नरसी मेहता (१६वीं शती ई.) गुजराती भक्तिसाहित्य की श्रेष्ठतम विभूति। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की महत्ता के अनुरूप साहित्य के इतिहासग्रंथों में नरसिंह-मीरा-युग नाम से एक स्वतंत्र काव्यकाल का निर्धारण किया गया है जिसकी मुख्य विशेषता भावप्रवण कृष्णभक्ति से अनुप्रेरित पदों का निर्माण है। पदप्रणेता के रूप में गुजराती साहित्य में नरसी का लगभग वही स्थान है जो हिंदी में सूर का। पुष्टिमार्ग में नरसी को 'वधेयो' माना जाता है पर नरसी किसी संप्रदाय से संबद्ध प्रतीत नहीं होते। उनकी भक्ति भागवताश्रित थी। अन्यान्य लीलाओं की अपेक्षा कृष्ण की रासलीला नरसी का विशेष प्रिय थी और भावात्मक तादात्म्य की स्थित में उन्होंने अपने को 'दीवटियो' या दीपवाहक बनकर रास में भाग लेते हुए वर्णित किया है। वे गुजरा के सर्वाधिक लोकप्रि वैष्णव कवि हैं तथा लोककल्पना में उनके जीवन से संबद्ध किंवदंतियों एवं चमत्कारिक घटनाओं के प्रति सहज विश्वासभावना मिलती है।
ऐतिहासिक दृष्टि से नरसी मेहता के जीवनकाल का निश्चय एक समस्या रही है। उनकी 'हारमाला' नामक कृति में दी गई तिथि सं. १५१२ तथा वर्णित घटना से सिद्ध रा मांडलिक (सं. १४८७ से १५२८) की समकालीनता के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने उन्हें १५वीं शती ई. में रखा और बहुत काल तक 'वृद्धमान्य समय' (१४१४-८१ ई.) निर्विवाद स्वीकृत किया जाता रहा परंतु; क.मा. मुंशी ने अनेक तर्क वितर्कों द्वारा उसे अतिशय विवादास्पद बना दिया। उनके अनुसार चैतन्य के प्रभाव के कारण नरसी मेहता का समय १५००-१५८० ई. से पूर्व नहीं माना जा सकता। यद्यपि गुजराती के अनेकानेक मान्य विद्वानों ने इस विवाद में भाग लिया है तथापि वह अब भी प्राय: अनिर्णीत ही है। उनकी रचनाओं में जयदेव, नामदेव, रामानंद और मीरा का उल्लेख मिलता है।
नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़ के समीपवर्ती 'तलाजा' नामक ग्राम में हुआ था और उनके पिता कृष्णदामोदर वडनगर के नागरवंशी कुलीन ब्राह्मण थे। उनका अवसान हो जाने पर बाल्यकाल से ही नरसी को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ा। एक कथा के अनुसार वे आठ वर्ष तक गूंगे रहे और किसी कृष्णभक्त साधु की कृपा से उन्हें वाणी का वरदान प्राप्त हुआ। साधु संग उनका व्यसन था। उद्यमहीनता के कारण उन्हें भाभी की कटूक्तियाँ सहनी पड़तीं और अंतत: गृहत्याग भी करना पड़ा। विवाहोपरांत पत्नी माणिकबाई से कुँवर बाई तथा शामलदास नामक दो संतानें हुई। कृष्णभक्त होने से पूर्व उनके शैव होने के प्रमाण मिलते हैं। कहा जाता है, 'गोपीनाथ' महादेव की कृपा से ही उन्हें कृष्णलीला का दर्श्न हुआ जिसने उने जीवन को सर्वथा नई दिशा में मोड़ दिया। गृहस्थ जीवन में चमत्कारिक रूप से अपने आराध्य की ओर से सहायता प्राप्त होने के अनेक वर्णन उनकी आत्मचरितपरक कई रचनाओं में उपलब्ध होते हैं। उनमें 'हुंडी', 'झारी', 'मामेरु', और 'हार' का प्रसंग सर्वप्रमुख है। 'ढेढ' प्रसंग भी नरसी की जीवनी में यथेष्ट महत्व रखता है क्योंकि उसके फलस्वरूप उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। वे स्त्री और शूद्र को भक्ति का अधिकारी समझते थे जिसके कारण समस्त नागर जाति उनसे क्षुब्ध हो गई थी। नरसी ने अपनी अंतर्वृत्ति का बाह्य प्रभावों से कुंठित नहीं होने दिया। यह उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है।
विषय और वस्तु की दृष्टि से नरसी की समस्त रचनाएँ मुख्यत: दो वर्गों में रखी जा सकती हैं। प्रथम वर्ग में 'सामलदासनो विवाह' तथा 'हारमाला' की गणना की जाएगी। इनमें कवि ने अपने जीवन की किसी अलौकिक घटना का वर्णन किया है। दूसरे वर्ग में निम्नलिखित नौ रचनाएँ आती हैं जिनकी सृष्टि पूर्णतया कृष्णचरित को आलंबन मानकर की गई है-
इनके अतिरिक्त कुछ प्रकीर्णक पद 'हींडोलाना पदो', 'भक्तिज्ञानानां पदो' 'कृष्णजन्मसमेनां पदो', 'कृष्णजन्मबधाईनां पदो' तथा 'वसंतनां पदो' नाम से संगृहीत मिलते हैं। इनसे ज्ञात होता है कि शृंगारिक प्रकृतिवर्णन, वात्सल्य भाव तथा ज्ञानप्रधान भक्ति की ओ नरसी की विशेष प्रवृत्ति थी। पूर्वोक्त सभी रचनाएँ नरसिंह मेहता कृत 'काव्यसंग्रह' नाम से एक साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त इनका प्रकाशन 'बृहत् काव्यदोहन' 'प्राचीन काव्य त्रैमासिक' तथा 'प्राचीन काव्य सुधा' आदि में भी हुआ है। मुंशी द्वारा उल्लिखित 'नागदमन' और 'मानलीला' शीर्षक रचनाएँ स्वतंत्र कृतियाँ न होकर विषय विशेष के पदसंग्रह मात्र हैं। के.का. शास्त्री ने हस्तलिखित ग्रंथों की शोध के आधार पर और भी अनेक कृतियों का नामोल्लेख किया है जिनमें अधिकांश पदसंग्रह मात्र हैं। 'सूरत संग्राम' और 'गोविंदगमन' नाम रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध मानी जाती है।
'वैष्णव जन तो तैणे कहिए जे पीड पराई जाणे रे' पंक्ति से आरंभ होनेवाला सुविख्यात पद नरसी मेहता का ही है। नरसी ने इसमें वैष्णव धर्म के सारतत्वों का संकलन करके अपनी अंतर्दृष्टि एवं सहज मानवीयता का परिचय दिया है। नरसी की इस उदार वैष्णव भक्ति का प्रभाव गुजरात में आज तक लक्षित होता है।
(जगदीश गुप्त)