नाग वां अनार्य जातियों में नागपूजा का विशेष प्रचार रहा और उस पूजा के समर्थक राजा नागवंश के नाम से प्रसिद्ध हुए। नाग की पूजा लोकप्रिय हो जाने के कारण ही आर्य संस्कृति में नाग (शेषनाग), बौद्धधर्म में मुचलिंद नाग तथा जैनकथा में पार्वनाथ के छत्र के रूप में नाग को अपनाया गया। इतिहासकार मगध के राजा शिशुनाग तथा नागर्दाक को नागवाीं मानते हैं। पुराणों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि नागवाीं नरेश विदिशा एवं पद्मावती (मध्यप्रदेश) और मथुरा एवं कांतिपुर (उत्तर प्रदेश) में शासन करते रहे। कुषाण राज्य के पतन के अनंतर तथा गुप्तवंश के उत्थान से पूर्व दो विभिन्न राजवाों का शासनकाल माना जाता है जिसमें नागवंश का शासन उत्तरी भारत में सीमित था। इन दो शतियों (२००-४०० ई.) की ऐतिहासिक सामग्रियों द्वारा-साहित्य, अभिलेख तथा मुद्रा-नागवां का इतिहास प्रकाश में आया है।
एवं पद्मावती (मध्यप्रदेश) और मथुरा एवं कांतिपुर (उत्तर प्रदेश) में शासन करते रहे। कुषाण राज्य के पतन के अनंतर तथा गुप्तवंश के उत्थान से पूर्व दो विभिन्न राजवंशों का शासनकाल माना जाता है जिसमें नागवंश का शासन उत्तरी भारत में सीमित था। इन दो शतियों (२००-४०० ई.) की ऐतिहासिक सामग्रियों द्वारा- साहित्य, अभिलेख तथा मुद्रा- नागवंश का इतिहास प्रकाश में आया है।
पुराणों के अतिरिक्त वाकाटक तथा गुप्तवंशी अभिलेखों और मथुरा के समीपवर्ती भूभाग से प्राप्त मुद्राओं का अध्ययन नागशासन के विभिन्न केद्रों पर प्रकाश डालता है। उस आधार पर यह कहना सही होगा कि ईसा पूर्व पहली शती से चौथी शताब्दी तक (यानी पाँच सौ वर्षों तक) नागनरेश उत्तर भारत में शासन करते रहे। वाकाटक अभिलेखों में 'नाग' के लिए 'भारशिव' शब्द प्रयुक्त किया गया है। पूना ताम्रपत्र में यह वर्णन आता है कि गुप्तसम्राट् द्वितीय चंद्रगुप्त की पुत्री प्रभावती गुप्ता नागवंश की कुमारी कुबेरनागा की कन्या थी (ए.इ. १५ पृ. ४१)। दूसरे चंपक ताम्रपत्र में उल्लेख मिलता है कि वाकाटक राजा रुद्रसेन 'भारशिव' महाराज भवनाग का दौहित्र था (फ्लीट, का.इं.इ.भा. ३ पृ. २३६)। इससे प्रकट होता है कि 'नाग' के स्थान पर 'भारशिव' का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन से हुआ था। उसी चंपक ताम्रपत्र में 'शिवलिंगोद्वहन........... भारशिवानां महाराज श्री भवनाग' कहलाया। भारत कलाभवन (काशी हिंदू विश्वविद्यालय) में एक ही प्रतिमा सुरक्षित है जिसके सिर पर शिवलिंग दिखलाई पड़ता है। अतएव ऐतिहासिक साधनों के आधार पर 'नाग' तथा 'भारशिव' नामकरण की सार्थकता ज्ञात हो जाती है।
पुराण, अभिलेख तथा सिक्कों के आधार पर नागशासन की विभिन्न शाखाओं पर प्रकाश पड़ता है। वे विदिशा से लेकर कांतिपुर तक शासन करते रहे। वायु तथा विष्णु पुराणों से पता चलता है कि पदमावती में नौ राजा शासन करते रहे (नवनागा पद्मवत्यां)। सिक्कों के आधार पर दस नागराजाओं की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है (ज.न्यू.सो.इं., भा. ५, पृ. २१)। उनमें विभुनाग, भीम नाग, देवनाग, व्याघ्रनाग आदि का नाम मुद्रालेख से ज्ञात है। गणपति तथा नागसेन के नाम प्रयागस्तंभ लेख में आए हैं। 'हर्षचरित' में भी नागसेन का नामोल्लेख है।
पद्मावती के नागराजाओं में भवनाग का विस्तृत इतिहास ज्ञात है जिसने ३०५-३४० ई. के बीच राज्य किया। उसकी पुत्री वाकाटक युवराज गोतमीपुत्र से ब्याही गई थी जिसका उल्लेख वाकाटक अभिलेख में आता है। इस वैवाहिक संबंध का उद्देश्य राजनीतिक था और वाकाटक प्रवरसेन ने इस रीति से अपने को सबल बनाया। पद्मावती शाखा के अंतिम नरेश नागसेन को समुद्रगुप्त ने परास्त किया था। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश में भी नागवंश प्रभावशाली हो गया था।
मथुरा से दो प्रकार के नाग सिक्के उपलब्ध हुए हैं। भिन्न नामांत सिक्के - जैसे गोमित्र, ब्रह्ममित्र, सूर्यमित्र, विष्णुमित्र आदि - ई.पू. पहली शती के हैं। वहीं से पुरुषदत्त, उत्तमदत्त, रामदत्त, राजा भवदत्त आदि (नागपदविरहित) शासकों के सिक्के प्राप्त हुए हैं जो मथुरा के शक नरेशों के समकालीन थे। संभव है, नागवंशी राजा कुषाण सम्राट् के सामंत रहे हों। द्वितीय शताब्दी में नागवंश स्वतंत्र हो गया। उन्होंने बुंदेलखंड तथा वाराणसी तक अपना राज्य विस्तृत किया। नागवंशी राजाओं का प्रधान शासन कुषाण राज्य की अवनति के पश्चात् आरंभ होता है। प्रथम नागसम्राट् वीरसेन पिछले कुषाण तथा क्षत्रियों को परास्त करने में सफल हुआ था। उसके चलाए सिक्के उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी पंजाब तक पाए जाते हैं (ए.इं.भा. ११ पृ. ८५; ज.रा.ए.सो. १८९७ पृ. ८७६)।
चौथी शताब्दी के मध्य में गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने उत्तरी भागों के नाग नरेशों को परास्त किया जिनके नाम प्रयाग स्तंभलेख में उल्लिखित हैं (गणपति नाग नागसेन आदि)। इसी गुप्त शासक ने नाग लोगों से मैत्री दृढ़ करने के लिए द्वितीय चंद्रगुप्त का विवाह नागकन्या कुबेरनाग से संपन्न किया जिससे उत्पन्न राजकुमारी प्रभावती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन से हुआ था (पूना ताम्रपत्र का लेख)।
संभवत: नागवंश गुप्तों के अधीन रहकर कालयापन करता रहा। पाँचवीं शती के एक लेख से पता लगता है कि शर्व्वनाग (नागवंशी सामंत) स्कंदगुप्त के राज्यकाल में अंतर्वेद के किसी विषय (जिला) का शासक था। (दे. अंतर्वेद)। वाकाटक लेख के निम्नलिखित उद्धरण से परिज्ञात होता है कि नाग (भारशिव) राजाओं ने कुषाणों को नष्ट कर वाराणसी में गंगा किनारे दश अश्वमेघ किया था जिससे उस स्थान का नाम दशाश्वमेघ हो गया - शिवलिंगोद्वहन-शिव-सुपरितुष्ट समुत्पादित राजवंशानांपराक्रमाधिगत भागीरथ्यामल-जल-मूर्धाभिषिक्तानांदाशाश्वमेधाभृथ-स्नातानाम्भारशिवानां महाराज श्री भवनाथ (चंपक ताम्रपत्र, का.इं.इ. ३, पृ. २३६) गुप्तकाल के पश्चात् नागवंश का इतिहास प्रकाश में नहीं आता।
(बलदेव उपाध्याय)