नरोत्तमदास सीतापुर जिले के बाड़ी नामक कस्बे के निवासी बताए जाते हैं। इनका जन्म-मृत्यु-संवत् अज्ञात है। 'शिवसिंहसरोज' के अनुसार ये सं. १६०२ में वर्तमान थे। इनकी जाति का भी उल्लेख कहीं नहीं मिलता, फिर भी कुछ लोगों का अनुमान है कि ये ब्राह्मण या वैश्य थे। मिश्रबंधुओं ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण लिखा है। इनकी एकमात्र उपलब्ध कृति 'सुदामाचरित' अथवा 'सुदामालीला' है जिसका लेखनकाल संवत् १५८२ कहा जाता है। 'ध्रुवचरित' नामक इनकी एक अन्य अनुपलब्ध रचना भी बताई जाती है जिसके कारण कुछ लोग अनुमान करते हैं कि इन्होंने इसी प्रकार के अन्य चरितकाव्यों की भी रचना की होगी। परंतु उक्त अनुमानित रचनाएँ अब तक अप्राप्य ही हैं। 'खोज' में 'विचारमाला' नाम की एक और रचना का भी उल्लेख है। फलत: इनकी कीर्ति इनके सुदामाचरित पर ही आश्रित है। आकार में छोटी होते हुए भी यह रचना बड़ी ही भावपूर्ण और मर्मस्पर्शिनी है। प्रक्षिप्त मान जानेवाले अंशों को छोड़कर इसमें दोहा, कुंडलिया, कवित्त और सवैया सब मिलाकर कुल १२१ छंद हैं। भाषा तत्कालीन काव्यभाषा सामान्य ब्रजी है, जिसमें बैसवाड़ी के भी कुछ बहुप्रचलित शब्द कहीं कहीं मिलते हैं, फिर भी वह व्यवस्थित, परिष्कृत और प्रवाहपूर्ण है। शब्दों के भोंडे तोड़ मरोड़ भी अत्यल्प ही हैं। इसकी संवादयोजना स्वाभाविक, सरल, सरस और प्रभावोत्पादक है। अपनी इसी विशेषता के लिए प्रसिद्ध 'रामचंद्रचंद्रिका' की पूर्ववर्तिनी रचना हेने के कारण इसकी यह विशेषता महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसका वर्ण्य विषय कृष्ण सुदामा की आदर्श मैत्री है, जिसमें कवि को अपनी भाबुकता के प्रसार और प्रदर्शन के लिए पर्याप्त अवकाश मिला है। खंडकाव्य होने के कारण पूर्ण रस परिपाक की गुंजाइश न रहने पर भी भावों की सहज अभिव्यक्ति हुई है। हिंदी में इसी विषय और प्राय: इसी ना की लगभग २५ रचनाओं का पता चलता है जिनमें यही सर्वश्रेष्ठ है।
(शिवप्रसाद मिश्र)