नंदवंश नंदवंश के इतिहास की जानकारी के अनेक छिटफुट विवरण पुराणों, जैन और बौद्ध ग्रंथों एवं कुछ यूनानी इतिहासकारों के वर्णन में प्राप्त होते हैं। किंतु उन सब में न कोई पूर्णता है और न ऐकमत्य ही। तथापि इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नंदों का एक शूद्रवंश था जिसकी अधिकांश प्रकृतियाँ भारतीय शासनपरंपरा के विपरीत थीं। कर्टियस कहता है कि सिकंदर के समय वर्तमान नंद राजा का पिता वास्तव में अपनी निज की कमाई से अपनी क्षुधा न शांत कर सकनेवाला एक नाई था, जिसने अपने रूपसौंदर्य से शासन करनेवाले राजा की रानी का प्रेम प्राप्त कर राजा की भी निकटता पा ली। फिर विश्वासपूर्ण ढंग से उसने राजा का वध कर डाला, उसके बच्चों की देख-रेख के बहाने राज्य के हड़प लिया, फिर उन राजकुमारों को मार डाला तथा वर्तमान राजा को पैदा किया। यूनानी लेखकों के वर्णनों से ज्ञात होता है कि वह 'वर्तमान राजा' अग्रमस् अथवा जंड्रमस् (चंद्रमस ?) था, जिसकी पहचान धननंद से की गई है। उसका पिता महापद्मनंद था, जो कर्टियस के उपयुक्त कथन से नाई जाति का ठहरता है। किंतु कुछ पुराणग्रंथ महापद्मनंद को शैशुनाग वंश के अंतिम राजा महानंदिन का एक नाइन के गर्भ से उत्पन्न पुत्र बताते हैं। जैनग्रंथ 'परिशिष्ट पर्वन् में भी उसे वेश्या अथवा नापित का पुत्र कहा गया है। इन अनेक संदर्भों से केवल एक बात स्पष्ट होती है कि नंदवंश के राजा नाई जाति के शूद्र थे।'

नंदवंश का प्रथम और सर्वप्रसिद्ध राजा महापद्मनंद हुआ। पुराणग्रंथ उसकी गिनती शैशुनागवंश में ही करते हैं, किंतु बौद्ध और जैन अनुत्रुटियों में उसे एक नए वंश (नंदवंश) का प्रारंभकर्ता माना गया है, जो सही है। उसे जैन ग्रंथों में उग्रसेन और पुराणों में महापद्मपति भी कहा गया है। पुराणों के कलियुगराजवृत्तांतवले अंशों में उसे अतिबली, अतिलोभी, महाक्षत्रांतक और और परशुराम की संज्ञाएँ दी गई हैं। स्पष्ट है, बहुत बड़ी सेनावाले (उग्रसेन) उस राज ने (यूनानी लेखकों का कथन है कि नंदों की सेना में दो लाख पैदल, २० हजार घुड़सवार, दो हजार चार घोड़ेवाले रथ और तीन हजार हाथी थे) अपने समकालिक अनेक क्षत्रिय राजवंशों का उच्छेद कर अपने बल का प्रदर्शन किया और जनता से जबरदस्ती धन भी वसूल किया। यह आश्चर्य नहीं कि उस अपार धन और सैन्यशक्ति से उसने हिमालय और नर्मदा के बीच के सारे प्रदेशों को जीतने का उपक्रम किया। उसके जीते हुए प्रदेशें में ऐक्ष्वाकु (अयोध्या और श्रावस्ती के आसपास का कोमल राज्य), पांचाल (उत्तरपश्चिमी उत्तर प्रदेश में बरेली और रामपुर के पार्श्ववर्ती क्षेत्र), कौरव्य (इंद्रप्रस्थ, दिल्ली, कुरुक्षेत्र और थानेश्वर), काशी (वाराणसी के पार्श्ववर्ती क्षेत्र), हैहय (दक्षिणापथ में नर्मदातीर के क्षेत्र), अश्मक (गोदावरी घाटी में पौदन्य अथवा पोतन के आसपास के क्षेत्र), वीतिहोत्र (दक्षिणपथ में अश्मकों और हैहयों के क्षेत्रों में लगे हुए प्रदेश), कलिंग (उड़ीसा में वैतरणी और वराह नदी के बीच का क्षेत्र), शूरसेन (मथुर के आसपास का क्षेत्र), मिथिला (बिहार में मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिलों के बीचवाले क्षेत्र तथा नेपाल की तराई का कुछ भाग), तथा अन्य अनेक राज्य शामिल थे। हिमालय और विंध्याचल के बीच कहीं भी उसके शासनों का उल्लंघन नहीं हो सकता था। इस प्रकार उसने सारी पृथ्वी (भारत के बहुत बड़े भाग) पर 'एकराट्, होकर राज्य किया। महापद्मनंद की इन पुराणोक्त विजयों की प्रामणिकता कथासरित्सागर, खारवेल के हाथी गुफावाले अभिलेख तथा मैसूर से प्राप्त कुछ अभिलेखों के कुछ बिखरे हुए उल्लेखों से भी सिद्ध होती है।'

पुराणों में महापद्मनंद के सुमाल्य आदि आठ पुत्र उत्तराधिकारी बताए गए हैं। किंतु बौद्ध ग्रंथों (जैसे महाबोधिवंश) में वे उसके भाई कहे गए हैं। वहाँ उनके नाम मिलते हैं - (१) उग्रसेन, (२) पंडुक, (३) पंडुगति, (४) भूतपाल, (५) राष्ट्रपाल, (६) गोविषाणक, (७) दशसिद्धक, (८) कैवर्त, और (९) धन। पुराणों के सुमाल्य को बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित महापद्म के अतिरिक्त अन्य आठ नामों में किसी से मिला सकना कठिन प्रतीत होता है। किंतु सभी मिलाकर संख्या की दृष्टि से नवनंद कहे जाते थे। इसमें कोई विवाद नहीं। पुराणों में उन सबका राज्यकाल १०० वर्षों तक बताया गया है - ८८ वर्षों तक महापद्मनंद का और १२ वर्षों तक उसके पुत्रों का। किंतु एक ही व्यक्ति ८८ वर्षों तक राज्य करता रहे और उसके बाद के क्रमागत ८ राजा केवल १२ वर्षों तक ही राज्य करें, यह बुद्धिग्राह्य नहीं प्रतीत होता। सिंहली अनुश्रुतियों में नवनंदों का राज्यकाल ४० वर्षों का बताया गया है और उसे हम सही मान सकते हैं। तदनुसार नवनंदों ने लगभग ३६४ ई. पू. से ३२४ ई. पू. तक शासन किया। इतना निश्चित है कि उनमें अंतिम राजा अग्रमस् (औग्रसैन्य (?) अर्थात् उग्रसेन का पुत्र) सिकंदर के आक्रमण के समय मगधा (प्रसाई-प्राची) का सम्राट् था, जिसकी विशाल और शक्तिशाली सेनाओं के भय से यूनानी सिपाहियों ने पोरस से हुए युद्ध के बाद आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। प्लूटार्क कहता है कि चंद्रगुप्त (सैंड्राकोट्टस) मौर्य ने सिकंदर से मिलकर उसकी नीचकुलोत्पत्ति और जनता में अप्रियता की बात कही थी। संभव है, धननंद को उखाड़ फेंकने के लिए चंद्रगुप्त ने उस विदेशी आक्रमणकारी के उपयोग का भी प्रयत्न किया हो। 'महावंशटीका' से ज्ञात होता है कि अंतिम नंद कठोर शासक तथा लोभी और कृपण स्वभाव का व्यक्ति था। संभवत: इस लोभी प्रकृति के कारण ही उसे धननंद कहा गया। उसने चाणक्य का अपमान भी किया था। इसकी पुष्टि मुद्राराक्षस नाटक से होती है, जिससे ज्ञात होता है कि चाणक्य अपने पद से हटा दिया गया था। अपमानित होकर उसने नंद साम्राज्य के उन्मूलन की शपथ ली और राजकुमार चंद्रगुप्त मौर्य के सहयोग से उसे उस कार्य में सफलता मिली। उन दोनों ने उस कार्य के लिए पंजाब के क्षेत्रों से एक विशाल सेना तैयार की, जिसमें संभवत: कुछ विदेशी तत्व और लुटेरे व्यक्ति भी शामिल थे। यह भी ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने धननंद को उखाड़ फेंकने में पर्वतक (पोरस) से भी संधि की थी। उसने मगध पर दो आक्रमण किए, यह सही प्रतीत होता है, परंतु 'दिव्यावदान' की यह अनुश्रुति कि पहले उसने सीधे मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर ही धावा बोल दिया तथा असफल होकर उसे और चाणक्य को अपने प्राण बचाने के लिए वेष बनाकर भागना पड़ा, सही नहीं प्रतीत होती। उन दोनों के बीच संभवत: ३२४ ई. पू. में युद्ध हुआ, जब मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त ने मौर्यवंश का प्रारंभ किया।

नंदवंश अपनी शूद्र कुलोत्पत्ति के कारण वर्णव्यवस्थापरक भारतीय समाज में अप्रिय हो गया, इसमें कोई संदेह नहीं। नंदों की सारी प्रवृत्तियाँ ही परंपराविरुद्ध जान पड़ती हैं, तथापि उन्हें इस बात का अवश्य ही श्रेय है कि उन्होंने भारतवर्ष के राजनीतिक और शासकीय एकीकरण की प्रक्रिया को अत्यंत जोरदार रूप में आगे बढ़ाया।

सं.ग्रं. - नीलकंठ शास्त्री (संपादित) : एज ऑव दि नंदज़ ऐंड मौर्यज़; एज ऑव इंपीरियल यूनिटी (भारतीय विद्याभवन, बंबई); कैब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, जिल्द १।(वाुिद्धानंद पाठक)