नवाब, अवध के सन् १७२२ ई. से १८५६ ई. तक अवध के ११ नवाब हुए। ये सब शिया मतावलंबी थे। प्रथम नवाब सआदत खाँ (१७२२-३९) ईरान से भाग्यपरीक्षा के लिए १७०८ ई. में भारत आया। उसने अनेक निम्न पदों पर कार्य किया और अपनी सैनिक कुशलता के कारण १७२२ ई. में वह अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ। मुगल सम्राट् की सत्ता शिथिल होने से प्राचीन सूबेदार स्वतंत्र रूप से कार्य करते थे। सआदत खाँ ने भी अवसर से लाभ उठाकर अवध के स्वतंत्र राज्य की नींव डाली। १७३९ में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। नादिर ईरानी था, इस नाते उसने सआदत को साध्य बनाना चाहा पर सआदत अडिग रहा। किंतु खानेदौरान की मृत्यु के पश्चात् जब मीरबख्शी का पद रिक्त हुआ और निजाम स्वयं ही मीर बख्शी बन बैठा तो सआदत में प्रतिशोध की आग भड़क उठी। इस पद के लिए वह लालायित था। निजाम ने भी उसे मीरबख्शी बनाने का वचन दिया था परंतु अब निजाम के मीरबख्शी बनने पर उसने उसे मजा चखाने का निश्चय किया। निजाम ने ५० लाख रुपए देकर नादिर को लौट जाने के लिए तैयार कर लिया था किंतु सआदत ने उसे उकसाया कि उसे इतनी अल्प राशि पर ही राजी न होकर बीस करोड़ रुपया लेना चाहिए था। इतना धन न मिलने पर नादिर ने दिल्ली को लूटा और नवाब ने भी अपमानित होकर आत्महत्या कर ली। उसके पश्चात् उसका दामाद सफदरजंग (१७३९-५४) अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ। उस समय ऐसी प्रथा थी कि एक व्यक्ति कई प्रांतों का सूबेदार भी नियुक्त किया जा सकता था। जो सूबेदार महत्वाकांक्षी होते थे वे अपने प्रांत में नायब पर कार्यभार छोड़कर दिल्ली में रहना पसंद करते थे ताकि वहाँ की राजनीति का संचालन कर सकें अथवा राजनीतिक षड्यंत्रों में भाग ले सकें। १७४४ ई. में सफदरजंग कश्मीर का भी सूबेदार बना। १७४८ ई. में उसने विदेशी आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली को पराजित कर देश की रक्षा की। १७४८ ई. से १७५३ ई. तक वह वजीर रहा। उसका पुत्र शुजाउद्दौला (१७५४-७५) भी १६५९ ई. में वजीर बना और ढाई वर्ष छोड़कर मृत्युपर्यंत वह इस पद पर आसीन रहा। पिता के पश्चात् पुत्र वजीर बना, इस कारण अवध के नवाब प्राय: नवाब बजीर भी कहलाते हैं। उपर्युक्त तीनों नवाबों की दिल्ली की राजनीति में बड़ी रुचि थी। इस कारण अवध के इतिहास के साथ-साथ उन्होंने भारतीय इतिहास का भी निर्माण किया।

शुजा के पिता ने अब्दाली को मार भगाया था किंतु शुजा ने धार्मिक एवं सांप्रदायिक भावना से प्रेरित होकर तृतीय पानीपत के युद्ध में मराठों के विरुद्ध अब्दाली का साथ दिया। यद्यपि इससे उसे कुछ हाथ नहीं आया वरन् शिया होने के कारण अब्दाली के शिविर में उसे कुछ अपमान ही सहना पड़ा। १७६४ ई. में बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों ने उसे पराजित किया। अंग्रेज चाहते तो अवध पर अपना अधिकार जमा लेते किंतु उन्होंने केवल बंगाल पर अपना आधिपत्य पक्का किया। शुजा से कड़ा तथा इलाहाबाद के प्रांत छीनकर अवध का शेष भाग उसे लौटा दिया और उसकी वजारत को भी मान्यता दी। १७७३ ई. में ये प्रांत ५० लाख रुपया लेकर उसे पुन: दे दिए गए। १७७४ ई. में उसने रुहेलों के साथ युद्ध करके उनके सरदार हाफिज रहतम खाँ को मौत के घाट उतार रुहेला राज्य का अंत कर दिया।

शुजा में एक कुशल सैनिक और सफल शासक के सभी गुण विद्यमान थे। इस कारण अंग्रेज उसकी स्वतंत्रता सैद्धांतिक दृष्टि से स्वीकार करते रहे किंतु उसके पुत्र आसफउद्दौला (१७७५-९७) के सिंहासनारूढ़ होने पर अवध के इतिहास का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। आसफ में अपने पिता के गुणों का सर्वथा अभाव था, इस कारण अवध में अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। जब तक आरोप लगाकर, घूस लेकर और डरा धमकाकर ईस्ट इंडिया कँपनी के अवध से रुपया प्राप्त करने की नीति आरंभ की। नवाब को आदेश दिया गया कि कंपनी को देने के लिए यदि उसके पास धन न हो तो अपनी माता तथा दादी के प्रति कार्यवाही करके वह धन प्राप्त करे। नवाब ने इस कलंक से मुक्ति पाने के लिए गवर्नर जनरल को दस लाख रुपए की घूस भी दी किंतु फिर भी वह बच न सका और वृद्धा बेगमों के प्रति क्रूर व्यवहार करना ही पड़ा। आसफ में अपने पूर्वजों की रणबांकुरी नहीं थी। किंतु आसफ ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाया और मुगलदरबार का वैभव नष्ट होने पर कवियों तथा साहित्यिकों को लखनऊ में संरक्षण दिया। लखनऊ के दरबार ने मुगलकालीन सभ्यता एवं संस्कृति के अवशेषो को अपने में समेटकर उन्हें संजोना आरंभ किया। इस दृष्टिकोण से अवध भारत में मुगलकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का अंतिम सोपान भी कहलाता है। आसफउद्दौला अत्यंत उदार एवं दानी था। 'जिसको न दे मौला, उसे दे आसफउद्दौला' यह कहावत आज भी लखनऊ में प्रसिद्ध है। लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा उसकी दयालुता तथा दानशीलता का साक्षी हैं। इसका निर्माण उसने १७८४ ई. में अकालपीड़ितों की सहायता के लिए करवाया था। यह 'भूलभुलैया' के नाम से भी पुकारा जाता है।

आसफ के पश्चात वजीर अली को गद्दी मिली किंतु उसका व्यवहार प्रतिकूल देख छह माह के अंदर ही उसे दोगला घोषित कर गवर्नर जनरल ने पदच्युत कर दिया और आसफ के भाई सआदत अली खाँ (१७९८-१८१४) के साथ नवीन संधि कर उसे नवाब बनाया। शुजाउद्दौला की अंग्रेजों से संधि के पश्चात् अवध में एक अंग्रेज अधिकारी, रेजिडेंट, अंग्रेजी सत्ता के प्रहरी के रूप में रहने लगा। किंतु उसका कोई विशेष निवसस्थान नहीं था। सआदत अली खाँ ने उसके निवास के लिए रेजिडेंसी का निर्माण करवाया। १८५७ ई. में अंग्रेजी सत्ता का नाश करने के लिए यहाँ घमासन लड़ाई हुई। रेजिडेंसी का आधुनिक खंडित स्वरूप उसी समय का अवशेष है। ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक राष्ट्रीयध्वज 'यूनियन जैक' इसी भवन पर लहराता था जो १५ अगस्त, १९४७ ई. को हटा दिया गया। नवाब द्वारा निर्मित अन्य प्रसिद्ध इमारतें, हयातबख्श कोठी (राजभवन), नूरबख्श कोठी (कलक्टर का बँगला), खुरशीद मंज़िल (लामारटिनियर गर्ल्स स्कूल) आदि हैं। सआदत अली खाँ के समय में रेजिडेंट का हस्तक्षेप भी अवध में बढ़ गया। उसके कार्यों से नवाब को ग्लानि और क्रोध होता था किंतु अंग्रेजों की कृपा से नवाब बना व्यक्ति रेजिडेंट की अवहेलना कर ही कैसे सकता था? अवध की सुरक्षा के हेतु जो अंग्रेजी सेना रखी गई थी उसके व्यय के लिए अंग्रेजों ने नवाब के साथ १८०१ ई. में एक और संधि करके एक करोड़ पैंतीस लाख वार्षिक कर देनेवाला प्रदेश नवाब से ले लिया। किंतु सआदत अली खाँ एक कुशल शासक था। उसने अपने अधीनस्थ प्रदेश में ऐसी सुव्यवस्था की कि उसके पुत्र गाजीउद्दीन हैदर (१८१४-२७) को १४ करोड़ रुपए सरकारी खजाने में मिले। गाजीउद्दीन हैदर के समय तक अंग्रेजों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि नवाब गवर्नरजनरल को 'पूज्यचाचा' कहकर संबोधन करता था। अंग्रेजों ने नवाब पर दबाव डालकर तीन बार एक-एक करोड़ रुपए का और चौथी बार पचास लाख रुपए का ऋण लिया।

१८१९ ई. में गवर्नरजनरल ने नवाब को शाह की उपाधि धारण करने के लिए प्रोत्साहित किय। अब तक भारत का शाह मुगल सम्राट् था और अवध के नवाब उसके सूबेदार के रूप में ही कार्य करते थे। यह सैद्धांतिक मान्यता चली आ रही थी। अब मुगल सम्राट् को यह दिखाकर अपमानित करना था कि अंग्रेज जिसे चाहे उसे शाह बना सकते हैं। इस प्रकार गाजीउद्दीन हैदर अवध का सातवाँ नवाब किंतु पहला बादशाह था। उसके समय तक लखनऊ के कवियों ने उर्दू काव्य में अपनी एक विशिष्टता बना ली थी। ये कवि नवाबों का केवल संरक्षण मिलने के कारण दिल्ली से लखनऊ चले आए थे किंतु मन दिल्ली में ही बसता था। लखनऊ वालों को यह निम्न समझते थे और पूरबिया कहकर प्राय: अपनी गजलों में इनका उपहास भी किया करते थे। दिल्ली के कवियों की कविता में जो ओज था उसका अभाव इन्हें यहाँ खलता था किंतु गाजीउद्दीन हैदर के समय तक कवि लखनऊ की कोमल संस्कृति में रम गए और 'हम सफीर अपना वतन है लखनऊ, हम तो बुलबुल हैं चमन है लखनऊ' की ध्वनि से वातावरण गुंजित हो उठा था। शाह स्वयं कवि तथा विद्याप्रेमी था। उसके समय में पहली बार अवध में शाही प्रेस की स्थापना हुई और अनके महत्वपूर्ण ग्रंथ छपे। 'हप्त कुल्जुम' नामक सात खंडों का फारसी का कोश जिसे स्वयं शाह ने संपादित किया था इसी प्रेस में मुद्रित हुआ। आसफउद्दौला तथा सआदत अली खाँ मेंढ़ों का युद्ध देखकर मनोरंजन किया करते थे। गाजीउद्दीन हैदर को शेर, चीता, हाथी, गैंडे इत्यादि जानवरों की लड़ाई देखने का शौक था। जनसाधारण इन हिंसक पशुओं को नहीं पाल सकते थे इस कारण मुर्ग, तीतर, बटेर इत्यादि को लड़ाकर अपना मनोरजंन करते थे। गाजीउद्दीन हैदर ने अपने माता-पिता के मकबरों, छतरमंजिल तथा शाहनजफ इत्यादि इमारतों का निर्माण करवाया। गाजीउद्दीन हैदर के उत्तराधिकारी नसीरउद्दीन हैदर (१८२७-३७) के समय में अवध में लिथो की छपाई आरंभ हुई।

अवध के नवाबों में नसीरउद्दीन हैदर सबसे अधिक विलासी तथा शासनकार्य के प्रति उदासीन था। उसके समय में जनवर्ग में चर्चा का यह विषय था कि अवध पर अंग्रेजों का आधिपत्य होनेवाला है। उसने पहले तो मुन्ना जान नामक एक बच्चे को अपना पुत्र स्वीकार किया किंतु फिर उसे अस्वीकृत कर दिया। इस कारण उसके चाचा मुहम्मद अली शाह (१८३७-४२) को ६३ वर्ष की आयु में सिंहासन मिला। मुहम्मद अली शाह संयमी था। उसने बिगड़े हुए शासनयंत्र को सुधारने का प्रयत्न किया किंतु वृद्धावस्था ने उसका साथ अधिक नहीं दिया। उसने लखनऊ के छोटे इमामबाड़े का निर्माण करवाया। उसके पुत्र अमजद अलीशाह (१७४२-४७) ने लखनऊ से कानपुर तक पक्की सड़क का निर्माण करवाया। गोमती नदी पर लोहे का पुल भी, जिसका आदेश गाजीउद्दीन हैदर ने दिया था किंतु अब तक पूरा नहीं हुआ था, अमजद अजीशाह ने पूरा करवाया। यद्यपि जो लोहे का पुल आजकल है वह उस समय का नहीं है। वह लोहे के तार पर झूलता हुआ पुल था। लखनऊ के बाज़ार अमीनाबाद एवं हजरतगंज का शिलान्यास भी इसी नवाब के समय में हुआ।

अब तक अवध में रेजिडेंट का हस्तक्षेप पूर्ण रूप से स्थापित हो गया था। अंतिम नवाब वाजिदअलीशाह (१८४७-५६) के अपने इच्छानुसार वजीर नियुक्त करने पर भी रजिडेंट को आपत्ति थी। जब उसने सैनिकों के प्रशिक्षण का निरीक्षण करना आरंभ किया तब भी रेजिडेंट ने आपत्ति की। एक ओर उसे शासन सुधारने के लिए चेतावनी दी जाती थी, दूसरी ओर उसके प्रयत्नों पर रोक लगाई जाती थी ताकि अवध को हड़पने में कठिनाई न हो। शाह में इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि अंग्रेजों की अवहेलना करता। लाचार होकर उसने सांस्कृतिक क्षेत्र में अधिकतर समय लगाया और शिष्टाचार, खानपान, वेशभूषा, रहन-सहन, काव्य, संगीत, नृत्य तथा स्थापत्य आदि ललित कलाओं के विभिन्न अंगों को ऐसा संवारा और संजोया कि ये सब मध्ययुगीन संस्कृति के सुंदर उपसंहार बन गए। कुशासन का मिथ्या आरोप लगाकर फरवरी १८५६ ई. में वाजिदअली शाह को हटाकर अवध अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। महारानी विक्टोरिया तथा ब्रिटिश पार्लियामेंट से न्याय का आशा से उसने लंदन के लिए प्रस्थान किया किंतु अस्वस्थ हो जाने से उसे कलकत्ता में रुकना पड़ा। उसकी माता तथा छोटा भाई लंदन पहुँचे किंतु भारत में १८५७ ई. का विद्रोह छिड़ जाने से उन्हें सफलता नहीं मिली। वाज़िद अली को १२ लाख रुपए को वार्षिक पेंश्न मिली। १८८७ ई. में मटियाबुर्ज में उसका देहांत हुआ। (जी.डी.भ.)

अवध के नवाबों का शासन मुगलों की शासनप्रणाली पर आधारित था किंतु जैसे-जैसे अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ता गया नवाबों की शासनप्रणाली में भी परिवर्तन होता गया। नवाबों के समय में बैत-उल्-इन्शा (सचिवालय) दीवानी तथा बख्शीगौरी के विभाग सदैव प्रतिष्ठित हिंदुओं के अधीन रहे। राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि थी। राज्य कई निजामतों में नाजिमों के अधीन विभाजित कर दिया जाता था और निजामत कई चकलों में चकलादारों या तहसीलदारों के अंतर्गत बाँट दी जाती थी। भूमिकर तीन प्रकार से वसूल किया जाता था। १. हुजूर तहसील - जहाँ सीधे सरकार को कर दिया जाता था। २. इजारा - जहाँ जमींदार अथवा ताल्लुकदारों का कर देने का ठेका होता था। ३. अमानी - जहाँ सरकारी आमिल कर वसूल करके जमा करते थे। नवाबों द्वारा निर्मित भवनों में मछली के चिह्न को विशेषता दी गई है। प्रथम नवाब अवध आते समय जब गंगा पार कर रहा था तो एक मछली उसकी गोद में आकर गिरी। इसे शुभ शकुन समझा गया और नवाबों ने इस चिह्न को भवननिर्माण में स्थान दिया। शुजाउद्दौला से वाजिदअली शाह तक सभी नवाबों को भवननिर्माण में रुचि थी। अपने सीमित साधनों में केवल ईटं और चूने से कला का जो प्रदर्शन किया गया है वह आश्चर्य में डाल देता है। आसफउद्दौला का इमामबाड़ा तथा रूमी दरवाजा तो विश्वविख्यात हैं। जिन भवनों पर यूरोपीय शैली का प्रभाव है वे अपनी मौलिकता खो बैठे हैं। सुंदर भवनों, मोहक उद्यानों एवं उपजाऊ भूमि के कारण नवाबकालीन अवध को विदेशियों ने भी 'गार्डन ऑव इंडिया' (भारत का उद्यान) अथवा 'राज्यों की रानी' (queen province) की संज्ञा दी है।(जी. डी. भटनागर)