नजफखाँ, मिज़ार् नवाब, जुल्फिकार उद्दौला, अमीर-उल्-उमरा गालिब जंग। इलाहाबाद के फौजदार मोहम्मद कुली खाँ का मामा। मोहम्मद कुली के समय में (१७५३-५९) नजफ़ खाँ इलाहाबाद के किले का रक्षक था। नजफ खाँ रोज रात के समय पिछले पहर गुप्त मार्ग से आकर उस अंग्रेजी सेना पर धावा करता जो ऊदबा नाला के दुर्ग के बाहर बंगाल के नवाब मीर कासिम को पकड़ने के लिए पड़ी हुई थी (सितंबर १७६३ ई.) और अनेकों को समाप्त कर लूट का माल लेकर उसी मार्ग से लौट जाता था। अंग्रेजी सेना किसी प्रकार उसका पीछा न कर पाती थी। अंत में मीर कासिम की सेना के एक अंग्रेज सैनिक ने विश्वासघात किया। उसने नजफ़ खाँ के गुप्त मार्ग को अच्छी तरह देख लिया। ४ सितंबर, १७६३ ई. की रात में वह अंग्रेजी सेना को उसी मार्ग से लिवा लाया और मीर कासिम के पंद्रह हजार सैनिक काम आए। अब मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता लेने का विचार किया किंतु नजफ ने उसे मना किया और भंयकर परिणामों की ओर उसका ध्यान आकृष्ट किया। किंतु मीर कासिम न माना और नजफ उसे छोड़कर बुंदेलखंड के सरदार हिंदूपति की सेवा में चला गया। शुजा की आँखें बुंदेलखंड पर लगी थीं अतएव उसने हिंदूपति को पराजित करने के पश्चात् मीर कासिम को सहायता देने का वचन दिया। इस पर मीर कासिम ने कार्य शीघ्र समाप्त करने के लिए स्वयं हिंदूपति पर चढ़ाई कर दी। नजफ ने कूटनीति से हिंदूपति को डराकर समझौता करवा दिया। मीर कासिम विजयी होकर शुजा के पास इलाहाबाद लौट आया। नजफ की सफल कूटनीति और सैनिक योग्यता देख शुजा से युद्ध करने से पहले अंग्रेजों ने उसे बुंदेलखंड से बुलाकर अपने साथ मिला लिया। नजफ को शुजा से पुराना बैर था इस कारण उसने अंग्रेजों को सहायता देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। १७६४ ई. से वह अंग्रेजों का बहुत बड़ा सहायक बन गया। शुजा के विरुद्ध सहायता देने के बदले में उसे शुजा की भूमि का कुछ भाग अथवा धन देने का लालच दिया गया। किंतु नजफ़ बड़ा चालाक था। वह अंग्रेजों से उस समय मिला जब कि बक्सर के युद्ध का परिणाम उनके पक्ष में निश्चित हो गया। उसने इलाहाबाद के किले के जीतने में बड़ी सहायता की। वह उस किले का रक्षक रह चुका था और उसके रहस्यों से परिचित था। अँग्रेजों ने अवध और इलाहाबाद के बंदोबस्त का उत्तरदायित्व मिर्ज़ा नजफ़ खाँ को दिया। वह कड़ा का फौजदार भी नियुक्त किया गया किंतु शुजा और मल्हार राव होल्कर की सेनाओं के सम्मुख अप्रैल, १७६५ ई. में उसकी हार हुई और उसे आत्मसमर्पण कर देना पड़ा। शुजा ने उसका स्वागत किया। होलकर का अहं देख उसने शुजा को अंग्रेजों से संधि करने की सलाह दी। शुजा ने उसे ही अंग्रेजों से मिलने को कहा। अवसर पाकर नज़फ ने धोखा दिया और ३० अप्रैल, १७६५ ई. को वह अंग्रेजों से जा मिला। युद्ध के पश्चात् जब शांति हुई तो बंगाल के २६ लाख वार्षिक कर में से दो लाख वार्षिक नज़फ को दिए गए। वह कड़ा का फौजदार भी नियुक्त किया गया किंतु शासन प्रबंध में असफल होने पर २१ फरवरी, १७७० ई. को उसे पदुच्यत कर दिया गया। उसके संरक्षक अंग्रेजों ने शाह आलम से उसके प्रति नम्रता का व्यवहार करने को कहा। शाह आलम दिल्ली यात्रा में नज़फ की सेवाओं से लाभ उठाना चाहता था अतएव उसने उसे क्षमा कर दिया। १७७१ ई. में वह शाह आलम के साथ दिल्ली चला गया। वहाँ उसने कुछ वर्षों तक मृतप्राय: मुगल शासन तभा वैभव में फिर एक बार जान डाली। उसने मथुरा से जाटों को मार भगाया। ११ दिसंबर, १७७३ ई. को उसने आगरा नगर पर और १८ फरवरी, १७७४ ई. को आगरा के किले पर जाटों को भगाकर अधिकार कर लिया। उसके दिल्ली में प्रभाव और सैनिक प्रतिभा को देख नवाब वजीर शुजाउद्दौला ने शत्रुता भुलाकर उससे मित्रता करने में ही समझा। उसने नजफ को भेंट के लिए आमंत्रित किया और उसे नायब वज़ीर मनोनीत किया। शुजा ने उसे रुहेलों के विरुद्ध सहायता देने के लिए भी तैयार कर लिया और उसके द्वारा शाह आलम को भी सेना का नेतृत्व करने के लिए राजी कर लिया। रुहेला युद्ध के पश्चात् बुलंदशहर, मुजफ्फर नगर, मेरठ, आगरा, पानीपत, सोनपत, हाँसी तथा हिसार में नज़फ खाँ का प्रभाव क्षेत्र स्वीकार किया गया जिससे शुजा का कोई संबंध नहीं था। यह सीमा निर्धारित कर शुजा ने नजफ की महत्वकांक्षा को सीमित कर दिया। शुजा ने उसे उत्तरी भारत का अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति स्वीकार किया और अपनी कन्या का संबंध उसके साथ स्थापित कर उसे अपना दामाद भी बना लिया। सन् १७८२ ई. में इसका देहांत हुआ।(जी. डी. भटनागर)