्टर के धार्मिक त्योहारों के स्थान पर दूसरे सामाजिक त्योहारों पर खेले जाने लगे।

फ्रांस में १३वीं शताब्दी में सर्वप्रथम सेंट निकोलस पर एक नाटक आरास के जान बोडल (John Bodel of Arras) ने लिखा। इसके पश्चात् कई नाटक इसी प्रकार के लिखे गए। इंग्लिस्तान में इस प्रकार के नाटकों की एक शृंखला ही तैयार हुई। इन्हीं नाटकों के साथ कुछ ऐसे नाटक भी लिखे गए जिनमें ईसाई धर्म के पालन से लाभ को दर्शाने का प्रयत्न किया गया। इन्हें मोरैल्टीज (Moralities) कहते थे। इस प्रकार के नाटकों में लाओम जस्त (L'hommigusta), लओम पेश्यूर (L'homme pecheur) बहुत प्रसिद्ध हैं। ये १२वें लुई के राज्यकाल में लिखे गए। ल जू डला फ़इए (Le Jeu dela Feuiltee) १२६२ में लिखा गया था। ल जू उ रोवाँ एड डिमारियों (Le Jeu de Robin et de Marion) हास्य रस से ओतप्रोत नाटक था। इसका भी इसी काल में निर्माण हुआ। परंतु इन नाटकों के पूर्व कुछ वार्षिक त्यौहार होते थ। उनमें कुछ नाटकीय ढंग से धार्मिक कृत्य आनंद मनाने को किए जाते थे। इनमें गदहे के भोज का त्यौहार, बाय विशप (एदृन्र् एत्द्मण्दृद्र) थे। इनमें छोटे पादरी ही भाग लेते थे।

१५वीं शताब्दी के अंत में तथा १६वीं शताब्दी के प्रारंभ में इटली में नाटकलेखकों की बहुत कभी रही। गियोवान्नी रूसेलाई का रोजमंडा (Rosmunda) पोप लियो दशम (pope Lio X) के सामने १५०० ई. के लगभग रूसिलाई (Rucellai) के उद्यान में खेला गया। ओरबेच्चे (Orbecc), गियोवान्नी बतिस्टा गिराल्डी (Giovanni Eattista Giraldy) (१५०४-१५७३) ने लिखा। ये नाटक इटालियन भाषा में लिखे गए। इसी काल में निकोलो मैकियोवेली (Niccolo Machiavelli) (१४६९-१५१७) भी हुआ। इसका नाटक इल प्रिंसिपे (II princepe) १५३२ में प्रकाशित हुआ तथा ला मंड्रेगोला (La Mandragola) १५३४ ई. में रोम में छपा। इन नाटकों ने बहुत ख्याति-प्राप्त की। इस काल तक नाटक खेलनेवालों की अपनी एक मंडली बन गई थी। इस मंडली का एक प्रबंधक भी नियुक्त होने लगा था। यह हमारे यहाँ के सूत्रधार की भाँति नाटक का सारा प्रबंध करता था। इटली में इस काल में स्त्रियाँ भी रंगमंच पर आने लगी थीं। चेहरे भी पहने जाते थे जिसमें पात्रों के वास्तविक रूप का पता न लगे। कामेडिया डेल आर्ते (Commedia dell' arte) का प्रार बढ़ा। पादरी लोग प्राय: इनपर नियंत्रण रखते थे। अब पुन: नाट्यशालाओं में नाटक खेले जाने लगे परंतु ये नाट्यशालाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जाती थीं, जैसे २०वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में अल्फ्रडे कंपनी एक नगर से दूसरे नगर में जाती थी और अपने रंगमंच का सामान अपने साथ ले जाती थीं। स्पेन में इस काल में मुसलमानों के कारण रंगमंच प्राय: बंद हो गए फ्रांस और इंग्लिस्तान में रंगमंच का पूरा विकास हुआ। इंग्लिस्तान में रानी एलिजाबेथ के काल में नाटकों को राजाश्रय मिलने से इनका बहुत विकास हुआ। १६वीं शताब्दी के प्रारंभ में फ्रांस के मेत्र पियेर पाथेलो (Maitre Pierre pathelow) की भाँति जॉन हेउड (John Heywood) (१५००-१५८०) ने दि फोर पीज (The Four p's), मेरी प्ले आव जॉन (Merry play of John), टिब ऐंड सर जॉन (Tyb & Sir John), दि प्ले आव दि वेदर (The play of the weather) लिखा, उडुाल (Uddal) ने (१५०५-१५५६) राल्फ रायस्टर डायस्टर (Ralph Roister Doister) लिखा। इसी प्रकार के और भी नाटक लिखे गए। टॉमस नार्टन तथा टॉमस साकविल (Thomas Norton & Thomas Sachville) ने गारबोडक (Gorboduc) लिखा।

प्राय: १५७६ ई. में जेम्स बरबाज (James Burbage) ने एक नाट्यशाला का निर्माण कराया और इसे थिएटर की संज्ञा दी।

यह शोरडिच (Shoreditch) ने टेम्स नदी के उत्तर लंदन के पास सात सौ पौंड में बना। किंवदंती है कि इसमें १५०० दर्शकों के बैठने का स्थान था। यह नाट्यशाला लकड़ी की थी तथा ऊपर से खुली थी। दर्शक प्राय: रंगमंच के सामने खड़े होकर नाटक देखते थे। इसमें छत न रहने के कारण नाटक प्राय: दिन में ही हुआ करते थे। पानी बरसने पर नाटक के पात्र, जो रंगमंच के अगले भाग में रहते थे, भींगते ही रहते थे। रंगमंच चतुष्कोण बना था और प्रेक्षागृह में निकला हुआ था। इसके पीछे के भाग पर एक छत थी। इसी छत के आगे एक एक मोटा कपड़ा तना रहता था जो वर्षा से पात्रों की कुछ रक्षा करता था। जो संभ्रांत व्यक्ति अधिक रुपया देते थे, उनके बैठने के हेतु रंगमंच के पार्श्व में एक बरामदे में स्थान था। छत से रंगमंच पर एक पर्दा लटका रहता था। सारी नाट्यशाला वृत्ताकार अंग्रेजी के 'ओ' के आकार की बनी हुई थी। इटली की नाट्यशालाओं की भाँति यहाँ चित्रित पर्दों का व्यवहार नहीं होता था। कुछ धनाढ्य लोग रंगमंच पर भी बैठते थ। नाट्यशाला में जाने का एक ही द्वार हुआ करता था। इस प्रकार की नाट्यशालाएँ बहुत सुविधाजनक प्रमाणित हुई। इस नाट्यशाला के खुलते ही दूसरी नाट्यशाला शोरडिच में कटन रोड नामक स्थान पर खुली। १५९२ ई. में रोज़ (Rose) नामक नाट्यशाला बनी। यह फूल की छत से ढकी थी। इसी नाट्यशाला में खेलने के हेतु क्रिस्टोफर मालों ने नाटक लिखे। एक दूसरी नाट्यशाला ग्लोब (Globe) नाम से टेम्स नदी के उसी किनारे पर १५९८ ई. में खुली जिसमें जगत्प्रसिद्ध शेक्सपियर ने काम किया तथा जिसके लिए उसने नाटक लिखे। ग्लोब भी वृत्ताकार बनी थी। तथा शेक्सपियर के 'हेनरी पंचम' नाम के नाटक से इसका उद्घाटन हुआ। १६१३ ई. में जब यह नाट्यशाला जल गई, ग्लोब का दूसरा भवन खपड़े की छत डाल कर बना। इसकी बढ़ती हुई ख्याति के कारण हेनस्लो तथा अल्लेन ने फारचून नामक नाट्यशाला लंदन में बनाई। कपड़े की छत बनाई गई और उसपर के पानी का निकास नाली लगाकर किया गया जिसमें पानी दर्शकों अथवा पात्रों के मस्तक पर न गिरे। यह नाट्यशाला बड़ी सुंदर बनाई गई थी। इसमें चतुष्कोण रंगमंच ४३ फुट का था। यह १६३१ ई. में जल गया परंतु पुन: उसी वर्ष फिर से बना। १६६१ ई. में यह राजाज्ञा से गिरा दिया गया। इस काल में दृश्य लाक्षणिक रूप से दिखाए जाते थे जैसे एक पेड़ को रंगमंच पर खड़ा करके यह बताया जाता था कि यह जंगल है। दूसरी नाट्यशाला यहाँ स्वान थी जिसका विवरण १५९६ ई. में एक डच लेखक जोहान ड विट (Johan de witt) ने दिया। इसने लिखा है कि यहाँ प्राय: ३००० दर्शकों को बैठने का स्थान था परंतु इसके आँकड़ों पर विश्वास करना कठिन है।

फ्रांस में १६वीं शताब्दी के आरंभ में जब नए नाटकों का युग प्रारंभ हुआ, सर्वप्रथम नाटक महाविद्यालयों के भोजनकक्ष में वहीं के विद्यार्थियों द्वारा खेले जाते थे। इन्होंने यूनानी भाषा तथा लैटिन का अध्ययन किया था, इस कारण ये प्राचीन नाटकों की भाँति इन नए नाटकों को भी रंगमंच पर प्रस्तुत कर पाते थे। इन नाटकों को साधारण जनता नहीं समझ पाती थी। इनका विश्वविद्यालयवाले ही आनंद ले सकते थे। इस प्रकार के यूनानी ढंग के नाटकलेखकों में रोबेर गारनिए (Robert Garnier) (१५३४-१५९०) को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके हिप्पोलाइट (Hippolyte), ला ट्रोड (La Troade), अंटीगोन (Antigone), ले ज्यू व (Les Juives) वर्षों तक खेले जाते रहे। इटली के नाटकों के प्रति आकर्षण गेलोसी (Gelosi) (१५४०-१६१२) के आने के पश्चात् बढ़ा। इसका सबसे अच्छा नाटक लेज़ इस्प्री (Les Esprits) था जिसे पीछे के लेखकों ने बहुत कुछ अपनाया। पहली नाट्यशाला होटेल ड वुरगाइन (Hotel de Bourgogne) में बनी। इस नाट्यशाला पर छत थी परंतु भीतर का रंगमंच प्रेक्षागृह में दूर तक फैला हुआ था तथा दर्शकों के बैठने के हेतु स्थान बहुत कम था। प्राय: संभ्रांत लोग ही बैठ पाते थे। रंगमंच के एक भाग पर एक कढ़ा हुआ पर्दा पड़ा रहता था। उसी के समक्ष पात्र अपना प्रदर्शन करते थे। प्रेक्षागृह की छत बहुत नीची थी। रंगमंच पर प्रकाश फेंकने के हेतु रंगमंच के फर्श पर मोमबत्ती जलाई जाती थी। ऊपर एक झाड़ जलता रहता था। पर्दे हटाए बढ़ाए नहीं जा सकते थे; इस कारण रंगमंच कई भागों में विभक्त था। एक दृश्य के पश्चात् दूसरे दृश्य के आरंभ होने तक के बीच के समय में रंगमंच के अगले भाग पर गाना बजाना हुआ करता था। भीत के सहारे दोनों और पतले बरामदे बने हुए थे। छत से ढकी रहने तथा धीमे आलोक के कारण नाट्यशालाओं का वातावरण बड़ा मनहूस हो जाता था। प्राय: नाटक दिन में दो बजे प्रारंभ होते थे ताकि वे अंधेरा होने के पूर्व समाप्त हो जाएँ। होटल ड बुर्गाइन की नाट्यशाला १५९९ ई. के आस-पास एक नाटक करनेवालों की कंपनी को किराए पर दे दी गई। इसमें रईस दर्शक प्राय: नाटक के देखने का शुल्क नहीं देते थे परंतु फिर भी इनके नटों ने अपना काम चला ही लिया। पीछे चलकर इसी नाट्यशाला में इटली से कमोडिआ डेलात (Commedia dell arte) में काम करनेवालों को यहाँ लाया गया जिससे कुछ काम फिर चला। दूसरी नाट्यशाला थियात्र दु मारे (Theatre du Marais) बनी जिसमें पीछे चलकर मोलिए तथा उसे आदमी काम करते थे। अलेक्ज़ंडर हार्डी (Alexander Hardy) ने (१५६०-१६३१ के बीच में) कई नाटक लिखे, इसमें मारियामे (Mariamme) बहुत प्रसिद्ध हुआ। इसें लंबे-लंबे कथनोपकथन के स्थान पर पात्रों को कर्म करते हुए दिखाने का प्रयत्न किया गया। कई नाटककारों ने इसके ढंग को अपनाया। १६३५ में कार्नेंई (Carneille) ने अपने दुु:खांत नाटक लिखने प्रारंभ किए। इसके नाटक होटल ड बुरगाइन में खेले गए। रासीन (Racine) का ब्रिटानिकस (Britannicus) १६७६ ई. में खेला गया; यह भी दु:खांत नाटक है। मोलिये के प्रसिद्ध नाटक भी इसकी काल में खेले गए। यह १६२२ ई. में उत्पन्न हुआ था। इसके लिखे नाटक ल हलुस्र थीयात्र (L'illustre Theatre) मंडली द्वारा खेले गए। यह भी इसमें काम करता था। कुछ दिन पश्चात् इसके नाटक होटेल डु पेती बूर्बान में खेले गए और पीछे चल कर पाले रायल का रंगमंच बहुत सुंदर बना था। इसे कार्डिनल रिशलू (Cardinal Richelieu) ने बनवाया था। इसमें इटली के रंगमंच की भांति सभी सुविधाएँ थीं। इसके लिखे हुए सभी नाटक बड़े सुंदर हैं और आज भी फ्रांस में खेले जाते हैं जैसे लेइकोल दे मारी (L'ecole des Maris) या ले प्रेसेयूज रिडिवयूल (Les precicues Ridicules), ले फाश्युज़ (Les Facheuse) तारतुफ (Tartuffe) इत्यादि।

इस काल में जब फ्रांस तथा इंग्लिस्तान में नाट्यकला का खूब विकास हो रहा था। जर्मनी में कोई प्रगति नहीं हो रही थी। इसका कारण कदाचित् राजनीतिक ही रहा होगा। इंग्लिस्तान से नाटक मंडलियाँ आती रहीं। इटली में नाटक से अधिक ऑपेरा ने जनता को आकर्षित किया।

प्राय: १६६० ई. के आसपास इंग्लिस्तान में कट्टरपंथियों का विरोध कम होने पर नाट्यशालाएँ फिर से खुलीं। अब नाट्यशालाओं पर फ्रांस का बहुत प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। चार्ल्स द्वितीय के गद्दी पर बैठने के पश्चात् १६६३ ई. में ड्ररी लेन में पुन: एक नाट्यशाला का निर्माण हुआ। यह नाट्यशाला प्राय: एलिज़ाबेथ के काल की नाट्यशाला के आकार की बनी परंतु इसमें फ्रांस की नाट्यशालाओं की सभी सुविधाएँ थीं। राजप्रश्रय के कारण नाट्यकला का भी बहुत विकास हुआ। दूसरी नाट्यशाला ड अवेना (D' Avenant) के उत्साह के कारण डॉसेंट गार्डन्स में प्राय: १६७१ ई. में बनी। १६८२ ई. में दोनों नाट्यशालाओं का एकीकरण हुआ तथा किलिग्रियु (Killigraew) तथा ड अवेना मिलकर काम करने लगे। ये दोनों ही बड़े प्रभावशाली प्रबंधक थे और इन्हीं के समय पात्रों को वेतन दिया जाने लगा। १८वीं शताब्दी के प्रारंभ फ्रांस में जाँ फ्रांस्वा रेनर (Jean Francois Renard) के नाटकों की धूम मच गई। इसके लिखे हुए ला काकेट (La Coquette), ला फॉस, प्रूड (La Fausse Prude) ला फुआ साँ जरमों (La Foire Saint-Germain) ल जूयुर (Le Joueur) डेमोक्रित (Democrite) इत्यादि मोलिये के नाटकों के समकक्ष माने जाने लगे। इसी का समकालीन तथा प्रतिद्वंद्वी आलेन रेने ड साज (Alan Rane de Sage) था जिसने तुरकाए (Turcaret) लिखा। इसके पश्चात् इंन्लिस्तान की भाँति फ्रांस में भी कृत्रिम भावनाओं से ओतप्रोत नाटक लिखे जाने लगे। इस काल का सबसे महत्वपूर्ण लेखक वॉल्तेयर (Voltaire) हुआ। यह इंग्लिस्तान में रह आने के कारण वहाँ की नाट्यशालाओं के नियमों से प्रभावित हुआ औैर इसने फ्रांस की नाट्यशालाओं को भी पुनर्जीवन दिया। सर्वप्रथम इसने रंगमंच पर दर्शकों का बैठना बंद कर दिया। उस काल में जब नाटक फ्रांस के सम्राट् के सामने होते थे तो बड़े सुंदर-सुंदर पर्दे इत्यादि लगते थे परंतु साधारण जनता के हेतु केवल एक पीछे की चित्रित पिछवाई जाती थी। १७५९ ई. में जब थीयात्र फ्रांस (Theatre Francais) पुन: खुला, वाल्तेयर के चूने हुए पात्र एकत्रित हुए और नाट्यशाला में सब नए पर्दे तथा पक्ष लगाए गए। इस प्रकार थीयात्र फ्रांस यूरोप की प्रधान नाट्यशाला बन गई। दूसरी नाट्यशाला गुइन गो (Guenegaud) बनी परंतु यह सोरवोन विश्वविद्यालय के विरोध के कारण बंद कर देनी पड़ी। सोसियेतेर (Societaires) अर्थात् नाटटककारों के समूह ने एक दूसरी नाट्यशाला रू दे फोस सां जरमां दे प्रें (Rue des Fossis saint-Gergmainder-pres) के पास १७०० के लगभग बनवाई। यह पुराने ढंग की लंबी नाट्यशाला थी। इसमें दर्शकों के बैठने के हेतु सीढ़ीनुमा तीन खंड का स्थान था। यहाँ रंगमंच पर संभ्रांत लोगों को बैठने की स्वतंत्रता थी, इस कारण केवल ११ फुट एक ओर से तथा १५ फुट दूसरी ओर से स्थान पात्रों के अभिन्य के हेतु खाली रहता था। यह नाट्यशाला १७७० ई. तक चलती रही। उसे पश्चात् मरम्मत के अभाव में नष्ट हो गई। अब नाटक साल डे माशीन में जो ततइरी (Salle des Machines en uia leries) में था नाटक होने लगा। यहाँ पात्र प्राय: फ्रांस की प्राचीन वेशभूषा पहनते थे। इस काल के बहुत से पात्रों के नाम उपलब्ध हैं। इस काल में फ्रांस में अनेक छोटी बड़ी नाट्यशालाएँ बन गई थीं। प्राय: १७०१ में फ्रांस में नाटक की तीन मंडलियाँ थीं- कामेदी फ्रांसेज (Comedie Farncaise), अकाडमी रॉयल ड म्युजिक (Acadamie royale de Musique) तथा कामेडियाँ रूआ ड ला त्रुप इटालियेन (Comediens du Roi de la troupe itelienne)* ये मंडलियाँ प्राय: १७८० ई. तक काम करती रहीं। फ्रांस की क्रांति के समय प्राय: १२ प्रधान नाट्यशालाएँ पारी (पेरिस) में थीं। थियात्र ड ला रिपब्लिक (Theatre de la Requblique) थियात्र फेडो (Theatre Feydean) थियात्र ड ला इगालिते (Theatre de la Egalite) थियात्र डला सिते (Theatre de la Cite) इत्यादि। इस काल की नाट्यशालाएँ पहले की अपेक्षा अधिक भरी रहती थीं। नेपोलियन के काल में नाटक को और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। नाट्यशालाओं में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इटली में इसी काल में तीन प्रधान नाटककार हुए- कार्लो गोल्दनी (Carlo Goldani) जिसने प्राय: ३०० नाटक लिखे, यह बेनिस का रहनेवाला था। इसका ला लोकांडियेरा (La Locandiera) बहुत प्रसिद्ध है। काउंट कार्लों गोजी (Count Carlo Gozzi) इसका प्रतिद्वंद्वी था। यह भी वेनिस का ही था। इसके नाटकों में लामोर डेल त्रे मेते मेलारांस (L' amore delle tre Melarance) तथा इल कार्बो (Il Carbo) बड़े प्रसिद्ध हुए। प्रथम नाटक के कारण गोल्दोनी को इटली छोड़कर फ्रांस जाना पड़ा। तीसरा नाटककार काउंट वित्तोरियो अमादिओ अलफेयरी (Count Vittorio Amadeo Alfieeri) था जिसने नाटकस्तर को बहुत ऊपर उठाया। इनके अतिरिक्त और बहुत से छोटे नाटककार भी हुए। इस काल में नाट्यशालाओं का बड़ा विस्तार हुआ। सुंदर नाट्यगृहों में वेनिस का सान कासियानो (San Cassians), वेरोना टियाट्रो फिलरा मॉनिको (Teatro Filaramanico), नेपुल्स का सानकार्लो (San Carlo) थे। पात्र इनमें बड़ी सुंदर वेशभूषा धारण करते थे। जर्मनी में इसी काल में गेटे (Goethe) तथा शिलर हुए। गेटे का फॉस्ट (Faust) तथा शिलर का डान कारलो (Don Carlos) बड़े प्रसिद्ध हुए। शिलर मनहीम (Mannheim) के नाशनेल थियेत्र (National Theatre) का नाटककार १७८७ में नियुक्त हुआ। इस काल में हंबर्ग नाट्यशालाओं का केंद्र बन गया था। यहाँ के नाशनेल थियेत्र में बहुत नाटक खेले गए। वियना में बर्ग थियेटर (Burg theater) बना। हंबर्ग की नाट्यशाला के प्रबंधक श्रोएडर (p) का नाम यहाँ की नाट्यशालाओं के इतिहास के पन्नों में आज भी सुरक्षित है। यह नाट्यकला का विशारद था।

फ्रांस में १८वीं शताब्दी में रंगमंच पर दृश्यों को दिखाने के हेतु विविध उपकरणों का प्रयोग होने लगा था। इसका प्रभाव सभी यूरोपीय नाट्यशालाओं पर पड़ा। चित्रित पदों के अतिरिक्त काष्टोपकरण के सहारे भी भवनों, सीढ़ियों इत्यादि का प्रदर्शन होना प्रारंभ हुआ। नाट्यशालाओं पर अनिवार्य रूप से छत बनने लगी। गेटे के वेमार थियेटर का जो नक्शा अभी सुरक्षित है उसे देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि जर्मनी की नाट्यशाला विकृष्ट बनी हुई थी। रंगमंच के सामने का स्थान अर्ध गोलाकार था। इसके आगे बैठने का स्थान था। रंगमंच के सामने ऊपर दोनों ओर हर्मिकाएँ थीं जिनपर भी दर्शक बैठते थे।

इसी शताब्दी में रूस में जो नाट्यशालाएँ काथेरिन द्वितीय के काल (१७२९-९६) में बनीं संगमरमर लगा कर सीढ़ीनुमा प्रेक्षागृह बना। यह नाट्यशाला हरिमिटाज पैलेस (Hermitage Palace) में थी। काथेरीन के लिखे हुए कई नाटक इसमें खेले गए, जैसे 'ओ टेंपोरा' (O Tempora)*

इंग्लिस्तान में नाट्यशालाओं का १८वीं शताब्दी में बहुत परिवर्तन हुआ। इसी युग में डेविड गारिक हुआ जिसने अपने अभिनय से लंदन के सारे दर्शकों को मोहित कर लिया था। इसके समय ड्ररीलेन (Drury lane) में नाट्यशाला थी हीं, एक और नाट्यशाला गुडमांस फील्ड्स (Goodman's fields) में बन गई थी। यहाँ डेविड गारिक (David Garrik) ने शेक्सपियर के 'रिचर्ड तृतीय' लीयर, हैमलेट' इत्यादि का अभिनय इस स्वाभाविकता से किया कि लोग दंग रह गए। इस काल में नाटककार शेक्सपियर के समकक्ष नहीं पहुँच पाए परंतु नाट्यकला का पूरा विकास गारिक तथा केंवेल (Kemble) ने किया। ये अच्छे प्रबंधक भी थे।

अमरीका में सबसे प्रथम नाटक न्यू मेक्सिको के रियो ग्रांड (Rio Grand) में सन् १५९८ में खेला गया। यह नाटक काप्टेल फारान का लिखा हुआ था तथा स्पेन की भाषा में था। १६०६ ई. में मार्क लेकार्बों (Morc Lescarbot) का मास्क (masque) पोर्ट रायल अकाडिया (Port Royal Acadia) में खेला गया। वर्जीनियाँ के पूर्वीं किनारे पर १६६५ ई. में पहला अंग्रेजी नाटक खेला गया परंतु ऐसा समझा जाता है कि १७३२ ई. में पहली नाट्यशाला न्यूयार्क में बनी और ६ दिसंबर को इसमें पहला नाटक 'द रिक्रूटिंग आफिसर' खेला गया। वर्जीनिया में चार्ल्स तथा मेरी स्टाग (Charles & Mary Stagg) के प्रयत्न से १७१६ ई. में नाट्यशाला बनी। इसके पर्दे तथा दूसरे उपकरण इंग्लिस्तान से मँगवाए गए। फिलाडेल्फिया में १७४९ ई. में नाट्यशाला का बनना आरंभ हुआ। न्यूयार्क के नासो सड़क पर (Nassaw St.) पर जो नाट्यशाला बनी उसमें शेक्सपियर तथा अन्य अंग्रेजी नाटककारों के नाटकों का अभिनय १७५० ई. में प्रारंभ हुआ। इस काल तक नाटक के पर्दे, जो इंग्लिस्तान से मँगाए गए, पुराने पड़ गए थे। मोमबत्ती से नाट्यशाला को आलोकित किया जाता था। अमरीका की क्रांति के पश्चात् न्यूयार्क में जॉन स्ट्रीट नाट्यशाला बनी, फिलाडेल्फिया में साउथवार्क में मेंरीलैंड (Mery Land) में ईस्ट बाल्टीमोर सड़क पर, तथा चार्ल्सटन में डाक स्ट्रीट (street theatre) नाट्यशालाएँ बनीं। इस काल के नाटकों में विशेष रूप से इंग्लिस्तान के प्रति विद्रोह की भावना जाग्रत करने का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है।

चित्र. रोमियो जूलियट नाटक के लिए श्री एक्सटर द्वारा

प्रस्तुत ज्यामितिक रंगमंच

अमरीकी लेखक का लिखा हुआ सर्वप्रथम नाटक टॉमस गाडफ्रे का दि प्रिंस आव पार्थिया माना जाता है। यों इस काल का रायल टेलर का लिखा हुआ दी कंट्रास्ट (The contrast), जो १७८७ ई. में खेला गया, बहुत प्रसिद्ध हुआ। इसके पश्चात् अमरीका की अपनी शैली चल पड़ी और अपने ढंग की नाट्यशालाएँ भी बनने लगीं तथा यूरोप का प्रभाव कम होता चला गया। १९वीं शताब्दी में फ्रांस में एक नये युग का आंरभ हुआ। डेला क्रुआ (Dela croix) ह्यूगो, ला मार्तिन, ड्यूमा बेलजाक (Belzac) इत्यादि ने नई प्रेरणा दी। परंपरागत पद्धति के स्थान पर नए प्रयोगों को अपनाना प्रारंभ हुआ, नाटाालाओं के आकार में भी अब परिवर्तन हुआ तथा साजसज्जा भी बदली। नाटाालाएँ अब भीतर से प्राय: गोल आकार की बनने लगीं। रंगमंच के सामने तथा उसके तीनों ओर हर्मिकाएँ र्दांकों के बैठने के हेतु बनीं। रंगमंच पर वास्तविकता लाने के हेतु भवनों के भागों को दिखाया जाने लगा। इसी काल में विज्ञान ने तथा डार्विन के विकासवाद ने जीवन की मान्यताओं में बहुत हेर फेर कर दिया था। इसके प्रभाव से नाटाालाओं में कल पुर्जों के सहारे दृय जल्दी जल्दी बदले जाने लगे।

१९वीं ाताब्दी के उत्तरार्ध में एमिल जोला तथा अलफाँस डोडे (Alphonse Daudet) ने वास्तविक जीवन को रंगमंच पर प्रदर्तिा करने का प्रयत्न किया तथा अपने काल की जीवन की समस्याओं का दिर्ग्दान कराना प्रारंभ किया। आंद्र आंत्वाँ ने इस प्रयोग को और आगे बढ़ाया। अब साधारण जनता के जीवन का भी प्रर्दान रंगमंच पर प्रारंभ हुआ तथा उसकी झोपड़ी, उसकी टूटी कुर्सी तथा मेज भी सजी सजाई नाटाालाओं में दिखाई जाने लगी।

इस युग का सबसे प्रभावााली नाटककार इब्सन (Ibson) हुआ। इसने सारे सभ्य संसार के नाटकों के लिखने की पद्धति को ही बदल दिया। इसने समाज की कृत्रिम मान्यताओं तथा ढोंग की ऐसी हँसी उड़ाई कि सारी जनता स्तब्ध रह गई। इसके सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन के नग्न चित्रण ने लोगों को अपने सिद्धांतों के विषय में सोचने को विवा कर दिया। डी उनजेस फोवंड या दि लीग आव यूथ (De Unges forbund or The League of youth), एट डूकेजेम या ए डाल्स हाउड (Et Dukejem or A Dolls House)इत्यादि ने बड़ी प्रसिद्धि पाइ।इब्सन के लिखे नाटकों का सुदूर जापान तक में प्रचार हुआ।

वास्तविकता का प्रर्दान करनेवाले नाटककारों में इंग्लिस्तान में जॉन गाल्सवर्दी, तथा जे.एम. बेरी ने बहुत ख्याति प्राप्त की परंतु इस युग के सबसे प्रभावााली नाटककारों में ज्यार्ज बर्नर्डशा थे। उन्होंने इब्सन की भाँति समाज के खोखलेपन का नंगा चित्र उपस्थित किया। उनके लिखे हुए नाटकों ने सारे यूरोप तथा अमरीका को प्रभावित किया। उन्होंने अपने लंबे जीवनकाल में सभी समस्याओं पर लिखा तथा मनुष्य के सोचने की विधि का ही पलट दिया। महात्मा गांधी जब उन्हें यूरोप के सबसे बड़े मजाकिया की उपाधि दी थी। इनके लिखे हुए दि एपिल कार्ट (The Apple Cart), मैन एंड सुपरमैन (Man & Superman) आर्म्स एंड दी मैन (Arms & the man), दि सिम्पुल्टन (The Simlepton) दि मिलियोनेअर्स (The Millionaires); जॉन बुल्स अदर आइलैंड (John Bull's Other Island) इत्यादि बहुत प्रभावााली सिद्ध हुए।

१९वीं ाताब्दी के मध्य तथा उत्तरार्ध में रूस के आस्त्रोबस्की (Ostrovski) ने सामाजिक जीवन की वास्तविकता पर प्रकाा डालते हुए कई नाटक लिखे। इसके लिखे हुए 'पावर्टी इज नो क्राइम' दि स्नो मेडन 'दि पुवर ब्राइड' दि बुल्व्ज़ ऐंड ाीप इत्यादि बहुत प्रसिद्ध हुए। इनमें सामाजिक समस्याओं का केवल दिर्ग्दान है परंतु उनका हल नहीं बताया गया है।

काउंट टॉल्सटाय ने उपन्यास लिखे ही थे, नाटक भी लिखे। इनके 'वार ऐंड पीस' 'अन्ना केरेनिना' कृतियों ने अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त की। इनके 'दि फर्स्ट डिस्टिलर' 'दि फ्रूट्स ऑफ कल्चर' 'रिडेमान' इत्यादि नाटकों को ही नहीं अपितु यूरोप के और लेखकों को भी प्रभावित किया। इस काल का सबसे प्रभावााली नाटककार चेखव (१८६०-१९०४) हुआ। इसने तथा गोर्की ने समाज के बदलते हुए चित्र को दिखाने का प्रयत्न किया। इस समय माली (Mali), बोलाोई (Bolshoi) अलेकजांद्रिनस्की (Alexandrinski) तथा मास्को आर्ट थिएटर (Moscow Art Theatre) में नाटक हुआ करते थे। चेखव ने दलित वर्ग के जीवन का चित्रण करना प्रारंभ किया। उसने दि बीयर, दि मैरेज प्रोपोजल, दि वेडिंग, दि सी गल, चेरी आर्चर्ड में अपने काल के समाज को दिखाने का प्रयास किया। गोर्की (१८६८-१९३६) ने चेखव के कहने पर नाटक लिखना प्रारंभ किया। 'दि स्नग सिटिजन' इसका पहला प्रयास था। इसके पचात् इसने कई नाटक लिखे। समर फोक, चिल्ड्रेन ऑव दि सन, दि बारबेरियंसदि फाल्स का इत्यादि।इनके मरने पर मास्को के आर्ट अकाडेमिक थियेटर का नाम मकसीम गोर्की थिएटर रखा गया।

फ्रांस में रोमाँ रोलाँ (Romain Rolland) ने ल कार्तोर्ज जुइए (Le quatorze Juillet) के पचात् ल जू ड लामूर ए ड लामोर (Le jeu del' amour et de lamort) लिखा। यह उपन्यासकार था और इसके नाटकों में इसकी प्रतिभा उतनी नहीं चमकी। हेनरी रने लेनोरमाँ (Henri Rene' Lenormand) ने मनोवैज्ञानिक आधार पर ल ताँ एत अं सोज (Le temps est un songe), ले राते (Les Rites) लिखे। इसके नाटक बहुत प्रभावााली सिद्ध हुए। इसके पचात् कई फ्रांसीसी नाटककारों ने मनोवैज्ञानिक नाटक लिखे। अब नाटााला में स्वाभाविकता लाने का अधिक प्रयत्न किया जाने लगा। जाक कोपा (Jaques Copeau) ने प्रथम महायुद्ध के पचात् पारी में एक नाटााला बनाई जो अपनी सादगी तथा उपयोगिता के हेतु बहुत प्रसिद्ध हुई। इसमें इसने फ्रांसीसी नाटक, जैसे ल पाकबो टेनासिटी (Le Paquebot Tenacity), अनातोल फ्रांस का ओ पेती वानयोर (Au Petil Bonheur) तथा आंद्रे ज़ीद का सऊल (Sauil) प्रस्तुत किया।

दूसरी लड़ाई के पूर्व ही अमरीका में अपनी राष्ट्रीय नाटााला बन गई थी। जो विचारधारा विलियम वान मूडी ने मनोवैज्ञानिक नाटकों के लिखने की चलाई थी, उसे राोल क्रोथेर्स ने अपने नाटक अएज हसवंडस-गो तथा सूसान ऐंड गाड के द्वारा और आगे बढ़ाया। ज्यार्ज केली ने अपने नाटकों में पात्रों को उनके स्वाभाविक वातावरण में दिखाने का प्रयत्न किया। एलमर राइस ने सर्वप्रथम छायाचित्र के टेकनीक का नाटााला में व्यवहार किया। इसके लिखे हुए स्ट्रीट सीन, वी दि पीपुल, बड़े आकर्षित सिद्ध हुए। अब रंगमंच पर बिजली के सहारे नए नए प्रयोग प्रांरभ हुए। आलोक तथा छाया के प्रयोग से नए दृय उत्पन्न किए जाने लगे।

ओ नील (O' Neill) ने अपने दि एंपरर जान्स में अपने को एक प्रमुख नाटककार के रूप में उपस्थित किया। डिफरेंट में इसने इंद्रियों के दमन के कुप्रभाव को दिखाया। इसने अपने दि हेअरी एप में अमरीका के वास्तविक जीवन को प्रदर्तिा किया। र्दाकों ने इस नाटक की वास्तविकता पर आपत्ति भी की परंतु इस प्रकार का नाटक प्रस्तुत करने की पद्धति चल ही पड़ी। इसने कई और नाटक, जैसे 'डिजायर अंडर दि एल्म्स' काल में नाटाालाएँ छायाचित्रों (Cinema) के सामने कुछ दब गईं। फिर छोटी छोटी नाटाालाओं का जन्म हुआ जिनमें संगीतप्रधान नाटक दिखाए जाते थे। अब अमरीका में कोई नगर ऐसा नहीं रहा जहाँ अपनी नाटाालाएँ न हों।

चित्र. पार्व से लिया गया रंगमंच का विवरणयुक्त चित्र

हिटलर के पूर्व जर्मनी तथा रूस में अमरीका के ही सदृा नाटाालाओं का निर्माण हुआ। कुछ वोिषज्ञ अमरीका से । दूसरी लड़ाई के पचात् टेलीविज़न ने नाटाालाओं का महत्व बहुत कम कर दिया। इसके द्वारा एक ही नाटक करोड़ों र्दाक एक साथ अपने घरों में बैठे हुए देख पाते थे। यूरोप में इसका वोिष प्रचार न बोलते हुए चित्रों द्वारा प्रदर्तिा नाटकों से संतोष नहीं हुआ और छोटी तथा बड़ी नाटाालाएँ आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित बनीं। अब रंगमंच ने पुन: लाक्षणिक रूप धारण किया। चित्रित पर्दों के स्थान पर वेत पर्दे टाँगे जाने लगे। साधारण उपकरण व्यवहार में आने लगे।

१. Entrance प्रवो

2. Stairs to Fly Floor मचान की सीढ़ी

३. Fly Floor मचान

४. Electrician's Perch विद्युद्दीपक का मचान

५. Prompt control panel प्रेरक द्वारा नियंत्रित स्विचबोर्ड

६. Prompt table प्रेरक की मेज ७. Masking curtain आवरणपट

८. Tormentor देखो संख्या १३

९. Apron मंचाग्र

१०. Footlights तलबत्तियाँ

११. Orchestra द्रत्द्य वाद्यवृंद पीठ

१२. Setting line दृयपीठ की रेखा

१३. Tormentor रंगद्वार का दृष्टि अवरोधक या रंगद्वार से सटी हुई स्थायी पखवाई जो तनिक आगे को निकली रहती है।

४. Property room रंग उपकरण कक्ष

१५. Scene dock दृयपटी भांडार

१६. Openings for spots केंद्र-प्रकाा-मुख

१७. Proscenium arch रंगद्वार

१८. Safety curtain guide अग्नि अवरोधक पटाधार

१९. Spots & Spot barrel केंद्रित प्रकाा के पीपे

२०. Fly masking apron मचान आवरक पट

२१. Light Battens प्रकाादंड

२२. Lines रस्से

२३. Flats दृयपट्टियाँ

२४. Raked stage किंचित् ढालुवाँ मंच

एक प्रकार की दूसरी नाटकााला, जो अब यूरोप में बनने लगी है, खुले मैदान की नाटााला है। इसमें रंगमंच के अतिरिक्त प्रेक्षागृह ढालुआँ पृथ्वी पर रहता है। इस स्थान पर लोग मोटरों पर बैठकर रंगमच पर खेले जा रहे नाटक का आनंद दूरबीन से लेते हैं। मोटरें ाीत उष्ण तापयंत्र से सुसज्जित होने के कारण सुखदाई रहती है। अब नाटााला राज्यों द्वारा बनाई जाने लगी हैं जिनमें नाटक मंडलियाँ अपने नाटक प्रस्तुत करती हैं। नाटाालाएँ सार्वजनिक बनने लगी हैं। कहीं पर इन्हें नगरपालिका ने बनवाया है, कहीं पर राज्य सरकार ने।
इस प्रकार यूरोप की नाटाालाओं के विकास की कहानी मिस्त्र के मंदिरों से प्रारंभ होकर सार्वजनिक क्षेत्रों तक पहुँचती है। आज का युग ही सार्वजनिक उद्योगों का है। जनता का यूरोप में राज्य है। जनसाधारण के धन से नाटाालाओं का निर्माण स्वाभाविक है। इनमें वोिष रूप से जनता की सुविधाओं का ध्यान रखा जाता है। प्रेक्षागृह, रंगमंच सभी इसी दृष्टिकोण से बनाए जाते हैं। ाीतोष्ण यंत्र के द्वारा नाटााला के तापमान पर नियंत्रण रहता है। बिजली के ध्वनिप्रसारण यंत्रों द्वारा पात्रों के कथोपकथन र्दाकों को सामान्य रूप से सुनाई देते हैं। र्दाकों के लिए अन्य सुविधाएँ भी प्रस्तुत रहती हैं। (राय गोविंदचंद्र)

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