नाइटिंगेल, फलोरेंस (Nightingale, Florenec, १८२० ई. से १९१० ई.) परिचारिका आंदोलन की जन्मदात्री थी।
फ्लोरेंस (इटली) के काफी धनी परिवार में जन्म होने के बावजूद उसे बचपन से ही गरीबों से, खासकर बीमार गरीबों से, अधिक अनुराग था और वह उनकी सेवाशुश्रूषा में बहुत रुचि लेती थी।
कुछ बड़ी होने पर उसने यूरोप की यात्रा की। इस यात्रा में उसने देखा कि इंग्लैंड के बाहर बीमारों की परिचर्या की कितनी अच्छी व्यवस्था है। रोमन कैथोलिक चर्चों तथा लूथरन चर्चों में सभी वर्गों और आयु की महिलाएँ ईसा के प्रति अपनी श्रद्धा के कारण गरीबों तथा बीमारों की सेवासुश्रूषा के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देती थीं। फ्रांस तथा जर्मनी की परिचारिकाओं का उसने अध्ययन किया और यह अनुभव किया कि धार्मिक शपथ लिए बगैर भी यह कार्य खूबसूरती से किया जा सकता है। उसने विदेशी संस्थाओं में प्रशिक्षण लिया और १८५३ ई. में लंदन के एक नए महिला अस्पताल - 'हॉस्पिटल फॉर इन्वैलिड जेंटलवीमेन' - में सुपरिंटेंडेंट हो गई।
क्रीमिया के युद्ध में उसे अपनी योग्यता दिखाने का अच्छा अवसर मिला। इस युद्ध में घायल सैनिकों का, अच्छी व्यवस्था के अभाव में, बुरा हाल हुआ। इतिहासकारों का अनुमान है कि इस युद्ध में जो २० हजार ब्रिटिश सैनिक मृत्यु के मुख में पड़े उनमें से केवल अढ़ाई हजार मैदान में माने गए और बाकी साढ़े १७ हजार अस्पतालों में परिचर्या की अव्यवस्था तथा अभाव के शिकार हुए। इस कारण सारे इंग्लैंड में क्षोभ फैल गया। इसके पहले भी अनेक वीर स्त्रियों ने स्वयंस्फूर्ति से परिचर्या का कार्य अपनाया था लेकिन उनके पास क्षमता तथा अनुभव की अपेक्षा उत्साह ही अधिक था। सौभाग्य से उस समय के ब्रिटिश युद्धमंत्री सिडनी हर्बर्ट 'हैंपशायर' में नाइटिंगेल परिवर के पड़ोसी होने के कारण फ्लोरेंस की योग्यजा जानते थे। उन्होंने उसे नन्ज़ (साधुनियाँ), सिस्टर्स आव मर्सी तथा अस्पताल की परिचारिकाओं के एक बड़े दल की मुख्य अधिकारिणी बनाकर १८५४ ई. के अक्टूबर मास के अंत में स्कुटारी भेज दिया। उसने शीघ्र ही वहाँ अपनी योग्यता प्रमाणित कर दिखाई। वहाँ की अव्यवस्था दूर कर सुप्रबंध किया, नीति, उत्साह और बुद्धिमत्ता से सैनिक अधिकारियों तथा डॉक्टरों का विश्वास प्राप्त किया और रोगियों में तो वह इतनी प्रिय हो गई कि वे उसे श्रद्धा से 'लेडी विथ् दि लैंप' कहने लग गए। वह दिन रात काम करती थी और प्रत्येक रोगी से आत्मीय की तरह व्यवहार करती थी। जब भी देखो वह परिचर्या में व्यस्त दिखाई पड़ती थी। इस कारण सभी को आश्चर्य होता था कि आखिर वह सोती कब है। धीरे-धीरे उसका नया दल जोर पकड़ने लगा और उसमें कई बहुत ही योग्य तथा उत्साही महिलाएँ सम्मिलित हुईं। उसकी सहकारी महिलाओं में नौर्विच के विशप की पुत्री मेरी स्टनले तथा वेस्टमिन्स्टर के डीन की बहन प्रमुख थीं।
स्कुटारी का अस्पताल नई व्यवस्था, सफाई, स्वच्छ हवा और पर्याप्त पानी के प्रबंध इत्यादि के कारण शीघ्र ही स्मशान से सच्चे आरामदेह अस्पताल में परिवर्तित हो गया। रोगियों की मृत्युसंख्या घटते-घटते बहुत ही कम हो गई।
उसकी योग्यता देखकर उसे क्रीमिया के अस्पतालों का निरीक्षण करने के लिए भेजा गया। वहाँ भी उसने अपनी योग्यता प्रमाणित की। वहाँ अत्यधिक परिश्रम के कारण वह बीमार हुई लेकिन शीघ्र ही अच्छी होकर स्कुटारी लौट आई।
युद्ध समाप्त होने के बाद वह घर लौट गई। महारानी से लेकर साधारण व्यक्ति तक, सारा राष्ट्र उसके प्रति आभार प्रकट करने के लिए व्यग्र हो रहा था लेकिन संकोची स्वभाव की होने के कारण वह जनता के सम्मुख नहीं आई। उसने जनता से चंदे द्वारा एकत्र किया हुआ ५,००० पौंड का केवल एक पुरस्कार स्वीकार किया जिसकी सहायता से उसने परिचारिकाओं के प्रशिक्षण के लिए एक संस्था की स्थापना की। इस संस्था की शाखाएँ अब केवल ब्रिटेन में ही नहीं अपितु सारे संसार में फैल गई हैं।
अत्यधिक परिश्रम के कारण उसका स्वास्थ्य गिर गया था, फिर भी सन् १८५७ के भारतीय विद्रोह के समय उसने भारत जाने के लिए अपनी सेवाएँ अर्पित की थीं। गृहयुद्ध के समय संयुक्त राज्य अमरीका ने भी परिचर्याव्यवस्था के संबंध में उसकी राय माँगी थी।
क्रीमिया के युद्ध के बाद उसने सारा जीवन अपने कार्य को आगे बढ़ाने में लगाया। उसने 'नोट्स ऑन् नर्सिग' तथा 'नोट्स ऑन हास्पिटल्स' नामक किताबें भी लिखीं। एक सुप्रसिद्ध विश्वकोश में अस्पतालों पर उसका एक लेख भी प्रकाशित हुआ था। अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रास सोसाइटी की स्थापना में उसका प्रमुख हाथा था।
उसके अंतिम दिन इतने चुपचाप बीते कि जनता उसे लगभग भूल ही गई थी। इसीलिए जब सप्तम एडवर्ड ने उसे 'ऑर्डर ऑव मेरिट' से सम्मानित किया तो जनता में आश्चर्य की लहर दौड़ गई। यह संमान पानेवाली सर्वप्रथम महिला वही थी। उसे विदेशों से भी सम्मान मिला। जब उसकी मृत्यु लंदन में सन् १९१० में हुई तो यह प्रस्ताव हुआ कि उसका शव वेस्टमिन्स्टर एबी में दफनाया जाए। यह वहाँ का सर्वोच्च सम्मान समझा जाता है। लेकिन उसने यह इच्छा प्रकट की थी कि उसका शव उसके हैंपशायर स्थित पुराने घर के निकट के वेलों चर्च में दफनाया जाए। तदनुसार उसे वहीं दफनाया गया।
आज संसार के हर देश के हर अस्पताल में बीमारों और घायलों की सेवासुश्रूषा में रत जो श्वेत वस्त्रधारी हँसमुख परिचारिकाओं की फौज हमें दिखाई देती है, वह शायद न दिखाई देती यदि फ्लोरेंस नाइटिंगेल का जन्म न हुआ होता। 'एक दीप से जले दूसरा' इस कहावत को इस 'लेडी विथ् दि लैम्प' ने अक्षरश: चरितार्थ कर दिखाया।
(बालमुकुंद गणेश क्षीरसागर)