नागरीदास ब्रज-भक्ति-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्धि पानेवाले नागरीदास कृष्णगढ़ (राजस्थान) के राजा थे। इनका नाम सांवतसिंह था। यों नागरीदास नाम के चार और भक्त कवि हुए हैं - एक थे महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य के शिष्य आगरावाले, दूसरे हुए हैं स्वामी हरिदास की शिष्यपरंपरा में, तीसरे हितहरिवंश के संप्रदाय में, और चौथे नागरीदास का नाम आता है चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में।

कृष्णगढ़ के नागरीदास का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनके पिता का नाम राजसिंह था। सावंतसिंह ने १३ वर्ष की अवस्था में ही बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। यह बड़े शूरवीर थे। राजसिंह के स्वर्गवासी होने पर बादशाह अहमदशाह ने इनको कृष्णगढ़ की गद्दी पर बिठाना चाहा। पर इनके भाई बहादुरसिंह जोधपुर नरेश की सहायता से पहले ही राज्य पर अधिकार कर बैठे थे। सावंतसिंह ने मरहठों से संधि कर ली, और बहादुरसिंह को हराकर राज्य पर अधिकार जमा लिया। किंतु गृहकलह से इनका मन विरक्त हो गया, और यह मत इन्होंने बना लिया कि 'सबै कलह इक राज में, राज कहल को मूल।' राज्य का शासन भार सा प्रतीत होने लगा। कृष्णभक्त तो थे ही, राज्य की ओर से विरक्ति हो जाने के फलस्वरूप इनके मन में ब्रजवास करने की इच्छा प्रबल हो उठी-

ब्रज में ह्वै ह्वै, कढ़त दिन, कितै दिए लै खोय।

अबकै अबकै, कहत ही, वह 'अबकै' कब होय।।

राजकाज छोड़कर नागरीदास वृंदावन को चल दिए। इनके रचे पद ब्रजमंडल में पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, अत: ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया। नागरीदास जी ने स्वयं लिखा है -

'इक मिलत भुजनि भरि दौरि दौरि,

इक टेरि बुलावत और औरि;

कोउ चले जात सहजै सुभाय,

पद गाय उठत भोगहिं सुनाय।

अतिसहय विरक्त जिनके सुभाव,

जे गनत न राजा रकं राव;

ते सिमिटि सिमिटि फिरि आय आय,

फिरि छांड़त पद पढ़वाय गाय।।'

सर्वस्व त्यागकर अब ब्रज की रज को ही सर्वस्व मान लिया-

'सर्वस के सिर धूरि दे, सर्वस कै ब्रज धूरि'

नागरीदास बल्लभकुल के गोस्वामी रणछोड़ जी के शिष्य थे। इनके इष्टदेव श्री कल्याणराय जी तथा श्री नृत्यगोपाल जी थे। ये दोनों भगवत् विग्रह कृष्णगढ़ में आज भी विराजमालन हैं। नागरीदास ने छोटी बड़ी कुल ७५ रचनाएँ की हैं। ७३ रचनाओं का संग्रह 'नागरसमुच्चय' के नाम से ज्ञानसागर यंत्रालय से प्रकाशित हुआ है। इन रचनाओं को तीन भागों में विभक्त किया गया है - वैराग्यसागर, सिंगारसागर और पदसागर। पद, कवित्त, सवैए, दोहे, मांझ, अरिल्ल आदि छंदों में नागरीदास ने प्रेम, भक्ति और वैराग्य पर सरस रचनाएँ की हैं; जो टकसाली हैं। हिंडोला, साँझी, दीवाली, फाग आदि त्यौहारों, छह ऋतुओं और अनेक कृष्ण लीलाओं का इन्होंने सुंदर चित्रण किया है। शिखनख एवं नखशिख पर भी लिखा है। ब्रजभूमि के प्रति नागरीदास जी के भक्ति उद्गार अत्यंत अनूठे हैं। भाषा है ब्रजभाषा। कहीं-कहीं पर फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। अष्टछाप तथा हितहरिवंश और स्वामी हरिदास के संप्रदाय के भक्तकवियों के ललित पदों से नागरीदास के पद बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं।

(वियोगीहरि)